Thursday, November 25, 2021

यही तो हैं भगवान

    तस्वीरें देखता रहा और बहुत देर तक बस सोचता रहा। कोई भी औरत या आदमी किसी शादी-समारोह या किसी उत्सव में शामिल होने के लिए जाता है, तो नयी से नयी पोशाक धारण कर जाता है। उसकी यह हसरत भी होती है कि सजधज में वह सबसे अलग और खास नज़र आये, जब नये वस्त्र नहीं होते तो पुराने को अच्छी तरह से इस्त्री कर बन-ठन कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाता है। फिर यह तो पद्म सम्मान वितरण समारोह था, जिसमें सभी रोजमर्रा के पहनावे से हटकर कुछ नया धारण कर पुरस्कार लेने और कार्यक्रम में शामिल होने के लिए आये थे। लिपे-पुते चेहरों की भीड़ में बदन पर पुरानी साड़ी लपेटे नंगे पांव पद्मश्री सम्मान हासिल करने के लिए राष्ट्रपति भवन पहुंचीं तुलसी गौडा को जिस किसी ने करीब से देखा, नतमस्तक होकर रह गया। प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने भी बड़े गर्व और आदर-सम्मान के साथ उनका अभिवादन किया। वे पल यकीनन अद्भुत भी थे और अभूतपूर्व भी। प्रकृति को अपनी मां की गोद मानने वाली तुलसी गौडा का जन्म कर्नाटक के एक अत्यंत गरीब परिवार में हुआ। गरीबी ने उनसे पढ़ने-लिखने का अधिकार भी छीन लिया। स्कूल तक का मुंह नहीं देखने वाली तुलसी गौडा ने मानव कल्याण के लिए जिस तरह से अपने आपको समर्पित कर दिया उसकी दूर-दूर तक मिसाल नहीं। पिछले पचास-साठ साल से पर्यावरण संरक्षण में लगी हैं। पेड़-पौधों, जड़ी-बूटियों की वे अभूतपूर्व जानकार हैं। वनस्पतियों की जितनी जानकारी और समझ उन्हें है, उतनी तो वैद्यों और वैज्ञानिकों को भी नहीं है। बारह वर्ष की जिस उम्र में बच्चे खेलने-कूदने के लिए पगलाये रहते हैं, तभी से इस गरीब वनवासी परिवार की जिज्ञासु पुत्री ने पेड़-पौधों से बातें और दोस्ती करनी प्रारंभ कर दी थी। अभी तक लगभग एक लाख से ज्यादा पेड़, पौधे लगाकर हरियाली फैला चुकीं तुलसी वाकई पवित्र वो ‘तुलसी’ हैं, जो हर किसी के घर-आंगन की शान होती है।
    कर्नाटक के ही एक और कर्मयोगी जब एकदम साधारण पोशाक में नंगे पांव राष्ट्रपति भवन में पद्मश्री पुरस्कार लेने पहुंचे तो लोग उन्हें भी विस्मित होकर देखते रह गये, जब उन्हें सम्मानित किया जा रहा था, तब हॉल में उत्साह भरी जो तालियां बजीं उनकी आस्था, गूंज और पवित्रता मंदिर की घंटियों से कमतर नहीं थी। तुलसी गौडा की तरह हरेकला हजब्बा भी ऐसी प्रेरक हस्ती हैं, जिनकी पूजा की जानी चाहिए। जिन भक्तों को फिल्मी सितारों के मंदिर बनाने की सूझती रहती है, उन्हें एक बार इन फरिश्तों का भी दीदार कर लेना चाहिए। इन फरिश्तों ने दिखा दिया है कि अगर जनहित का जुनून हो तो कोई भी तकलीफ रास्ता नहीं रोक पाती। अपने मन की करने के लिए धनवान होना तो कतई भी जरूरी नहीं। हजब्बा का भी पैदा होते ही गरीबी और अभावों से पाला पड़ा। जिस गांव में जन्मे वहां स्कूल नहीं था। दूसरे बच्चों की तरह अनपढ़ रहे, लेकिन जिन्दगी के स्कूल ने खूब पढ़ाया और तपाया। हजब्बा ने गरीबी से लड़ने के लिए कई छोटे-मोटे काम किए। मन में एक टीस भी थी कि पढ़-लिख पाता तो कुछ बन जाता। संतरे बेचते-बेचते कितना कुछ सोचते, मैं तो शिक्षा से वंचित रहा। मेरा तो जैसे-तैसे बचपन बीत गया, लेकिन आज के गरीब बच्चों का क्या होगा? गांव में स्कूल के अभाव में वे भी अपनी पढ़ने और आगे बढ़ने की इच्छा का गला घोंटते रहेंगे? हजब्बा दिन-रात चिंतित रहते, लेकिन इससे तो कुछ हल नहीं निकलने वाला था। उन्होंने खूब मेहनत कर पैसे बचाने प्रारंभ कर दिए। पाई-पाई जोड़कर अपने छोटे से पिछड़े गांव में स्कूल खोल डाला। हजब्बा के इस स्कूल में आसपास के गांवों के बच्चे-बच्चियां पढ़ने के लिए आते हैं। बच्चों के मां-बाप के लिए हजब्बा भगवान हैं, जिन्होंने उनके बच्चों की चिंता की। हजब्बा तो अभी और भी बहुत कुछ करना चाहते हैं। उनका बस चले तो इस देश के किसी भी बच्चे-बच्ची को शिक्षा से वंचित न रहने दें।
    चमचमाते नगरों-महानगरों में बड़ी आसानी से मिलने वाली तमाम सुख-सुविधाओं का आनंद लेने वाले अधिकांश लोगों को शायद ही भारत के गांवों की दुर्दशा की जानकारी होगी। महात्मा गांधी कहा करते थे कि ग्राम तो देश की आत्मा हैं। यही भारत का असली चेहरा हैं, लेकिन इस असली चेहरे पर आज भी उदासी है, जिसे दूर करने के लिए वो चेहरे अपना सबकुछ समर्पित कर रहे हैं, जिन्हें अक्सर नजरअंदाज किया जाता रहा है। उन्हें पुरस्कार पाने और अपना नाम चमकाने की कोई चाह नहीं है। कोई साथ दे या न दे, लेकिन उन्होंने तो जो सोचा और ठाना, उसी को चुपचाप करने में लगे हैं। यही उनकी पूजा है। यही उनका धर्म है।
    राम भगवान की अयोध्या नगरी के मुहम्मद शरीफ को भी इस बार पद्मश्री से नवाजा गया। दरअसल, मेरा तो यह लिखने का मन हो रहा है कि पद्मश्री को उन्होंने नवाजा। सरकारी सम्मान की मान-मर्यादा और कद को और ऊंचा कर दिया। परोपकारी शरीफ के जवान बेटे की तीस वर्ष पूर्व सड़क दुर्घटना में मौत हो गई थी। उन्हें अपने मृत बेटे का चेहरा देखना तक नसीब नहीं हुआ था। उन्हें तो खबर ही नहीं लग पायी थी कि बेटे के साथ क्या हुआ। वह कहां गुम हो गया। वे तो कई दिनों तक उसे यहां-वहां तलाशते रहे। एक दिन उन्हें पता चला कि पुलिस ने लावारिस मानकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया है। अपने इकलौते बेटे को इस तरह से खोने वाले मुहम्मद शरीफ जब किसी तरह से मातम से बाहर आये तो उसके मन-मस्तिष्क में विचार आया कि मेरा बेटा तो अब नहीं रहा, लेकिन कितने और बदनसीब होते होंगे, जिनके जवान बेटों की ऐसी ही लावारिस मौत हो जाती होगी और उनका ऐसे ही अंतिम संस्कार कर दिया जाता होगा। तभी उन्होंने कसम खायी कि उन्हें अब ताउम्र लावारिसों का वारिस बनकर इंसान होने के फर्ज को निभाना है। अपनी उस कसम की जंजीरें उन्होंने कभी भी कमजोर नहीं होने दीं। पिछले पच्चीस वर्षों में पच्चीस हजार से अधिक लावारिसों की अंतिम क्रिया करने के बाद भी मुहम्मद शरीफ ज़रा भी नहीं थके हैं। यह भी जान लें कि उनके पास भी धन का खजाना नहीं है। आर्थिक तंगी तब भी थी। आज भी बनी हुई है, लेकिन जिद और हौसला हर अड़चन को सतत मात देता चला आ रहा है।

Thursday, November 18, 2021

कैसे-कैसे रंग बदलते चेहरे

    शर्म क्यों नहीं आती इन्हें? इनकी बकबक अब शूल की तरह चुभने लगी है। बेइंतहा गुस्सा दिलाने लगी है। अब तो इन्हें नेता, अभिनेता, अभिनेत्री, स्टार, सुपरस्टार और समाजसेवक मानने का मन ही नहीं होता। प्रेरक नायकत्व के इनमें कहीं गुण ही नज़र नहीं आते। देवेंद्र फडणवीस भारतीय जनता पार्टी के एक बड़े चेहरे हैं। उन्हें मैं तब से जानता-समझता हूँ जब वे नगरसेवक थे। शालीनता और सौम्यता के जीवंत प्रतिरूप। छोटे-बड़े सभी के काम आते थे। कोई भी सच नहीं छिपाते थे। अपने दिल की बात कहने के लिए समय का इंतजार नहीं करते थे। विधायक बनने के बाद भी उन्होंने मुखौटे से दूरी रखी। राजनीति के काले चेहरों को बेखौफ होकर बेनकाब करते रहे। उनमें बहुत कुछ देखकर ही पार्टी ने उन्हें देश के प्रदेश महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया था। प्रदेश की जनता भी उनकी सरलता और मिलनसारिता की जबरदस्त प्रशंसक थी, लेकिन सीएम की गद्दी ने उनके रंग-ढंग ही बदल दिये। मासूम देवेंद्र को कुटिल राजनीति ने स्वार्थी और कठोर बना दिया। दूसरी बार भी सिंहासन पाने के लिए उन्होंने सत्ता के भूखे राजनेता की तरह, तरह-तरह के दांव चले। विरोधियों को नीचा दिखाने के लिए वो सब तिकड़में कीं, जिनके लिए कम-अज़-कम वे तो नहीं जाने-पहचाने जाते थे। अभी हाल ही में हम सबने पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस और वर्तमान केबिनेट मंत्री नवाब मलिक की बिल्लियों वाली झपटा-झपटी देखी। लड़ाई तो ड्रग्स को लेकर प्रारंभ हुई थी, लेकिन धीरे-धीरे एक दूसरे के कपड़े उतारने और धमकीबाजी तक जा पहुंची। इन दोनों महानुभावों की शर्मनाक नाटक-नौटंकी के दौरान जिस एक सच ने बेहद कचोटा वो यह है कि इन दोनों को देश-प्रदेश के हित से ज्यादा अपनी राजनीति की दुकान को टिकाये रखने की चिंता है। नवाब को अपने दामाद और शाहरुख खान के बिगड़ैल बेटे को पाक-साफ बताने की पड़ी रही तो फडणवीस अपने खेल खेलते हुए अपना कद छोटा करने में लगे रहे।
    एक सच यह भी पूरी तरह से उजागर हुआ कि अब नेताओं की कौम भरोसे के काबिल ही नहीं रही। यह अपने भीतर बड़े से बड़े रहस्य को तब तक छिपाये रहते हैं, जब तक सामने वाला इन्हें न छेड़े या ललकारे। इन्हें उस आम जनता से कोई सहानुभूति नहीं, जिसके वोट की बदौलत ये सत्ता सुख पाते हैं। नवाब मलिक अभिनेता शाहरुख खान के नशेड़ी बेटे की गिरफ्तारी के विरोध में पहले तो नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो तथा उसके जोनल डायरेक्टर समीर वानखेड़े के पीछे पड़े रहे फिर उनका देवेंद्र फडणवीस के साथ जुबानी युद्ध प्रारंभ हो गया। उन्होंने जैसे ही फडणवीस पर ड्रग तस्करों और जाली नोटों के सरगनाओं को संरक्षण देने का आरोप लगाया तो तमतमाये फडणवीस ने मीडिया के सामने आकर दिवाली के बाद बम फोड़ूंगा का धमकीभरा हथियार लहराया। दीपावली के पश्चात उन्होंने अंडरवर्ल्ड के लोगों से जुड़ी अरबों की जमीनें नवाब के द्वारा कौड़ी के मोल हथियाने की फुलझड़ी छोड़ी। सवाल यह है कि यह रहस्योद्घाटन पहले क्यों नहीं किया गया? जब नवाब उनके पीछे पड़ गये, तब ही उन्हें क्यों नवाब की पोल खोलने की जरूरत महसूस हुई! जब आपको पता होता है कि फलाना नेता अपराधियों की संगत में रहता आया है। ड्रग्स माफियाओं को फलने-फूलने के मौके उसने दिये हैं तो आप फौरन पर्दाफाश क्यों नहीं करते? इस इंतजार में क्यों रहते हैं कि वक्त आने पर मुंह खोलेंगे। यह तो घोर मतलबपरस्ती है। कहीं न कहीं देश-प्रदेश के साथ दगाबाजी भी है। लुच्चे बदमाश ऐसी हरकतें करें तो उन्हें यह सोचकर नजरअंदाज किया जा सकता है कि यह तो ऐसी ही टुच्चागिरी के लिए जन्मे हैं। यही इनके घटिया चरित्र की असली पहचान है, लेकिन जो चुने हुए जनप्रतिनिधि हैं... जिनकी देश में छवि बनी हुई है, उन्हें तो बहुत सोच समझकर बोलना चाहिए।
फिल्म एक्ट्रेस कंगना रानौत मेरी पसंद की अदाकारा रही हैं। उनकी कुछ फिल्में काफी प्रभावी रही हैं। अपने बड़बोलेपन की वजह से अक्सर चर्चाओं और विवादों के घेरे में रहना उन्हें बहुत पसंद है। जब से नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं, तब से उनका खुद पर नियंत्रण नहीं रहा। अभी हाल ही में अभिनेत्री ने अपने अंदर के महाज्ञान को उगलते हुए कहा कि 1947 में देश को जो स्वतंत्रता मिली थी, वह भीख थी, असली आजादी तो 2014 में मिली। मतलब साफ है कि मोदी जी के देश की सत्ता पर काबिज होने के बाद ही कंगना को लगने लगा कि अब देश ने आजादी पायी है। दरअसल उन्हें कहना तो यह चाहिए था कि 2014 में जैसे ही मोदी पीएम बने वैसे ही वे स्वतंत्र हो गईं। पहले वह कुछ बोलने, कहने, सुनाने से डरती थीं, लेकिन 2014 के बाद बेलगाम होने की छूट मिल गई। यह कोई संयोग नहीं, सोची समझी योजना नजर आती है।
    जैसे ही अभिनेत्री को कला के क्षेत्र में उनके योगदान को देखते हुए भारत के चौथे सबसे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार से सम्मानित किया गया उसके बाद उनकी चेतना तूफानी हो गई और स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों का अपमान करने पर उतर आयीं। ऐसे प्रयोग अब अपने भारत देश में प्रचार पाने का हिस्सा भी हैं और किसी को कमतर और नीचा दिखाने का षडयंत्री खेल भी है। एक तरफ मोदी के पक्षधर हैं, दूसरी तरफ मोदी विरोधी हैं, तो वहीं दिन-रात हिंदू-मुसलमान कर-कर के राजनीति में धर्म का तड़का लगाने वाले किस्म-किस्म के मदारी हैं, जो वक्त और मौका देखकर अपने-अपने पिटारे खोल देते हैं। फिल्मी पर्दे के नायक-नायिका तो दूसरों के इशारों पर नाचते हैं। दूसरों के दिमाग की मेहनत की कमायी पर बाहर भी उछलते-कूदते रहते हैं। प्रशंसकों की भीड़ उनका दिमाग घुमा देती है। मेरी निगाह में सबसे बड़ी स्टार... सुपरस्टार तो राजेश्वरी जैसे चेहरे हैं। कर्तव्य परायण राजेश्वरी के नाम से ज्यादा लोग वाकिफ नहीं हैं। चेन्नई में जब मूसलाधार बारिश ने अफरा-तफरी मचा दी थी। घरों में पानी भर गया था। कई लोग जहां-तहां पानी में फंस गये थे, तब महिला पुलिस इंस्पेक्टर राजेश्वरी ने पानी में बेसुध पड़े एक अनजान शख्स को कंधे पर लादकर ऑटो तक पहुंचाया ताकि उसे जल्दी से जल्दी अस्पताल पहुंचाया जा सके। यदि राजेश्वरी उसे समय पर अस्पताल नहीं ले जातीं तो उसकी मौत भी हो सकती थी। अस्पताल में उन्होंने उस शख्स की मां को हर तरह की मदद करने का आश्वासन तो दिया ही, डॉक्टरों को भी उसकी अच्छी तरह से देखरेख करने का निवेदन कर उस खाकी वर्दी की गरिमा बढ़ायी, जिसे अक्सर उतनी अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता, जिसकी वास्तव में वह हकदार है। यह बात अलग है कि कुछ गलत लोगों के कारण खाकी बदनाम होती रही है।

Thursday, November 11, 2021

आप ही तय करें

    वो वक्त अब कहां जब अखबारों में अवैध शराब चढ़ाकर मरने वालों की खबर विचलित कर देती थी। मृतकों के बढ़ते आंकड़ों और उनके परिजनों के रोने-मातम मनाने की तस्वीरों को देखकर दिल दहल जाता था। अब तो ऐसी कोई भी खबर बड़ी आम लगती है। रोजमर्रा का खेल-तमाशा। दूर बैठे किसी भी चेहरे पर किंचित भी भय, चिंता, परेशानी और पीड़ा की लकीरें उभर नहीं पातीं। न्यूज चैनलों पर इन खबरों को बस यूं ही देखा-सुना जाता है। मृतकों की संख्या दर्शाती पट्टी भी कोई हलचल नहीं मचाती। विरोधी नेता और समाजसेवक भी पहले की तरह सरकार को नहीं ललकारते। थोड़ा-मोड़ा हल्ला-गुल्ला मचता भी है, तो कोई नहीं सुनता। यह मशीनी समय है। एक जगह ठहरकर विचारने का हर किसी के पास वक्त नहीं है। कुछ लोग जानबूझकर अंधे-बहरे बने हुए हैं। जानते हैं सामने अंधा कुआं है, फिर भी उसमें जा गिरते हैं। कितनी बार इन्होंने भी शराब की खराबियों के बारे में पढ़ा होगा। नकली शराब पीकर मरने की खबरें भी इन तक पहुंची होंगी। घर परिवार तथा सच्चे यार दोस्तों ने भी टोका-समझाया होगा कि पीनी भी है तो सोच-समझकर पिया करो। इस नशे के लिए अपनी जान को जोखिम में डालना सरासर बेवकूफी है। खुद के साथ-साथ उन अपनों के साथ धोखा है, जो आपको दिलो-जान से चाहते हैं।
    जब देशवासी जगमग दिवाली की खुशियां मना रहे थे, तभी शराब बंदी वाले प्रदेश बिहार में नकली शराब पीकर लगभग चालीस लोग परलोक सिधार गये। कइयों की आंखों की हमेशा-हमेशा के लिए रोशनी चली गयी। उन्हें अब अंधे बनकर रहना होगा। दरअसल अंधे तो वे पहले से ही थे। तभी तो उनकी अवैध और नकली शराब पीकर ऐसी दुर्गति हुई है। सरकार ने तो पांच अप्रैल 2016 में ही शराब के उत्पादन, व्यापार, भंडारण, परिवहन, विपणन और सेवन पर इस इरादे से रोक लगा दी थी कि जो लोग शराब पीकर अपना बसा-बसाया घर उजाड़ देते हैं, उनके घर परिवार की औरतें और बच्चे अभावों और तकलीफों की मार झेलने को विवश हो जाते हैं, उन्हें जब शराब ही नहीं मिलेगी तो उनकी कंगाली दूर हो जाएगी। परिवार खुशहाल हो जाएंगे। शराब बंदी के बाद असंख्य लोगों की जिन्दगी सुधर गई। उन्होंने सरकार का शुक्रिया और आभार माना, लेकिन जो अखंड पियक्कड़ थे वे खुद पर अंकुश नहीं लगा पाये। उनकी पीने की लत जस की तस बनी रही। होना तो यह चाहिए था कि शराब बंदी लागू होने के बाद पूरे बिहार प्रदेश में शराब का नामो-निशान ही नहीं रहता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वैध शराब की दुकानों पर ताले लगते ही तस्करों ने शराब के कारोबार की कमान संभाल ली। पुलिस की नाक के नीचे शराब बिकने लगी। कहीं असली तो कहीं नकली। जहरीली शराब पीकर मौत के मुंह में समाने वालों की खबरें भी आने लगीं। इन मौतों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा। साथ ही पढ़े-लिखों के बयान भी आने लगे कि सरकार कौन होती है शराब पर पाबंदी लगाने वाली। यह तो सीधे-सीधे मौलिक अधिकारों पर चोट है। नाइंसाफी है। वोटों के लिए महिलाओं की मांग को पूरा करने वालों को यह भी सोचना चाहिए था कि शराब के शौकीनों के मुंह से एकाएक ‘प्याला’ छीनना अक्लमंदी का निर्णय नहीं है। जो लोग वर्षों से शराब पीते चले आ रहे हैं उनसे आप यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे एकाएक पीना छोड़ देंगे। शराब के पक्ष में अपने-अपने तर्क रखने वाले ढेरों हैं, लेकिन यह भी तो सच है कि नागरिकों के भले के लिए ही शराब बंदी की गई। ज्यादातर लोगों ने सरकार के फैसले का स्वागत भी किया, लेकिन यह भी सच है कि सरकार ने शराब बंदी तो कर दी, लेकिन जगह-जगह अवैध शराब के बिकने-बिकवाने पर पूरी तरह बंदिश लगाने में असफल रही।
    हर बार की तरह इस बार भी मुख्यमंत्री महोदय का बयान आया कि आखिर लोगों को शराब कैसे मिल जाती है! शराब बंदी कानून की समीक्षा की जाएगी। जहां पर प्रशासन और माफिया मिले हुए हों वहां मुख्यमंत्री का ऐसा खोखला और बनावटी बयान गुस्सा दिलाता है। आप किसे मूर्ख बना रहे हैं सीएम साहब! आपको सब पता है। आप जानते हैं आपकी पुलिस तथा आबकारी विभाग बिका हुआ है। कुछ मंत्री भी उनसे रिश्वत की थैलियां पाते चले आ रहे हैं। बताने वाले तो यहां तक बताते हैं कि शराब माफियाओं, तस्करों और असली-नकली शराब के धंधेबाजों को तमाम ऊंचे लोगों का पूरा संरक्षण मिला हुआ है। तभी तो जब से प्रदेश में शराब बंदी हुई है, पियक्कड़ों को शराब मिलती चली आ रही है। जहरीली शराब पीकर हर बार गरीब ही मरते हैं। अमीरों को तो उनकी मनपसंद महंगी शराब उनके घर तक पहुंचा दी जाती है। आपका शराब बंदी का कानून भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाता। अवैध, नकली और सस्ती शराब पहले भी आदतन नशेड़ियों को परलोक पहुंचाती थी और आज भी सिलसिला बरकरार है। आप ही तय करें कि आपको क्या करना है। शराब बंदी कानून को सफलतापूर्वक अगर आप लागू नहीं करवा सकते तो यह आपकी घोर असफलता का ऐसा जीवंत दस्तावेज है, जिसके पन्ने तब-तब खोले जाते रहेंगे, जब-जब विषैली शराब पियक्कड़ों की जान और उनकी आंखों की रोशनी छीनती रहेगी और उनके परिवार वाले रोते-कलपते रहेंगे। तब-तब आपको भी कसूरवार मानकर कोसा जाता रहेगा कि कैसे अंधे मुख्यमंत्री हैं आप?

Friday, November 5, 2021

कैसी-कैसी कालिख

भारत और पाकिस्तान के बीच क्रिकेट मैच होने का मतलब है रोमांच, सनसनी, उत्तेजना और भी ऐसा बहुत कुछ जो हर बार देखने में आता है। 24 अक्टूबर, रविवार की शाम भारत और पाक के बीच हुई मानसिक और शारीरिक भिड़ंत में आखिरकार पाकिस्तान की क्रिकेट टीम विजयी रही। भारत के क्रिकेट प्रेमी और क्रिकेटर लगभग पूरी तरह से आश्वस्त थे कि पाकिस्तान की टीम को मुंह की खानी पड़ेगी। वह मैदान में टिक नहीं पायेगी, लेकिन क्रिकेट तो क्रिकेट है। पूर्व अनुमान धरे के धरे भी रह जाते हैं। बुरी तरह से भारत की टीम का हारना बहुत ही अचंभित करने वाला था। खासतौर पर क्रिकेट के दिवाने भारतीयों के लिए। उन्हें लगा कि पाकिस्तान की टीम ने भारत की टीम की नाक ही काट कर अपनी जेब में रख ली है। मायूस कर देने वाली इस शर्मनाक हार के बाद भी भारतीय कप्तान विराट कोहली का पाकिस्तानी क्रिकेटर मोहम्मद रिज़वान को खिलखिलाते हुए अपने गले से लगाना मुझे अत्यंत आनंदित कर गया। उनके चेहरे पर कहीं भी हार की शिकन नहीं थी। भारत-पाक के क्रिकेट मैच को हमेशा हिंसक लड़ाई मानकर चलने वालों को इस तस्वीर ने खेल के असली मायने बताने की भरपूर कोशिश की, लेकिन खेल के मैदान को युद्ध का मैदान मानने वालों ने इस मनमोहक तस्वीर की अनदेखी कर अपनी भीतरी नीचता उजागर कर ही दी। भारत में कुछ लोगों ने भारतीय टीम के विरुद्ध अपमानजनक बोल बरसाये और पाकिस्तान का झंडा लहराया। पटाखे फोड़े गये। मिठाइयां भी बांटी गयीं। उनकी बेइंतहा खुशी की वजह पाक की जीत से ज्यादा भारत की करारी हार थी, जिसकी वे राह देख रहे थे। फेसबुक पर पाकिस्तान के पक्ष में ऐसे-ऐसे नारे लिखे गये, जो हिंदुस्तान के प्रति उनकी घटिया और अहसानफरामोश सोच को दर्शाते रहे। नीचता की पराकाष्ठा के साथ पाकिस्तान की जीत का जश्न मनाने वालों को खूब कोसा और लताड़ा भी गया।
उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ ने तो इन थाली छेदक असामाजिक तत्वों को हिरासत में लेने के आदेश दे दिए। देशद्रोह के कानून के अंतर्गत जेल भेजे जाने से उनकी तो सिट्टी-पिट्टी गुम हो गई। देश विरोधी नारे लगाकर शांति को अशांति में बदलने वाले नर्मी के कतई हकदार नहीं हैं। कानूनी डंडे की जबरदस्त मार के हकदार वे भी हैं, जिन्होंने भारतीय तेज गेंदबाज मोहम्मद शफी को अभद्र शब्दावली से आहत किया। किसी ने टीम इंडिया में पाकिस्तानी तो किसी ने पाकिस्तान के पक्ष में एक मुस्लिम तुम्हें कितने पैसे मिले? जैसे अशोभनीय शब्द बाण चलाये। विश्वस्तरीय गेंदबाज शमी प्रारंभ से ही खेल और देश के प्रति पूरी तरह से समर्पित रहे हैं। शमी की गिनती उन भारतीय खिलाड़ियों में होती है, जिनमें धैर्य और संयम कूट-कूट कर भरा है। कुछ वर्ष पूर्व उन्हें उनकी पत्नी ने घरेलू हिंसा का आरोप लगाकर बदनाम करने का अभियान चलाया था, आज की तरह तब उनकी खामोशी ही उनका जवाब थी। वे क्रिकेट खेलते हुए कई बार चोटिल हुए। घुटनों का आप्रेशन भी करवाना पड़ा, लेकिन देश के लिए खेलने के जुनून को कहीं भी कमतर और ठंडा नहीं होने दिया।  यकीनन यह सवाल जवाब चाहता है कि यदि शमी के नाम के साथ मोहम्मद की बजाय खन्ना या कपूर लगा होता तो क्या तब भी उनकी देशभक्ति पर ऐसे ही कीचड़ उछाला जाता? कप्तान विराट कोहली ने शमी को अपमानित करने का अभियान चलाने वालों को खरी-खरी सुनायी, तो उन्हें धमकी देते हुए कहा गया कि तुम अपना काम करो। ज्यादा मुंह खोलोगे तो तुम्हारी बेटी का बलात्कार कर दिया जाएगा। कोहली की मासूम बेटी मात्र दस महीने की है।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में फिल्म निर्माता प्रकाश झा का मुंह काला कर दिया गया। हालांकि उनके मुंह पर जो स्याही फेंकी गयी वह लाल और नीले रंग की थी। इस कांड को अंजाम दिया बजरंग दल के योद्धाओं ने, जिन्हें हिन्दू धर्म को बदनाम करने की हिमाकत करने वाले शूल की तरह चुभते हैं। प्रकाश झा बड़े उत्साह के साथ भोपाल में अपनी वेबसीरीज आश्रम की शूटिंग में लगे थे। इससे पहले भी प्रकाश ने अपनी फिल्मो की शूटिंग यहां पर की है। अपार भीड़ उनकी परेशानियां तो बढ़ाती रही, लेकिन अपमानित किये जाने की नौबत पहली बार आयी। प्रकाश को भोपाल से ऐसी उम्मीद नहीं थी। प्रकाश झा को डराने और अपमानित करने की यह घटना बड़ी खबर नहीं बन पायी। सरकार ने भी काली चादर ओढ़े रखी। प्रकाश झा की आश्रम नाम की इस विवादास्पद वेबसीरीज का केंद्र बिंदू है धूर्त, पाखंडी, अय्याश बाबा राम रहीम, जो पिछले कई महीनों से जेल की सलाखों के पीछे अपने कुकर्मों की सजा भुगत रहा है। आश्रम के दो संस्करण पहले दिखाये जा चुके हैं। तब भी विरोध के स्वर उभरे थे। तीव्र सवाल भी उछाले गये थे कि हिंदू धर्म के ही नकली साधु-संतों पर ही फिल्में तथा वेबसीरीज क्यों बनायी जा रही हैं? दूसरे धर्मों में भी तो एक से एक लुच्चे, शैतान, कपटी, अय्याश धर्म के शिकारी और लुटेरे व्यापारी तथा भद्दे चेहरे भरे पड़े हैं। उन पर किसी की नजर क्यों नहीं जाती? हिंदुओं की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने की यह नीति अक्षम्य है। देश की जनता को घटिया और बदजात पेंटर मकबूल फिदा हुसैन की भी याद दिलायी गई, जिसने हिंदू-देवी देवताओं की अश्लील तस्वीरें बनाकर असंख्य भारतीयों की धार्मिक भावनाओं को लहूलुहान किया था। धन और नाम के भूखे अय्याश चित्रकार हुसैन ने जब देखा कि उसकी कमीनगी से आहत सजग देशवासी उसको सबक सिखाने की ठाने हैं, तो वह रातों-रात देश छोड़कर भाग खड़ा हुआ। प्रकाश झा की पहचान एक प्रगतिशील फिल्म निर्माता की रही है। कुछ अच्छी फिल्में भी उन्होंने बनायी हैं, लेकिन आश्रम वेबसीरीज में बेहूदगी और गंदगी की भरमार ने उन्हें कटघरे में खड़ा कर दिया है। धन कमाने की भूख ने उन्हें अनियंत्रित कर दिया है। राम रहीम कोई देवता नहीं। प्रकाश झा की नीयत में भी खोट है। एक ही धूर्त की काली दास्तान को और कितना खींचा जा सकता है, लेकिन लालच है कि खत्म ही नहीं होता!
जेल में उम्र कैद की सज़ा भुगत रहा राम रहीम कई वर्षों तक अपने हजारों अंध भक्तों की आंख में धूल झोंकते हुए हत्याएं और अय्याशियां करता रहा और जिन्होंने उसे बेनकाब किया उनकी भी हत्या करवा दी। ढोंगी प्रवचनकार आसाराम और अन्य कपटी नकली साधु भी आखिरकार बेनकाब कर दिये गए और वहां पहुंचा दिये गए, जहां उन्हें बहुत पहले होना चाहिए था। आश्चर्य यह भी कि अपने चेले-चपाटों की निगाह में वे आज भी बेकसूर हैं। पाक साफ हैं, लेकिन सच तो सच है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अपना खेल खेलने वाले हुसैन और प्रकाश झा जैसे धन और नाम के भूखों के विरोध में उठनी वाली तीखी आवाजों और कारणों को भी अनदेखा और अनसुना नहीं किया जा सकता, लेकिन उनके होश ठिकाने लगाने के लिए किसी भी तरह की हिंसा का समर्थन भी यह कलम नहीं करती...।