Thursday, May 30, 2013

छत्तीसगढ की माटी का सपूत

देश के बेइमान पूंजीपतियों, भ्रष्ट खनन माफियाओं, सरकारी ठेकेदारों और सत्ता के दलालों से हर वर्ष हजारों करोड रुपयों की वसूली कर देश के ही निर्दोषों को मौत के घाट उतारने वाले नक्सलियों ने छत्तीसगढ में हैवानियत का नंगा नाच कर एक बार फिर से अपने घोर हिं‍सक इरादे स्पष्ट कर दिये हैं। न तो उनमें इंसानियत बची है और न ही देश के कानून और संविधान के प्रति कोई आदर-सम्मान बचा है। अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए वे दरिंदगी की तमाम सीमांए भी लांघ सकते हैं। कहते हैं कि २०५० तक येन-केन-प्रकारेण उनका देश पर राज करने का इरादा है। इसी इरादे ने उनके हाथों में बम-बारुद और बंदूकें थमा दी हैं। इंसान से नरभक्षी बन चुके नक्सलियों को मुल्क के ही ऐसे कई बुद्धिजीवियों का भी भरपूर समर्थन हासिल है जिन्हें लोकतंत्र में ढेरों कमियां नजर आती हैं और देश का अमन-चैन कतई नहीं सुहाता। मानवाधिकार संगठन भी नक्सलियों के द्वारा किये जाने वाले रक्तपात को देखकर आंखें मूंद लेते हैं। उन्हें इंसानी खून महज लाल रंग नजर आता है और खूंखार नक्सली किसी क्रांतिकारी से कम नहीं लगते। छत्तीसगढ में कांग्रेस के काफिले पर जिस तरह से नक्सलियों ने हमला किया और चुन-चुन कर नेताओं और कार्यकर्ताओं को गोलियों से भूना उससे तो यही लगता है कि नक्सली हिं‍सक जानवरों को भी मात देने की ठान चुके हैं।
कांग्रेस के नेता और सलवा जुडूम के प्रणेता महेंद्र कर्मा के सीने में चालीस से ज्यादा गोलियां उतारने के बाद उनके मृत शरीर को ७८ बार चाकूओं से गोदना और फिर उनका सिर ईट-पत्थरों से कुचलने का भयावह निर्मम कृत्य खूंखार जंगली जानवर ही कर सकते हैं। उस पर उनकी लाश के इर्द-गिर्द पुरुष नक्सलियों के साथ-साथ महिला नक्सलियों का खुशी से झूमते हुए नृत्य करना सिर्फ और सिर्फ यही बताता है कि यह वहशी नक्सली जंगली भेडि‍यों से भी बदतर हैं। आखिर ऐसा कौन-सा गुनाह किया था महेंद्र कर्मा ने जो उन्हें ऐसी दिल दहला देने वाली मौत मारा गया? छत्तीसगढ में इसी वर्ष विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। नक्सलियों ने कांग्रेस की परिवर्तन यात्रा पर हमला कर अपनी असली मंशा जाहिर कर दी है। पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान भी नक्सलियों ने मतदाताओं को भयभीत करने के अनेकों प्रयास किये थे। उन्होंने बस्तर में लोगों को धमकाया था कि अगर मतदान किया तो उनका बहुत बुरा हश्र होगा। पर फिर भी नक्सली प्रभावित क्षेत्रों में लोगों ने मतदान में बढचढ कर भाग लिया था। नक्सलियों को इससे बहुत तकलीफ हुई थी। उन्हे यह अहसास भी हो गया था कि उनकी मनमानी ज्यादा दिन तक नहीं चलने वाली।
इस बार भी ऐन चुनाव से कुछ महीने पहले महेंद्र कर्मा और अन्य कांग्रेसियों को गोलियों से भूनने के पीछे नक्सलियों का एक ही मकसद है कि आतंक का ऐसा वातावरण बनाया जाए कि जिससे लोग मतदान करने की हिम्मत ही न कर पाएं। नक्सलियों की अंधी क्रुरता के शिकार हुए महेंद्र कर्मा बस्तर को हिं‍सा से मुक्त कराना चाहते थे। उन्होंने कभी भी चुनाव जीतने के लिए ओछी राजनीति का सहारा नहीं लिया। छत्तीसगढ में ऐसे नेताओं की भी कमी नहीं है जो चुनावी जंग जीतने के लिए सर्वप्रथम नक्सलियों तक थैलियां पहुंचाते हैं और उसके बाद ही अपने चुनाव प्रचार का बिगुल बजाते हैं। नक्सलियों ने पहले भी कई बार महेंद्र कर्मा को अपना निशाना बनाया था। ८ नवंबर २०१२ को हुए हमले में वे बाल-बाल बच गये थे। प्रदेश और देश के किसी दूसरे नेता पर इतने नक्सली आक्रमण हुए होते तो वह राजनीति से ही संन्यास ले लेता। ये महेंद्र कर्मा ही थे जो आखिर तक नक्सलियों के आतंक का सामना करते रहे और अपने लक्ष्य से कतई नहीं डिगे। यह सच भी कम चौंकाने वाला नहीं है कि कांग्रेस हो या भाजपा दोनों पार्टियों में अधिकांश ऐसे नेता भरे पडे हैं जो नक्सली इलाकों में जाने का साहस ही नहीं कर पाते। नक्सलियों के गढ बस्तर में रहकर नक्सलियों के खिलाफ जंग लडने वाले इस नेता ने इसी लडाई में अपने परिवार के कई सदस्यों को खोया और सतत एक सच्चे देशभक्त होने का उदाहरण पेश किया। यह तथ्य भी हैरान करने वाले है कि उनके मनोबल को तोडने की साजिशें रचने वालों में कई कांग्रेसी नेता भी शामिल थे। छत्तीसगढ की माटी के सपूत का आत्मबल अंत तक बरकरार रहा। वे निर्भीकता के साथ शहीद हो गये और यह संदेश भी छोड गये वो कायर होते हैं जो हिं‍सा-आतंक और अन्याय के समक्ष घुटने टेक दिया करते हैं। महेंद्र कर्मा को अमानवीय मौत देने के बाद भी नक्सलियों की हैवानियत की आग नहीं बुझी। उनकी अंत्येष्टि के दौरान नक्सलियों ने उनके परिवार के सदस्यों को सात दिन के भीतर गांव छोडकर चले जाने की धमकी दे डाली।
शहीद कर्मा के सुपुत्र छबींद्र कर्मा ने भी अपने पिताश्री के अंदाज में हत्यारों को जवाब देने में देरी नहीं लगायी। उन्होंने हत्यारों को चुनौती दी है कि वे मैदान छोडकर कभी भी नहीं भागेंगे। वे अपने परिवार समेत गांव में ही रहकर आदिवासियों को उनके खिलाफ एकजुट कर सतत लडते रहेंगे। भले ही उन्हें तथा उनके परिवार के हर सदस्य को अपनी जान की कुर्बानी ही क्यों न देनी पडे...। छत्तीसगढ की माटी के इन जांबाज सपूतो को हमारा नमन और सलाम...।

Friday, May 24, 2013

खाली गिलास और फरेबी राजनीति

इस देश के अधिकांश नेताओं की राजनीति के अंदाज बडे ही निराले हैं। जब अर्श पर होते हैं, तो सीधे मुंह बात ही नहीं करते। फर्श पर गिरते ही अपना चोला उतार फेंकते हैं और गिरगिट को मात देने लगते हैं। मेरे पाठक मित्र वसुंधरा राजे के नाम से बखूबी वाकिफ हैं। सिं‍धिया परिवार की यह दबंग बेटी राजस्थान की मुख्यमंत्री भी रह चुकी हैं। इनके भ्राता माधवराव सिं‍धिया कांग्रेस के वफादार साथी थे। इसलिए उन्हें वर्षों तक केंद्र की सत्ता का उपभोग करने का सुअवसर मिलता रहा। उनकी माताश्री विजया राजे सिं‍धिया उस जमाने की जनसंघ और वर्तमान भारतीय जनता पार्टी की ऐसी सिपाही थीं जिनकी वफादारी पर कभी भी किसी ने उंगली नहीं उठायी। अलग-अलग पार्टियों में अपने-अपने करतब दिखाने के चलते मां-बेटे में कभी नहीं निभ पायी। माधवराव के पुत्र ज्योतिरादित्य सिं‍धिया भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चलते हुए सत्ता का सुख भोगते चले आ रहे हैं। वसुंधरा राजे अपनी मां का अनुसरण कर भारतीय जनता पार्टी के रथ की सवारी का मज़ा लेती चली आ रही हैं। जब तक राजस्थान की कुर्सी हाथ में थी तब तक तो सब ठीक था। कुर्सी छिनते ही वे नदी से बाहर फेंक दी गयी मछली की तरह फडफडा रही हैं। सत्ता खोने की बेचैनी ने उनकी नींद उडा रखी है। वे येन-केन-प्रकारेण राजस्थान की मुख्यमंत्री बनने को बेचैन हैं। उन्होंने यह दिखाने की कोशिशे भी शुरू कर दी हैं कि लोगों ने उनके बारे में जो धारणा बना रखी है वह तो विरोधियों के षडयंत्र का परिणाम है। वे तो एकदम सीधी और सरल महिला हैं जिनका अहंकार से कई कोई नाता नहीं है। हमेशा आलीशान कारों के काफिले के साथ चलने वाली इस बगावती नेत्री के मन में बीते सप्ताह जयपुर के हनुमान मंदिर में पूजा-अर्चना की इच्छा जागी। वैसे भी चुनावी मौसम के निकट आते ही नेताओं का धर्म-कर्म के प्रति झुकाव बढ जाता है। उन्हें गरीबों और असहायों की भी याद हो आती है। इसी वेदना के वशीभूत कोई राजनेता किसी आदिवासी के यहां रात बिताता है और उसके यहां का रूखा-सूखा खाना खाता है। किसी को कर्ज के बोझ तले दबकर आत्महत्या करने वाले किसानों के परिवारों की एकाएक चिं‍ता-फिक्र सताने लगती है और वह उसकी उजडी चौखट पर संवेदना की थैली लेकर पहुंच जाता है। तभी तो इस देश के राजनेताओं को दुनिया का सबसे बडा अजूबा प्राणी भी कहा जाता है। वसुंधरा तो उस पार्टी की सहयात्री हैं जिसकी राजनीति ही धर्म की नींव पर टिकी हुई है। पवन पुत्र हनुमान के दर्शन करने के लिए वसुंधरा एक रिक्शे पर सवार हो गयीं। भरी धूप में पूर्व मुख्यमंत्री को रिक्शे की सवारी करते देख लोग स्तब्ध रह गये। यही तो वे चाहती थीं। दिलशाद नामक रिक्शे वाला भी गदगद हो गया। उन्होंने उसे मंदिर पहुंचाने की ऐवज में पंद्रह सौ एक रुपये की बख्शीश भी दी। मैडम ने उसका मोबाइल नंबर भी लिया जिसे अपने मोबाइल में फौरन सेव कर लिया। रिक्शा चालक की खुशी का तो कोई ठिकाना ही नहीं था। एक मुश्त डेढ हजार की कमायी और उस पर प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री को अपने रिक्शे पर बैठाकर मंदिर पहुंचाने का अद्भुत मौका और आनंद! गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर भी इन दिनों खुद को आम आदमी का संगी-साथी दिखाने का भूत सवार है। उन्हें देश की बेटियों और महिलाओं की चिं‍ता कुछ ज्यादा ही सताने लगी है। छत्तीसगढ के राजनांदगांव में ४५ डिग्री की सुलगती धूप में मोदी ने जनता से सीधे संवाद की शैली में प्रधानमंत्री पर प्रहार करते हुए कहा कि मेरी आप सबसे गुजारिश है कि अपनी जवान बेटियों को दिल्ली न भेजें क्योंकि वहां मनमोहन सिं‍ह बैठे हुए हैं। भारतवर्ष के प्रधानमंत्री बनने को बेताब नरेंद्र मोदी के पक्ष में भी जबर्दस्त माहौल बनाया जा रहा है। न्यूज चैनल वालों ने तो मोदी को भविष्य का प्रधानमंत्री घोषित कर दिया है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को मोदी की तुलना में काफी बौना बताया जाने लगा है। जो काम देश के मतदाताओं को करना है उसे न्यूज चैनलवालों ने अपने हाथ में ले लिया है। चैनली भविष्यवक्ता जिस तरह से मोदी के पक्ष में हवा बना रहे हैं उससे तो यही लग रहा है कि इस देश के मतदाताओं ने मोदी को ही अपना एकमात्र मसीहा मान लिया है जो चुटकी बजाते ही उनकी तमाम तकलीफें दूर कर देगा। दूसरी तरफ मनमोहन सरकार ने अपने कार्यकाल के चार साल पूर्ण करने के उपलक्ष्य में जश्न मनाया। भले ही सरकार ने भ्रष्टाचार और घोटालों का कीर्तिमान रचा हो पर उसने भी यह भ्रम पाल लिया है कि देशवासियों की याददाश्त बेहद कमजोर है।
प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह ने यूपीए-२ का रिपोर्ट कार्ड पेश करते हुए कहा कि विपक्ष की तो शोर मचाने की पुरानी आदत है। हमने जब सत्ता की कमान संभाली थी तब देश की हालत जर्जर हो चुकी थी। दरअसल हमें तो खाली गिलास ही मिला था। इस गिलास को भरने के लिए समय तो लगेगा ही। पर हमारे विरोधी सब्र करने को तैयार ही नहीं हैं। हमारी सरकार ने ही तो भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल पेश किया। बीते ९ साल में गरीबी घटी है। महंगाई पर काबू पाया गया है। हमने व्यवस्था को पारदर्शी बनाया है और हमारे ही कार्यकाल में दुनिया के दूसरे देशों से अच्छे और बेहतर रिश्ते बने हैं। कांग्रेस की सुप्रीमों सोनिया गांधी ने भी सरकार की उपलब्धियां गिनाने में अपनी पूरी ताकत लगा दी और भारतीय जनता पार्टी को जी भरकर कोसते हुए कहा कि यह पार्टी संसद ही नहीं चलने देती। इसके कारण कई अहम कानून पास नहीं हो पाए। हम तो बहुत कुछ करना चाहते थे पर इस पार्टी ने हमारा रास्ता रोक लिया। दरअसल आम आदमी को किसी की भाषा समझ नहीं आ रही है। वह बेचारा तो हैरान और परेशान है कि जो सरकार खाली गिलास को पूरे नौ साल तक सत्ता-सुख भोगने के बाद भी नहीं भर पायी उसके कहे को सच मानें या उनकी सुनें जो केंद्र की सत्ता पाने के लिए मजमें लगा रहे हैं और उछल-कूद रहे हैं...।

Thursday, May 16, 2013

आज के नायक

मंत्री जी उदास थे। गुस्सा आ रहा था। एकांत में जी भरकर रो लेने की इच्छा भी हो रही थी। इस साले भांजे ने क्या कर डाला! रिश्वत लेने का सलीका भी भूल गया। मात्र ९० लाख की घूस लेते दबोच लिया गया। बेवकूफ को समझाया भी था कि रंगे हाथ पकडे जाने से बचना। इसकी जल्दबाजी ने मेरी रेलमंत्री की कुर्सी ही छीन ली। दूसरे मंत्रियों के दामाद और साले अरबों-खरबों खाते हैं और डकार भी नहीं लेते। इसने तो सबकुछ उगल डाला। भरे बाजार मेरे कपडे उतरवा दिये। सोनिया जी और डॉ. मनमोहन को मुझ पर कितना यकीन था। यह भरोसा वर्षों की मेहनत की बदौलत बना था। एक ही झटके में सबकुछ तबाह हो गया। जैसे कोई भूचाल आया हो और कई आलीशान इमारतों को धराशायी कर चलता बना हो। मंत्री जी ने तो कई योजनाएं बना रखी थीं। भारतीय रेल के दोहन के बडे-बडे मंसूबे पाल रखे थे। पांच-सात महीने में अपनी पंद्रह पीढि‍यों के भविष्य को सुरक्षित कर गुजरने की ठानी थी। पार्टी को भी उनसे बहुतेरी उम्मीदें थीं। किसी भी रेल मंत्री के लिए अरबो रुपये का पार्टी फंड जुटाना बाएं हाथ का खेल होता है। रामविलास पासवान से लेकर लालूप्रसाद यादव तक सबने रेल को नोचा है। तभी तो सत्ता से बाहर रहने के बावजूद अपनी राजनीति की दूकानों को शान से चलाते चले आ रहे हैं।
मंत्री जी के दिमाग की सडक पर दौडने वाली रेल की तो जैसे ब्रेक ही फेल हो गयी। वह तो भागे ही चली जा रही थी। उनके शुभचिं‍तको ने उन्हे घेर लिया। परिवार के वर्षों पुराने पुरोहित ने कुर्सी बचाने का एक अचूक उपाय बताया। मंत्री जी ने भी फौरन एक हट्ठा-कट्ठा बकरा मंगवा लिया। उन्हें यकीन था कि बकरे की बलि देने से मैडम सोनिया और पीएम मनमोहन का दिमाग दुरुस्त हो जायेगा और वे अपने रेल मंत्री की बलि लेने का विचार त्याग देंगे। यह तो बकरे की किस्मत अच्छी थी कि न्यूज चैनल वालों की उस पर नजर पड गयी। बकरा कुर्बान होने से बच गया। मंत्री जी ने बडी सज्जनता दिखायी। इस काम में उनकी धर्मपत्नी ने भी पूरा साथ दिया। अपने पति देव को बकरे के सामने नतमस्तक करवा कर मीडिया तक यह संदेश पहुंचा दिया कि हमारा इरादा वैसा नहीं था जैसा वे सोच रहे थे। मंत्री जी न्यूज चैनल वालों की सक्रियता से बौखला उठे। उन्होंने आखिरकार कह डाला कि मीडिया ने ही उनकी बलि ली है। मीडिया अगर उछल-कूद नहीं मचाता तो आलाकमान के दिमाग में उनका इस्तीफा मांगने का विचार ही नहीं आता।
वैसे तो ऐसे मामलों में मीडिया पहले भी कई सफेदपोशों को नाराज कर चुका है। इस सदी के तथाकथित महानायक ने भी तब मीडिया को ही बकवासी ठहराया था जब उन्होंने अपनी होने वाली बहू ऐश्वर्या के मांगलिक दोष निवारण के लिए उसकी शादी पेड से करवायी थी। इस देश में अभिनेता को भगवान मानने वालों की अच्छी-खासी संख्या रही है। उन दिनों एक तरफ उनके नाम पर मंदिर बनाने की खबरें मीडिया में छायी थीं तो दूसरी तरफ खुद भगवान अपने परिवार की सुख-शांति के लिए देशभर के मंदिरों और मजारों पर माथा टेकते घूम रहा था। देश के कुछ बुद्धिजीवियों ने नये भगवान की आलोचना में जमीन-आसमान एक कर दिया था। साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने कटाक्ष करते हुए लिखा था: ''लाखों प्रशंसको के आदर्श पुरुष का दुनियाभर के भगवानों, देवी, देवताओं से आशीर्वाद लेते घूमना दर्शाता है कि यह शख्स दिखावे का नायक है। दरअसल यह तो एक घोर अंधविश्वासी, कायर और भयग्रस्त आम इंसान है। इसके मन में यह बात घर कर गयी है कि अपनी होने वाली बहू की पेड से शादी करवाने और पत्थर की मूर्तियों पर करोडों का चढावा चढाने के बाद संभावित तकलीफों से छुटकारा पा लेगा और दुनियाभर की तमाम खुशियां इसकी झोली में समां जाएंगी।''
कहानीकार राजेंद्र यादव अमिताभ बच्चन के पिताश्री हरिवंशराय बच्चन की पीढी के सजग साहित्यकार रहे हैं। उन्होंने उन्हें करीब से देखा और समझा था। तभी तो वे यह बताने से भी नहीं चूके कि अमिताभ बच्चन तो अपने पिता को अपना आदर्श मानते हैं। ऐसे में वे कैसे भूल गये कि उनके पिता नास्तिक थे। अंधविश्वास से उनका कोई लेना-देना नहीं था। ऐसे कवि पुत्र का विभिन्न देवी-देवताओं से प्रमाणपत्र बटोरने फिरना यही दर्शाता है कि एक ढोंगी बेटा अपने पिता के जीवन मूल्यों का सरासर अपमान कर रहा है। देशभर के और भी कई विद्धानों ने भयग्रस्त नायक पर जमकर तीर चलाये। हर किसी ने यही कहा कि मंदिरों और मजारों को करोडों की दान-दक्षिणा देने वाला यह शख्स वास्तव में अगर सच्चा नायक होता तो इस धन को गरीबों, बदहालों के विकास और उनकी शिक्षा-दीक्षा के लिए अर्पित कर देता। पर्दे के नायक ने घोर आडंबरबाजी कर अपना असली चेहरा दिखा दिया है। बुद्धिजीवियों की आलोचनाओं की तीखी बौछारों ने अमिताभ को इस कदर आहत किया था कि आखिर उन्हें अपने पिता की लिखी कविता की इन पंक्तियों का सहारा लेना पडा था:
''छुपाना जानता तो, जग मुझे साधु समझता
शत्रु बन गया है, छल रहित व्यवहार मेरा''
अमिताभ ने उपरोक्त पंक्तियों के माध्यम से यह बताने की पुरजोर कोशिश की, कि, मुझे लुकाना और छुपाना नहीं आता। मैं ऐसा ही हूं। यह लोग ही हैं जो जब-तब उनकी तुलना उनके महान पिता हरिवंशराय बच्चन से करने लगते हैं। नायक ने इशारों ही इशारों में यह भी कहा कि जो छुपाते हैं लोग उन्हें सिर पर बिठाते हैं और साधु-संत का दर्जा देते नहीं थकते। कोई छल-कपट न करते हुए मैंने वही किया जो मैंने चाहा और मुझे अच्छा लगा। ऐसे में मैं बुरा हो गया...!
बहरहाल, अमिताभ बच्चन तो मंजे हुए अभिनेता हैं। कइयों के भगवान भी हैं जो उन्हें सतत पूजते हैं। भगवान कभी झूठ नहीं बोला करते। भगवान गलत भी नहीं हो सकते। देश के भूतपूर्व रेल मंत्री लालू प्रसाद यादव भले ही राजनीति के जोकर हैं पर वे भी कभी-कभी सच बोल दिया करते हैं। उन्होंने रहस्योद्घाटन किया है कि जब वे देश के रेल मंत्री थे तब उन्होंने रेलभवन में विश्वकर्मा और कृष्ण भगवान की मूर्तियां स्थापित करवायी थीं। उन्होंने उनसे कह रखा था कि मेरी और रेल की देखभाल की जिम्मेदारी आप पर ही है...। विद्वान नेता लालूप्रसाद यादव यकीनन यह कहना चाहते हैं कि अगर पवन बंसल ने मुझे अपना गुरु माना होता और मेरे पदचिन्हों पर चलते तो उनकी सत्ता और इज्जत पर कभी कोई आंच नहीं आती।

Thursday, May 9, 2013

जनता किसके साथ है?

देश अब क्या करे? कितना रोये और कितनी बार अपना माथा पीटे! जिन लोगों के हाथों में सत्ता है उनमें से आधे से ज्यादा भ्रष्टाचार के दलदल में धंसे हैं। यह इतने जिद्दी और बेशर्म हैं कि इन्होंने कभी भी न सुधरने की कसम खायी हुई है। जिस देश का प्रधानमंत्री ही सवालों के घेरे में हो वहां के मंत्रियों और संत्रियों को भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का नंगा तांडव मचाने से कौन रोक सकता है? देश की वर्तमान केंद्र सरकार अपना एक पाप धोने की कोशिश करती है कि दूसरा सिर तानकर खडा हो जाता है। सरकार की असली मंशा तो यही दिखती है कि वह अपने इर्द-गिर्द के भ्रष्टाचारियों को बेनकाब होते देखना ही नहीं चाहती। पारदर्शिता से तो जैसे उसने अपना नाता ही तोड लिया है। सीबीआई को भी उसने अपनी कठपुतली बनाकर रख दिया है। ऐसे में मंत्री तो मंत्री उनके रिश्तेदार भी बहती गंगा में हाथ धोने का कोई मौका नहीं छोड रहे हैं।
कभी किसी का दामाद तो कभी किसी का भतीजा और बेटा अरबों-खरबों के घोटाले कर गुजरता है तो कभी खुद मंत्री महोदय ही अपने काले चेहरे के साथ मीडिया में सुर्खियां पाते हैं और फिर बडी निर्लज्जता के साथ बयानबाजियों पर उतर आते हैं। कुछ माननीय सांसद और राज्यसभा सदस्य खुद तो कोयले की खदाने हडपते ही हैं, अपने मित्रों को भी नामी-बेनामी कंपनियों का मालिक दिखाकर हजारों करोड की खदानों की सौगात दिलाने में कामयाब हो जाते हैं। ऐसे ही राष्ट्रीय संपदा के लुटेरों ने रेलवे को भी नहीं बख्शा। रेलमंत्री के भांजे के रिश्वतकांड के सामने आने के बाद कई सवालों के जवाब खुद-ब-खुद मिल गये हैं। रेलमंत्री की कुर्सी हथियाने के लिए राजनेता क्यों जमीन-आसमान एक कर देते हैं इसके पीछे छिपे असली मकसद का भी पर्दाफाश हो गया है। वैसे तो हर रेलयात्री जानता-समझता है कि रेलवे में जमकर भ्रष्टाचार होता है। टी.सी. की रिश्वतखोरी एकदम आम बात है। मंत्री-अधिकारी भी खूब मिल-बांटकर खाते हैं। पर रेलमंत्री पवन बंसल के भांजे ने तो उस रहस्य से भी पर्दा हटा दिया है जो अभी तक पूरी तरह से उजागर नही हुआ था। मात्र कयास लगाये जाते थे। रेलमंत्री के भांजे के रंगे हाथ दबोचे जाने के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि रेलवे में वरिष्ठता और योग्यता कोई मायने नहीं रखती। चाटुकारिता और संबंध काम आते हैं। पदों की बोलियां लगती हैं जिनकी जेब में दम होता है वही बाजी मार ले जाते हैं। वैसे तो यह फार्मूला हर कमाऊ विभाग में अपनाया जाता है। पर रेलवे में रेलें धीमीं और थैलियां बडी तेजी से दौडती हैं जो बैठे-बिठाये थैलीशाहों को मनचाही मंजिल तक पहुंचा देती हैं।
रेलमंत्री के भांजे को रेलवे के एक अफसर से ९० लाख रुपये की घूस लेते हुए रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया गया पर मंत्री महोदय यह कहकर बचने की कोशिश में लग गये कि मेरा इससे कोई लेना-देना नहीं है। उनका बस चलता तो भांजे को पहचानने से ही इंकार कर देते। अपनी बहन को मुंह दिखाना था इसलिए संवेदनशील रिश्ते को नकार नहीं पाये। भांजे और मामा में जबर्दस्त तालमेल नजर आता है। तभी तो रिश्वत देने वाले अफसर को पदोन्नति का जो पत्र थमाया गया उस पर मंत्री जी के ही हस्ताक्षर हैं। यानी सबकुछ पहले से ही मिल-बैठकर तय कर लिया गया था। यह भी बताया जा रहा है कि भांजा और मामा बडे ही मंजे हुए खिलाडी हैं। मामा के इशारे पर नाचने वाला यह कमाऊ भांजा तरह-तरह के गुल खिलाता रहा है। शातिर भांजे के हाथ काफी लंबे हैं। वह रेलवे प्रशासन में काफी अंदर तक अपनी पहुंच रखता है। रेलवे में स्थानांतरण, नियुक्तियां और अन्य कार्य करवाना उसके बायें हाथ का खेल रहा है। भांजा ही मामा के सभी आडे-तिरछे लेन-देन का काम देखता था। यह कोई छोटी-मोटी रिश्वत का मामला नहीं था। दरअसल यह दस करोड की रिश्वत का खेल था जिसका पर्दाफाश हो गया और रेलमंत्री पवन बंसल का असली चेहरा सामने आ गया। जिस महेश कुमार नामक अधिकारी ने यह सौदेबाजी की और ९० लाख की किश्त देते वक्त धर लिया गया उसका इरादा भी ढेर सारा माल कमाने का था। रेलवे में अरबों-खरबों के विद्युत-सामानों की आपूर्ति के ठेके दिये जाते हैं। महेश कुमार रेलवे में मेंबर इलेक्ट्रिकल बनकर पचासों करोड कमाने के मंसूबे बना चुका था। कई सप्लायरों से उसने पहले से ही मामला तय कर लिया था। किसको कितना देना है और भारतीय रेलवे को कितना चूना लगाना है उसकी भी पूरी तैयारी कर ली गयी थी। रेलवे को मनचाहा चूना लगाने का यह खेल भी कोई नया नहीं है। जितने के विद्युत उपकरण सप्लाई किये जाते हैं उससे कई गुणा ज्यादा के बिल बनाये जाते हैं। इसलिए तो रेलवे वहीं का वहीं है और मंत्री-अधिकारी और कर्मचारियों के ठाठ देखते बनते हैं। रेलमंत्री पवन बंसल तो वैसे भी पुराने घुटे हुए खिलाडी हैं। सांसद और रेलमंत्री बनने के बाद उन्होंने बेहिसाब धन कमाया और सम्पतियां बनायीं। उनके तमाम रिश्तेदारों की संपत्ति में लगातार जो इजाफा हुआ वह भी कम चौंकाने वाला नहीं है। २००६ में बंसल के वित्त राज्यमंत्री बनते ही उनके करीबी रिश्तेदारों की तो जैसे लाटरी ही खुल गयी। सभी ने दोनों हाथों से दौलत बटोरी और आलीशान कोठियों और तमाम सुख-सुविधाओं का साम्राज्य खडा कर लोगों को हैरत में डाल दिया। बदकिस्मती से भांजा सीबीआई की चपेट में आ गया और मक्कार मामा की पोल खुल गयी। इतना सबकुछ होने के बाद भी मनमोहन सरकार भ्रष्ट रेलमंत्री के साथ खडी है! उन्हें पाक-साफ बताया जा रहा है। अपने भ्रष्ट मंत्रियों का साथ देना कांग्रेस के लिए कोई नयी बात नहीं है। कर्नाटक में मिली जीत ने उसके हौसले बढा दिये हैं। उसे लग रहा है कि देश की जनता उसके साथ है...।

Saturday, May 4, 2013

अहसान फरामोश पाकिस्तान

मैं यह दावे के साथ कह सकता हूं कि अगर पाकिस्तान हिं‍दुस्तान का शुभचिं‍तक होता तो उसका नाम दुनिया के खुशहाल देशों में शुमार होता। पाकिस्तान के खुदगर्ज शासकों ने भारत में बम-बारूद बिछवाने और आतंक का कहर बरपाने को इस कदर प्राथमिकता दी कि वे अपने ही देशवासियों के हित को नजरअंदाज कर गए। उन्हें भारत की खुशहाली तो कभी रास ही नहीं आयी। अपने देश की बदहाली भी दूर नहीं कर पाये। भारतवर्ष के हुक्मरानों ने पाक के शासकों को अमन के रास्ते पर लाने की लाख कोशिशें कीं। पर कुत्ते की पूंछ टेढी की टेढी ही रही। दरअसल हमारे देश के सत्ताधीश शातिर पडौसी मुल्क को जानने-परखने के बाद भी मौके पर मौके देते रहे और वह अहसान फरामोश इसे उनकी कमजोरी ही समझता रहा। उसने हमारी संसद पर हमला कराया। मुंबई पर आतंकी आक्रमण करवाकर निर्दोषों का लहू बहाया, जानें लीं। देश में जहां-तहां उसी ने बम-बारूद बिछवाये और खून खराबे करवाये। यह पाकिस्तान ही है जिसने मुंबई धमाकों को अंजाम देने वाले राष्ट्रद्रोही दाऊद इब्राहिम और उसके गुर्गों को पनाह दी। यह झूठा और फरेबी मुल्क हमेशा यही कहता आया है कि भारतवर्ष में होने वाली आतंकी गतिविधियों में उसका कभी कोई हाथ नहीं रहा। पर जैसे ही अजमल कसाब को फांसी पर लटकाया तो वहां के शैतान शासको में खलबली मच गयी। उन्हे अपने लिखाये-पढाये अजमल कसाब को कुत्ते की मौत मार दिये जाने पर बेहद पीडा हुई। वे और तो कुछ कर नहीं सकते थे। इसलिए कायरों ने पाकिस्तान के लाहौर की जेल में सजा काट रहे भारतीय कैदी सरबजीत सिं‍ह को बुरी तरह से पिटवा कर मरणासन्न स्थिति में पहुंचा दिया और आखिरकार उसकी मौत हो गयी। कुछ दिन पहले एक अन्य हिं‍दुस्तानी कैदी चमेल सिं‍ह को भी ऐसी ही खूंखार जानलेवा दरिंदगी का शिकार बनाकर मौत के घाट उतार दिया गया था। गिद्धों की तरह उसके शरीर के कुछ अंग भी नोच खाये गये। यह है पाकिस्तान का असली चेहरा। दूसरी तरफ हिं‍दुस्तान है कि जिसने पाकिस्तान के ९० हजार सैनिकों को गिरफ्तार करने के बाद भी माफ कर दिया था और सही-सलामत उनके देश भेज दिया था। ऐसे मामलों में हम भारतवासी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अनुयायी हैं। अहिं‍सा के सच्चे पुजारी हैं और वो दो टक्के का देश पाकिस्तान उस जिन्ना को अपना आदर्श मानता है जिसने भारत के विभाजन के बीज बोये थे। उसके अंदर तो हिं‍दुस्तान के प्रति नफरत ही भरी हुई थी। वही नफरत आज भी पाक के हुक्मरानो में जिन्दा है।
२६ जून २०१२ को देश के तमाम अखबारों और न्यूज चैनलों पर यह खबर आयी थी कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने सरबजीत सिं‍ह की मौत की सजा को उम्र कैद में बदल दिया है। पहले से ही २२ साल की सजा काट चुकने के कारण उसकी रिहाई तय मानी जा रही थी। उसके गांव के लोगों ने खुशियां मनायी थीं। भारत सरकार ने भी खुशी जाहिर की थी। बाद में कोई ऐसी खिचडी पकी कि उसकी रिहाई अटकी की अटकी रह गयी। गौरतलब है कि १९९० में लाहौर और फैसलाबाद जिले में सीरियल धमाके हुए थे जिनमें कुल मिलाकर १४ लोग अल्लाह को प्यारे हो गये थे। धमाकों की जांच के दौरान पाकिस्तान की पुलिस को पता चला था कि इन धमाकों के पीछे किसी मनजीत सिं‍ह नामक शख्स का हाथ है। इन धमाकों के तीन महीने बाद सरबजीत सिं‍ह शराब के नशे में रास्ता भटक कर पाकिस्तानी क्षेत्र में जा पहुंचा। पुलिस ने उसे मनजीत करार देकर हथकडिं‍यां पहना दीं। १९९१ में सरबजीत को फांसी की सजा सुना दी गयी। पाकिस्तान की सरकार चाहती तो सरबजीत पर रहम दिखा सकती थी पर उसके मन में भडकने वाली प्रतिशोध की आग कभी ठंडी नही हो पायी। उसकी हमेशा तमन्ना रही है कि उसके द्वारा भेजे जाने वाले अजमल कसाब जैसे आतंकी हत्यारे भारत के लोगों की जानें लेते रहें और हमारी सरकार चुपचाप बैठी रहे। कानून भी उन्हें माफ कर दे। पर ऐसा कैसे हो सकता है? पाकिस्तानी सरकार वहां के उग्रपंथियों के हाथों का खिलौना बन कर रह गयी है। हाल ही में जिन अपराधियों ने सरबजीत पर जानलेवा हमला कर उसकी जान ले ली, वे पहले भी उसे अपना शिकार बना चुके हैं। ऐसे में यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि सरबजीत को मौत के घाट उतारने की साजिश रची गयी। अगर वहां की सरकार की नीयत साफ होती तो सरबजीत को पूरी सुरक्षा दी जाती। पाकिस्तान के ही कुछ अखबारों में छपी खबरें हकीकत से रूबरू करा देती हैं। सरबजीत सिं‍ह लाहौर की जिस जेल में बंद था वहां पर बिना अधिकारियों की मिलीभगत के हमला हो पाना संभव ही नहीं था। सरबजीत पर कातिलाना हमला संसद पर हमले के दोषी आतंकवादी अफजल गुरु को नई दिल्ली के तिहाड जेल में दी गयी फांसी की प्रतिक्रिया है...।
दरअसल पाकिस्तान की मंशा तो सरबजीत को फांसी पर लटकाने की थी। अफजल की फांसी के विरोध में पाकिस्तान में भारत विरोधी प्रदर्शन भी हुए थे। यहां तक कि राष्ट्रपति आसिफ अली जरदारी ने अफजल को श्रद्धांजलि भी दी थी। भारत की संसद पर हमला करने वाला आतंकी पाकिस्तानी जनता और वहां के राष्ट्रपति के लिए कितना प्रिय था उसका भी इससे पता चलता है। मुंबई आतंकी हमलों के दोषी आमिर अजमल कसाब को भी भारत में फांसी दिये जाने के बाद बिलकुल ऐसा ही माहौल बना और बनाया गया था। ऐसे में यह मान लेना गलत होगा कि सरबजीत पर किया गया जानलेवा हमला कोई सामान्य घटना थी।

Thursday, May 2, 2013

कहां से आते हैं बलात्कारी?

पांच साल की बच्ची को तो कुछ भी पता नहीं होता। वह तो सिर्फ अपने मां-बाप, भाई-बहनों और अपने करीबी रिश्तेदारों के ही करीब होती है। उन्हीं के दुलार-प्यार और ममता की छाया में खेलते-कूदते हुए धीरे-धीरे बढी होना शुरू करती है। उसे तो इस बात की कल्पना भी नहीं होती कि उसके इर्द-गिर्द हैवान और शैतान भी बसते हैं। शैतानों को ऐसी मासूम बच्चियों के साथ दुराचार करते समय अपने घर-परिवार की बेटियां याद क्यों नहीं आतीं? हवस की आग में वे यह क्यों भूल जाते हैं कि वे जानवर की नहीं, इंसान की औलाद हैं? वैसे ऐसे दरिंदो की तुलना जानवरों से करना भी बेमानी है क्योंकि जानवर भी ऐसी नीच हरकतें नहीं करते। दिल्ली में पांच वर्षीय बच्ची के साथ दुष्कर्म करने वाले मनोज और प्रदीप ने ब्लू फिल्म देखने के बाद बडी आसानी से क्रुर कर्म को अंजाम दे डाला। मनोज को तो अपने गांव के घर में बेफिक्री की नींद भी आ गयी थी।
बलात्कार पीडि‍ता बच्ची के पिता की नींद उड चुकी है। उन्हें बदनामी का डर सता रहा है। एक असहाय पिता का कहना है कि अब हम गांधीनगर का इलाका ही छोड देंगे। इतनी बदनामी के बाद वहां रहना मुश्किल है। गांधीनगर की वह गली, घर और उस दरिंदे का कमरा देखकर मन विचलित होने लगता है। असहनीय पीडा के पहाड के बोझ तले दबे पिता को अपनी बिटिया के ठीक होने का बेसब्री से इंतजार है। बेटी के स्वस्थ होने के बाद वह इस इलाके की परछायी से भी दूर रहना चाहता है। कामुक दरिंदों ने उसकी बेटी को ऐसा दर्द दिया है जिसे वह शायद ही कभी भूल पाए। पिता को इस बात की भी चिं‍ता है कि कहीं लोग उसकी बेटी का जीना हराम न कर दें। स्कूल में पढाई-लिखायी के दौरान ताने मारे जाने का भय भी पिता को डराता है। पिता को यह चिं‍ता भी खाये जा रही है कि अगर बेटी इस हादसे को नहीं भूल पायी और उसके दिलो-दिमाग पर बलात्कारी दरिंदे की हैवानियत हावी रही तो वह अपनी उम्र कैसे काट पायेगी? दूसरी तरफ बलात्कारी मनोज अपने किये पर कतई शर्मिंदा नहीं है। उसे जब तिहाड जेल में लाया गया तो उसके चेहरे पर शातिराना मुस्कान थी। मनोज के प्रति कैदियों में जबरदस्त गुस्सा है। कुछ कैदियों ने उसकी पिटायी भी कर दी। गुस्साये कैदी तो इस हैवान को ऐसा सबक सिखाना चाहते हैं कि जिसे वह आखिरी सांस तक भूला न पाए। दिल्ली तो बलात्कारों की कालिख से सतत दागदार होती चली आ रही है, अब तो छोटे-छोटे शहर भी बच्चियों के साथ होने वाले बलात्कार के कहर की मार झेलने को विवश होने लगे हैं।
मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के घनसौर थाना क्षेत्र में एक वहशी ने चार साल की मासूम बच्ची पर बलात्कार कर उसे मरणासन्न स्थिति में पहुंचा दिया। बच्ची नागपुर के एक अस्पताल में मौत से जंग लड रही है। अबोध बच्चियों के साथ हो रहे दुराचारों ने आम और खास लोगों में आक्रोश भर दिया है। फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन को कभी आपा खोते नहीं देखा गया। पर ऐसे बलात्कारों ने उन्हें भी स्तब्ध कर दिया है। उनका कहना है कि ऐसे व्याभिचारियों को जनता के बीच छोड देना चाहिए। वही इनके साथ सही न्याय करेगी। महानायक ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि ऐसी घटनाओं से मैं स्तब्ध हूं। मेरी आवाज नहीं निकल रही है। यह दरिंदे जानवर कहलाने के लायक भी नहीं हैं। जानवरों के भी कुछ नियम-कायदे होते हैं। आखिर क्या हो गया है हमारे समाज और समुदाय को? हम कैसे और क्यों इन नृशंस और वीभत्स कृत्यों के सामने असहाय हैं? कौन हैं ये लोग और कहां से आते हैं? किस मां ने इन्हें जन्म दिया है और ये कैसे पले बढे हैं? किस वातावरण में रहे हैं यह?
देश के लोग बलात्कारियों के प्रति किस कदर गुस्से में उबल रहे हैं इसका ज्वलंत उदाहरण बीते सप्ताह राजस्थान के भीलवाडा शहर में देखने में आया। एक युवती बाडे में गाय का दूध निकालने के लिए गयी थी। उसे अकेली देख दो जाटों ने उसे दबोच लिया और दुष्कर्म कर भाग खडे हुए। लोगों को जैसे ही इसकी खबर लगी तो वे आग-बबूला हो उठे। एक बलात्कारी किसी तरह से पीडि‍ता के पिता और भाई के हाथ लग गया। उन्होंने उसे पीट-पीटकर मार डाला और कान और नाक भी काट डाले।
दिल्ली में पांच वर्षीय बालिका को अपनी हैवानियत का शिकार बनाने वाले मुख्य आरोपी मनोज के वृद्ध दादा-दादी भी अपने इस व्याभिचारी पोते को फांसी पर लटकते देखना चाहते हैं। मनोज की गिरफ्तारी के बाद उसके गांव के लोगों में भी आक्रोश है। आसपास के गांव वाले तो बलात्कारी के रिश्तेदारों को भी कोस रहे हैं। गांव के मुखिया की अध्यक्षता में बैठक कर मनोज और उसके घरवालों का हुक्का-पानी बंद करने का निर्णय भी ले लिया गया है।
यकीनन बच्चियों के साथ लगातार हो रही दरिंदगी ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया है। देशवासी भी शर्मसार हैं। देश की राजधानी में चलती बस में सामूहिक दुष्कर्म की जघन्य घटना के बाद जिस तरह से लोग सडकों पर उतरे थे और सत्ताधीशों ने आश्वासन दिये थे उससे स्थिति में सुधार होने की उम्मीद जागी थी। पर दुराचारियों को तो 'कडा कानून' भी डरा नहीं पाया। तभी तो पिछले चार माह में दिल्ली में ही बलात्कार के ४०० मामले सामने आये हैं। बच्चियों पर होने वाले बलात्कारों में राजधानी जिस तरह से अव्वल नंबर पर है उससे तो यही लगता है कि लोगों के दिलो-दिमाग से पुलिस और कानून का भय नदारद हो चुका है। जो पुलिस बलात्कार के मामले दर्ज करने में आनाकानी करती हो और बलात्कार पीडि‍ता के परिवार को दो हजार रुपये की रिश्वत देकर हमेशा-हमेशा के लिए मुंह बंद कर लेने की हिदायत देती हो उससे कानून के पालन की उम्मीद भी कैसे की जा सकती है?