Friday, June 26, 2015

अकेले ही लडना होगा

सरकार कहती है कि इस देश के हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है। पत्रकारों पर कहीं कोई बंदिश नहीं है। निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ कलम चलाने वाले पत्रकार सम्मान के हकदार हैं। उन पर किसी भी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए। शासन और प्रशासन उनके साथ है। क्या वास्तव में ऐसा है? उत्तरप्रदेश में एक मंत्री की गुंडई और नंगई को उजागर करने वाले पत्रकार को जलाकर खत्म कर देने की घिनौनी हरकत और मध्यप्रदेश में खनन माफिया का पर्दाफाश करने वाले पत्रकार की निर्मम हत्या तो ऐसा कतई नहीं दर्शाती। सच हमारे सामने है। बाकी सब छल, कपट, फरेब और झूठ है। सच को उजागर करने वाले कलमकारों का गला घोटने के लिए जितनी ताकतें इन दिनों सक्रिय हैं, उतनी पहले कभी नहीं हुर्इं। उन्हें पूरी आजादी है, अपने खिलाफ लिखने वाले पत्रकारों को मौत के घाट उतारने की। जो पत्रकार सत्ताधीशों के गुणगान गाएं, राजनेताओं के समक्ष मस्तक झुकाएं, माफियाओं के लूटकांड पर चुप्पी साधे रह जाएं... उनकी तो जय जय है। लेकिन उनका मरण है जो आइना दिखाते हैं, पोल खोलने का काम करते हैं। पत्रकार जगेंद्र ने मरते-मरते स्पष्ट तौर पर कहा कि मंत्री ही उसका हत्यारा है। उसी के ही कहने पर खाकी वर्दी वालों ने उस पर पेट्रोल उडेला और आग लगा दी। लेकिन उत्तरप्रदेश की समाजवादी सरकार को पत्रकार के अंतिम बयान के शब्दों का जैसे अर्थ ही नहीं समझ में आया। यह सरकारें भी अजीब हैं। जो तय कर लेती हैं, उससे टस से मस नहीं होतीं। अपने मंत्रियों-संत्रियों, शुभचिंतकों, धनपतियों, प्रभावशाली लोगों और अपने चहेतों को बचाने के लिए सभी मर्यादाओं को भी सूली पर चढा देती हैं। इस मामले में देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर उ.प्र. के मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव तक सभी एक ही थैली के चट्टे-बट्टे नजर आते हैं। यह लोग मीडिया और पत्रकारों के बिना रह भी नहीं पाते। उन पर तब तक यकीन करते हैं जब तक इनकी तारीफ होती रहे। बडी हैरतअंगेज विडंबना है। समाजवादी युवा मुख्यमंत्री अखिलेश से तो ऐसी उम्मीद नहीं थी, लेकिन वे भी अपने पिता मुलायम सिंह यादव के पद चिन्हों पर दौड रहे हैं। अखिलेश ने पत्रकार के परिवार को तीस लाख रुपये का चेक और दो लोगों को नौकरी देने का ऐलान कर दर्शा दिया है कि अब उनसे ज्यादा उम्मीदें रखना बेकार है। किसी प्राकृतिक आपदा का शिकार होकर मरने या रेल के दुर्घटनाग्रस्त होने पर मौत के मुंह में समाने वालों के परिवारों को जिस तरह से कुछ लाख का मुआवजा देकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर ली जाती है वैसा ही पत्रकार और उसके परिवार के साथ किया गया है। अखिलेश के लिए पत्रकार की हत्या महज एक दुर्घटना है। लेकिन सच यह है कि पत्रकार की हत्या की गयी है, या फिर उसे मरने को मजबूर किया गया है। समाजवादी सरकार में शक्तिशाली माने जाने वाले मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा लोगों की जमीनें हडपने के खेल में माहिर हैं। अवैध रेत उत्खनन करने और अवैध निर्माण के साथ-साथ बलात्कार जैसे तमाम अपराधों को अंजाम देना उसकी आदत में शुमार है। पत्रकार ने उसका पर्दाफाश कर अपना कर्तव्य निभाया, लेकिन उसे जलाकर फूंक दिया गया! उनके एक मंत्री ने कहा भी है कि ऐसी दुर्घटनाएं होती रहती हैं। दुर्घटनाओं पर तो किसी का भी बस नहीं चलता।
ऐसी दुर्घटनाओं को अंजाम देने में म.प्र. भी पीछे नहीं है। बालाघाट के निकट स्थित कटंगी के रहने वाले पत्रकार का भी काम तमाम कर दिया गया। प्रदेश के विभिन्न समाचार पत्रों में संवाददाता के रूप में कार्यरत रहे पत्रकार संदीप कोठारी भ्रष्टाचारियों के खिलाफ कलम चलाने में अग्रणी थे। उन्होंने अवैध मैंगनीज उत्खनन कर मालामाल होने वाले लुटेरों को सतत बेनकाब किया। देश के प्रदेश मध्यप्रदेश में सरकारी ठेकेदारों, खनन और रेत माफियाओं की ऐसी तूती बोलती है कि अच्छे-अच्छे पत्रकार उनके सामने ठंडे पड जाते हैं। पत्रकार संदीप में भ्रष्टों के खिलाफ लडने का जबरदस्त ज़़ज्बा था। अवैध मैंगनीज खनन माफिया ने तो उन्हें सबक सिखाने की कसम खा ली थी। उन्हें कई तरह से प्रताडित किया गया। उनके खिलाफ कई झूठे मामले दर्ज करवाये गये। पुलिस भी अपराधियों की ऐसी साथी बनी कि एक निष्पक्ष निर्भीक पत्रकार को हिस्ट्रीशीटर अपराधी दर्शा कर जिला बदर कर दिया गया। संदीप फिर भी नहीं झुके। हारना उनकी फितरत नहीं थी। अवैध खनन, चिटफंड घोटाले और अवैध कालोनियों का निर्माण कर करोडों का साम्राज्य खडा करने वाले माफियाओं ने बेगुनाह पत्रकार पर बलात्कार का मामला भी दर्ज करवा कर उनके हौसले को पस्त करने का षडयंत्र रचा। यह तो अच्छा हुआ कि माफियाओं के इशारे पर बलात्कार का आरोप लगाने वाली महिला को सदबुद्धि आयी और उसने स्वीकारा कि पत्रकार बेगुनाह है। उसने दबंगों के दबाव में आकर बलात्कार की झूठी रिपोर्ट दर्ज करवायी थी। संदीप कोठारी की निष्पक्ष पत्रकारिता का इससे बडा उदाहरण और क्या हो सकता है कि उन्होंने अपने उस चचेरे भाई को भी नहीं बख्शा जिन्होंने प्रशासन की आखों में धूल झोंककर बंदूक का लायसेंस हासिल किया था। उन्होंने भाई के गलत तरीके से बंदूक का लायसेंस लेने के खिलाफ आवाज उठायी। उन पुलिसवालों को भी लताडा जिन्होंने अपात्र को बंदूक का लायसेंस दिलवाने का रास्ता साफ किया था।
उत्तरप्रदेश और मध्यप्रदेश में शक्तिशाली गुंडे, बदमाशों और माफियाओं के खिलाफ लडने और कार्रवाई करने वाले ईमानदार कलेक्टर, तहसीलदार, इंजिनियर, पुलिस अधिकारी और आरटीआई कार्यकर्ता तक ट्रकों और बुलडोजरों से रौंद दिये जाते हैं। ईमानदार अधिकारी का तबादला कर बेइमानों और माफियाओं का मनोबल बढाया जाता है। कर्तव्यपरायण सरकारी अधिकारियों को न्याय के लिए तरसना पडता हैं। राजनेता कातिलों के साथ खडे नजर आते हैं। सरकारें भी अपनी जान की कुर्बानी देने वालों की चिंता-फिक्र नहीं करतीं। उन्हें सिर्फ अपने वोट बैंक की चिंता रहती है। अपराधी मंत्रियों, विधायकों, सांसदों आदि को इसलिए सतत बचाया जाता है क्योंकि उनके साथ उनकी जाति-वाति के असंख्य वोटर जुडे होते हैं। ऐसे में पत्रकारों की क्या औकात! उनके लिए तो बस दिखावटी संवेदना दिखा दी जाती है तो दूसरी तरफ हत्यारों को भी पुचकारा और पाला-पोसा जाता है। पत्रकारों को इस सच्चाई को नहीं भूलना चाहिए कि उन्हें अकेले ही भ्रष्टाचारियों और अनाचारियों के खिलाफ जंग लडनी है। उनकी बिरादरी में भी बहुत कम ऐसे लोग हैं जो ईमानदारी की पत्रकारिता करते हैं। अधिकांश बडे-बडे अखबारों के मालिकों का तो धन कमाने के सिवाय और कोई लक्ष्य ही नहीं बचा है। यही वजह है कि वो कभी भी अपने यहां काम करने वाले समर्पित पत्रकारों के भी साथ खडे होने का साहस नहीं दिखा पाते।

Thursday, June 18, 2015

नशा... नशा और नशा

इसी देश में एक गांव है, नानीदेवती। मात्र पैंतीस सौ के आसपास की जनसंख्या वाले इस छोटे से गांव में देसी शराब के दस अड्डे थे। सभी अड्डों पर जमकर शराबखोरी होती थी। सुबह, शाम गुलजार रहते थे सभी मयखाने। अपने काम धंधे को छोडकर युवक यहीं जमे रहते थे। कुछ बुजुर्ग भी रसरंजन के लिए पहुंच जाते थे। अपराध भी बढते चले जा रहे थे। पांच साल के भीतर १०० से अधिक युवक शराब की लत के चलते मौत के मुंह में समा गए। युवा बेटों की एक के बाद एक कर मौत के सिलसिले ने मां-बाप को तो रूलाया ही, गांव के चिंतनशील तमाम बुजुर्गों को भी झकझोर कर रख दिया। आखिर ऐसा कब तक चलता रहेगा? शराब की लत के शिकार होकर उनके गांव के बच्चे यूं ही अपनी जान गंवाते रहेंगे! शराबखोरी से लगातार हो रही मौतों से शराब कारोबारी भी पूरी तरह से अवगत थे। बुजुर्ग पुरुषों और महिलाओं ने उन्हें कई बार गांव से अपने शराब के अड्डे हटाने की फरियाद की। उनमें इंसानियत होती तो मानते! उनके लिए तो कमायी ही सबकुछ थी। युवकों की बरबादी और बदहाली उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। माल कमाना ही उनका एकमात्र ईमान धर्म था। जागरूक गांव वालों को समझ में आ गया कि धनलोभियों से किसी भी तरह की उम्मीद रखना व्यर्थ है। लगभग एक महीने पूर्व ग्रामवासी एक साथ एकत्रित हुए। शराब से मुक्ति पाने के लिए विचार-मंथन करने के बाद यही निष्कर्ष निकला कि गांव में शराब पीने पर पर प्रतिबंध लगाये बिना युवकों की मौत पर विराम नहीं लगाया जा सकता। सभी ने शराब को हाथ भी न लगाने की कसम खायी। यह भी तय किया गया कि जो भी व्यक्ति शराब पीता पाया गया उसे पांच हजार से लेकर पचास हजार तक का जुर्माना देना होगा। बुजुर्गों की सीख का युवकों पर भरपूर असर पडा। उनकी आंखें खुल गयीं। अब नानीदेवती गांव शराब से मुक्ति पा चुका है। शराब के सभी अड्डे भी बंद हो चुके हैं।
जावद (नीमच) के रहने वाले बंसीलाल बडोला को बीडी पीने का जबरदस्त शौक था। बचपन में ही उन्होंने यह गंदी आदत पाल ली थी। घरवाले उनकी इस लत से बेहद परेशान थे। साठ साल के बंसीलाल ने अपनी वसीयत में यह लिखवा दिया था कि-'अर्थी में दो बंडल बीडी और माचिस जरूर रख देना, अंतिम सफर बडे मज़े से कटेगा।' यही बंसीलाल एक दिन अचानक किसी संत का प्रवचन सुनने के लिए पहुंच गए। संत धूम्रपान से बचने का संदेश देते हुए बता रहे थे कि तंबाकू, बीडी, सिगरेट के इस्तेमाल से अस्थमा, हृदयघात व पक्षाघात की जानलेवा बीमारियां तो होती हैं, इंसान का जीवन भी नर्क बन जाता है। कैंसर जैसी असाध्य बीमारी भी तंबाकू की देन है। तंबाकू में करीब चार हजार खतरनाक रसायन होते हैं, जिसमें ७० रसायन कैंसरवाले होते हैं। बंसीलाल पर उनका इतना प्रभाव पडा कि उन्होंने अपनी जेब से बीडी के बंडल और माचिस को निकाला और संत के सामने तोड दिया। कभी बीडी के गुलाम रहे बंसीलाल बीडी से तौबा कर चुके हैं, उन्होंने खुद को भी बीडी-सिगरेट पीनेवालों को सुधारने के अभियान में झोंक दिया है। वे घूम-घूम कर नुक्कड सभाएं करते हैं। धूम्रपान की बुराइयों से लोगों को अवगत कराते हैं और खुद का उदाहरण भी देते हैं। जो लोग धूम्रपान से मुक्ति पाने को तैयार हो जाते हैं उन्हें मंदिर में ले जाकर बीडी सिगरेट कभी भी नहीं पीने की शपथ दिलवाते हैं। बंसीलाल का यह अभियान खूब रंग ला रहा है। सैकडों लोग उनकी सलाह का अनुसरण कर धूम्रपान से दूरी बना चुके हैं। बंसीलाल ने ठान लिया है कि वे जीवनपर्यंत धूम्रपान विरोधी अभियान में लगे रहेंगे। इसलिए उन्होंने अपना टेंट व्यवसाय पूरी तरह से अपने बच्चों के हवाले कर दिया है।
विगत दो दशकों में हमारे देश में शराब की खपत में ५५ से ६० प्रतिशत की बढोत्तरी हुई है। महानगरों में होने वाली सडक दुर्घटनाओं में शराब के नशे का काफी बडा योगदान रहता है। भारत में सतत घटने वाली बलात्कार की घटनाओं के इजाफे में शराब की बहुत बडी भागीदारी है। मुंबई की एक शराबी महिला को जेल की हवा खानी पडी। यह महिला एक नामी वकील हैं। नाम है जान्हवी गडकर। रिलायंस की टॉप लीगल एग्जीक्यूटिव हैं। नशे ने उनकी जिन्दगी तबाह कर डाली। अच्छे-खासे भविष्य का सत्यानाश हो गया। फिल्म अभिनेता सलमान खान की तरह जान्हवी ने नशे में मदमस्त होकर पांच लोगों को कुचल दिया। दो की मौत हो गयी। अपनी आलीशान ऑडी कार को लिमिट से चार गुना अधिक शराब पीकर चलाने वाली यह मदहोश वकील यातायात के सभी नियमों को भूलकर कार चला रही थी और खूनी दुर्घटना को अंजाम दे बैठीं।
एक जमाना था जब यह माना जाता था कि नशे पर पुरुषों का ही एकाधिकार है। महिलाएं बहुत कम शराब पीती देखी जाती थीं। अब तो अनेक नारियों ने भी शराबखोरी में जैसे बाजी मार ली है। पिछले दिनों मुंबई में ही यातायात पुलिस ने स‹डक पर अंधाधुंध कार दौडाती एक आधुनिक महिला को रोका। महिला ने कार में बैठे-बैठे ही पुलिस वालों पर भद्दी-भद्दी गालियों की बौछार शुरू कर दी। पुरुषों की बेहूदगी के अभ्यस्त पुलिसवाले महिला के मदमस्त व्यवहार से दंग रह गए। ऐसे नजारे अब आम होते चले जा रहे हैं। नशे की लत में अपना तथा परिवार का जीवन नर्क बनाने वालों की असंख्य भयावह दास्तानें हैं। यह सिलसिला यूं ही नहीं थमने वाला। सरकार-वरकार कुछ भी नहीं करने वाली। जब लोग खुद जागेंगे तभी नशे का अंधेरा छंटेगा और उजाला होगा।

Thursday, June 11, 2015

यह कैसा मकडजाल है!

यह तो साफ-साफ दिख रहा है कि यह आईना देखने का नहीं, आईने तोडने का दौर है। कहने को लोकतंत्र है, लेकिन जिनके हाथ में सत्ता है, उनकी ही मनमानी चल रही है। आदर्शो और सिद्धांतो के ढोल की पोल खुलती चली जा रही है। इस देश के अधिकांश अधिकारी अपने मन के राजा हैं। जनता की तकलीफों का हल करना तो दूर, उनकी सुनने में भी आनाकानी की जाती है। जब यही जनता सडकों पर उतरती है, तोडफोड करती है तो शासन और प्रशासन सक्रिय होने का नाटक करता है। आंध्रप्रदेश स्थित गुंटुर के अधिकांश लोग, खासकर महिलाए शराब की घोर विरोधी हैं। यहां के कई घर शराब की वजह से बरबाद हो चुके हैं। इसी गुंटुर में कुछ दिनों पूर्व ऐन महात्मा गांधी की प्रतिमा के समीप एक शराब खाने का शुभारम्भ हो गया। लोग हक्के-बक्के रह गये। उनके गांव में यह क्या हो गया? बापू की प्रतिमा के एकदम निकट मयखाना! यह तो उस महात्मा का घोर अपमान है जिसने जीवनपर्यंत शराब की खिलाफत की। शराब विरोधी जागरूक जनता सडकों पर उतर आयी। सरकार और प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी की गयी। खूब शोर मचा। जब प्रशासन ने देखा कि गुस्साये लोग आसानी से मानने वाले नहीं हैं तो उसने रातों-रात एक अजब-गजब रास्ता निकाला। मयखाने पर ताले लगवाने के बजाय महात्मा गांधी की प्रतिमा को ही वहां से हटा कर दूसरी जगह स्थापित कर दिया।
प्रशासन की इस शर्मनाक हरकत से लोग हैरान-परेशान हैं। नाराज लोगों का कहना है कि शराब बार के १०० मीटर के दायरे में एक मंदिर और मस्जिद भी है, तो क्या उन्हें भी वहां से हटाया जाएगा? तय है कि लोगों का विरोध थमने वाला नहीं है। इस देश में ऐसे मज़ाक होते ही रहते हैं। इस खेल में उद्योगपति, व्यापारी, राजनेता, अभिनेता, खिलाडी, अफसर, योगी-भोगी आदि सभी शामिल हैं। इन दिनों मैगी को लेकर खूब हंगामा मचा है। वर्षों से खायी, पकायी जाने वाली मैगी के एकाएक खतरनाक होने के खुलासे के भीतरी सच को भी समझना जरूरी है। एक विदेशी कंपनी अरबो-खरबों का विषैला धंधा करती है और प्रशासन सोया रहता है। वह कंपनी अखबारों और न्यूज चैनल वालों को अरबों रुपये के विज्ञापन देकर मैगी के फायदेमंद होने का ढिंढोरा पीटते हुए कहा से कहां पहुंच जाती है। मैगी के प्रचार में नामी-गिरामी, हीरो-हीरोइन को भी शामिल कर लिया जाता है। कोई भी यह पता लगाने की कोशिश नहीं करता कि आखिर मैगी की हकीकत क्या है। सब अपना-अपना हिस्सा लेकर अंधे और बहरे बने रहते हैं। कंपनी चाहे देशी हो या विदेशी वह तो अपने ब्रांड को प्रचारित करने के लिए सभी तरीके आजमाती हैं। दोषी तो वो लोग हैं जो लालच के वशीभूत होकर हकीकत को नजरअंदाज कर देते हैं। न्यूज चैनलों और अखबारों में शराब के विज्ञापन बडी चालाकी से दिखाये और छापे जाते हैं। सोडा की आड में खुल्लम-खुला शराब का ही प्रचार किया जाता है। दुनिया की नामी-गिरामी कंपनी नेस्ले का कारोबार दो सौ से ज्यादा देशों में चलता है। ऐसी कंपनियां धंधे के सभी गुर जानती हैं। उन्हें यह भी पता होता है कि किस-किस को कैसा-कैसा चारा डालकर अपने बस में करना है। सत्ता को साधने में तो इन्हें महारत हासिल होती है। राजनेता और नौकरशाह इनके लालच के जाल में बडी आसानी से फंस जाते हैं। मैगी बनाने वाली विदेशी कंपनी नेस्ले ने यूं ही भारत में अपना कारोबार नहीं जमाया। सभी के भरपूर साथ और सहयोग की बदौलत ही उसने जहरीली मैगी को घर-घर तक पहुंचाने में ऐतिहासिक सफलता पायी।
अपने यहां मिलावटखोरी की असंख्य खबरें सुर्खियां पाती हैं। लोगों की जान से खिलवाड करने वाले मिलावटखोर बडी आसानी से बच निकलते हैं। खाद्य और औषधि विभाग के अधिकारी अपने कर्तव्य को रिश्वतखोरी पर कुर्बान कर देते हैं। देश में कहने को तो पुलिस, आबकारी, अन्न औषधि विभाग से लेकर ढेरों जांच एजेंसियां हैं, लेकिन इनकी कार्यप्रणाली किसी अबूझ पहेली से कम नहीं। भारत दुनिया का ऐसा अजूबा देश है जहां अवैध शराब पीने वालों की मौतों का सिलसिला सतत चलता रहता है। हालात यह हैं कि अब तो मीडिया भी ऐसी मौतों को नजरअंदाज करने लगा है। कौन नहीं जानता कि त्यौहारों के निकट आते ही देशभर में मिलावटी मिठाइयों की बाढ आ जाती है। जितना दूध नहीं होता उससे हजार गुना दूध की मिठाइयां दुकानों के शोकेस में सज जाती हैं। कई मिलावटखोर पकडे जाते हैं, लेकिन दान-दक्षिणा देकर छूट जाते हैं।
दरअसल, देशवासी मिलावटखोरों के जिस मकडजाल में फंस चुके हैं उससे बच निकलना आसान नहीं है। न जाने कितने ऐसे उत्पाद हैं जिनकी बिक्री के लिए संबंधित विभाग से स्वीकृति ही नहीं ली जाती। अपने देश में सब चलता है कि नीति वर्षों से चलती चली आ रही है। दुनिया के अधिकांश देशों में किसी भी खाद्य पदार्थ के बाजार में आने से पहले उसकी कडी जांच होती है। वहां पर अपने फर्ज की अनदेखी करने वालों को कतई नहीं बख्शा जाता। देश में मैगी नुडल्स पर बैन लगने की खबरों के फौरन बाद यह खबर भी आयी कि रामदेव बाबा शीघ्र ही 'पतंजलि ब्रांड' की मैगी बाजार में उतारने जा रहे हैं। ऐसा लगता है कि योगी रामदेव को मैगी के रूखसत होने की पहले से ही जानकारी मिल चुकी थी। कहने को तो वे योगी हैं, लेकिन उनका व्यापार के प्रति प्रगाढ लगाव सर्वविदित है। उनके कारखानों में बनने वाले कई सामानों पर उंगलियां उठती रही हैं। अभी तो रामदेव ने ही बच्चों को सेहतमंद मैगी उपलब्ध कराने का ऐलान किया है। वो दिन दूर नही जब अंबानी और अदानी भी मैगी, दूध पाउडर, चाकलेट और अन्य जंक फूड के साथ देश के तमाम बाजारों में खडे नजर आयेंगे। नयी सरकार है तो कुछ नया भी तो होना चाहिए। अपनों को धन कमाने का भरपूर सुअवसर अब नहीं तो कब मिलेगा! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने यूं ही तो नहीं 'मेक इन इंडिया' के नारे को उछाला है।

Thursday, June 4, 2015

पत्रकारिता का धर्म

सबसे पहले उन लाखों पाठकों का वंदन, अभिनंदन और शुक्रिया जिनकी बदौलत 'राष्ट्र पत्रिका' अपने सफलतम प्रकाशन के सातवें वर्ष में प्रवेश करने जा रहा है। हम अपने सभी शुभचिंतकों, सहयोगियों के भी तहे दिल से आभारी हैं, जिनकी आत्मीयता और अटूट सहयोग ने हमारा मनोबल बढाया। इस सच से हर कोई वाकिफ है कि आज के जमाने में अखबार निकालने के लिए भरपूर धन चाहिए। 'राष्ट्र पत्रिका' यकीनन देश का पहला समाचार पत्र है जिस पर किसी धनवान का वरदहस्त नहीं है। किसी राजनीतिक पार्टी और राजनेता से भी कोई करीबी रिश्ता नहीं है। 'राष्ट्र पत्रिका' के तो देश के लाखों पाठक और शुभचिंतक ही असली साथी हैं। इन्हीं की बदौलत हम निष्पक्षता और निर्भीकता की पत्रकारिता के धर्म को निभाने में सक्षम हो पाये हैं। 'राष्ट्र पत्रिका' की सफलता ने इस धारणा की भी धज्जियां उडा कर रख दी हैं कि सिर्फ पूंजीपति ही अखबार निकाल सकते हैं। समर्पित पत्रकारों के लिए तो उनके यहां चाकरी करने के अलावा और कोई चारा ही नहीं है।
पिछले दस-बारह वर्षों से जो मंजर सामने आये हैं वे चीख-चीख कर बता रहे हैं कि जिन अखबार मालिकों, संपादकों और पत्रकारों को सत्ता और राजनेताओं से भरपूर पोषण मिलता है उनसे निष्पक्ष पत्रकारिता की उम्मीद नहीं की जा सकती। अखबारों का स्वतंत्र होना जरूरी है। उन पर किसी के दबाव का मतलब है पत्रकारिता का दिशाहीन होकर किसी खतरनाक ताकत का गुलाम हो जाना। 'राष्ट्र पत्रिका' का दावा है कि इसका झुकाव सिर्फ और सिर्फ पाठकों की ओर है। देश और देशवासी ही हमारे लिए सर्वोपरि हैं। कोई भी प्रलोभन और ताकत इसे डिगा नहीं सकती। 'राष्ट्र पत्रिका' की निष्पक्षता के साथ एक सच और भी जुडा है कि इसमें पूर्वाग्रह से ग्रस्त खबरों के लिए कोई जगह नहीं है। 'राष्ट्र पत्रिका' में हर तरह की खबरें छापी जाती हैं। इसमें सिर्फ महानगरों को ही प्राथमिकता नहीं दी जाती। छोटे-बडे, ग्रामों और कस्बों की खबरें भी सुर्खियां पाती हैं। किसानों, मजदूरों, कलाकारों, अभावों में रहकर इतिहास रचने वाले चेहरों, दलितो-शोषितों और अन्याय ग्रस्त तमाम हिन्दुस्तानियों का मंच है 'राष्ट्र पत्रिका'। यहां किसी से कोई भेदभाव नहीं किया जाता।
आज मीडिया पर अविश्वास के काले बादल छाये हैं। कुछ बिकाऊ पत्रकारों और संपादकों के द्वारा पत्रकारिता के पवित्र पेशे को कलंकित कर दिए जाने के कारण पत्रकारिता को बाजारू और वेश्या तक का दर्जा दिया जाने लगा है। 'राष्ट्र पत्रिका' किसी को बख्शने और किसी को दबोचने की नीति पर चलने में यकीन नहीं रखता। पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसे नाटककार भी है जो गणेश शंकर विद्यार्थी, सुरेंद्र प्रताप सिंह, प्रभाष जोशी, राजेंद्र माथुर जैसे मूर्घन्य संपादकों को अपना आदर्श घोषित करते नहीं थकते, लेकिन इनका असली सच कुछ और ही देखने में आता है। यह कलमकार उन संपादकों को जानता है जिनका सत्ता की दलाली करना एकमात्र पेशा है। यह महान बुद्धिजीवी किसी नौकरशाह का स्थानांतरण करवाने, किसी उद्योगपति को सरकारी जमीन दिलवाने और कारखानों का लायसेंस दिलवाने आदि...आदि के लिए कमीशनखोरी करते हैं। यह धुरंधर अपने संबंधों को भुनाने के लिए यहां से वहां सतत उडते रहते हैं। फिर भी प्रगतिशील संपादक कहलाते हैं। ऐसे संपादकों की अच्छी खासी सेना तैयार हो चुकी है जो सिर्फ और सिर्फ इन्हें अपना आदर्श मानते हुए दिन रात सत्ताधीशों, राजनेताओं, दलालों, भ्रष्ट समाजसेवकों और काले कारोबार के सरगनाओं से रिश्ते बनाने में लगी रहती है।
देश के नब्बे प्रतिशत अखबारों पर उद्योगपतियों, बिल्डरों, खनिज माफियाओं, अपराधियों और घुटे हुए राजनेताओं का कब्जा है। उनके अखबारों पर भी किसी न किसी राजनीतिक दल का ठप्पा लगा रहता है। यह अखबारीलाल सत्ता के इशारे पर ही नाचते है। जिधर दम, उधर हम की नीति से चलना इनकी फितरत है। चाटुकारिता की पत्रकारिता की बदौलत ही इनके सभी सपने पूरे हो जाते हैं। उद्योगधंधे लग जाते हैं। अरबो-खरबों की कोयले की खदानें मिल जाती हैं। राज्यसभा में पहुंचने का सपना भी पूरा हो जाता है। इन्हीं कुटिल धंधेबाजों के कारण ही कुछ प्रबुद्धजन पत्रकारिता को बिकाऊ और वेश्या का दर्जा देने से नहीं हिचकते। अभी हाल ही में एक व्यवसायी अखबार मालिक की खिलखिलाती तस्वीर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ देखने में आयी। यह महाशय कांग्रेस की मेहरबानी के चलते राज्यसभा का सदस्य भी बनते चले आ रहे हैं। कांग्रेस, सोनिया गांधी और राहुल गांधी का महिमामंडन कर इन्होंने महाराष्ट्र में अखबारों की कतार लगा दी। एक न्यूज चैनल पर भी कब्जा कर लिया। डॉ. मनमोहन के शासन काल में इस सफेदपोश ने अरबों-खरबों की कोयला खदाने हथिया कर अच्छी-खासी सुर्खियां पायी थीं। जेल जाने की नौबत भी आ गयी थी। अब देश में आयी परिवर्तन की लहर के चलते भाजपा और नरेंद्र मोदी की सरकार है। पिछले एक वर्ष से इस धनपति अखबारीलाल को भाजपा, कांग्रेस से बेहतर नजर आने लगी है। इसलिए जैसे ही नरेंद्र मोदी की सरकार ने एक वर्ष पूर्ण किया तो इस 'हुनरबाज' ने एक विशेषांक निकाला जिसे नाम दिया- 'मोदी महान'। भाजपा सरकार की आरती से परिपूर्ण इस विशेषांक को दिल्ली जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के चरणों में अर्पित कर दिया और उनके कंधे पर हाथ रखकर ऐसी धांसू तस्वीर खिंचवायी और अपने सभी अखबारों में छपवायी कि देखने वालों को बस यही लगा कि मोदी से तो इनकी काफी घनिष्ठता है, बडा पुराना याराना है। भाजपा के शासन काल में भी इनका बाल भी बांका नहीं होने वाला। इसे कहते हैं दोनों हाथों में लड्डू रखना और हर किसी को खुश रखते हुए अपना काम निकालते जाना।
हम ऐसे अखबार मालिकों, संपादकों और पत्रकारों को पत्रकारिता का सबसे बडा शत्रु मानते हैं। इनके होते हुए पत्रकारिता की पवित्रता बरकरार नहीं रह सकती। आज देश बहुत बडे संकट से जूझ रहा है। प्रांत, जाति, धर्म, पहनावे और खानपान के आधार पर विभाजन की रेखाएं खींची जा रही हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर खतरा मंडरा रहा है। ऐसे में साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' अपने कर्तव्य और दायित्व को नजरअंदाज नहीं कर सकता। मनमोहन सरकार की तरह नरेंद्र मोदी सरकार में भी कई खामियां हैं। इसमें भी ऐसे भ्रष्ट और दागी हैं जो लूटपाट के मौकों की तलाश में हैं। ईमानदारी से जनसेवा करना इन 'पूर्ति कुमारों' के बस की बात नहीं है। इन्होंने करोडों रुपये लुटाकर लोकसभा चुनाव जीता है। जब खर्च किया है तो किसी भी हालत में वसूलेंगे भी। भाजपा के कुछ सांसदो, साध्वी-साधुओं के बयान भी साम्प्रदायिक सौहार्द और आपसी भाईचारे की हत्या करने का ताना-बाना बुनते दिखायी देते हैं। उन्हें किसी का भी भय नहीं दिखता। ऐसे में देश के अल्पसंख्यकों में दहशत व्याप्त है। इस देश पर हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, सबका बराबर का अधिकार है। किसी की भी अवहेलना, अपमान और नजरअंदाजी लोकतंत्र का अपमान है। पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है। देश और देशवासियों को जगाए और जोडे रखना इसका फर्ज भी है और धर्म भी। 'राष्ट्र पत्रिका' की वर्षगांठ के शुभअवसर पर सभी पाठकों, विज्ञापनदाताओं, संवाददाताओं, एजेंट बंधुओं, सहयोगियों, शुभचिंतकों को असीम शुभकामनाएं... बधाई...।