Thursday, March 24, 2011

यह फर्ज हमें निभाना है...

यकीनन ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है जो यह मानते हैं कि शरीफ आदमी को पुलिस वालों से दूरी ही बना कर रखनी चाहिए। पर क्या वाकई यह धारणा उचित है? इस धारणा के वशीभूत होकर कहीं हम समाज और देश का नुकसान तो नहीं कर रहे?महाराष्ट्र के प्रगतिशील कहे जाने वाले शहर नागपुर में बीते दिनों एक इंजिनियरिंग छात्रा की दिन दहाडे हत्या कर दी गयी। मोनिका किरनापुरे नामक यह छात्रा सुबह साढे दस बजे कॉलेज के समीप पहुंची ही थी कि धारदार हथियार से वार कर उसे सडक पर ढेर कर दिया गया। अज्ञात हत्यारे अपना काम कर भाग खडे हुए। मोनिका की जिस जगह पर निर्मम हत्या की गयी वहां अच्छी खासी चहल-पहल थी। लोग आ-जा रहे थे। हथियार से घायल हुई मोनिका काफी देर तक सडक पर बिलखती और तडपती रही। लोग आते-जाते रहे। आखिरकार मोनिका ने अपने प्राण त्याग दिये। दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी। एक और हत्या में इजाफा हुआ। पुलिस वाले हत्यारों को पकडने के अभियान में जुट गये। पर जब दस दिन बीतने के बाद भी पुलिस के हाथ कोई सुराग नहीं लगा तो पुलिस पर निष्क्रियता के आरोप लगने लगे। महाराष्ट्र सरकार ने हत्यारों की जानकारी देने की ऐवज में एक लाख रुपया का ईनाम देने की घोषणा कर दी। मोनिका के माता-पिता शहर के विभिन्न नेताओं से मिले। विधायकों और मंत्रियों के दरवाजे पर पहुंच कर बेटी के हत्यारे को तुरंत पकडने की गुहार लगायी। सभी तरफ से आश्वासन मिले। बेचारे मां-बाप एवं परिवार के अन्य सदस्य उस जगह पर भी पहुंचे जहां पर उनकी दुलारी बिटिया की नृशंस हत्या कर दी गयी थी। उनका यहां पर पहुंचने का एक मकसद यह भी था कि हो सकता है किसी को उन पर दया आ जाए, उसकी सोयी हुई आत्मा जाग जाए, और वह हत्यारों का नाम-पता या और कोई खोज खबर उजागर कर दे। घटनास्थल पर पूरा परिवार फूट-फूट कर रोया। फूल अर्पित कर पूजा-अर्चना की गयी। अथाह दु:ख में डूबे मोनिका के परिजनों को विलाप करते देख पत्थर से पत्थर इंसान का दिल पसीज गया। आसपास भी‹ड बढती चली गयी। लोग दिलासा भी देते रहे कि हत्यारे जल्द पकडे जाएंगे। लोगों की सांत्वना ने मोनिका के परिजनों पर कोई असर नहीं डाला। मोनिका की मां को तडपते और सिर पटक-पटक कर रोते देख आसपास रहने वाला कोई शख्स पानी का गिलास ले आया। आंसुओं के समुंदर में डूबी मां ने पानी पीने से इंकार करते हुए अपनी भडास निकाल ही दी-'तब तुम लोग कहां थे जब मेरी बेटी यहीं पर खून से तर-बतर कराह रही थी... पानी... पानी चिल्ला रही थी पर तुम में से कोई भी उसे पानी देने के लिए नहीं आया। सब तमाशा देखते रहे!'अपनी बेटी को खो चुकी मां हत्या स्थल के निकट रहने वाले नागरिकों से खुल कर सामने आने और बेखौफ सच बताने की फरियाद करती रही। उसने यह भी कहा कि आज मेरी बेटी की हत्या हुई है और अगर आप लोग इसी तरह से चुप्पी ओढे रहे तो कल किसी और की बेटी को भी निशाना बनाया जा सकता है। नागपुर के पुलिस कमिश्नर ने भी प्रत्यक्षदर्शियों को अपनी चुप्पी तोडने की अपील की। अपराधियों के आतंक के भय से हर कोई सहमा हुआ था। अधिकांश नागरिक यह धारणा बना चुके हैं कि अराजक तत्व अक्सर पुलिस पर भारी पड जाते हैं। उनके खिलाफ गवाही देना मौत को निमंत्रण देना है। कई पुलिस वालों की गुंडे-बदमाशों से यारी भी कोई नयी बात नहीं है। मोनिका की हत्या के तेरह दिन बाद अंतत: पुलिस विभाग को जनता से यह अनुरोध करना पडा कि ई-मेल एसएमएस से हत्यारे का सुराग दें। हत्यारे को पकडने के लिए और भी कई नये तरीके अपनाये गये। जनता का मनोबल बढाया गया पर यह पंक्तियां लिखे जाने तक हत्यारों का कोई अता-पता नहीं चल पाया था। लोगों के मन में यकीनन यह बात घर कर चुकी है कि वक्त पडने पर पुलिस उन्हें सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती। हत्यारों, बलात्कारियों और तमाम अपराधियों के सामने पुलिस बौनी है। यह दुर्दशा केवल नागपुर भर की नहीं है। दिल्ली, मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, बैंगलूरू आदि...आदि तमाम महानगर इस गंभीर समस्या की गिरफ्त में हैं। सरे बाजार हत्या और बलात्कार हो जाते हैं और कोई माई का लाल सामने आकर गवाही देने की हिम्मत नहीं दिखाता। न जाने कितनी मोनिकाएं हत्यारों के हाथों खत्म कर दी जाती है और कोई सुराग नहीं मिल पाता। दरअसल हर नागरिक इस भ्रम में रहता है कि वह तो सुरक्षित है। उसके परिवार की बहू-बेटी के साथ तो ऐसा कुछ भी नहीं होगा और जब हो जाता है तो उसके पैरों तले की जमीन खिसक जाती है।नगरों-महानगरों में रहने वाले नागरिक मशीनी जीवन जीते-जीते खुद भी मशीन बनकर रह गये हैं। वे हद दर्जे के संवेदनहीन और स्वार्थी होते चले जा रहे हैं। उन्हें तो बस अपनी चमडी और दमडी की चिं‍ता रहती है। तभी तो भरे बाजार हत्याएं हो जाती हैं। बलात्कार हो जाते हैं। लोग आंखें मींचे आगे बढ जाते हैं। लोग पुलिस की चक्करबाजी से बचना चाहते हैं। दरअसल कई भुक्तभोगी निराशा और हताशा के शिकार हो चुके हैं। जिन्होंने कभी सामने आने की हिम्मत दिखायी और डटे रहे उनके अनुभव और परिणाम भी ज्यादा अच्छे नहीं रहे। उन्हें तरह-तरह की तकलीफें झेलनी पडीं। कानून भी उनका रक्षा कवच नहीं बन पाया। तय है कि यह जो हालात हैं उन्हें किसी भी सूरत में अच्छा नहीं कहा जा सकता। पर हम और आप यह क्यों भूल गये हैं कि चुप्पी, खामोशी और तटस्थता अपराधियों के हौसले बढाती है। माना कि सच की लडाई लडने में कई तकलीफें झेलनी पडी हों पुलिस और अदालत की भागदौड में पसीना बहाया गया हो पर इसका अर्थ यह तो नहीं हम गुंडे-बदमाशों को मनमानी करने की छूट दे दें और अपनी मां-बहनों की हत्याएं करने और इज्जत लूटने के लिए खुला छोड दें? पुलिसवाले भी इंसान हैं। सभी बुरे नहीं हैं, कुछ अच्छे भी तो हैं। हमें उनकी निष्ठा पर संदेह जताने का कोई अधिकार नहीं है। जो लोग देश और समाज के शत्रु हैं उनकी असली जगह जेल है। उन्हें जेल पहुंचाने का फर्ज हम सबको हर हाल में निभाना है...।

Saturday, March 12, 2011

पीडा में मुस्काओ थोडा

आज भी होली का नाम सुनते ही दिल प्रफुल्लित हो उठता है। आंखों के सामने कई-कई रंग तैरने लगते हैं। होली ही एकमात्र ऐसा त्योहार है जो लगभग हर देश में किसी न किसी रूप और नाम के साथ मनाया जाता है।हम भारतवासी तो वैसे भी उत्सव प्रेमी कहलाते हैं। हर त्योहार बडे उत्साह के साथ मनाना हमारी परंपरा का हिस्सा रहा है। पर होली की तो बात ही निराली है। इंसानों के साथ-साथ खुद प्रकृति भी इस उमंगों भरे त्योहार को मनाने के लिए लालायित रहती है। रंग-बिरंगे फूलों से महकती हवाओं में गूंजने वाला यह मधुर संदेश सहज ही सुना जा सकता है कि ऊपर वाले ने इस धरती पर हर प्राणी को गाने और मुस्कराने के लिए भेजा है। इंसान का जीवन तो वैसे भी अनमोल है। बार-बार नहीं मिलता। इसलिए जीवन में जितनी खुशियां लूट सकते हो लूट लो। निराशा और हताशा से मुक्ति पाकर मस्ती में डूब जाओ। हर शत्रुता, भेदभाव और मनमुटाव को भुलाकर दुश्मनों को भी गले लगा लो...। इसलिए तो कहा गया है कि बसंत ऋतु का यह उत्सव स्नेह, अपनत्व, उल्लास का ऐसा उत्सव है जिसकी खुमारी जीवन का वास्तविक आनंद देती है। इस सर्वसमावेशी त्योहार के मनाये जाने के पीछे हमारे पूर्वजों की मूल भावना यकीनन यही रही होगी कि समाज में अपनत्व, भाईचारा और अमन शांति बनी रहे। आपसी रिश्तों की डोर ढीली न होने पाये। पर क्या वाकई बुजुर्गों की मंशा और सीख पर अमल होता है? यह इंसान की फितरत है कि वह जिन्हें अपना आदर्श मानता है उन्हीं का अनुसरण भी करता है। पिछले दिनों युवा नेता वरुण गांधी की शादी सम्पन्न हुई। वरुण गांधी कांग्रेस पार्टी की सुप्रीमो सोनिया गांधी के परिवार के अभिन्न अंग हैं। यह बात दीगर है कि सोनिया गांधी और वरुण गांधी की मां मेनका गांधी के बीच वर्षों से मनमुटाव चला आ रहा है। शादी से पूर्व वरुण गांधी खुद अपनी ताई सोनिया को ससम्मान आमंत्रित करने गये थे। वरुण को यकीन था कि उसके भाई राहुल गांधी और बहन प्रियंका तो उसकी खुशी में हर हाल में शामिल होंगे ही। देश के असंख्य लोगों की निगाहें इस ओर लगी थीं। करोडों लोग ऐसे भी थे जो यह मानकर चल रहे थे कि मैडम सोनिया इस शादी में अवश्य परिवार सहित शिरकत कर एक महान उदाहरण पेश करेंगी। वे पूर्व में भी देश के समक्ष अपनी महानता, त्याग और दरियादिली की मिसालें पेश करती आयी हैं। पारिवारिक रंजिश तो बहुत छोटी बात होती है। बडे लोग इन रंजिशों से बहुत ऊपर होते हैं। परंतु वरुण गांधी की शादी में न सोनिया पहुंचीं और न ही राहुल और प्रियंका। सोनिया भक्त यह भी कह सकते हैं कि यह तो गांधी परिवार का आपसी मामला है। आम लोगों का इससे क्या लेना-देना...। कांग्रेसी सफाई देने के लिए स्वतंत्र हैं और लोग भी सोचने और निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हैं। सच तो यह है कि कांग्रेस सुप्रीमो के प्रति आम सजग जनों की जो विभिन्न टिप्पणियां आयीं उन्हें सकारात्मक तो कतई नहीं कहा जा सकता। वैसे भी भारतीयों के लिए शादी ब्याह भी किसी उत्सव से कम नहीं होते। जब बडों ने त्योहारों की गरिमा का ख्याल रखना बंद कर दिया है तब आम आदमी को कोसना व्यर्थ है। इसलिए तो कहते हैं कि पूर्व में मनायी जाने वाली होली और आज की होली में काफी परिवर्तन आ चुका है। पहले लोग वाकई दिल खोलकर होली खेला करते थे। ऊंच-नीच और अपने पराये की भावना को भूलकर आत्मीयता के साथ एक-दूसरे को रंगों की बौछारों में भिगो दिया जाता था। ढोल-मजीरा, नगाडे की थाप और होली के गीतों के बीच भंग की मस्ती की बात ही कुछ खास हुआ करती थी। पर अब तो होली शराब और कबाब के बिना अधूरी मानी जाती है। होली के दूसरे दिन देश के लगभग सारे अखबार खून-खराबे और पुरानी शत्रुताओं और रंजिशों को भुनाने की खबरों से भरे रहते हैं। अधिकांश अमन-प्रेमी होली के दिन घर में दुबक कर रहना पसंद करते हैं। वे बाहर निकल कर कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। महिलाओं का तो सडकों पर अकेले निकलना ही मुश्किल हो जाता है। सडकों पर या तो पुलिस वाले होते हैं या फिर ऐसे युवकों की मदहोश टोलियां जो पी-खाकर इतनी मस्तायी रहती हैं कि उन्हें किसी की बहन-बेटी की इज्जत के साथ खिलवाड करने में कोई भय नहीं लगता। देश के निरंतर बिगडते हालातों ने भी लोगों की चिं‍ताएं बढा दी हैं। गरीबी, महंगाई, बेरोजगारी तो पुरानी बातें हो गयी हैं। अब तो और भी तरह-तरह की परेशानियां हैं जिनसे देशवासी निरंतर जूझ रहे हैं।कवि वीरेंद्र मिश्र की लिखी यह पंक्तियां काबिले गौर हैं:''महानगर में रहें, या रहें गांवों में,हमने देखा है, लोग जी रहे हैं तनावों में...''त्योहार आदमी तब मना सकता है जब वह बेफिक्र हो। बेफिक्री तब आती है जब सबकुछ ठीक-ठाक चल रहा हो। पर यहां तो देश के किसान आत्महत्या कर रहे हैं। युवा अपराधों की ओर अग्रसर हैं। महिलाएं असुरक्षित हैं और राजनेताओं को देश को लूटने से फुर्सत नहीं है। फिर भी हम हिंदुस्तानी बहुत दिलवाले हैं। हमने अपना हौसला नहीं खोया है और न ही इतने निराश हैं कि त्योहार मनाना छोड दें। यह त्योहार ही तो हैं जो हमें तमाम परेशानियों को भुला देने की ताकत देते हैं। होली तो फिर होली है...युवा कवि गिरीश पंकज की कविता की कुछ पंक्तियों के साथ आप सबको होली की अनेकानेक शुभकामनाएं-जीना भी एक कला हैपीडा में मुस्काओ थोडासाफ दिखेगा तुम्हें नजारापरदे जरा उठाओ थोडाखुशियां हो जाती हैं दूनीबेशक इन्हें लुटाओ थोडाहोगा परिवर्तन भी इक दिनसोए लोग जगाओ थोडा।

Thursday, March 10, 2011

बंधे हुए हाथ

शासन और प्रशासन की मेहरबानी से शिक्षा के क्षेत्र को भी बाजार बना कर रख दिया गया है। राजनेताओं और धन्नासेठों ने जब से इस क्षेत्र में अपनी पैठ जमायी है तभी से देश को न तो ढंग के डॉक्टर मिल पा रहे हैं और न ही इंजिनियर। मां-बाप को अपनी औलादों को डॉक्टर और इंजिनियर बनाने के लिए लाखों रुपये भेंट में चढाने पडते हैं तब कहीं जाकर कॉलेज में प्रवेश मिल पाता है। गरीबों के बच्चों का डॉक्टर और इंजिनियर बनने का ख्वाब अधूरा ही रह जाता है। उनकी योग्यता धरी की धरी रह जाती है और रईसों की नालायक औलादें भी बाजी मार ले जाती हैं। देश के न जाने कितने ऐसे अस्पताल हैं जहां मोटी फीस झटकने के बाद भी अनाडी डॉक्टर मरीजों की जान ले लेते हैं और उनका बाल भी बांका नहीं हो पाता। बडे-बडे शहरों और महानगरों में ऐसे-ऐसे आलीशान अस्पताल खुल गये हैं जहां आम आदमी घुसने से भी घबराता और कतराता है। इलाज का तो सवाल ही नहीं उठता। धन्नासेठों की पूंजी से खुले फाइव स्टार और सेवन स्टार अस्पतालों में अधिकतर उन्हीं मरीजों की भीड होती है जिनकी जेबें लबालब भरी होती हैं और लाख-पचास हजार तो वे छोटी-मोटी शारीरिक जांच के नाम पर ही अर्पित करने की हैसियत रखते हैं।डॉक्टरों के साथ-साथ अधिकांश इंजिनियरों के भी यही हाल हैं। जनसेवा और देश सेवा से उनका कोई वास्ता नहीं है। सबको अंधाधुंध कमायी की पडी है और इसके लिए वे कोई भी समझौता करने को तैयार हैं। मंत्री नेता और इंजिनियर पुल बनाते हैं और कुछ ही साल में उनका जो हश्र होता है उसे हम और आप देखते रह जाते हैं। आधे से ज्यादा रकम भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाती है। मीडिया चीखता चिल्लाता है पर किसी को कोई फर्क नहीं पडता। कई बार तो ऐसा भी लगता है मीडिया भी इस सारे खेल में शामिल है। देश की विभिन्न शिक्षण संस्थाओं में पैसा बोलता है और पैसा ही चलता है यह तो खबर पुरानी है। अब जो नयी खबर आयी है वह उन माता-पिता को बेहद परेशान कर देने वाली है जो अपनी बेटियों को डॉक्टर बनाने का सपना संजोये रहते हैं। जबलपुर के नेताजी सुभाषचंद्र बोस मेडिकल कॉलेज में डॉक्टरी की पढाई कर रही युवतियों को परीक्षा में उत्तीर्ण होने के लिए देहभोगियों के बिस्तर की शोभा बनने को विवश किया जाता रहा है। यह कोई ऐसी-वैसी खबर नहीं है जिसे पढ कर यूं ही भुला दिया जाए। डॉक्टर बन देश और समाज की सेवा करने का सपना देखने वाली युवतियों को यौन शोषण का शिकार होना पडे तो इससे बडी शर्मनाक बात और क्या हो सकती है। जिन युवतियों को भविष्य में समाज को रोगमुक्त करना है उन्हीं को हमारे और आपके बीच रहने वाले भेडि‍ये देह से ज्यादा कुछ नहीं समझते। इसलिए वे उन्हें 'रोगी' बनाकर रख देना चाहते हैं। उनकी मंशा है कि सारी नारी बिरादरी देह के चक्र में उलझ कर रह जाए। उनके लिए वेश्याओं और मेडिकल छात्राओं में कोई फर्क नहीं। युवक-युवतियों को डॉक्टर बनाने वाले देश भर में और भी सैकडों मेडिकल कॉलेज हैं। संयोग से अभी भंडाफोड एक ही कॉलेज का हुआ है और जो सच्चाई बाहर आयी है वह तो यही बता रही है कि पास होने के लिए जहां युवकों को धन देना पडता है वहीं छात्राओं को भोगियों के साथ शारीरिक संबंध बनाने की पीडा से गुजरना पडता है। यह शर्मनाक हकीकत पर्दे में ही सिमटी रह जाती अगर एक मेडिकल छात्रा ने मुंह न खोला होता। ध्यान रहे कि मुंह तभी खुलता है जब बर्दाश्त करने की ताकत खत्म हो जाती है। कोई भी भारतीय लडकी इस तरह के आरोप लगाने से पहले हजार बार सोचती है क्योंकि वह जानती है कि हमारा समाज किस मिट्टी का बना हुआ है। यहां तो बलात्कार की शिकार हुई लडकियों को ही शंका की निगाह से देखा जाता है। यह कितनी शर्म की बात है कि भावी लेडी डॉक्टरों को शरीर नुचवाने के लिए मजबूर करने वालों में पुरुष ही नहीं महिलाएं भी शामिल हैं। पुरुषों में कॉलेज के उपकुलसचिव, परीक्षा नियंत्रक, छात्र नेता और विभिन्न दलालों के नाम हैं तो महिलाएं भी पढी-लिखी और इज्जतदार घरानों से ताल्लुक रखती हैं। लगता है पढे-लिखे और इज्जतदार लोगों को भी ऐसे धतकर्म रास आने लगे हैं। हैरान और परेशान कर देने वाली बात तो यह भी है कि एक नामी मेडिकल कॉलेज में पास करवाने के बदले अस्मत लूटने का दुष्चक्र वर्षों तक चलता रहता है और प्रशासन की आंख तभी खुलती है जब एक युवती अपनी इज्जत को दावपर लगाकर शोर मचाती है कि मेडिकल कॉलेज नरपशुओं के चंगुल में फंस चुका है। यह नरपशु इतने वहशी और कमीने हैं कि इन्हें अपनी बेटी और पोती की उम्र की लडकियों के साथ बिस्तरबाजी करने में शर्म नहीं आती। ऐसा तो हो नहीं सकता कि कॉलेज के सभी शिक्षक देहखोर हों। बुरों के बीच कहीं न कहीं अच्छे लोग भी होते हैं पर इन अच्छों की अच्छाई तब बेहद आहत करती है जब वे जानबूझकर आंखें मूंदे रहते हैं। इस हैरतअंगेज तथ्य को भी कैसे नजर अंदाज कर दें कि जैसे ही भावी लेडी डॉक्टरों की लाज लूटने का मामला सामने आया तो समाज के कुछ ठेकेदार जिसमें मंत्री और नेता शामिल हैं, अस्मत के लुटेरों को बचाने के लिए अपनी आवाजें बुलंद करने लगे। जिनसे हम समाज की गंदगी दूर करने की उम्मीद रखते हैं वही खुद कितने गंदे और ओछे हैं उसका खुलासा भी हो गया है। सच तो यह है कि अगर इन देह शोषकों पर नेताओं और मंत्रियों की कृपा दृष्टि न होती तो वे इतनी घिनौनी हरकत को अंजाम ही नहीं दे पाते। इस तरह के नालायक और पथभ्रष्ट जनप्रतिनिधि भी तो हम और आप ही चुनते हैं ऐसे में अगर यह कहा जाए कि यह सब हमारी ही करनी का फल है तो किसी को बुरा नहीं मानना चाहिए।जब मैं यह पंक्तियां लिख रहा था तब मेरे सामने महिला दिवस के रंग में रंगे ढेरों अखबार पडे थे। दिमाग में बार-बार यह सवाल सिर उठाता रहा कि जिस देश में शिक्षा के मंदिरों में युवतियों को अपनी अस्मत अर्पित करने को विवश कर दिया जाता हो वहां पर चंद महिलाओं की विकास गाथा के गीत गाने के आखिर क्या मायने हो सकते हैं? असली सच तो यह है कि देश की बेटियों की इज्जत लुट रही है और सजा देने वाले हाथ बंधे हुए हैं...।

Thursday, March 3, 2011

कहां से आएगा सच्चा नायक?

रिश्वत लेने और देने वाले पहले से ज्यादा चालाक हो गये हैं। नोटों की गड्डियां मुसीबत खडी कर सकती हैं इसलिए शातिर और चालाक लोगों ने इस परंपरा को निभाने के लिए नये-नये तौर तरीके ईजाद कर लिये हैं। अभी हाल ही में नालको के चेयरमैन सह प्रबंध निदेशक को सोने की ईटे लेते पकडा गया है। देने वाले का भी पता चल गया है पर उसे फौरन सलाखों के पीछे नहीं भेजा जा सका। हमारे यहां यही सबसे बडी बुराई भी है और कमजोरी भी। रिश्वत देने वाले को वो सजा नहीं दी जाती जिसका वह हकदार होता है। देने वाले न हों तो लेने वालों के पैदा होने का सवाल ही नहीं उठता। अपना काम निकालने के लिए नौकरशाहों को भ्रष्ट करना व्यापारियों और उद्योगपतियों का जाना-पहचाना धंधा है। ये धंधेबाज सोने और चांदी की ईटों की खैरात बांटकर मंत्रियों और अफसरों को खरीदते-खरीदते न जाने कितनी सफलता (?) की सीढिं‍यां चढ जाते हैं। इनमें से कुछ टाटा, बिडला, अंबानी बन पूरे देश को अपनी उंगलियों पर नचाते हैं और खून-पसीने की कमायी खाने वाले इन्हें देखते ही रह जाते हैं। यह ऐसी दास्तां है जिसका कोई ओर-छोर नहीं है। हदें पार हो चुकी हैं इसलिए हाहाकार मचा है जो बहुत दूर तक सुनायी दे रहा है। कल तो जो सच्चाई पर्दे में कैद थी आज पूरी तरह से बाहर आ गयी है। लोग जान गये हैं कि वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था में देश का किसी भी हालत में भला नहीं हो सकता। भला सिर्फ उन्हीं का होगा जिनके हाथ में सत्ता है या फिर जो सत्ता को खरीदने की ताकत रखते हैं। देश की विधानसभाओं और संसद में भ्रष्टाचारियों का ही वर्चस्व है। अधिकांश विधायक और सांसद देश को लूटने की फिराक में लगे रहते हैं। उनके पास उनके लिए भी वक्त नहीं जिन्होंने इन पर आस्था जताकर लोकतंत्र के मंदिर तक पहुंचाया। जिन्होंने मंदिरों की पवित्रता नष्ट कर दी है क्या उन्हें दंड नहीं मिलना चाहिए...? कौन इन्हें दंडित करेगा? आज यह सवाल सभी देशप्रेमियों के दिल और दिमाग में हलचल मचाये हुए है। देश को किसी सच्चे नायक की तलाश है। पर अफसोस! सवा सौ करोड की आबादी वाले देश में आज एक भी सच्चा नायक नहीं मिल रहा है। दरअसल जिस रफ्तार से नायक खलनायक बनते चले गये उसी के चलते अब भारतवासी किसी पर आसानी से यकीन करने को तैयार नहीं हैं।देश को अपने चंगुल में ले चुके सर्वव्यापी भ्रष्टाचार के खिलाफ योग गुरु बाबा रामदेव ने ताल ठोक दी है। उनके साथ समाज सेवक अन्ना हजारे, भाजपा के कारतूस रामजेठमलानी, किरण बेदी, सुब्रम्हण्यम स्वामी, गोविं‍दाचार्य, स्वामी अग्निवेश, कवि हरिओम पवार जैसे लडाकू चेहरे भी खडे नजर आ रहे हैं। बीते सप्ताह देश की राजधानी दिल्ली स्थित रामलीला मैदान में बाबा ने ऐलान किया कि 'हम योग भी सिखाएंगे और भ्रष्टाचार को भी मिटाएंगे। विदेशों में जमा किया काला धन वापस लाया जाएगा। यही नहीं, देश के बच्चों को राजनीति व भ्रष्टाचार रोकने की शिक्षा भी दी जाएगी।' कांग्रेस पर खुल कर निशाना साधते बाबा के विचारों से हर कोई सहमत है पर घूम-फिर कर बात वहीं पर आ जाती है कि क्या देश की तमाम जनता इस बडबोले योगी पर विश्वास करने को तैयार है? कहा जा रहा है कि राजनीति में आने की छटपटाहट में योग गुरु बाबा रामदेव आज हर वह पैंतरा अपना और आजमा रहे हैं जो राजनीति और सत्ता का भूखा व्यक्ति अपनाता है। राजनीति के धुरंधरों का यह भी मानना है कि बाबा को अपने बारे बहुत बडी गलतफहमी हो गयी है। वे यह भूल गये हैं कि लोग उनके पास योग सीखने और निरोगी रहने के गुर जानने के लिए आते हैं। बाबा अपने योग कार्यक्रमों में एकत्रित होने वाली अपार भीड को देख हवा में उड रहे हैं और उन्हें लगने लगा है कि यह भीड उन्हें एक राजनेता के रूप में भी स्वीकार करने को आतुर है।बाबा रामदेव खुद को साधु-संन्यासी कहते नहीं थकते। पर वे यह भी भूल गये हैं कि राजनीति संत का पेशा नहीं है। योग की दुकान से सत्ता के गलियारों में अपनी पैठ जमाने की तीव्र लालसा पाले बाबा के विरोध में जहां बहुतेरे लोग ख‹डे नजर आते हैं वही उनके पक्षधरों की भी कमी नहीं है। अच्छी-खासी पूंजीपतियों की जमात उनके साथ है। कुछ मीडिया दिग्गज भी प्रचारक और प्रायोजक की भूमिका में हैं। सत्ता की चाशनी किसे अच्छी नहीं लगती। इसके लिए अच्छे-अच्छों को भटकते देखा गया है। मुझे यह पंक्तियां लिखते वक्त साध्वी उमा भारती की याद आ रही है। वे जब धार्मिक प्रवचन करती थीं तब लाखों-करोडों की चहेती थीं पर राजनीति ने उनका जो हश्र किया वो किसी से छिपा नहीं है। उमा भारती को भी यह भ्रम हो गया था कि उनके प्रवचन सुनने के लिए जो हजारों-लाखों की भीड जुटती है वह उन्हें एक राजनेता के रूप में भी सहर्ष स्वीकार कर लेगी। वे भारतीय जनता पार्टी से जुड गयीं। एक लहर थी जिसने साध्वी की नैया पार भी लगा दी। वे मध्यप्रदेश की मुख्यमंत्री भी बनीं पर राजनीति के खिलाडि‍यों ने उनके ऐसे होश ठिकाने लगाये कि वे कहीं की नहीं रहीं। आज की तारीख में साध्वी यहां से वहां भटक रही हैं और उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। राजनीति और सत्ता की भूख ने उनकी छवि को इस कदर धूमिल करके रख दिया है कि इस जन्म में तो कहीं कोई सुधार की गुंजाइश ही नहीं दिखती। बाबा रामदेव के इरादे नेक हो सकते हैं पर उनके इर्द-गिर्द खडे नजर आने वाले कुछ चेहरे पूरी तरह से स्वच्छ नहीं हैं। जेठमलानी जैसे सत्ता लोलुपों ने जब भाजपा को कहीं का नहीं छोडा तो बाबा कहां दिखेंगे राम ही जानें...। कहा तो यह भी जा रहा है कि बाबा तो पूरी तरह से भारतीय जनता पार्टी के मोहरे हैं? इस पार्टी ने सत्ता तक पहुंचने के लिए जिस तरह से कभी साध्वी उमा भारती, ऋतंभरा और अन्य कई साधु-संतों को आगे कर वोट हथियाये थे वैसे ही बाबा को आगे खडा कर फिर से केंद्र की सत्ता पाने के सपने देखने शुरू कर दिये हैं। अगर यह सच है तो बाबा रामदेव और भाजपा के सपने धरे के धरे रह जाने वाले हैं क्योंकि इस देश की जागरूक जनता अब और अधिक धोखे खाने को तैयार नहीं है...।