Thursday, September 30, 2021

पैसा फेंको, तमाशा देखो

    वो साधु थे। सभी को उपदेश देते थे। भागो नहीं, लड़ो। हर मुश्किल का डटकर सामना करो। भागोगे तो भगौड़े कहलाओगे। लोग थू...थू करेंगे। कहेंगे, कायर था। शक्तिशाली होने का दिखावा कर रहा था। उसके अंदर तो जान ही नहीं थी। एकदम खोखला था। बस लोगों को बेवकूफ बनाता रहा। अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद के अध्यक्ष महंत नरेंद्र गिरि महाराज अपने भक्तों, अनुयायियों, श्रोताओं और साथियों को यही तो कहते और समझाते थे, लेकिन वे खुद ही फांसी के फंदे पर झूल गये! उनके आठ पेज के सुसाइट नोट ने उन्हें ही कमजोर साबित कर दिया। जब मैदान में लड़ने की बारी आयी तो पीठ दिखाकर भाग खड़े हुए। सदा-सदा के लिए दुनिया से मुंह मोड़ लिया। किसी भी प्रभावी साधु-संत, प्रवचनकर्ता उपदेशक का इस तरह से धरा का त्याग करके चले जाना सवाल तो खड़े करता ही है। महंत नरेंद्र गिरि की आत्महत्या की खबर सुनते ही मुझे तुरंत आधुनिक संत भय्यू महाराज की याद हो आयी, जिन्होंने कुछ वर्ष पूर्व खुद को गोली मारकर खत्म कर दिया था।
    भय्यू महाराज एक अच्छे प्रभावी उपदेशक थे। खासा मान-सम्मान था। मीडिया में अक्सर छाये रहते थे। आम लोगों के साथ-साथ खास लोग भी उनके भक्त थे। देश के कई राजनेताओं से उनके करीबी रिश्ते थे। नेता और समाजसेवक उन्हें अपने मंचों पर आदर के साथ बिठाते थे। उनकी सलाह ली जाती थी। अनुसरण भी किया जाता था। उनका पहनावा आम साधुओं वाला नहीं था। कभी कुर्ता-पायजामा, कभी जींस, टी-शर्ट तो कभी पैंट कोट में किसी फिल्मी सितारे की तरह चमक बिखेरते नजर आते थे। जब वे प्रवचन देते तो लगता था कि उन्होंने धर्मग्रंथों में अपना दिमाग खपाया है। उनमें परंपरागत साधु-संतों की सभी खूबियां विद्यमान हैं।
    उनके पास धन-दौलत भी बेहिसाब थी। संतई के आकाश में चमकते इस प्रतिभावान चेहरे को भौतिक सुखों से भी बेहद लगाव था। महंगी-महंगी कारों में सफर करने और आलीशान बंगलों में रहने का शौक था। उन्होंने अचानक जब आत्महत्या कर ली तो हर किसी को वैसी ही हैरानी हुई थी, जैसी महंत नरेंद्र गिरि की खुदकुशी पर हुई। महंत की संदिग्ध मौत ने भी कई सवाल खड़े किये। जो भगवाधारी करोड़ों लोगों का सम्मान पाता रहा। जिसके दरबार में सत्ताधीश नतमस्तक होते रहे वही अंतत: भय्यू महाराज की तरह बदनाम होने के भय से इस दुनिया से ही हमेशा-हमेशा के लिए विदा हो गया! उनके साथ भी नारी के जुड़ाव की खबरें उछलीं। भय्यू महाराज तो रसिक प्रवृत्ति के थे ही, लेकिन नरेंद्र गिरि को कभी भी भटकते नहीं देखा गया। आरोप लगाने वाले तो किसी को भी नहीं छोड़ते, लेकिन सभी खुदकुशी तो नहीं कर लेते। नरेंद्र गिरि तो नकली साधुओं के खिलाफ मोर्चा खोल चुके थे। उन्हें संतों की भीड़ में मंडराते असंतों की पहचान करनी थी, लेकिन वे भी भय्यू महाराज की तरह अपने आसपास के चेहरों को पहचान नहीं पाये और रेशमी ब्लैकमेलिंग के डर से भाग खड़े हुए।
    सोच कर ही हैरानी होती है कि कोई अपराधी किसी संत पर औरतबाज और व्याभिचारी होने का आरोप जड़े और संत की रातों की नींद ही उड़ जाए! भय्यू महाराज और नरेंद्र गिरि के सफेद और भगवा लिबास पर किन्हीं शातिर ब्लैकमेलरों ने कीचड़ क्या फेंका कि उन्होंने वो कीचड़ सने गंदे वस्त्र उतार फेंकने की बजाय अपनी देह को ही निर्जीव कर दिया। जैसे देह ही सारे कष्टों की वजह हो। उन्होेंने खुदकुशी करने से पहले यह भी नहीं सोचा कि इससे उनकी वर्षों की तपस्या और प्रतिष्ठा की भी मौत होने जा रही है। उन पर कहीं न कहीं कायर और भगौड़े का भी ठप्पा लगने जा रहा है। जब सच्चे संत ही आरोपों और लांछनों का जवाब देने से घबरायेंगे... कतरायेंगे तो उन्हें कटघरे में तो खड़ा किया ही जाएगा। कौन नहीं जानता कि अपने हिंदुस्तान में अधिकांश धार्मिक स्थल अपराध और अपराधियों की शरणस्थली के लिए भी कुख्यात हैं। साधुओं के भेष में कई असाधु, चोर-उचक्के विभिन्न तीर्थ स्थलों पर पहुंच चुके हैं, जिन्हें भीड़ में पहचानना भी मुश्किल हो रहा है। कुख्यात डकैत, हत्यारे, बलात्कारी भी केसरिया वस्त्र धारण कर किस तरह से लोगों की आंखों में धूल झोंक रहे हैं, इसका जीता-जागता उदाहरण है डकैत शिवकुमार उर्फ ददुआ, जिसने खुद रहस्योद्घाटन किया था कि बरसात के दिनों में वह चित्रकूट में भगवा वस्त्र धारण कर महीनों बड़े आराम से छुपा रहता था। कोई भी उसे पहचान नहीं पाता था। अभी हाल ही में लेखक ने अखबारों में खबर पढ़ी है कि अयोध्या में एक ऐसे खूंखार अपराधी को पुलिस ने दबोचा है, जिसकी उसे वर्षों से तलाश थी। पुलिस यह जानकर हतप्रभ थी कि भगवान राम की जन्मभूमि अयोध्या में वह ‘महंत’ का ताज पहने बड़े मज़े कर रहा था। उसके कई अनुयायी भी थे, जो उसके सच्चे संत होने के धुआंधार प्रचार में लगे हुए थे।
विभिन्न धार्मिक नगरियों में महंत और महामंडलेश्वर बनना बड़ा आसान है। पैसा फेंको और तमाशा देखो। चरित्र से कोई लेना-देना नहीं। कुछ वर्ष पूर्व नोएडा के एक अरबपति शराब कारोबारी सचिन दत्ता को महामंडलेश्वर की पदवी से नवाजा गया था। बड़ा शोर मचा था। शराब के काले धंधे से मालामाल हुए सचिन दत्ता का धर्म से कोई जुड़ाव नहीं था। दूसरों को नशे में डुबोने वाला खुद भी हर नशे का गुलाम था। महामंडलेश्वर बनना भी उसके शौक और नशे का हिस्सा था। धर्म भी उसके लिए धंधा था और इस नये धंधे की बदौलत वह शराब तथा अपने अन्य अवैध धंधों का विस्तार करना चाहता था। उसे मान-सम्मान की भी बेइंतिहा भूख थी, जो उसे शराब के काले धंधे से हासिल नहीं हो पा रही थी। उसने कई संदिग्ध चेहरों को संत का चोला ओढ़कर अपना सिक्का जमाते और मालामाल होते देखा था। उसको पता चल गया था कि धर्म-कर्म में भी बहुत बड़ा व्यापार है और यहां अथाह धन के भंडार भरे पड़े हैं, जो किसी का भी ईमान डिगा सकते हैं। उसे वो भीड़ भी ललचाती थी, जो किसी भी भगवाधारी के चरणों में गिरकर खुद को खुशकिस्मत मानती है।

Thursday, September 23, 2021

अमन लायब्रेरी

    जीते जी तो नहीं, मरने के बाद मेरे मित्र अमन का सपना पूरा हो गया। अभी-अभी मैं उसके घर से लौटा हूं। अमन के उम्रदराज पिता ने बाकायदा सभी मित्रों को निमंत्रण-पत्रिका भी भिजवायी थी, जिसमें अमन के सपने का उल्लेख था। अमन मेरा सबसे प्रिय दोस्त था। हमराज था। सुख-दु:ख का पक्का साथी था। भले ही उम्र में वह मुझसे काफी छोटा था। हम दोनों काफी समय एक साथ बिताते थे। एक-दूसरे से कुछ भी नहीं छुपाते थे। पिछले साल बहुतों की तरह कोरोना ने उसे भी अंतिम यात्रा पर भेज दिया। अमन ने अपनी मेहनत के दम पर चंद वर्षों में करोड़ों रुपये कमाये थे। प्रापर्टी और थोक कपड़े के व्यापार में उसका खासा नाम था। सफल व्यापारी होने के बावजूद भी वह बेहद भावुक इंसान था। धन से ज्यादा उसकी नज़र में रिश्तों का मान था। दोस्त भी उसके लिए रिश्तेदार से कम न थे। उसने अपने ही चचेरे भाइयों से विषैला धोखा खाया था। अपनी ही जायदाद के लिए महीनों कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटे थे। जीत आखिर सच की ही हुई थी...।
    अपने दस हजार वर्गफुट के पुराने घर को ढहाकर आलीशान बंगला बनाना प्रारंभ कर दिया था उसने। उसकी एक खासियत और भी थी, गीत-गजलों और कविताओं का बेहद दिवाना था। पुरानी फिल्में देखने का भी उसे जबरदस्त शौक था। हिन्दी के विख्यात गजलकार दुष्यंत कुमार के गजल संग्रह ‘साये में धूप’ तथा मुनव्वर राणा की कालजयी कृति ‘मां’ की सैकड़ों प्रतियां दोस्तों तथा रिश्तेदारों को उपहार स्वरूप अर्पित करने वाला अमन चालीस साल की आयु में अस्सी साल के विविध खट्टे-मीठे अनुभवों को अपने अंदर समेट चुका था। यह सब हुआ था उन किताबों और पत्रिकाओं की बदौलत, जिन्हें पढ़े बिना उसे चैन नहीं आता था। लोग त्योहारों के अवसर पर नये-नये कपड़े खरीदते हैं, वह नये-पुराने लेखकों की किताबे खरीद कर आनंदित होता था। बड़े से बड़े पढ़ाकू साहित्यकार के यहां आने वाली साहित्यिक पत्रिकाओं से ज्यादा पत्रिकाएं डाक से अमन के घर के पते पर आती थीं। वह इनका नियमित पाठक और सहृदयी शुल्कदाता था। कला मंच, व्हाट्सएप्प ग्रुप से जुड़े मित्र उसकी शेरो-शायरी तथा साहित्य की गहरी समझ से विस्मित रहते थे। अक्सर वे सोचा करते थे कि इतना व्यस्त रहने वाला कारोबारी गीत-गज़लों तथा उपन्यासों को पढ़ने के लिए समय कैसे निकालता होगा। वह वाकई किसी पहेली से कम नहीं था। अमन सिर्फ नाम का ही अमन नहीं था। वह जब धर्म-कर्म के नाम पर लोगों को एक दूसरे पर टूटते देखता तो बिखर कर रह जाता था। शहर के अनाथालयों में गुप्तदान देने और वृद्धाश्रमों में समय-समय पर जाकर सहायता का हाथ बढ़ाने तथा असहाय स्त्री-पुरुषों का आशीर्वाद लेना वह कभी नहीं भूलता था। नये बंगले में उसने अपनी खास प्रायवेट लायब्रेरी बनवानी प्रारंभ कर दी थी। वह अक्सर मुझसे कहता कि अपनी घरेलू लायब्रेरी का उद्घाटन आपसे करवाऊंगा और सभी मित्र छुट्टी के दिनों में गज़लों कविताओं, शेरो-शायरी के रस सागर में डूबने का आनंद लेंगे। कोविड-19 का आतंक जब सभी को डराने लगा था और मौतों की झड़ी लगने लगी थी, तब वह सभी दोस्तों को सतर्क और सुरक्षित रहने के सलाह देता नहीं थकता था, लेकिन किसे पता था कि दूसरों की चिंता-फिक्र करने वाला अमन खुद कोरोना के नुकीले पंजों में ऐसा फंसेगा कि हफ्तों अस्पताल में भर्ती रहने के बाद भी बच नहीं पायेगा। रिश्तेदार, दोस्त, सभी चाहने वाले रोते-बिलखते रह जायेंगे।
    उसकी मौत की खबर मेरे लिए अत्यंत असहनीय थी। कई दिनों तक मैं गम में डूबा रहा था। अमन की मोती-सी चमकती आंखें और मुस्कुराता चेहरा आज भी तब मेरे सामने था, जब उसके पिता के साथ खड़ा मैं आलीशान बंगले के विस्तृत बरामदे से जुड़े कमरे में बनी लायब्रेरी के उद्घाटन का फीता काट रहा था। मेरी आंखें दो चेहरों पर जमी थीं। पैंसठ वर्षीय अमन के पिता, जिन्होंने अपने बेटे के सपने को साकार करने के लिए किसी उत्सव की तरह पूरे घर को सजाया था। उनकी आंखों में ठहरे आंसुओं को देखकर मेरी आंखे बार-बार नम हो रही थीं। नये बने बंगले का विशाल बरामदा पीपल के सूखे पत्तों से पटा था, जिन्हें अब कभी भी हरा नहीं होना था। फिर भी बेटे के सपने को एक पिता ने साकार कर दिखाया था। अमन के पिताश्री ने हम सभी का परिचय चाय की ट्रे लिए घूमती उस युवती से करवाया, जिससे उनका दुलारा शादी करने वाला था, लेकिन किस्मत दगा दे गयी। पैंतीस-छत्तीस साल की डॉक्टर रागिनी के बारे में हम सबने खबर पड़ी थी... कि कैसे उसने मौत के कगार पर झूलते एक गंभीर कोरोना मरीज को अपने मुंह से कृत्रिम सांस देकर बचाया था। बाद में वह खुद भी कोरोना की शिकार हो कई दिनों तक बिस्तर पर पड़ी रही थी। लायब्रेरी का उद्घाटन सम्पन्न होने के बाद जब सभी मेहमान चले गये थे, तब बुजुर्ग पिता ने मुझे यह भी बताया था कि डॉ. रागिनी उनकी बेटी से भी बढ़कर है। जिस दिन अमन ने अंतिम सांस ली, तब भी वह उसके साथ थी। उन्होंने कई बार उसे अपने घर लौट जाने को कहा, लेकिन वह नहीं मानी। बस यही कहती है, आपको अकेला नहीं छोड़ सकती। इस बेटी ने तो मेरे अंदर नई आशा और ऊर्जा भर दी है। अब तो मैं अमन के फैलाये बड़े कारोबार को धीरे-धीरे समेटने में लगा हूं और मेरी दिली तमन्ना है कि रागिनी की शादी किसी अच्छे नौजवान से हो जाए, जो इसे हर तरह से खुश रख सके। रागिनी के लिए कोई सर्वगुण संपन्न युवक देखने के उनके अनुरोध के जवाब में मैंने कहा था कि रागिनी तो काफी समझदार है। वह अपना जीवनसाथी खुद तलाश कर लेगी। तो उनका जवाब था कि वह तो अब शादी ही नहीं करना चाहती, लेकिन मुझे हर हाल में पिता होने का फर्ज निभाना है। क्या पता कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए। मैंने तो अपनी और बेटे की सारी जायदाद इसके नाम कर दी है। मेरे यह पूछने पर कि दोनों ने समय रहते शादी क्यों नहीं की तो उनका कहना था कि दोनों पिछले दस वर्ष से एक-दूसरे के प्यार में गिरफ्तार तो थे, लेकिन अमन को अपने व्यापार में तो रागिनी को अपने अस्पताल से फुर्सत ही नहीं थी। मैं चिन्तित रहता था। अमन की मां भी कब की स्वर्गवासी हो चुकी है। आखिरकार मैंने ही पिछले साल उनके परिणय सूत्र में बंधने की तारीख पक्की कर दी थी, लेकिन कोविड-19 ने अपनी मनमानी और अनहोनी कर दी।
    ‘‘अमन ही जब इस दुनिया में नहीं रहा तो इस लायब्रेरी के अब क्या मायने हैं?’’ मेरे इस सवाल का जवाब देने के लिए उन्हें ज्यादा सोचना नहीं पड़ा था।
    ‘‘यह लायब्रेरी अब उसके सभी दोस्तों और सभी पुस्तक प्रेमियों के लिए हमेशा खुली रहेगी। किताबें पड़ते युवा चेहरों में मैं अपने अमन को देखूंगा। मैंने लायब्रेरी में आने-जाने के लिए अलग रास्ता भी बना दिया है, जिसकी जब इच्छा हो यहां आ सकता है...।’’ मैं जब से उनसे मिलकर लौटा हूं तब से डॉ. रागिनी के बारे में सोच रहा हूं। ताज्जुब... आज भी ऐसे प्रेमी और प्रेमिकाएं जिन्दा हैं, जिन्हें कब का किताबों में कैद किया जा चुका है। आते वक्त मैं खुद से प्रश्न कर रहा था। अमन ने इतनी बड़ी बात मुझसे क्यों छुपाये रखी? वह तो हमेशा डॉ. रागिनी को अपनी अच्छी दोस्त भर बताता था...। अब कुछ और सवाल भी मुझे भटकाये हैं। इस अद्भुत रिश्ते पर मैं लम्बी कहानी लिखना चाहता हूं। पिछले चार घण्टों में बीस-पच्चीस पन्ने लिख-लिख कर फाड़ चुका हूं। कहानी की शुरूआत ही नहीं हो पा रही है। पहले तो ऐसा कभी नहीं हुआ? जब भी लिखने बैठा दिमाग से तेज कलम दौड़ती रही। आज कलम रेंग ही नहीं रही!

Thursday, September 16, 2021

फूट डालो, राज करो

    पटना से नई दिल्ली जा रही तेजस राजधानी एक्सप्रेस में अजीब तमाशा चल रहा था। तमाशेबाज थे बिहार के विधायक गोपाल मंडल। तेज रफ्तार से दौड़ती रेलगाड़ी में जब सभी यात्री सोने की तैयारी में थे, तब पता नहीं उन्हें क्या सूझी कि उन्होंने अपने कपड़े उतार फेंके। अखाड़े के पहलवान की तरह चड्डी-बनियान में वे कंपार्टमेंट से कंपार्टमेंट का सैर-सपाटा करने लगे। उनकी नंग-धड़ंग घुमायी को देखकर सहयात्री हैरान-परेशान हो गये। महिलाओं ने शर्म से अपनी नज़रें इधर-उधर टिकानी प्रारंभ कर दीं। फिर भी घंटों विधायक के अश्लील दीदार होते रहे। काफी देर बाद भी जब उनका रेल गाड़ी में बदमाशों की तरह टहलना बंद नहीं हुआ तो पुरुष सहयात्रियों ने उन्हें कम अज़ कम गमछा या टावेल लपेट लेने को कहा, तो वे भूखे शेर की तरह गुर्राते हुए बदतमीजी पर उतर आए, ‘यह रेलगाड़ी तुम लोगों के बाप की नहीं, जो मुझे रोक-टोक रहे हो। फिर मैं कोई आम इंसान नहीं, विधायक हूं। वो भी उस पार्टी का, जिसका बिहार में शासन चल रहा है।’ सत्ता के नशे में चूर विधायक ने शराब भी जम कर पी रखी थी। उसकी डगमगाती चाल और बेकाबू जुबान बता रही थी कि वह जनप्रतिनिधि होने के काबिल बिलकुल नहीं है। बाहुबल, जात-पात और धनबल के दम पर यह दंभी और ओछा शख्स विधायक बनने में कामयाब तो हो गया है, लेकिन इंसानियत इससे कोसों दूर है। ये जनप्रतिनिधि खुद को सर्वशक्तिमान माने है और दूसरों को कीड़ा-मकोड़ा। जिसे लोगों के साथ उठने-बैठने और व्यवहार करने का सलीका नहीं पता वो अपने क्षेत्र की उस जनता के खाक काम आता होगा, जिसने इसे अपना कीमती वोट दिया है। सारी रात सहयात्रियों को अपनी नंगाई दिखाने और उन्हें गोली से उड़ा देने की धमकी देने वाले घटिया विधायक के खिलाफ थाने में रिपोर्ट तो दर्ज करवा दी गयी है, लेकिन सभी जानते हैं कि उसका बाल भी बांका नहीं होने वाला।
    सरकारी संपत्ति को अपने बाप-दादा, परदादा की जागीर समझने और खुलेआम हेकड़ी दिखाने की गुंडे बदमाशों वाली गंदगी और भी कई राजनेताओं के खून में समायी हुई है। देशभर के दलितों के खैरख्वाह होने का दावा करने और सिर्फ और सिर्फ मंत्री की कुर्सी के लिए जीवनपर्यंत पगलाये रहने वाले स्वर्गीय राम विलास पासवान के सांसद बेटे चिराग पासवान को भी घमंड हो गया है कि वह दलितों और शोषितों का एकमात्र मसीहा है। यह हकीकत दीगर है कि वह अपने बाप के नाम की बैसाखी पकड़ कर राजनीति के मैदान में कूदने-फादने के लायक बन पाया है। सभी को पता है कि देश की राजधानी में नेताओं को उतने समय तक सरकारी बंगला दिया जाता है, जब तक कि वे सांसद रहते हैं। चुनाव में पिट जाने अथवा निधन के पश्चात उस बंगले पर उनका या उसके परिजनों का कोई हक नहीं रहता, लेकिन अहंकारी और मंदबुद्धि वाले चिराग तो खुद को दूसरों से ऊंचा मानते हैं तभी तो अपने पिता केंद्रीय मंत्री राम विलास पासवान के गुजर जाने के बाद भी 12, जनपथ बंगले पर खूंटा गाड़ कर जमे हुए हैं। हद तो ये भी कि बंगले को अपने पिताश्री के नाम का स्मारक बनाने के लिए उन्होंने ‘राम विलास पासवान स्मृति’ बोर्ड तक टांग दिया है। उनका कहना है कि उनके पिताश्री इस देश के महान राजनेता थे, इसलिए उनके नाम को अमर रखने के लिए ही उन्होंने बोर्ड लगाने का करिश्मा किया है। यानी चिराग बाबू को पता था कि सरकार तो यह महान काम करने से रही इसलिए उन्होंने ही यह ‘पुण्य’ कर दिखाया! लेकिन उन्हें यह नहीं पता कि जबरन अपनों की याद में ‘स्मृतिभवन’ अपनी ही जमीन पर बनाये जाते हैं। सरकारी जमीन पर नहीं।
    येन-केन-प्रकारेण सरकारी बंगलों को हथियाने की ऐसी  कलाकारियां हिंदुस्तान में ही दिखायी जाती हैं। विदेशों में तो मंत्री, सांसद, विधायक अपना कार्यकाल समाप्त होते ही सरकारी बंगले खाली कर चलते बनते हैं, लेकिन यहां एक बार सांसद, मंत्री बन क्या जाते हैं कि सरकारी जमीनों को कब्जाने और हथियाने में दिमाग खपाने लगते हैं। देश के प्रदेश झारखंड में भारतीय जनता पार्टी के विधायकों ने विधानसभा के प्रांगण में गले में जयश्री राम लिखा अंगवस्त्र पहनकर हनुमान चालीसा का पाठ किया। विधानसभा भवन में इस पूजा-पाठ की वजह बनी सरकार की मुस्लिम तुष्टिकरण की चालाकी, जिससे वशीभूत होकर विधानसभा में नमाज अदा करने के लिए एक अलग कमरा निर्धारित कर दिया गया। विधानसभा तो जनहित के लिए चिंतन-मनन करने और कानून बनाने के लिए है, लेकिन झारखंड की सरकार ने लोकतंत्र के मंदिर में मुसलमान विधायकों को नमाज के लिए अलग कमरा आवंटित कर पाखंडी राजनेताओं की असली नीयत और मंशा उजागर कर दी है। पूजा, अर्चना और नमाज के लिए देश में मंदिरों और मस्जिदों की कोई कमी नहीं है। यदि प्रदेश की सरकार को अपने विधायकों, मंत्रियों, संत्रियों के पूजा-पाठ की इतनी ही चिन्ता-फिक्र थी तो अन्य सभी को भी खुले मन से कमरे आवंटित कर देती, जिससे झमेला और हंगामा तो नहीं होता, लेकिन सत्ताधीशों को ऐसे खेल खेलने में मज़ा आता है। लोगों के बीच उन्माद फैलाये बिना उन्हें खुद के नेता होने की अनुभूति ही नहीं होती। जहां मौका पाते हैं, वहीं मजहबी दीवारें खड़ी करने की साजिशें करने लगते हैं, ताकि देशवासी बंटे रहें। एक-दूसरे से लड़ते-झगड़ते रहें। कट्टरता पनपती रहे। खून-खराबा होता रहे। लाशें बिछती रहें और इनके वोटों की फसल पकती रहे...।

Thursday, September 9, 2021

गंगा-जमुना महिला गृह उद्योग

    शहर के बदनाम गंगा-जमुना इलाके में एक बहुत पुराना-सा हवेलीनुमा मकान। ढहने और बिखरने को आतुर पुरानी ईंटो की थकी हुई दीवारें। कुछ दिन पहले तक इस विशाल कोठे में रौनक की रोशनी थी। आज सन्नाटा, अंधेरा और ठहरापन है, जो किसी को भी खौफज़दा कर सकता है। पंद्रह कमरों वाले इस कोठे के तेरह कमरों के दरवाजों पर ताले जड़े जा चुके हैं। वेश्याएं यानी वारांगनाएं खाली कर इधर-उधर जा चुकी हैं। मजबूरन अपने वर्षों के ठिकाने को छोड़कर जा चुकी वारांगनाओं का यहां से पीठ करके जाने का बिलकुल मन नहीं था। अब इस कोठे में चार वारांगनाएं बची हैं। इनमें से एक बीस वर्षीय युवती है, जिसे कुछ महीने पूर्व ही अपने प्रेमी की दगाबाजी के चलते जिस्म बेचने के धंधे को अपनाना पड़ा है। इन चारों का यहां से रुखसत होने का कोई इरादा नहीं, लेकिन जो हालात हैं, वो शायद ही इन्हें यहां चैन से टिकने दें। चारों अपने-अपने भविष्य को लेकर बीते बीस दिनों से माथापच्ची कर रही हैं। कोठे की मालकिन कल्याणी अस्सी वर्ष की हो चुकी है। चारों का भविष्य अनुभवी, उम्रदराज कोठे की मालकिन कल्याणी के निर्णय पर टिका है। वे हमेशा कल्याणी की हर बात मानती आयी हैं। कल्याणी भी उन्हें अपनी संतान से कम नहीं चाहती। कल्याणी की एक सगी बेटी और जवान बेटा कोविड-19 की भेंट चढ़ चुके हैं। लॉकडाउन में भले ही ग्राहक कम आते थे, लेकिन भूखे सोने की नौबत नहीं आती थी, लेकिन अब तो कभी चूल्हा जलता है, कभी नहीं। जबसे गंगा-जमुना में आने वाले रसिकों का रास्ता रोकने के लिए पुलिस का पहरा लगा है और बेरीकेट्स लगाये गये हैं, तब से कल्याणी गहरे सदमें में है। उसने अपने बेटी-बेटे को सदा-सदा के लिए खोने के गम को तो किसी तरह से बर्दाश्त कर लिया, लेकिन देहमंडी की सैकड़ों वेश्याओं पर आये जानलेवा संकट की चिंता और तकलीफ उसे दिन-रात खाये जा रही है। उसने कई दिनों से किसी से बातचीत नहीं की है। बस चुपचाप खटिया पर लेटी पता नहीं क्या-क्या सोचती-विचारती रहती है।
    सुबह से दोपहर होने को है। युवती ने सुबह बड़ी मुश्किल से उसे चाय पीने को राजी किया था। खाना तो पता नहीं उसने कितने दिनों से नहीं खाया। ऐसे में चारों ने भी बिना खाये रहना सीख लिया है। गंगा-जमुना रोड पर दोनों तरफ कच्चे-पक्के मकानों की लंबी कतारें हैं, जिनमें कुछ वेश्याएं ही अभी तक टिकी हुई हैं। पुलिस की तीखी निगाहें हर पल इनकी लाल ईंटों वाले घरों पर गढ़ी रहती हैं। उनके होते कोई ग्राहक तो आने से रहा। बेरोजगारी और भूख अब लगभग हर छोटी-बड़ी वेश्या का मुकद्दर है, क्योंकि इस बदनाम बस्ती के वजूद के खात्मे के लिए शासन-प्रशासन ने पूरी तरह से कमर कस ली है। तब की बात अलग थी, जब लगभग ढाई सौ वर्ष पहले इस बस्ती का उत्कर्ष काल था। इतिहास के पन्ने बताते हैं कि देहमंडी से पहले यहां पर भोसले राजा की घुड़साल थी। भोसले राज नागपुर से लेकर मध्यभारत, झारखंड और उड़ीसा तक फैला था। थके-हारे सैनिक जब यहां आते थे, तो घुड़साल के निकट आराम फरमाते थे। उनके मन बहलाने के लिए कई राज्यों की तवायफों को यहां पर निमंत्रित किया जाता था। यही तवायफें नाच, गीत गायन और मुजरे से दिल बहलाकर सैनिकों की थकान उतारती थीं। तब एक लड़की थी गंगा, जिसका तब जबरदस्त जलवा था। उसकी थिरकन हर किसी का मन मोह लेती थी। जब उसकी उम्र जवाब देने लगी तो उसकी जगह उसकी छोटी बहन जमुना ने ली। उन्हीं नर्तकियों में कुछ ऐसी भी होती थीं, जो मौका देख अपनी देह तक अर्पित कर देती थीं। वर्ष दर वर्ष बीतने के बाद नाचने-गाने वाली तवायफों की जगह वेश्याओं का वर्चस्व बढ़ता चला गया। हवसखोरों को देह-सुख देने वाली इस देहमंडी को दूर-दूर तक ‘गंगा-जमुना’ के नाम से जाना जाने लगा।
    अपने उदय काल में यह बस्ती वीराने में थी, दूर-दूर तक सन्नाटा पसरा रहता था, लेकिन धीरे-धीरे बस्ती में मस्ती खोरों की बड़ी संख्या में आवाजाही और शहर के फैलने के साथ-साथ लोगों ने इसी बस्ती के आसपास कौड़ी के मोल जमीनें खरीदकर अपने आशियाने तान लिए। दुकानें भी खुल गईं। शराबखाने भी आबाद होते चले गये, जहां मेलों-सी भीड़ लगने लगी। कालांतर में इसी भीड़ ने शरीफों को चिंतित और विचलित करना प्रारंभ कर दिया। उन्हें अपनी बहन, बहू, बेटियों की इज्जत खतरे में पड़ती नजर आने लगी। फिर तो धड़ाधड़ विरोध के स्वर उठने लगे। समाजसेवक और नेता इस बदनाम बस्ती की हस्ती मिटाने या कहीं बहुत दूर ले जाने की मांग का बिगुल बजाने और बजवाने लगे, लेकिन इस बार का नगाड़ा कुछ ज्यादा ही तेज और कर्कश हो गया है। गंगा-जमुना के कोठों और विभिन्न ठिकानों पर ताले जड़वाने वाले पुलिस आयुक्त का फूल-मालाएं पहनाकर आदर-सत्कार और अभिनंदन किया गया। किस्म-किस्म के नेता और समाजसेवक भी आमने-सामने आ गये। कुछ को बाजार में बेरीकेट्स लगवाना अन्याय लगा, तो कुछ को अत्यंत हितकारी।
    दोपहर धीरे-धीरे शाम की ओर खिसकती जा रही है। चारों वारांगनाओं को कल्याणी के निर्णय का बेसब्री से इंतजार है। शहर के कुछ दैनिक समाचार पत्रों तथा न्यूज चैनल के संवाददाता कोठी के बरामदे में जमा होने लगे हैं। चारों देहजीवाएं अपने-अपने भविष्य को लेकर आशंकित और घबरायी हुई हैं। देह के धंधे में कुछ ही महीने पहले धकेली गयी युवती को आज बार-बार उस युवक की याद आ रही है, जो लगभग रोज उसके पास आता और नोट लुटाता था। दरअसल, वह उसकी खूबसूरती पर मर मिटा था और युवती उसकी मासूमियत पर। उसे पता नहीं क्यों पक्का भरोसा हो चला था कि यही नौजवान उसे इस दलदल से बाहर निकाल सकता है, इसीलिए उसने एक रात अपने मन की बात कह दी थी, ‘‘जब तुम मुझे इस कदर चाहते हो तो मुझे अपनी पत्नी क्यों नहीं बना लेते?’’ युवक ने ऐसे चौंकाने वाले प्रस्ताव की कभी उम्मीद नहीं की थी। फिर भी उसने जवाब देने में देरी नहीं लगायी, ‘‘यदि तुमने अपना कुंआरापन नहीं खोया होता तो मैं तुमसे शादी करने में एक पल भी देरी न लगाता।’’ उसके इस जवाब ने उसपर ऐसी बिजली गिरायी कि उसका पूरा बदन ही नहीं दिल-दिमाग भी झुलस कर रह गया।
घना अंधेरा होने से पहले कल्याणी ने भी अपना निर्णय सुनाते हुए सभी को हतप्रभ कर दिया है, ‘‘बहुत सोचने-विचारने के पश्चात मैंने अंतिम फैसला किया है कि अब मेरे इस कोठे में कभी भी वेश्यावृत्ति नहीं होगी। मेरी अभी तक की पूरी जिन्दगी इसी बदनाम पेशे में बीती है। मैं यह भी जानती हूँ कि इस बस्ती की सैकड़ों वारांगनाएं शहर से दूर जिस वीराने में भी अपना ठिकाना बनायेंगी, वहां पर कुछ ही महीनों में एक नयी देह की मंडी आबाद हो जाएगी। हवस के पुजारी बिना किसी विज्ञापन के अपने आप वहां पर पहुंचने लगेंगे। ऐसी कई बस्तियों को बनते और उजड़ते हुए मैंने अपनी आंखों से देखा है। आज जब सरकार हमें इस कीचड़ से निकालना चाहती है, तो हमें इस मौके को गंवाने की भूल नहीं करनी चाहिए। कब तक हम पुलिस के डंडे की मार के साथ इस नर्क को झेलती रहेंगी! यह हकीकत कितनी पीड़ादायी है कि चंद सिक्कों के बदले जिन्हें हम अपनी अस्मत और जवानी सौंप देती हैं वही अंतत: हमें अछूत करार दे देते हैं। ऐसा जीना किस काम का? अपना नहीं तो अपने बाल-बच्चों के अच्छे भविष्य के लिए सम्मानजनक तरीके से मेहनत-मजदूरी कर जीने-खाने से धीरे-धीरे हर कलंक धुल जाएगा। मैंने अपनी करोड़ों की कोठी जिसे कोठा कहा जाता है, किसी बिल्डर को बेचने की बजाय अपनी वारांगना बहनों, बेटियों को सौंपने का निर्णय लिया है। सरकार ने वेश्याओं के पुनर्वास के जो इरादे दर्शाये हैं उनके पूरे नहीं होने पर मैं खुद सड़क पर उतरूंगी। कुछ ही दिनों में गंगा-जमुना का एक नया चेहरा सभी के सामने होगा। इसकी शुरुआत हम सब मिलकर करने जा रही हैं। कोठे में ही महिलाओं को अपने पैरों पर अच्छी तरह से खड़े होने का प्रशिक्षण दिया जायेगा। यहीं पर रेडिमेड कपड़ों के निर्माण के लिए सिलाई मशीनें लगेंगी। आचार, पापड़, नूडल्स, मैगी, मसाले, नमकीन, साबुन, सर्फ आदि का निर्माण कर बस्ती की हर बहन-बेटी को आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। मेरा दावा है कि, वो दिन दूर नहीं जब इसी बदनाम इलाके गंगा-जमुना को नारी शक्ति तथा हस्तकला उद्योग की शानदार बस्ती के रूप में जाना-पहचाना जाएगा। हम सभी बहनें साथ थीं और हमेशा साथ रहेंगी।’’

Thursday, September 2, 2021

विषैले कसाई

    विश्वास, अंधविश्वास, श्रद्धा, अंधश्रद्धा, शंका, कुशंका, प्यार, नफरत। कहने को तो ये शब्द हैं, लेकिन इनके भाव, प्रतिभाव समुद्र से भी गहरे हैं, जिन्हें नापना और अनुमान लगाना कभी भी आसान नहीं रहा। सदियां बीत गयीं कोई स्पष्ट तस्वीर सामने नहीं आ पायी। फिर भी उलझन बरकरार है। किसी पर विश्वास होने पर इनसान सब भूल जाता है। अपना सबकुछ दांव पर लगा देता है, लेकिन जिनकी धोखा देने की फितरत है वे तो अपनी आदत से बाज नहीं आते। बिहार के सारण में सांपों से खेलने, उनपर भरोसा रखने और उन्हें पालने का शौक रखने वाले 24 वर्षीय मनमोहन उर्फ भुंअर ने रक्षाबंधन के दिन जिद पकड़ ली कि बहन उसके प्रिय सांप को भी राखी बांधे। बहन ने भाई के अनुरोध का मान रखते हुए नाग को राखी तो बांध दी, लेकिन इसी दौरान उसने मनमोहन को ऐसा डसा कि उसकी हालत बिगड़ने लगी। अस्पताल तक पहुंचते-पहुंचते उसकी सांसों की डोर टूट गयी। मनमोहन बीते दस साल से झाड़-फूंक करता चला आ रहा था। पूरे इलाके में जहरीले नागों को पकड़ने के लिए उसे बुलाया जाता था। सांप के द्वारा डसे गये कई लोगों की उसने जान बचायी थी। सांपों को पालने का शौकीन मनमोहन नाग-नागिन के जोड़े को हमेशा अपने साथ रखता था। नाग को तो वह अपना भाई मानता था, इसलिए उसने बहन से राखी बंधवायी थी। झाड़-फूंक कर दूसरों की जिंदगी बचाने वाले मनमोहन पर कोई झाड़-फूंक और जादू-टोना काम नहीं आया। इस हकीकत में असंख्य कहानियां कैद हैं। यह मात्र विषैले सांप का जाना-पहचाना सच नहीं है। कई इनसानों की भी यही फितरत है, जो साथ और सहारा देता है उसी के भरोसे का कत्ल करने में देरी नहीं लगाते। अपने भले के लिए दूसरों पर शंका की उंगली नंगी तलवार की तरह तान देते हैं।
    महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले के एक गांव के चौराहे पर दिनदहाड़े वृद्ध पुरुष और महिलाओं को खंभो से बांधकर पीटा गया। वजह थी, जादू-टोने का शक, जिसने गांव वालों को इस बार भी अंधा और निर्दयी बना दिया। इन अक्ल के अंधों में अनपढ़ों के साथ-साथ पढ़े-लिखे भी शामिल थे, जिन्होंने कितनी बार पढ़ा और सुना होगा कि ‘जादू-टोना’ महज बकवास है। कुछ बेवकूफ धूर्तों की सोच की घटिया उपज है, लेकिन फिर भी इनकी मंदबुद्धि इन्हें जगाने की बजाय विषैली नींद में सुलाये रखती है। गांव की दो-तीन औरतों का दावा था कि उन्हें देवी आती है। उसी ‘देवी’ ने सपने में उन्हें बताया कि गांव के आठ-दस दलित जादू-टोना कर गांव वालों की जान लेने पर तुले हैं। उन्हीं के जादू-टोने से ही बीमारियां फैल रही हैं और मौतें हो रही हैं। उन देवीधारी महिलाओं के रहस्योद्घाटन पर शत-प्रतिशत यकीन करते हुए गुस्सायी भीड़ तुरंत वहां जा पहुंची, जहां तथाकथित जादू-टोना करने वाला परिवार रहता था। गंदी-गंदी गालियां और मौत की नींद सुला देने की धमकियां देते हुए दलित उम्रदराज पुरुष और महिलाओं को घर से खींचकर बाहर निकाला गया और उनका जुलूस निकालते हुए गांव के चौराहे पर लाकर खंभे से बांधकर निर्दयता के साथ पीटा गया। दलितों, असहायों, गरीबों, शोषितों पर यह जुल्म पता नहीं कब से होता चला आ रहा है। कमजोर और सहनशील होना भी अपने आप में किसी पाप से कम नहीं। इस सच को भारतीय महिलाओं से बेहतर और कौन जान पाया है। हो सकता है कि कुछ लोगों को अतिशयोक्ति लगे, लेकिन आज भी ऐसे कई मर्द हैं, जिन्हें नारी का सिर उठाकर चलना आहत करता है। उन्हें नज़रें झुका कर चलने वाली नारियां ही चरित्रवान लगती हैं। किसी दूसरे पुरुष से बात करने का मतलब है कुलटा और पथभ्रष्ट होना।
    मध्यप्रदेश के सिंगरोली जिले के निवासी रामलाल को दूसरी औरतों से मिलना और बोलना-चालना तो पसंद था, लेकिन अपनी पत्नी पर उसने बंदिशें लगा रखीं थीं। दो-तीन बार उसने अपनी पत्नी को किसी के साथ मुस्कुराते हुए बातचीत करते क्या देखा कि उसका खून खौल गया। पत्नी ने लाख कस्में खायीं कि उसका किसी गैर मर्द से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं, लेकिन रामलाल के लिए उसकी पत्नी का किसी गैर के साथ खुलकर बतियाना... उसकी मर्दानगी को ललकारने और उसपर चोट करने वाला ऐसा दुस्साहस था, जिसने उसे पूरी तरह से विवेकशून्य कर दिया। वह इस निष्कर्ष पर जा पहुंचा कि पत्नी बेवफा है। भरोसे के कतई लायक नहीं। एक रात शराब खाने में उसने जीभरकर शराब पी। नशे में धुत होकर घर में पहुंचते ही पत्नी को बेतहाशा पीटने लगा। बेबस पत्नी अपना कसूर पूछती रही, लेकिन उस पर तो शक का भूत सवार था। उसने रोती-बिलखती, दया की भीख मांगती पत्नी को जमीन पर पटका और पूरी ताकत लगाते हुए उसके प्राइवेट पार्ट को सुई धागे से सिल दिया।
अपनी ही पत्नी के साथ इस तरह की हैवानियत करने की यह पहली शर्मनाक करतूत नहीं है। उत्तरप्रदेश के रामपुर में भी एक पुरुष की दो साल पहले शादी हुई थी। एक दिन पत्नी को उसने किसी पुरुष के साथ बातचीत करते देखा तो उसका माथा घूम गया। उसे शक हो गया कि दोनों में टांका भिड़ा हुआ है। उसकी खूबसूरत बीवी उसकी गैर मौजूदगी में अपने आशिक के साथ गुलछर्रे उड़ाती है। फिर तो दोनों के बीच कहा-सुनी और झगड़ा होना रोजमर्रा की बात हो गई। एक दिन जब पत्नी गहरी नींद में थी, तब शक्की पति ने पहले तो उसके मुंह में कपड़ा ठूंसा फिर उसके गुप्तांग में तांबे की तार से टांके लगा दिये। पत्नी असहनीय पीड़ा से चीखती-चिल्लाती रही, लेकिन विषैला शैतान ठहाके लगाता रहा। पुलिस हिरासत में भी वह एक ही पहाड़ा रटता रहा कि उसकी पत्नी आवारागर्दी करती है। जब देखो तब किसी भी गैर मर्द से बोलने-हंसने लगती है, जिसे देख उसका खून खौल जाता है। आखिर वह मर्द है... उसकी बर्दाश्त करने की भी कोई हद है। जब उसे अति पर अति होते दिखी तो उसने उसका  प्राइवेट पार्ट ही सिल दिया, ताकि वह अपने किसी भी नये-पुराने आशिक के साथ जिस्मानी रिश्ता न बना पाए।
पुणे जिले की खेड़ तहसील के एक छोटे से ग्राम में रहने वाले अवध की दो बेटियां हैं। बेटे को जन्म नहीं देने के कारण आये दिन पत्नी को प्रताड़ित करना उसकी आदत बन गया। अवध के माता-पिता भी आये दिन बहू को कोसते रहते। बेटे की देखा-देखी हाथ भी उठा देते। इसी बीच पति किसी तांत्रिक की शरण में जा पहुंचा। तांत्रिक ने उसके कान में जो मंत्र फूंका उसी का पालन करते हुए उसने घर जाकर पहले तो पत्नी को निर्वस्त्र किया फिर उसके शरीर पर भस्म और हल्दी-कूंकू मल दिया। काफी दिनों से जुल्म सहती पत्नी ने पुलिस स्टेशन पहुंचने में देरी नहीं की। अवध अब जेल की हवा खा रहा है।