Thursday, November 28, 2013

भेडीये होंगे बेनकाब

विचारों की आंधी कहीं थमने का नाम नहीं लेती। सोचो तो सोचते ही रह जाओ। आखिर यह क्या हो रहा है? कैसे-कैसे मंजर सामने आ रहे हैं! यह तो सरासर रिश्तो का कत्ल है। हत्यारे कोई और नहीं, अपने ही हैं। अपनी इकलौती बेटी आरुषि की निर्मम हत्या के आरोप में पिता डॉ. राजेश तलवार और मां डॉ. नूपुर को उम्रकैद की सजा सुनाये जाने की खबर सुनते ही देश के लाखों लोग हतप्रभ रह गये। एक पत्नी ने अपने पति का साथ देकर पतिव्रता का तो धर्म निभाया, लेकिन मातृत्व के धर्म को भूल गयी! इस डरावने सच ने न जाने कितने संवेदनशील भारतवासियों को आहत कर डाला। मां-बाप और बच्चों के बीच के रिश्ते में तो अपार मिठास होती है। हर बेटी अपने पिता के बेहद करीब होती है। जन्मदाता का दुलार, प्यार और वात्सल्य उसकी जडों को सींचता, संवारता और संस्कारित करता है। लगता है आरुषि इस मामले में बदकिस्मत थी। उसे भटके और बहके हुए मां-बाप मिले। जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था मौजमस्ती... भोग विलास। अपनी बेटी की अच्छी परवरिश के लिए उनके पास वक्त ही नहीं था। उसे सहेलियों, नौकरों और इंटरनेट की अश्लील दुनिया के हवाले कर दिया गया। नौकर ने माता-पिता की कमजोरी भांप ली। नादान १४ वर्षीय आरुषि उसके जाल में फंस गयी। मदहोश मां-बाप को भनक भी नहीं लगी। १५-१६ मई २००८ के रात बारह से एक बजे के बीच जब डॉ. राजेश तलवार ने अचानक अपनी मासूम बेटी को उम्रदराज नौकर हेमराज के साथ हमबिस्तर देखा तो उनका खून खौल उठा। गुस्से से भरे पिता ने पहले तो बेटी और नौकर के सिर पर गोल्फ स्टिक मारी, फिर बाद में सर्जिकल ब्लेड से दोनों का गला काट दिया। यह पूरी मार-काट मां की आंखों के सामने हुई। दोनों ने मिलकर आरुषि के कपडे ठीक किए और सारे सबूत मिटाये। कानून ने पुख्ता सबूतों के आधार पर अपना काम कर दिया है। कई लोग ऐसे हैं जिन्हें यह सज़ा रास नहीं आयी। वे तो यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि कोई मां-बाप अपनी ही बेटी को मौत के घाट उतार सकते हैं। कत्ल तो नौकर का भी हुआ पर उसकी मौत का किसी को कोई मलाल नहीं।
दरअसल यह ऑनर किलिं‍ग है। इज्जत के नाम पर हरियाणा और उत्तरप्रदेश में प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्याओं का बेखौफ होकर इतिहास रचने वालों की राह पर चलते हुए ही आरुषि और हेमराज की हत्या को अंजाम दिया गया। बेटे-बेटियों को जिन्दा जमीन में गाढने और फंदे पर लटकाने के फरमान सुनाने वाली खाफ पंचायतों को एक पढे-लिखे मां-बाप ने भी अपना आदर्श मानने में संकोच नहीं दिखाया। यह सच्चाई हिलाने और रुलाने वाली तो ही है, कई सवाल भी खडे करती है। यह किसी प्रेमी-प्रेमिका का मामला नहीं है। यह तो एक मौकापरस्त नौकर की दगाबाजी की जीती-जागती तस्वीर है। यहां तो बेटी के भटकाव की असली वजह खुद मां-बाप ही हैं जिन्होंने बेटी को जन्म तो दिया, पर उसकी देखभाल नहीं कर पाये। अपनी बेटी को विश्वासघाती नौकर के साथ आपत्तिजनक हालत में देखकर उन्होंने आपा खो दिया। यकीनन नशे में रहे होंगे। होश में होते तो बेटी को समझाते। नौकर को सजा देने के लिए कानून का सहारा लेते। एकाएक आवेश में आकर ऐसे दोहरे हत्याकांड को अंजाम न देते जो आत्मीय रिश्तों को शर्मसार कर उनके परखचे ही उडा देता। हेमराज तो एक अनपढ, अहसानफरामोश नौकर था जिसने अपने मालिक से दगाबाजी की। तहलका के सम्पादक तरुण तेजपाल ने एक नामी शख्सियत होते हुए भी जो कुकर्म किया है क्या वह किसी भी तरह के बचाव और माफी के लायक है? इसमें कोई शक नहीं कि तरुण तेजपाल खोजी पत्रकारिता के नायक रहे हैं। उन्होंने अपने खुफिया कैमरो से कई नेताओं, खिलाडि‍यों और सत्ता के दलालों को बेनकाब किया। उनकी उपलब्धियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इन उपलब्धियों के ऐवज में उन्हें दुराचार करने की खुली छूट तो नहीं दी जा सकती। शराबी पत्रकार-सम्पादक ने अपनी सहयोगी पत्रकार की आबरू लूटने का जो घोर दुष्कर्म किया है उससे उनकी सारी की सारी महानता गर्त में समा गयी है। वे किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं बचे हैं। सौदेबाज सम्पादक तेजपाल ने जिस युवती का यौन उत्पीडन किया वह उनके मित्र की बेटी है और उनकी बेटी की परम सहेली है। यानी यहां भी रिश्ते का कत्ल और घोर विश्वासघात! जिसकी सुरक्षा की जानी चाहिए थी, तेजपाल उसी की अस्मत लूटने पर उतारू हो गये। एक काबिल सम्पादक का यह कैसा व्याभिचारी रूप है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इधर-उधर मुंह मारना इस लम्पट की फितरत है। पत्रकारिता का तो महज उसने नकाब ओढ रखा था, जिसकी बदौलत उसने उत्तरप्रदेश के कुख्यात कारोबारी पोंटी चड्डा जैसों के साथ विभिन्न धंधो में साझेदारी की और अरबों की माया जमायी। उसकी बेटी ने भी स्वीकार किया है उसने अपने पिता को तब किसी नवयौवना के साथ रंगरेलियां मनाते देखा था जब वह मात्र तेरह साल की थी। अपनी ही बेटी के सामने बेनकाब हो चुके तेजपाल प्रगतिशील पत्रकार कहलाते हैं। उनकी लीक और सीख पर चलने वालों की भी खासी तादाद है। अपनी बेटी की उम्र की लडकी को अपनी अंधी वासना का शिकार बनाने वाले खोजी सम्पादक की हर तरफ थू...थू हो रही है। ऐसे में कवि मुकेश कुमार मिश्र की कविता काबिलेगौर है:
कि इस शहर का
एक भेडि‍या प्रायश्चित कर रहा है...
कुछ लोग उसके साहस की
प्रशंसा कर रहे हैं...
कुछ लोग इन्टर्नल
बताकर मामले को दबा रहे हैं
कुछ लोग सेकुलर ढंग से
इस मुद्दे को सुलझा रहे हैं...
क्यों????
क्योंकि भेडि‍या 'लाल' है
क्यों????
क्योंकि भेडि‍या भेदिये का काम कर
'किसी को' तख्त दिलायेगा...
लेकिन भेडि‍या
लाल भेडि‍या
खूनी दरिंदा भेडि‍या
नहीं जानता कि
अब भेडि‍ये भीड में भी पहचाने जाएंगे
अपनी मांद से बाहर निकाले जायेंगे
कि भेडि‍या नहीं जानता कि
अपनी खाल बचाने के लिए जिस 'खोल'
को उसने ओढ रखा है...
अब जनता चुन-चुन कर
उन एक-एक धागों को तार-तार करेगी
अब इन लाल भेडि‍यों को बेनकाब करेगी...।

Thursday, November 21, 2013

भाई-भतीजावाद की राजनीति

यह अपना देश हिन्दुस्तान ही है, जहां असंतुष्ट और बेचैन आत्माओं की लम्बी कतारें लगी हैं। शोर मचता है, काम होता नहीं। दरअसल देश कई संकटों से जूझ रहा है। चरित्र के चित्र धुंधला गये हैं। आदर्शों का बडा टोटा है। महात्मा गांधी की इस धरा पर ईमानदार और चरित्रवान नेताओं की कमी के चर्चे सरहदें पार कर चुके हैं। युवाओं को दूर-दूर तक ऐसा कोई नेता नजर नहीं आता जिसके पदचिन्हों पर गर्व के साथ चला जा सके। वाकई युवा पीढी असमंजस में है। उसे कुछ सुझता ही नहीं। ऐसे में उन्हें फिल्मी सितारे और क्रिकेटर ही अपने असली नायक प्रतीत होते हैं।
राजनेताओं को यह बात बडी खलती है। उन्हें पहले सी इज्जत मिलनी बंद हो गयी है। जिसे देखो वही दुत्कारने वाली निगाह से देखने लगा है। मीडिया और दूसरे क्षेत्रों के दिग्गजों के भी कुछ ऐसे ही हाल हैं। तहलका के सम्पादक तरुण तेजपाल एक युवती के यौन शोषण के चलते कटघरे में हैं। ऊंची-ऊंची झाडने और इस-उस का स्टिंग आप्रेशन कर खुद को पत्रकारिता का एकमात्र चरित्रवान महारथी बताने वाले तरुण के चेहरे का सारे का सारा चरित्र और 'तेज' गायब हो गया है। यह कोई इकलौता मामला नहीं है। राजनेताओं के साथ गठबंधन कर माल बनाने वाले पत्रकारिता के कई दलाल बेनकाब हो चुके हैं। सबकी कलई खुल चुकी है। फिर भी जहां देखो वहां पुरस्कार पाने, दिलाने और हथियाने की होड मची है। देश और दुनिया के जाने-माने क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर और प्रोफेसर सी.एन.राव को भारतरत्न घोषित करने के बाद देश के इस सर्वोच्च सम्मान पर सियासत करने वालो के झुंड भी नजर आने लगे हैं। किसी ने कहा कि इसके असली हकदार तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हैं, तो किसी-किसी ने हाकी के जादूगर ध्यानचंद, तो कुछ ने और भी अपने मनचाहे नामों की वकालत कर डाली। जदयू नेता शिवानंद को सचिन को भारतरत्न देने के फैसले ने जैसे आग-बबूला कर दिया। उन्होंने फरमाया कि मेरी समझ में नहीं आ रहा कि ध्यानचंद को नजरअंदाज कर सचिन को भारतरत्न क्यों दिया गया। ध्यानचंद ने जब देश का मान बढाया तब उन्हें खास सुविधाएं नहीं मिलती थीं। सचिन मुफ्त में तो नहीं खेलते। उन्हें खेलने के ऐवज में करोडों रुपये मिलते हैं। नेताजी से कोई यह तो पूछे कि क्या आप लोग फोकट में राजनीति करते हो। क्या आपकी बिरादरी थैलियां नहीं समेटती? इसमें दो मत नहीं हो सकते कि अटल बिहारी वाजपेयी भारतरत्न के बेहद काबिल अधिकारी हैं। उनकी आदर्श छवि ने करोडों देशवासियों का दिल जीता है। वे बेहतरीन प्रधानमंत्री थे। इसके साथ ही वे ऐसे निर्विवाद आदर्श चरित्रधारी हैं जिनसे युवा वर्ग प्रेरणा लेता आया है और लेता रहेगा। इस महापुरुष को तो भारतरत्न के सम्मान से नवाजने में किसी किस्म की राजनीति नही की जानी चाहिए थी। पर अपने देश में तो हर मामले में राजनीति होती है। चरित्रवान और ईमानदार चेहरों की जानबूझकर अनदेखी की जाती है।
दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में यह जरूरी भी नहीं कि हर राजनेता हर किसी की पहली पसंद हो। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी पर उंगली उठाने वाले कम ही मिलेंगे। जिस उदार मन से उन्होंने राजनीति का सफर तय किया उसका कोई सानी नहीं है। सभी पुरस्कारों पर एक ही परिवार का तो एकाधिकार क्यों है, इस सवाल का जवाब भी देशवासी चाहते हैं।
अटल जी की तरह सचिन ने करोडों लोगों के दिलों में अमिट छाप छोडी है। २४ साल के अपने क्रिकेट करियर में सचिन ने ऐसे-ऐसे कीर्तिमान रचे कि युवा तो युवा देश का हर वर्ग उनका दिवाना हो गया। सचिन की ऐतिहासिक सफलता की कहानी से हर कोई सबक ले सकता है। सफलता के शिखर पर पहुंचने के बाद भी अहंकार उन्हें छू भी नहीं पाया। सचिन ने तारीफों के साथ-साथ आलोचनाओं की बौछारे भी झेलीं। तब भी वे कभी विचलित नहीं हुए। उनका उत्साह और आत्मविश्वास सतत बना रहा। सचिन ने इस तथ्य को और भी पुख्ता कर दिया है कि कडी मेहनत और अटूट लगन की बदौलत कुछ भी हासिल किया जा सकता है। सिर्फ सपने देखने से कुछ हासिल नहीं होता। जो परिश्रम करता है वह अपनी मनचाही मंजिल तक पहुंचता ही है। सचिन तेंदुलकर को उनकी कर्तव्यनिष्ठा, विनम्रता और सौम्यता का जो पुरस्कार मिला है, उससे सबक लेने की जरूरत है न कि आलोचना करने की। जो लोग यह सोचते हैं कि सचिन देश के इस सर्वोच्च सम्मान के काबिल नहीं हैं, उनके बारे में कुछ भी कहना और लिखना व्यर्थ है। सभी को अपनी बात कहने की आजादी है। इस आजादी का मनचाहा दुरुपयोग करने वाले भी ढेरों हैं। इस देश के लोकतंत्र की कमान राजनेताओं के हाथ में है। वही पूरी व्यवस्था चलाते हैं। देश को चलाने वालो की नीयत में अगर खोट नहीं होता तो राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी को तो कब का भारतरत्न के सम्मान से नवाजा जा चुका होता। दरअसल, राम मनोहर लोहिया को तो खुद समाजवादियों ने ही भूला दिया। उन्होंने लोहिया के सच्चे अनुयायी होने को नगाडा बजाकर सत्ता का तो भरपूर सुख भोगा पर अपने आदर्श (?) को भारतरत्न देने की पुरजोर मांग कभी भी नहीं उठायी। चाहे मुलायम हों, लालू हों या फिर नीतीश, सबके सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। जिस तरह से कांग्रेसियों ने महात्मा गांधी के नाम का सिक्का भुनाया उसी तरह का रास्ता तथाकथित लोहियावादियों ने अपनाया। रहा सवाल हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को भारतरत्न देने का तो हमारे यहां क्रिकेटरों को जो सम्मान और नाम मिलता है, हाकी के खिलाडि‍यो को नहीं मिल पाता। क्रिकेटरों को तो भगवान बना दिया गया है और बाकी किसी भी खेल के धुरंधर की कभी कोई परवाह ही नहीं की जाती। यह परिपाटी तभी टूटेगी जब इस देश की आम जनता जागेगी।

Thursday, November 14, 2013

बचकानी और घटिया बयानबाजी

नेता डरे हुए हैं। चुनाव सिर पर हैं। बेचारों की नींद गायब है। प्रचार करना भी जरूरी है। घर से बाहर निकले बिना काम नहीं चलने वाला। जीत-हार की चिं‍ता तो अपनी जगह है। जबसे मोदी की रैली में बम फटे हैं, तभी से उन्हें अपनी जान भी खतरे में नजर आने लगी है। आतंकियों के बमों की सलामी झेलने के बाद नरेंद्र मोदी की पार्टी भी दहशत की गिरफ्त में है। भाजपा की तरफ से मोदी को वैसी ही सुरक्षा व्यवस्था उपलब्ध करवाये जाने की मांग की गयी है जैसी कि देश के प्रधानमंत्री को मिलती है। मोदी छोटी-मोटी हस्ती नहीं हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री तो हैं ही, भाजपा के भावी पीएम भी हैं। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिं‍दे ने इस मांग पर पानी फेर दिया है। गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिं‍ह ने तो अजब-गजब तर्क देकर लोगों को चौंका दिया है। उनका कहना है कि राजग सरकार की ढीली-सुरक्षा व्यवस्था के कारण ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को अपनी कुर्बानी देनी पडी थी। मंत्री हैं तो पढे-लिखे फिर भी पुराने जख्मों को कुरेदने से बाज नहीं आते। यह तो एक तरह से बदला लेने की सोच है। नरेंद्र मोदी की पटना में हुई हुंकार रैली में जिस तरह से आतंकियो ने बमों के धमाके किये और निर्दोषों को मौत के हवाले किया, उसे कोई छोटी-मोटी घटना तो नहीं कहा जा सकता। यह तो मोदी की किस्मत अच्छी थी, जो वे बच गये। असली निशाना वही तो थे। आतंकियों का देशभर में अशांति फैलाने का इरादा था। वैसे भी मोदी वर्षों से आतंकियों के निशाने पर हैं। जब इस सच का सबको पता है तो उनकी सुरक्षा व्यवस्था में किसी भी तरह की कमी और कोताही क्यों? देश पहले भी सुरक्षा के अभाव में दो पूर्व प्रधानमंत्रियों को खो चुका है। निर्दोष नागरिकों के मौत के मुंह में समाने और उनके हताहत होने का आंकडा भी हजारों में है। जो नेता मजाकबाजी में लगे हैं उन्हें होशो-हवास में आना चाहिए। यह मज़ाक का वक्त नहीं है। कांग्रेस के ही एक और नेता हैं राज बब्बर। यह महाशय कभी समाजवादी पार्टी में हुआ करते थे। खुद को मुलायम सिं‍ह का हनुमान बताया करते थे। इन्हें समाजवाद पर बडे-बडे भाषण झाडते भी अक्सर देखा जाता था। तब ये कांग्रेस की नीतियों का मज़ाक उडाने वालों में अग्रणी थे। इन्हें कांग्रेस और कांग्रेसी भ्रष्टाचार की जीती-जागती मूरत नज़र आते थे। पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिं‍ह के खासमखास (तब के) अमर सिं‍ह की वजह से उन्हें समाजवादी पार्टी छोडनी पडी। राज बब्बर का कहना था कि अमर सिं‍ह सत्ता का दलाल हैं। उन जैसा भ्रष्टाचारी देश में आज तक पैदा नहीं हुआ। मुलायम सिं‍ह इस भ्रष्टाचारी के इशारों पर नाचते हैं। किसी दूसरे की सुनते ही नहीं। ऐसे में उनके पास समाजवादी पार्टी को त्यागने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था। कभी कांग्रेस को पानी पी-पीकर कोसने वाले अभिनेता-नेता ने कांग्रेस का दामन थामने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उन्होंने कांग्रेस के गढ में डेरा जमाकर बैठे भ्रष्टाचारी दिखायी ही नहीं दिये। तब से लेकर अब तक वही हाल है। उनकी इसी होशियारी के चलते ही कांग्रेस ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। उन्हें फौरन लोकसभा के चुनाव की टिकट भी दे दी गयी। चुनाव जीतने के बाद तो उन्होंने हवा में उडना शुरु कर दिया। कांग्रेस को ही देश की भाग्य निर्माता और एकमात्र ईमानदार पार्टी बताने के अभियान में जुट गये। जो काम कभी समाजवादी पार्टी के लिए करते थे, अब कांग्रेस के लिए करने लगे। इसी पलटबाजी की कला की बदौलत ही राज बब्बर राजनीति में खूंटे गाढने में सफल हुए हैं। जिन फिल्मवालों के पास यह हुनर नहीं था वे अपने-अपने काम धंधों में लग गये हैं। गोविं‍दा और धर्मेन्द्र इसकी जीवंत मिसाल हैं।
घाट-घाट का पानी पी चुके राज बब्बर कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी और पार्टी के भावी पीएम राहुल गांधी की गुडबुक में आने के लिए कोई भी मौका नहीं चूकना चाहते। देशवासियों को याद होंगे उनके यह बोल वचन कि मुंबई में बारह रुपये में भरपेट खाना मिल जाता है। जबकि इस मायानगरी में इतने रुपयों में तो हल्का-फुल्का नाश्ता भी नहीं मिलता। मोदी को प्रधानमंत्री के समकक्ष सुरक्षा मुहैया कराये जाने की मांग के जवाब में उनका यह कहना उनकी ओछी मानसिकता को दर्शाता है- चाहे कसाब हो या मोदी, सरकार तो सभी को सुरक्षा देती है। क्या यह एक कुंठाग्रस्त नेता की घटिया सोच नहीं है? दरअसल, बचकानी और घटिया बयानबाजी करने वाले ऐसे नेताओं ने ही देश का कबाडा करके रख दिया। इन्होंने यदि भारत माता की आत्मा को पहचाना होता, मुसलमानों को महज वोट बैंक नहीं समझा होता, युवकों को शिक्षा और रोजगार दिलाने में अपनी आधी भी ऊर्जा लगा दी होती, भ्रष्टाचार को पनपने ही न दिया होता, अपराधियों को शह नहीं दी होती और आदिवासियों को अनदेखी न की होती तो आज किसी भी राजनेता पर इस तरह से खतरे के बादल न मंडराते। यह मतलब परस्त राजनेता तो अपने ही देश को सुरक्षित और व्यवस्थित नहीं रख पाए। ऐसे में दुश्मनों की हिम्मत तो बढनी ही थी। पाकिस्तान इस देश के हुक्मरानों, राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं की रग-रग से वाकिफ हो गया है। उसने इनकी औकात जान और पहचान ली है। इसलिए वह बेखौफ होकर आतंकवादियों को हिं‍दुस्तान भेजता है और वे बडी आसानी से अपना काम कर जाते हैं। इस देश को चलाने वाले यदि होश में आ जाएं तो किसी बाहरी और अंदरूनी ताकत में दम नहीं कि वह बम-बारूद बिछाने की हिम्मत कर सके।

Sunday, November 10, 2013

तारीफ करना मना है...

भारत रत्न लता मंगेशकर। कौन है जो इस नाम से वाकिफ नहीं। अपनी मधुर आवाज़ के जादू से सम्मोहित कर लेने वाली लताजी के प्रशंसको की संख्या का अनुमान लगा पाना बेहद मुश्किल है। वर्षों बीत गये...उनका जादू और सम्मोहन जस का तस है। जिसने भी उनके गाये गीत सुने, वह उनका हमेशा-हमेशा के लिए मुरीद हो गया। स्वर कोकिला लता मंगेशकर राज्यसभा की मनोनीत सदस्य भी रह चुकी हैं। हर दिल अज़ीज़ लता दीदी का कभी भी किन्हीं विवादों से कोई लेना-देना नहीं रहा। अपने संगीत की सृष्टि में मगन रहने वाली इस महानतम हस्ती ने बीते सप्ताह एक कार्यक्रम के दौरान अपनी चाहत उजागर कर दी: 'मेरी ही नहीं पूरे देश की इच्छा है कि नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनें।' इस देश के संविधान ने हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है। इसे छीनने और इस पर प्रहार करने का किसी को कोई हक नहीं है। लताजी की इस हार्दिक इच्छा ने कई राजनीतिबाजों के तन-बदन में आग लगा दी। उनकी तल्ख वाणी का एक ही अभिप्राय है कि जानी-मानी हस्तियों को अपनी पसंद जाहिर करने का कोई हक नहीं है। कांग्रेस और उसकी साथी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस ने तो लताजी को इशारों ही इशारों में यह कह डाला कि आपने नरेंद्र मोदी की तारीफ कर उस पार्टी के साथ अहसान फरामोशी की है जिसने आपको राज्यसभा की मनोनीत सदस्य बना कर सम्मानित किया था।
दरअसल, करोडो-करोडों संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाली लता मंगेशकर तो कला और संगीत की पुजारी हैं। उन्हे अगर राजनीति और राजनेताओं की असली फितरत का पता होता तो वे राज्यसभा की दहलीज पर कदम रखने की सोचती ही नहीं। उन्हें क्या पता था कि उन्हें जीवनभर उन सत्ता के खिलाडि‍यों की शान में कसीदे पढने होंगे जिन्हें वे नापसंद करती हैं। लेकिन सियासत और राजनीति का यही दस्तूर है। जिन्हें राज्यसभा के इनाम से नवाजा जाता है उनसे जीवनभर 'वफादारी' की ही उम्मीद की जाती है। देश की लगभग सभी बडी राजनीतिक पार्टियां उद्योगपतियों, पत्रकारों, लेखकों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और स्थापित कलाकारों को राज्यसभा की सदस्यता से नवाजती ही इसलिए हैं कि उनके गुणगान के ढोल बजते रहें। जब से देश आजाद हुआ है तभी से यह परंपरा चली आ रही है। उद्योगपतियों और व्यापारियों के द्वारा राजनीतिक दलों को थैलियां पहुंचाने और फायदा उठाने का चलन तो आम है। पत्रकारों, सम्पादकों आदि...आदि को राज्यसभा की माला पहनाने के पीछे राजनीतिक पार्टियों का बहुत बडा स्वार्थ छिपा होता है। अच्छे खासे विद्धानों और कलमकारों को तोता बनाकर राजनीति की ओछी शाब्दिक जंग में झोंक दिया जाता है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को तोते पालने का कुछ ज्यादा ही शौक है। मजबूरी भी है। वर्तमान में जहां कांग्रेस के पास विजय दर्डा और राजीव शुक्ला जैसे 'ढोलकीनुमा' राज्यसभा सांसद हैं तो भाजपा के पास बलबीर पुंज, तरुण विजय और चंदन मित्रा जैसों की भरमार रही है, जो अपनी पार्टी की जय-जयकार करते नहीं थकते। लोकमत ग्रुप के कर्ताधर्ता, राज्यसभा सांसद विजय दर्डा ने बीते वर्ष नरेंद्र मोदी की शान में कुछ मधुर तराने गाये थे, जो कांग्रेस को कतई रास नहीं आये थे। खूब हो-हल्ला मचा था। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करने के आरोप भी इस हवा-हवाई अखबार मालिक पर लगे थे। दर्डा पत्रकार होने के साथ-साथ व्यापारी भी हैं। सौदेबाजी में माहिर हैं। इसलिए बात आयी-गयी हो गयी। यहां अपने पाठक मित्रों को यह याद दिलाना भी जरूरी है कि विश्व विख्यात अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन ने जब मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी के अयोग्य बताया था तो भाजपा के अहसानों तले दबे नामी पत्रकार चंदन मित्रा ने उनसे भारतरत्न वापस लेने की मांग कर दी थी। वैसे यह अच्छी बात है कि कांग्रेस के किसी बडबोले सेवक ने लता मंगेशकर को भारत रत्न लौटाने का फतवा जारी नहीं किया।
पत्रकारिता के कई धुरंधर बडी दूर की सोचकर राजनीति में आते हैं। इन्हें अपने कर्तव्यों और दायित्वों का अच्छा-खासा ज्ञान होता है। यह लोग अपने अखबारों और न्यूज चैनलों में अपनी पार्टी की यशगाथा को ही प्राथमिकता देते हैं। अपने पालनहारों के दाग-धब्बों को धोने की भी इनकी जिम्मेदारी होती है। इसके ऐवज में इन्हें कोयला, पत्थर, रेत, लोहा और तरह-तरह के खनिज पदार्थ खाने-पचाने को मिलते रहते हैं। शादीशुदा अभिनेता धर्मेंद्र से ब्याह रचाने वाली हेमा मालिनी और रेखा जैसी बदनाम नायिकाएं भी राज्यसभा में पहुंचने में कामयाब हो जाती हैं। इनकी एकमात्र योग्यता होती है आकर्षण और भीड जुटाने की क्षमता। इस देश की राजनीतिक पार्टियां विख्यातों के साथ-साथ कुख्यातों को भी भरपूर दाना डालती हैं। दस्यू सुंदरी फूलन देवी और हत्यारे शहाबुदीन जैसों को लोकसभा की चुनावी टिकट देकर अपनी अक्ल के दिवालियापन का सबूत पेश करने वाले दलों के मुखियाओ से जब इस बाबत सवाल किया जाता है तो वे बडी बेशर्मी के साथ कहते हैं कि जिनमें चुनाव जीतने की क्षमता होती है उन्हीं को मैदान में उतारा जाता है।
राजनीति पार्टियों की इसी सोच की वजह से ही खूंखार हत्यारे, डकैत, माफिया और राष्ट्रद्रोही चेहरे भी संसद की गरिमा पर बट्टा लगाते चले आ रहे हैं। देश के किसी भी दल को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। मीडिया भी जब उन्हें आईना दिखाने की कोशिश करता है तो वे भडक उठते हैं। उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाने लगती है। कांग्रेस इन दिनों न्यूज चैनलो से खफा है। अधिकांश न्यूज चैनलों के चुनावी सर्वेक्षण उसकी लुटिया डूबने का दावा कर रहे हैं। इसलिए देश की सबसे पुरानी पार्टी ने ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाने की मांग कर डाली है। भाजपा गदगद है। चुनावी सर्वेक्षण उसके पक्ष में जो हैं। उसने कांग्रेस पर निशाना साधा है कि कांग्रेस मीडिया के काम में दखलअंदाजी कर रही है। एक लोकतांत्रिक देश में ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाना पूरी तरह से नाजायज़ है। वैसे यह भी सच है कि यदि न्यूज चैनल वाले भाजपा को पिटता हुआ बता रहे होते तो उसके भी तेवर बिलकुल वैसे ही होते हैं जैसे कांग्रेस के हैं...। इस देश की हर पार्टी कपटी और ढोंगियों से भरी पडी है जिन्हें आलोचना, विरोध और सच तो किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं होता। इन्हें वो चेहरे तो अपने जन्मजात दुश्मन लगते हैं जो इनके कट्टर और दमदार विरोधियों की तारीफ करने का साहस दिखाते हैं।