Thursday, April 8, 2021

नक्सलियों के पालनहार

"नक्सली और कोरोना
ये दोनों भाई हैं
कैसे इतने
ये आततायी हैं
इनके जुल्मों सितम से
लोग तबाह हो गए
लाखों निरपराध
मौत के आगोश में सो गए
हम...
हमारा समाज...
हमारी सरकार...
देश के तमाम ज्ञानियों के पास
कोई तो
कारगर हल होगा
जिससे भारत
भयमुक्त और
हमारा...
सुनहरा कल होगा...!"
    नागपुर के सजग कवि श्री अनिल मालोकर की उपरोक्त कविता श्रद्धांजलि है उन २३ शहीदों के प्रति, जिनकी कायर, धोखेबाज, षडयंत्रकारी नक्सलियों ने जान ले ली। कवि की तरह और भी अनेकों सतर्क भारतीय हैं, जिनको यह सवाल लगातार चिन्तित और परेशान किये है कि देश में जब कोरोना के कारण लोगों की मौतें हो रही हैं, हर कोई भयभीत है तब छत्तीसगढ के बीजापुर और सुकमा जिले की सीमा पर नक्सलियों ने क्या सोचकर इस दरिंदगी को अंजाम दिया। जब कोरोना की बीमारी लोगों की जानें लेने पर तुली है, तब नक्सलियों ने यह शैतानी और हैवानी कृत्य कर दिखा दिया है कि उनका मानवता से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। यह जो इन्सानी हत्याएं की गई हैं वे काफी सोची-समझी रणनीति का हिस्सा हैं। नक्सलियों के इस खूनी खेल में कुछ भी नया नहीं, लेकिन कोरोना के जानलेवा काल में रॉकेट लाँचर और मोर्टार जैसे आधुनिक हथियारों से सुरक्षा बलों पर हमला करना उनकी उस क्षमता और ताकत को भी दर्शाता है, जो लगातार बढ रही है। कहां से आता है नक्सलियों के पास हथियार खरीदने के लिए पैसा। कैसे जुटा लेते हैं वे ऐसे-ऐसे साधन, जिन्हें जुटाना आसान तो कतई नहीं। तय है कि देश के भीतर कुछ ऐसे गद्दार तो हैं, जो नक्सलियों की सहायता करते हैं। कुछ पत्रकारों, वकीलों, स्वयंभू समाजसेवकों का नक्सली प्रेम बार-बार उजागर होता रहता है। उन्हें सुरक्षा बलों के प्राण गंवाने पर कोई गम नहीं होता। नक्सलियों के मारे जाने पर उनकी आंखों से धडाधड आंसू बहने लगते हैं और वे सीना तानकर मानव अधिकार के राग अलापने लगते हैं। इन नक्सली भक्तों के कारण ही नक्सलवाद और आतंकवाद के हौसले बुलंद होते रहे हैं। यह भी शर्मनाक सच है कि जब-जब भी नक्सली हमले होते हैं तब-तब कुछ दिनों तक अपने यहां अच्छी-खासी राजनीति होती है। नेता भाषण पर भाषण दागते हैं कि इस बार जवानों की शहादत व्यर्थ नहीं जाएगी। नक्सलियों को उनकी औकात दिखाकर ही दम लिया जाएगा, लेकिन असल में होता क्या है किसी से छुपा नहीं है। पूरी तस्वीर हमारे सामने है।
    नक्सलियों के प्रति सहानुभूति दर्शाने वाले नेता अक्सर कहते रहते हैं कि नक्सली तो भटके हुए क्रांतिकारी हैं। अपने ही देश में ऐसे नेता भी हैं, जो भाजपा को चुनाव में हराने के लिए खूंखार नक्सलियों की सहायता लेने में संकोच नहीं करते। यह घटिया नेता अपने खिलाफ खडे होने वाले प्रत्याशियों को हरवाने तथा ठिकाने लगाने के लिए नक्सलियों को धन मुहैया करवाते हैं। इन्हें हत्यारे नक्सलियों का संरक्षक और पालनहार कहने के साथ-साथ सुरक्षा बलों का हत्यारा कहने में कोई हर्ज नहीं। यह भी अत्यंत शर्म की बात है कि जो नृशंस हत्यारे हैं, सुरक्षाबलों, सैनिकों पर हमले करते रहते हैं और खून की नदियां बहाते रहते हैं, उनके खिलाफ कई बुद्धिजीवी अपनी जुबान तक नहीं खोलते। उलटे सरकार को कोसते रहते हैं कि वह नक्सलियों के साथ सौतेला व्यवहार करती है। नक्सली भी इसी देश की संतान हैं। ऐसे में उनके साथ मिल बैठकर बात क्यों नहीं की जाती? उनकी क्यों नहीं सुनी जाती? जो नक्सली पिछले तीस-चालीस वर्ष से आतंकी और हत्यारे बने हैं, उनके प्रति महानुभावों का सद्भाव कई प्रश्न ख‹डे करता है। उनकी निगाह में जो भटके हुए क्रांतिकारी हैं, उनकी असली हकीकत के पन्ने यही बताते हैं कि कभी नक्सलियों का कोई जनहितकारी मकसद रहा होगा, लेकिन अब तो अधिकांश नक्सली सरगना सौदागर बन चुके हैं। उनके बच्चे विदेशों में पढ रहे हैं। रहने और चलने के लिए उनके पास कोठियां और कारों के काफिले हैं। उनकी लूटमारी और वसूली के तरीके पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। तय है कि न तो वे रहम के काबिल हैं और न ही उनके समक्ष झुकने की जरूरत या कोई मजबूरी है। इनका साथ देने वालों को भी पूरी तरह से नंगा करने का वक्त आ गया है। यह दुष्ट खुद को नायक मानते हैं। खुद को दूसरों से अलग मानकर अपनी ही पीठ थपथपाते रहते हैं। इनसे यह कलम जानना चाहती है कि यह नक्सली भक्त आखिर चाहते क्या हैं? अपने ही देश के जवानों को लहुलूहान और शहीद होने पर तालियां बजाने और खुशी मनाने से इन्हें शर्मिन्दगी का अहसास क्यों नहीं होता? भारत माता को निरंतर जख्मी होते देखने के बाद भी उन्हें नींद कैसे आ जाती है। वे भी तो आखिर इसी देश की मिट्टी से उपजे अन्न, पानी और हवा पर जिन्दा हैं!

Thursday, April 1, 2021

समयांतर

    बात इंसान की। हर किसी की जान की। बाकी सब कुछ चलता-चलाता रहता है। हम और आप स्वस्थ हैं, चलायमान हैं, खुश और प्रसन्न हैं, तो ही इस दुनिया के होने की सार्थकता है, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनकी सोच और प्राथमिकता निजी स्वार्थ पर टिकी है। उनमें अथाह निर्ममता और लालच भरा पडा है। वे धन के लिए हत्यारे बनने से नहीं घबराते। कोरोना की दूसरी अंधी लहर में कुछ अस्पतालों तथा डॉक्टरों की शर्मनाक कारस्तानी सामने आ रही है। वह यही दर्शा रही है कि मौका पाते ही लूटपाट में लग जाना धनपशुओं के जीवन का असली मकसद है। नागपुर के एक अस्पताल में डॉक्टरों की घोर लापरवाही के कारण दो लोगों की मौत हो गई। मृत मरीज का इलाज कर मानवता को शर्मिन्दा करने वाले इस अस्पताल के डॉक्टरों की दरिन्दगी की हकीकत ही भयभीत कर देती है। आखिर हमें किन लोगों के भरोसे कोरोना से लडना पड रहा है! इन हत्यारों को अपने पावन पेशे को कलंकित करने में लज्जा क्यों नहीं आती? यह सवाल तभी से जवाब मांग रहा है, जब से कोविड-१९ की महामारी ने चारों तरफ अपने पैर फैलाकर इंसानों को बताया कि कुदरत के समक्ष वे कितने असहाय और बौने हैं।
कोरोना का इलाज करवाना हर किसी के बस की बात नहीं। यही वजह है कि अस्पताल में फांसी के फंदे पर झूल जाने की खबरें पढने-सुनने में आ रही हैं। नागपुर के मेडिकल अस्पताल व कॉलेज में कोविड वार्ड, ट्रामा सेंटर में भर्ती ८१ वर्षीय वृद्ध की आत्महत्या की खबर वाकई चौंकाने वाली है। सामान्य सर्दी खासी की शिकायत के बाद उन्हें अस्पताल में लाया गया था। परिवार के सदस्यों को जैसे ही पता चला कि बुुजुर्ग कोरोना पाजिटिव हो गये हैं, तो वे बिना कोई बातचीत के उन्हें मेडिकल अस्पताल में छोडकर चलते बने। वृद्ध अकेलेपन और असुरक्षा की भावना से टूट गए और चुपचाप बाथरूम में खुदकुशी कर ली। अपनों के एकाएक दूरी बनाने से कई स्वस्थ इंसान भी मौत के मुंह में समा रहे हैं। दरअसल सभी इतने सक्षम नहीं कि कोरोना की बीमारी के चपेट में आये अपने करीबियों के लिए धन की व्यवस्था कर सकें। ऐसा मान लेने वाले भी बहुतेरे हैं कि कोरोना हुआ है तो मौत भी तय है, जबकि यह सच नहीं है। कोरोनाग्रस्तों को हौसले तथा सुरक्षा के अहसास से इतना बलवान तो बनाया ही जा सकता है कि वे अंतिम सांस तक लडते रहें। वैसे तो पूरे देश में कोरोना की आंधी लोगों को अपने लपेटे में ले रही है, लेकिन महाराष्ट्र में कोरोना का आतंक कुछ ज्यादा ही देखने में आ रहा है। लगभग सभी जानते हैं कि कोरोना से बचने के लिए खुद का सतर्क होना जरूरी है, लेकिन ज्यादातर लोग उन नियमों का पालन करने में कंजूसी बरतते हैं, जो अति आवश्यक हैं। स्वास्थ्य मंत्रालय का ताजा सर्वे बताता है कि पचास फीसदी लोग भीड-भाड में मास्क लगाने की चुस्ती नहीं दिखाते। उन्हें दूसरों का मास्क लगाना जितना जरूरी लगता है, उतना स्वयं का नहीं। विदर्भ के ग्रामीण और शहरी इलाकों में कोरोना ने जिस तादाद में मौत बांटनी प्रारंभ कर दी है, उससे यह भी माना जा रहा है कि शासन और प्रशासन खुद को असहाय पा रहा है। अस्पतालों में आईसीयू बेड की भारी कमी स्पष्ट दिखायी दे रही है। संतरानगरी नागपुर में कोरोना पॉजिटिव मरीज खुलेआम घूम रहे हैं। कोई भी पाबंदी उनपर असरकारी नहीं हो रही है। कोरोना संक्रमण के मामले में देशभर में नागपुर तीसरे स्थान पर है। नागपुर में हो रही मौतें देशभर में चिन्ता का विषय बन कर रह गई हैं। कोरोना का संकट आज नहीं तो कल खत्म हो जायेगा, लेकिन इस शर्मनाक सच को कभी भुलाया नहीं जायेगा कि जब लोग धडाधड मर रहे थे तब भी प्रदेश के कुछ शासक और प्रशासक जनता की सुरक्षा की चिन्ता की बजाय धन के प्रबंध में तल्लीन थे। उनके लिए इंसानी जानों से कहीं ज्यादा अपना धन-दौलत से भरपूर सुरक्षित भविष्य मूल्यवान था। इसके लिए उन्होंने इंसानियत को भी बेच खाया था...।