Thursday, December 28, 2023

लम्हों की खता की सज़ा

    ‘‘लम्हों ने खता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।’’ कभी न कभी आपने यह कहावत जरूर सुनी होगी। ऐसी और भी कई कहावतें हैं, जो इंसान की जल्दबाजी, अधीरता, गुस्से, नादानी, बेवकूफी और बेचारगी को बयां करती हैं। अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारना और अपने मुंह मियां मिट्ठू बनना कोई अच्छी बात नहीं मानी जाती। ऐसे चरित्रधारी अंतत: हंसी के पात्र होते हैं। क्षणिक आवेश और नादानी के चलते इनकी जीवनभर की तपस्या भी तार-तार होकर रह जाती है। मुंबई के पश्चिम उपनगर दहिसर क्षेत्र के निवासी निकेश ने अपनी प्रिय 40 वर्षीय पत्नी निर्मला की सिर्फ इसलिए गला दबाकर नृशंस हत्या कर दी, क्योंकि उसने साबूदाने की खिचड़ी में ज्यादा नमक डालने की भूल कर दी थी। निकेश अपने मन को शांत रखने के लिए पिछले कई वर्षों से शुक्रवार का व्रत रखता चला आ रहा था, लेकिन अपने क्रोध को नियंत्रित नहीं रख पाया। अब निकेश जेल में है। उसका बारह वर्षीय बेटा जो इस हत्या का प्रत्यक्ष गवाह है, अकेले जीने को विवश है। 

    मुंबई के 76 वर्षीय काशीराम पाटील को निर्धारित समय पर नाश्ता नहीं मिला तो वे तिलमिला गये। उनकी बौखलाहट उतरी अपने बेटे की पत्नी पर, जिसने अपने ससुर को दिन के 11 बज जाने के बाद भी नाश्ते से वंचित रखा था। नाश्ता देने में हुई देरी की वजह जानने की बजाय उम्रदराज ससुर ने अपनी कमर में खोंसी रिवॉल्वर निकाली और बहू के सीने में अंधाधुंध गोलियां उतार दीं। इन महाशय की भी बाकी बची-खुची उम्र जेल में ही गुजर रही है। कुछ दिन पहले अखबार में खबर पढ़ी कि मुंबई में एक युवक ने इसलिए शादी ही तोड़ दी, क्योंकि वधू पक्ष ने जो निमंत्रण पत्रिका छपवायी थी, उसमें उसकी डिग्री का उल्लेख नहीं था। अपने भावी पति की जिद्दी कारस्तानी ने वधू को इतनी जबरदस्त ठेस पहुंचायी कि उसने खुदकुशी करने की ठान ली। उसे किसी तरह से घरवालों ने मनाया, समझाया-बुझाया, लेकिन शादी टूटने की शर्मिंदगी से वह अभी तक नहीं उबर पाई है। दुल्हे मियां फरार हैं। पुलिस दिन-रात उसे दबोचने की कसरत में लगी है। यह अहंकारी और क्रोधी इंसान जहां भी होगा, चैन से तो नहीं होगा। अपनी गलती पर माथा भी पीट रहा होगा। 

    ये देश के निहायत ही आम लोग हैं। इनकी अपनी सीमित दुनिया है। इन्हें भीड़ नहीं घेरती। ज्यादा लोग भी नहीं जानते, लेकिन यह चेहरे तो खास हैं। जहां जाते हैं, पहचान में आ जाते हैं। भीड़ उन्हें घेर लेती है। अखबारों, न्यूज चैनलों तथा सोशल मीडिया से वास्ता रखने वालों ने मोटिवेशनल स्पीकर विवेक बिंद्रा का नाम अवश्य सुना होगा। उनके शीर्ष पर पहुंचने की संघर्ष गाथाएं भी सुनी होंगी। उनकी प्रेरक स्पीच के वीडियो भी जरूर देखे होंगे। इस महान हस्ती पर अभी हाल में अपनी नई-नवेली पत्नी की पिटायी करने का संगीन आरोप लगा है। कारण भी बेहद हैरान करने वाला है। विवेक अपनी मां प्रभादेवी से अपमानजनक तरीके से झगड़ा कर रहे थे। पत्नी यानिका ने विवेक को मां के साथ बदसलूकी करने से रोका तो विवेक का खून खौल गया। यह कौन होती है, मुझ पर हुक्म चलाने और रोक-टोक करने वाली? इसे पता होना चाहिए कि मैं अपनी मर्जी का मालिक हूं। किसी की सुनने की मेरी आदत नहीं है। इसे यदि आज सबक नहीं सिखाया गया तो कल ये मेरे सिर पर चढ़कर नाचेगी। विवेक ने विवेकशून्य होने में किंचित भी देरी नहीं लगायी। पत्नी को गंदी-गंदी गालियां दीं। फिर सिर के बाल खींचते हुए जिस्म पर थप्पड़ों की बरसात कर दी। असहाय पत्नी रहम की भीख मांगती रही, लेकिन विवेक का गुस्सा शांत नहीं हुआ। राक्षसी तरीके से की गयी पिटायी से पत्नी यानिका के कान के पर्दे फट गये। अस्पताल में भर्ती करवाना पड़ा। थाने में रिपोर्ट भी दर्ज हुई। विवेक का पहली पत्नी गीतिका के साथ अदालत में मुकदमा चल रहा है। लाखों रुपये की फीस लेकर लोगों को अनुशासन, सम्मान, धैर्य, संयम का पाठ पढ़ाने वाले विवेक के यू-ट्यूब पर दो करोड़ से भी अधिक सब्सक्राइबर्स हैं। लोगों को मान-सम्मान और धनवान बनकर जीवन जीने की कला से अवगत कराने वाले बिंद्रा की नींद उड़ चुकी है। पुराने दबे-छिपे गुनाहों के पिटारे भी खुलने लगे हैं। चेहरे का नकाब उतरने लगा है। अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने के अपराधबोध में जीने को विवश मोटिवेटर को पछतावा भी हो रहा है। यह मैंने क्या कर डाला? हमेशा नारी शक्ति के सम्मान का राग गाता रहा। दूसरों को गुस्से पर नियंत्रण रखने का पाठ पढ़ाता रहा और खुद पर काबू नहीं रख पाया! 

    हंसी के पिटारे नवजोत सिंह सिद्धू को कौन नहीं जानता। एक दौर था, जब भारतीय जनता पार्टी में उनकी तूती बोलती थी, उनके चटपटे भाषण सुनने के लिए भीड़ जुटती थी। कपिल शर्मा के कॉमेडी शो की भी कभी जान हुआ करते थे नवजोत। दर्शकों को हंसा-हंसा कर लोटपोट कर दिया करते थे। ठहाके पर ठहाके लगाने के करोड़ों रुपये पाते थे। इस बहुरंगी कलाकार, नेता को उनकी एक छोटी-सी गलती ले डूबी। 27 दिसंबर, 1988 में पटियाला में कार पार्किंग को लेकर उम्रदराज शख्स को नवजोत ने गुस्से में इतनी जोर का मुक्का मारा, जिससे उसके प्राण पखेरू उड़ गये। क्रिकेटर से नेता बने सिद्धू का यकीनन हत्या करने का इरादा नहीं था, लेकिन क्षणिक आवेश ने उन्हें हत्यारा बना दिया। 35 वर्षों तक अदालतों के चक्कर काटने पड़े। बार-बार जेल भी जाना पड़ा। पुलवामा आतंकी हमले के बाद पाकिस्तान की तरफदारी करने के कारण कपिल शर्मा के शो से भी बेआबरू होकर बाहर होना पड़ा। राजनीति भी मंदी पड़ गयी। बिना सोचे-समझे जल्दबाजी में लिये गये कुछ निर्णयों के कारण सिद्धू आज अकेले पड़ गये हैं। सन्नाटे भरी रातों ने उनकी नींद उड़ा दी है। मन में बार-बार यही विचार आता है कि काश! क्रोध और बड़बोलेपन के चंगुल से बचा रहता तो इतने बुरे दिन न देखने पड़ते, लेकिन सच तो यह है कि अब चिड़िया खेत चुग कर बहुत दूर जा चुकी है। 

    अभी हाल ही में 146 विपक्षी सांसदों के निलंबन ने विपक्षी दलों की नींद उड़ा दी। इस निलंबन को लोकतंत्र की हत्या करार दिया गया। यह पहली बार नहीं था जब सांसदों को विरोध प्रदर्शन के लिए यह सज़ा दी गयी। सदन के बाहर सांसदों की नारेबाजी और धरना प्रदर्शन के बीच तृणमूल पार्टी के एक सांसद ने देश के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ को अपमानित करने के इरादे से उनकी मिमिक्री करनी प्रारंभ कर दी। वहां पर मौजूद सांसद तालियां बजाकर असभ्य मिमिक्रीबाज की हौसला अफजाई करने लगे। देश के सम्मानित उपराष्ट्रपति की चालढाल और बोलचाल का जब बेहूदा मज़ाक उड़ाया जा रहा था, तब वहां पर मौजूद कई मान्यवर आनंदित होकर ठहाके लगा रहे थे। तालियां पीटकर सांसद का हौसला बढ़ा रहे थे। उन्हीं में शामिल थे, कांग्रेस के नेता राहुल गांधी जो वर्तमान में सांसद भी हैं। उन्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार भी माना जाता है। राहुल ने भी उपराष्ट्रपति की मानहानि करते असभ्य मिमिक्रीबाज को फटकारना जरूरी नहीं समझा। वे खुद मिमिक्री की धड़ाधड़ वीडियो बनाते रहे। उनकी यह हरकत सजग देशवासियों को बहुत चुभी। राहुल का यही बचकानापन उन्हें हर बार आसमान से जमीन पर पटक देता है। भारत जोड़ो यात्रा के जरिए अपने कद को बढ़ाने की भरपूर कसरत कर चुके राहुल को मानहानि के मामले में दोषी पाये जाने के बाद अपनी लोकसभा की सदस्यता खोनी पड़ी थी।

Thursday, December 14, 2023

नतमस्तक

    उन्होंने अपने चेहरे पर जमी खौफ की परछाइयों पर नकाब डाल रखा था। वे किसी भी हालत में अपने अंदर के भय को उजागर नहीं करना चाहते थे। उन्हें अपने से ज्यादा अपने साथियों की चिंता थी। वे उनके हौंसले को किसी भी हालत में पस्त होते नहीं देखना चाहते थे। उत्तराखंड के उत्तराकाशी में निर्माणाधीन सुरंग का हिस्सा ढहने के कारण उन पर जानलेवा विपदा आ पड़ी थी। देश और दुनिया को भी खबर हो गई थी कि सुरंग में फंसे मजदूरों की जिन्दगी दांव पर लग चुकी है। वो दिवाली का दिन था। 12 नवंबर। सुबह साढ़े पांच बजे यह स्तब्ध और सन्न करने वाला हादसा हुआ था। सुरंग में फंसे सभी मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकालने के लिए बचाव दल तुरंत सक्रिय हो गये थे। देश और विदेश के न्यूज चैनलों ने भी पल-पल की खबर को कवर करना प्रारंभ कर दिया था। सभी को उम्मीद थी कि मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकालने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। जब देश चांद पर जा पहुुंचा है, तब पहाड़ का सीना चीरना कौन-सी बड़ी बात है। कुछ ही घण्टों के बाद मजदूर अपने घर-परिवार के साथ बोल-बतिया रहे होंगे और अपनी आपबीती सुना रहे होंगे। अंधी सुरंग में कैद मजदूरों के बारे में तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे थे। सुरंग से मलबा हटाते-हटाते जब पूरा दिन बीत गया, तो श्रमिकों के परिजनों की धड़कनें बेकाबू होने लगीं। दूसरे दिन राहत और बचाव कार्य में तूफानी तेजी लायी गई। उनसे बात कर आक्सीजन और पानी उपलब्ध कराया गया। 60 मीटर तक फैले मलबे को हटाने में कई दिक्कतें आने लगीं। इधर बचाव कर्मी नीचे से मलबा हटाते उधर ऊपर से मलबा गिरने लगता। दो दिन में बड़ी मुश्किल से पंद्रह से बीस मीटर तक मलबा हटाने में कामयाबी मिली। श्रमिकों के परिजनों के साथ-साथ संवेदनशील देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंचने लगीं। सभी के चेहरे बुझने लगे। मन-मस्तिष्क में तरह-तरह के सवाल भी कौंधते चले गए। भूखे-प्यासे श्रमिक किस हाल में होंगे। अंधेरे में जरूर उनका दम घुट रहा होगा। कोई चल तो नहीं बसा होगा? तीसरे दिन भी बचाव अभियान युद्ध स्तर पर जारी रहा। 

    बड़ी मुश्किल से 25 मीटर तक मलबा हटाया तो गया, लेकिन जितना हटाया गया उतना और गिर गया। इसी दौरान वॉकी-टॉकी के माध्यम से परिजनों से श्रमिकों की बातचीत करवाकर राहत और तसल्ली का अहसास दिलाने की कोशिश की गई। बचाव टीमों की सफलता-असफलता की खबरें सतत आती और डराती रहीं। श्रमिकों के घर-परिवार के लोग कभी खुशी, कभी गम की स्थिति के झूले में झूलते रहे। 11वें दिन पाइप के जरिए रोटी, सब्जी, खिचड़ी, दलिया, केले, संतरे श्रमिकों तक पहुंचाये गए। इसके साथ ही टीशर्ट, अंडरगारमेंट, टूथपेस्ट और ब्रश के साथ साबुन भी भेजा गया। तब कहीं जाकर उन्होंने मुंह हाथ धोया, दांत साफ किये और अपने-अपने हिसाब से खाना खाया। दिन पर दिन बीतते गये। असमंजस के साथ आशा के दीप भी जलते रहे। 17 दिनों के लंबे इंतजार के बाद जिस दिन सभी श्रमिक सुरक्षित बाहर लाये गए उस दिन अपनों तथा बेगानों ने दिवाली मनायी। सभी के श्रमिकों का सकुशल लौटना किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं था। मजदूर भी बेहद प्रफुल्लित थे। सभी ने कहा कि सुरंग में फंसे रहने के दौरान कई बार उन्हें लगा कि मौत उनसे ज्यादा दूर नहीं है। जब उन्हें पता चला कि अमेरिकी ऑगर मशीन ने हार मान ली है तो वे बुरी तरह से घबरा गये। अब क्या होगा? यह चमत्कार ही था कि तुरंत रैट माइनर्स ने अपनी करामात दिखायी और सभी की जान में जान आयी। रैट-होल माइनिंग खदानों में संकरे रास्तों से कोयला निकालने की एक काफी पुरानी तकनीक है। इसे गैरकानूनी माना जाता है, लेकिन इंसानी हाथों की इस अवैध तकनीक ने तो करोड़ों की बड़ी-बड़ी मशीनों को मात दे दी। रैट-होल का मतलब है- जमीन के अंदर संकरे रास्ते खोदना, जिसमें एक व्यक्ति जाकर कोयला निकाल सके। इसका नाम चूहों द्वारा संकरे बिल बनाने से मेल खाने के कारण रैट-होल माइनिंग पड़ा है। 

    दिल्ली की एक कंपनी में कार्यरत मुन्ना कुरैशी वो पहले शख्स थे, जिन्होंने सुरंग के अंदर प्रवेश कर आखिरी चट्टान हटायी। श्रमिकों का अभिवादन किया। अपनी खुशी व्यक्त करने के लिए कुरैशी के पास शब्द नहीं थे। आखिर के दो मीटर में खुदाई करने वाले एक अन्य रैट-होल माइनर फिरोज खुशी के आंसू लिए सुरंग से बाहर निकले। सुरंग में फंसे मजदूरों को बाहर निकालने के लिए हिंदू-मुस्लिमों ने मिलकर अपनी जान लगा दी। उन्होंने देशवासियों को भी बिना किसी भेदभाव के मिलजुलकर रहने का संदेश दे दिया। सुरंग के अंदर भी सभी श्रमिक भाईचारे के गीत गाते रहे। एक दूसरे का हौसला बढ़ाते हुए आपसी सद्भाव और भाईचारे की पताका फहराते रहे। कई दिनों के बाद खुली हवा में आये मंजीत के उम्रदराज पिता के आंसू थमने को तैयार नहीं थे, वे बेटे के गले से मिलते हुए बोले, ‘आखिरकार मेरा बेटा बाहर आ ही गया। हमारे लिए आज ही दिवाली है। पहाड़ ने मेरे बच्चे तथा अन्य मेहनतकशों को अपने आगोश से रिहाई दे दी है। मैं कपड़े लेकर आया हूं ताकि उसे साफ कपड़ों में देख सकूं।’ इस पिता की उसी दिन से जान अटकी थी, जिस दिन सुरंग हादसा हुआ था। पिता बहुत भयभीत थे। बीते वर्ष उसके बड़े बेटे की मुंबई में एक निर्माण कंपनी में हुई दुर्घटना में जान चली गई थी। सुबोध वर्मा भी उन 41 मजदूरों में से एक हैं। झारखंड के रहने वाले इस जिन्दादिल इंसान के शब्द थे, ‘हमें अंदर खास दिक्कत नहीं हुई। शुरू-शुरू के 24 घण्टे ही तकलीफ में गुजरे। ऑक्सीजन और पानी के अभाव से जूझना पड़ा। बाद में तो पाइप के जरिए हमें काजू, किशमिश और अन्य खाने की चीजें मिलने लगीं। हमें लेकर बाहर भले ही हमारे परिजन और देशवासी परेशान और फिक्रमंद थे, लेकिन अंदर हम एक-दूसरे का पूरा ख्याल रख रहे थे। अंताक्षरी तथा गीत-गजलें गाते हुए वक्त गुजार रहे थे।’ 51 वर्षीय गब्बर सिंह नेगी की बहादुरी और जिंदादिली की जितनी तारीफ की जाए, कम होगी। गब्बर सिंह अपने साथी श्रमिकों का निरंतर मनोबल बढ़ाते हुए कहते और समझाते रहे कि बिलकुल मत घबराओ। धैर्य रखो। हमें शीघ्र ही सुरक्षित बाहर निकाल लिया जाएगा। बाहर पूरा देश हमारा इंतजार कर रहा है। उसी दौरान उन्होंने अपने साथियों से यह वादा भी किया कि तुम सभी के बाहर निकलने के बाद ही मैं बाहर कदम रखूंगा। नेगी अपने वादे को नहीं भूले। अंत में जब वे बाहर निकले तो उनका चेहरा मुस्कराहट से चमक रहा था। सभी साथी उनके प्रति नतमस्तक थे।


Thursday, December 7, 2023

बदलाव की दस्तक

    नशे के अंधेरे में पूरी तरह से खो गया था भूषण पासवान। वह रिक्शा चलाता था। खून-पसीना बहाकर जो कुछ भी कमाता शराब और जुए पर लुटा देता। परिवार भुखमरी के कगार पर जा पहुंचा था। मां कलावती देवी लोगों के घरों में बर्तन साफ कर कुछ रुपये कमाती तो ही चूल्हा जल पाता। कई बार तो भूषण मां से भी पैसे छीनकर नशाखोरी में उड़ा देता। पंजाब के लाखों नौजवान नशे के गुलाम हो चुके हैं। पूरे देश को यही चिंता खाए जा रही है कि नशे की अंधेरी दुनिया की तरफ भागते नौजवानों को कैसे सही रास्ते पर लाया जाए। नशे के गर्त में समा चुका भूषण अनपढ़ नहीं था। पानी की तरह शराब पीने से होने वाली तमाम तकलीफों और बीमारियों से वाकिफ था। फिर भी उसने नशे को अपना सच्चा साथी मान लिया था। वर्ष 2004 का एक दिन था जब संत बलबीर सिंह सीचेवाल उस झुग्गी बस्ती में पहुंचे जहां भूषण रहता था। उन्हें गांव के युवाओं के नशे के शिकार होने और बच्चों की शिक्षा के अभाव में हुई बदहाली की खबर मिल चुकी थी। वे जागृति का दीपक जलाकर घने अंधेरे को दूर करना चाहते थे। उन्होंने लोगों को अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने हेतु प्रेरित करने के लिए एक जगह पर एकत्रित किया। लोगों को नशे की बुराइयों से अवगत कराते हुए उससे मुक्ति पाने का संदेश दिया। संत को यह देखकर बहुत पीड़ा हुई कि झुग्गी बस्ती में रहने वाले बच्चे शिक्षा के अभाव में दिशाहीन होते चले जा रहे हैं। अशिक्षा और धनाभाव के चलते मां-बाप उन्हें स्कूल भेजने में असमर्थ हैं। उन्होंने बच्चों के जीवन का कायाकल्प करने के उद्देश्य से गांववासियों को प्रेरित करते हुए कहा कि अगर उनके बीच ही कोई पढ़ा-लिखा व्यक्ति हो तो यह काम आसानी से हो सकता है। भूषण मैट्रिक पास था, इसलिये सभी ने उसे यह दायित्व सौंपने का सुझाव दिया। भूषण को तो शराब और जुए से ही फुर्सत नहीं थी। उसने साफ इंकार कर दिया। गांव वालों ने उसे जोर देकर समझाया, लेकिन वह आनाकानी करता रहा। अंतत: मां के बहुत समझाने पर वह संत के पास पहुंचा।

    संत ने भूषण से सवाल किया, ‘क्या तुम अपनी जिन्दगी यूं ही बरबाद कर दोगे?... क्या तुम्हें पता है कि झुग्गी के बच्चे शिक्षा के अभाव में पिछड़ रहे हैं। उनका भविष्य अधर में लटका है। गलत आदतें उन्हें आकर्षित कर रही हैं। तुम भी पढ़े-लिखे होने के बावजूद नशे और जुए की लत के शिकार हो। मुझे कई गांव वालों ने बताया है कि कई बार तुम इतनी अधिक शराब पी लेते हो कि अपनी सुध-बुध खो बैठने के बाद गंदी नाली के कीचड़ में पड़े रहते हो और बच्चे शराबी...शराबी कहकर तुम पर पत्थर फेंकते हैं। राहगीर भी तुुम्हारा मज़ाक उड़ाते हैं। तुम जैसे पढ़े-लिखे युवक को क्या यह शोभा देता है? तुम्हें अपने जीवन को इस तरह से बर्बाद नहीं करना चाहिए। अभी भी अगर तुम चाहो तो सबकुछ बदल सकता है। जब आंख खुले तभी सबेरा।’ संत की भेदती आंखों और उनके समझाने के अंदाज ने भूषण पर कुछ ऐसा असर डाला कि वह बच्चों को पढ़ाने के लिए राज़ी हो गया। पेड़ के नीचे झुग्गी बस्ती के बारह बच्चों से क्लास की शुरुआत हुई। भूषण के लिए यह नया अनुभव था। शुरू-शुरू में शराब से दूरी बनाना उसे किसी मुसीबत से कम नहीं लगा, लेकिन धीरे-धीरे बच्चों को पढ़ाना उसे अच्छा लगने लगा। वो दिन भी आया जब उसने नशे से पूरी तरह से तौबा कर ली। 2006 में भूषण ने इंटरमीडियट किया, 2010 में बीए भी कर लिया। कभी रिक्शा चलाने वाला भूषण पासवान आज शानदार इमारत में चल रहे ननकाना चेरिटेबल स्कूल में प्रिंसीपल है। गरीब मां-बाप के बच्चों की जिंदगी संवारने में लगे भूषण की जिंदगी पूरी तरह से बदल चुकी है। अब गांव के लोग भी उससे इज्जत से पेश आते हैं। उसकी तारीफें करते नहीं थकते। बच्चे भी सम्मान देने में कोई कमी नहीं करते। दूर-दराज के गांव वाले भी विभिन्न कार्यक्रमों में बुलाते हैं और मंच पर बिठाकर सम्मानित करते हैं। अब तो प्रिंसिपल साहब ने नशे के खिलाफ भी अभियान चला दिया है। किसी को पीते देखते हैं तो बड़े सलीके से समझाते हैं और अपनी बीते कल की कहानी दोहराते हैं।

    इसी देश में एक गांव है, नानीदेवती। मात्र पैंतीस सौ के आसपास की जनसंख्या वाले इस छोटे से गांव में देसी शराब के दस अड्डे थे। सभी अड्डों पर जमकर शराबखोरी होती थी। सुबह, शाम गुलजार रहते थे सभी ठिकाने। अपने काम धंधे को छोड़कर युवक इन्हीं मयखानों पर जमे और रमे रहते थे। कुछ बुजुर्ग भी रसरंजन के लिए पहुंच जाते थे। अपराध भी बढ़ते चले जा रहे थे। चोरी और लूटपाट की घटनाएं आम हो गईं थीं। पांच साल के भीतर 100 से अधिक युवक शराब की लत के चलते चल बसे। युवा बेटों की मौत के सिलसिले ने मां-बाप को तो रुलाया ही, गांव के चिंतनशील तमाम बुजुर्गों को भी झकझोर कर रख दिया। आखिर ऐसा कब तक चलता रहेगा? शराब की लत के शिकार होकर उनके गांव के बच्चे यूं ही अपनी जान गंवाते रहेंगे! शराबखोरी से लगातार हो रही मौतों से शराब कारोबारी भी पूरी तरह से अवगत थे। बुजुर्ग पुरुषों और महिलाओं ने उनसे कई बार गांव से अपने शराब के अड्डे हटाने की फरियाद की। धनपशुओं में इंसानियत होती तो मानते! उनके लिए तो कमाई ही सबकुछ थी। युवकों की बरबादी और बदहाली उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। जागरूक गांव वालों को समझ में आ गया कि धनलोभियों से किसी भी तरह की उम्मीद रखना बेकार है। इस समस्या का हल निकालने के लिए गांव वालों ने बैठक की। स्त्री-पुरुष सभी एकत्रित हुए। यही निष्कर्ष निकला कि गांव में शराब पीने पर प्रतिबंध लगाये बिना युवकों की मौत पर विराम नहीं लगाया जा सकता। सभी ने शराब को हाथ भी न लगाने की कसम खायी। यह भी तय किया गया कि जो भी व्यक्ति शराब पीता पाया गया उससे पांच हजार से लेकर दस हजार तक का जुर्माना वसूला जायेगा। बुजुर्गों की सीख और जुर्माने के भय का युवकों पर भरपूर असर पड़ा। उनकी आंखें खुल गयीं। अब नानीदेवती गांव शराब से मुक्ति पा चुका है। शराब के सभी अड्डे भी बंद हो चुके हैं।

    मुंबई की एक शराबी महिला को जेल की हवा खानी पड़ी। यह महिला एक नामी वकील हैं। नाम है जाहन्वी गडकर। रिलायंस की टॉप लीगल एग्जीक्यूटिव हैं। नशे ने उनकी जिन्दगी तबाह कर डाली। अच्छे-खासे भविष्य का सत्यानाश हो गया। जाहन्वी ने नशे में मदमस्त होकर पांच लोगों को कुचल दिया। दो की मौत हो गयी। अपनी आलीशान ऑडी कार को लिमिट से चार गुना अधिक शराब पीकर चलाने वाली यह मदहोश वकील यातायात के सभी नियमों को नजरअंदाज कर कार दौड़ा रही थी और खूनी दुर्घटना को अंजाम दे बैठी। एक जमाना था जब यह माना जाता था कि नशे पर पुरुषों का ही एकाधिकार है। अब तो नारियों ने भी बहकने में जबरदस्त बाजी मार ली है। पिछले दिनों मुंबई में ही यातायात पुलिस ने सड़क पर अंधाधुंध कार दौड़ाती एक पढ़ी-लिखी आधुनिक महिला को रोका। वह नशे में इतनी धुत थी कि उसने कार में बैठे-बैठे ही पुलिस वालों पर भद्दी-भद्दी गालियों की बौछार शुरू कर दी। पुरुषों की बेहूदगी के अभ्यस्त पुलिसवाले उसके अभद्र और बेहूदा व्यवहार से दंग रह गए। ऐसे नजारे अब आम होते चले जा रहे हैं। यह भी देखा-भाला सच है कि महिलाओं ने ही शराब पर पाबंदी लगवाने में सक्षम भूमिका निभायी है। 

    विदर्भ के शहर चंद्रपुर में कई सजग महिलाएं शराब बंदी की मांग करती चली आ रही थीं। सरकार सुनने को तैयार ही नहीं थी। सरकार को तो शराब की कमायी ललचाती है। उसे  शराब पीकर बरबाद होने और बेमौत मरने वालों से क्या लेना-देना! विधानसभा और लोकसभा के चुनाव आते-जाते रहे। हर चुनाव के समय शराब बंदी के वायदे तो किये जाते, लेकिन उन्हें पूरा करने का साहस गायब हो जाता। 2014 के विधानसभा चुनाव के दौरान महिलाओं ने उसी उम्मीदवार को जितवाने की कसम खायी जो चंद्रपुर जिले में जगह-जगह आबाद शराब दुकानों और बीयरबारों को बंद करवाने का दम रखता हो। वायदे का पक्का हो। वर्षों से जिले में शराब बंदी लागू करने की मांग करते चले आ रहे भाजपा नेता सुधीर मुनगंटीवार पर महिलाओं ने भरोसा किया। उन्होंने भी अपने वायदे पर खरा उतरने में जरा भी देरी नहीं लगायी। चंद्रपुर में शराब बंदी कर दी गई, लेकिन बाद में जो सरकार आयी उसके एक तिकड़मी मंत्री ने फिर से पियक्कड़ों के लिए सभी शराब की दुकानों के ताले खुलवा दिये। शराब विरोधी महिलाएं अपना माथा पीटते रह गईं। सच्ची भारतीय नारी तो देश के हर शहर और गांव को ‘कसही’ जैसा देखना चाहती है। छत्तीसगढ़ के बालोद जिले में स्थित है, गांव कसही। इस गांव का शराब और शराबियों से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। पूरी तरह से साक्षर यह गांव अपराधमुक्त है। आपसी भाईचारा भी देखते बनता है। यहां की बेटी उसी घर में ब्याही जाती है, जहां शराब को नफरत की निगाह से देखा जाता हो। यह सब हुआ है कसही गांव के रहने वालों की जागरुकता की वजह से! आसपास के शहरों और गांवों के लोग भी हैरत में पड़ जाते हैं जब उन्हें पता चलता है कि इस गांव में पिछले 100 सालों से किसी ने शराब नहीं चखी। कसही की आबादी छह सौ के आसपास है। पूरी तरह से शाकाहारियों के इस गांव में बहू लाने के पहले यह खोज-खबर ली जाती है कि कहीं समधियों के परिवार का कोई सदस्य मदिरा प्रेमी तो नहीं है। पूरी तरह से आश्वस्त होने के बाद ही रिश्ता जोड़ा जाता है। यानी इस गांव के निवासी ही नहीं, रिश्तेदार भी शराब से कोसों दूर रहते हैं।