Thursday, August 27, 2015

खरे सोने की पहचान

इस सृष्टि में जितने भी संत, महात्मा, ज्ञानी-ध्यानी, चिंतक और सजग लेखक हुए हैं सभी की यही सोच और लक्ष्य रहा है कि इस दुनिया में कहीं भी अंधेरा न हो। लोग ईमानदार और चरित्रवान हों। हर किसी में राष्ट्रप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी हो। हर देशवासी का संघर्ष रंग लाए और असीम सफलताएं कदम चूमें। सभी के चेहरे खुशी से दमकते रहें। सर्वत्र भाईचारा और ईमानदारी बनी रहे। कहीं कोई विकृति न हो।
इस सृष्टि का निर्माण कब हुआ इसका सही और सटीक जवाब किसी के पास नहीं है, लेकिन हमें विरासत में जो ग्रंथ मिले हैं वे वाकई अनमोल हैं। इन ग्रंथों में बडी सरल भाषा में जीवन जीने की कला से अवगत कराया गया है। दरअसल, यह ग्रंथ हमारे सच्चे मार्गदर्शक हैं। हमें अपनी जीवन यात्रा कैसे पूरी करनी है, हमें कौन सी राह पर चलना है, क्या अच्छा है, क्या बुरा, किस तरह से सफलता मिलेगी और कैसे हमारा संपूर्ण विकास होगा, इन सब सवालों का जवाब हमारे वेदों और शास्त्रों में समाहित है। यह भी सच है कि आम आदमी के पास इतना समय नहीं होता कि वह महान संतों द्वारा रचित समग्र साहित्य का पन्ना-पन्ना प‹ढ सके। उसके लिए तो साधु-संत ही वेद, पुराण और मार्गदर्शक होते हैं। भारत वर्ष में अनेक ऐसे संत हुए हैं जिन्होंने जन जागरण और जन कल्याण के दायित्व को बखूबी निभाया है। उनका चरित्र ही लोगों का मार्गदर्शन करता रहा है। जीवन पर्यंत उन पर कभी कोई दाग नहीं लगा। इसी देश में रामपाल, निर्मलबाबा, नित्यानंद, चंद्रास्वामी जैसे तथाकथित संतों और प्रवचनकारों का भी डंका बजता रहा है। जब इनकी असली सूरत सामने आयी तो लोग सच्चे संतों को भी शंका की निगाह से देखने लगे। ऐसा लगता है कि आस्था और धर्म को बाजार बनाने वाले मुखौटेधारियों के पर्दाफाश होने का दौर शुरू हो चुका है। आसाराम से शुरू हुआ यह सिलसिला उस राधे मां तक आ पहुंचा है जो शराब भी पीती हैं और मुर्गा, मटन भी चबाती हैं। किसी धूर्त मिठाईवाले की मार्केqटग की बदौलत पूरे देश में छाने वाली राधे मां अश्लील नृत्य कर लोगों को रिझातीं और अपना भक्त बनातीं है। अपनी खूबसूरत काया का जादू चलाने वाली इस पाखण्डी नारी पर हत्या और दहेज उत्पीडन के भी संगीन आरोप हैं। अमीर भक्तों के साथ लिपटा-लिपटी करने की शौकीन यह तथाकथित देवी छल, कपट की जीवन्त तस्वीर है। लगता है यह महिला आसाराम से प्रेरणा लेकर धर्म के बाजार में कूदी है। भक्तों से बटोरी गयी दस हजार करो‹ड से भी ज्यादा की रकम को बाजार में चलाकर मुनाफा कमाने वाले आसाराम की तरह और भी कुछ तथाकथित ईश्वर और भगवान हैं, जिन्होंने अरबों-खरबों की माया जुटा ली है।
अपने देश में कई विवादास्पद संतों और प्रवचनकारों की तरह कुछ चर्चित संन्यासिनें भी फाइव स्टार सुविधाओं में जीने की आदी हैं। तरह-तरह के विवादों से भी उनका चोली दामन का साथ यही बताता है कि संदिग्ध पुरुष संतों की तरह उनका भी जन कल्याण के प्रति उतना समर्पण नहीं है, जितने की अपेक्षा कर भक्त भीड की शक्ल में उनके समक्ष मस्तक झुकाते हैं। खुद को ईश्वर का दूत मानने और प्रचारित करने वाले कुछ भगवाधारी जिस तरह से गरीबों को नजरअंदाज कर 'ऊंचे लोगों' पर आशीर्वाद बरसाते हैं उससे उनकी भेदभाव की नीति और असली मंशा उजागर हो जाती है। तथाकथित ईश्वरों का यह तमाशा देखकर जो पी‹डा होती है उसी को कवि दिनेश कुशवाह ने इन पंक्तियों में बयां किया है :
"ईश्वर की सबसे ब‹डी खामी यह है कि
वह समर्थ लोगों का कुछ नहीं बिगाड पाता...
उसके आस-पास नेताओं की तरह
धूर्त, छली और पाखण्डी लोगों की भी‹ड जमा है।"
ऐसे संत, महात्मा, प्रवचनकार, देवी, देवता और गुरुजी जो अपने प्रतिष्ठित, ताकतवर और धनवान भक्तों के आलीशान भवनों में ठहरने की दरियादिली दिखाते हैं और गरीब भक्तों के घरों की तरफ झांकते तक नहीं, वे यकीनन अपना मान-सम्मान घटाते हैं और धर्म-कर्म की गरिमा को भी धूमिल करते हैं। ऐसे भगवान बडी आसानी से पहचान में आ जाते हैं। मायावी रहन-सहन और लिफाफे लपकने की ललक ही उनकी असलियत बता देती है। धूर्त किस्म के प्रवचनकारों के दरबार में नतमस्तक होने वाले लोग भी कम दोषी नहीं हैं। यह बहुत अच्छी बात है कि देश में तेजी से बदलाव आ रहा है। जिस तेजी से कुछ भगवाधारियों के मुखौटे उतरे हैं उससे अधिकांश भारतवासियों को समझ में आने लगा है कि इन तथाकथित साधु-संतों से भय और qचता के निवारण और ज्ञान पाने की उम्मीद रखना व्यर्थ है। यह तो मुसीबतों और तकलीफों को बढाने के साथ-साथ अंधविश्वास और असमानता के पोषक हैं। यह मान लेना भी गलत होगा कि इस देश मेें सच्चे साधु-संतों और साध्वियों का घोर अकाल प‹ड गया है। पारखी आंखें खरे सोने की तुरंत पहचान कर लेती हैं। युवाओं के प्रेरणास्त्रोत, हिन्दुस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम विद्वता, विनम्रता सदाचार और सादगी की ऐसी प्रतिमूर्ति थे, जिसकी दूसरी कोई और मिसाल नहीं दी जा सकती। डॉ. कलाम भगवाधारी तो नहीं थे, लेकिन सच्चे साधु और संत जरूर थे। कहीं कोई खोट नहीं, दिखावा नहीं। लोभ, लालच से कोसों दूर। सहज और सरल। कर्म को ही अपना धर्म मानने वाले डॉ. कलाम जब शिलांग में व्याख्यान दे रहे थे, तब अचानक उनकी तबीयत बिगड गयी। चिकित्सकों की लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। ताउम्र अविवाहित रहकर देश की सेवा करने वाले यह महापुरुष भगवत् गीता और कुरान पर एक समान पक‹ड रखते थे। गरीबी में पले-ब‹ढे अब्दुल कलाम का सफरनामा अचंभित करने के साथ-साथ यह संदेश भी देता है कि अथक परिश्रम करने वालों को सफलता जरूर मिलती है। उनका मानना था कि महज सपने देखने से कुछ नहीं होता। उन्हें साकार करने के लिए अपनी जान लगा देने वाले ही शिखर तक पहुंचते हैं। वे युवाओं को कहा करते थे कि बडे सपने देखो और पूरा करने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दो। उस सपने का कोई मोल नहीं है जो नींद में देखा जाता है। असली सपना तो वह है जो आपकी नींद उडा दे। आप सोना भी चाहें तो सो न पाएं। विज्ञान और टेक्नालॉजी के इस युगपुरुष ने युवाओं के मार्गदर्शन के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर जिस तरह से एक अच्छे शिक्षक की भूमिका निभायी, उसे यह देश कभी भी नहीं भूल सकता। आज जब देश के अधिकांश राजनेता अपने इर्द-गिर्द सुरक्षा रक्षकों की बारात लेकर निकलते हैं और इसे प्रतिष्ठा सूचक मानते हैं वहीं डॉ. कलाम को अपनी सुरक्षा के लिए जवानों की तैनाती असहज बनाती थी। घण्टों खडे रहकर अपनी ड्यूटी निभाने वाले जवानों का हालचाल जानना भी वे नहीं भूलते थे। इस बहुआयामी हस्ती से किसी ने पूछा था कि कृपया आप बताएं कि आप किस बात के लिए याद किए जाना पसंद करेंगे? राष्ट्रपति, वैज्ञानिक, लेखक, मिसाइल मैन, इंडिया २०२०, टार्गेट थ्री बिलियन...। उन्होंने बडी सहजता से कहा था कि मैं टीचर के रूप में याद किया जाना चाहूंगा। कोई और होता तो उसका यही जवाब होता- सिर्फ और सिर्फ, राष्ट्रपति। इससे बडा पद कोई और तो नहीं होता। फिर छोटे को क्यों चुनना। इसी सादगी के कारण ही असंख्य भारतवासी इस टीचर को अपना भगवान मानते हैं। रामेश्वर मंदिर की ओर जाने वाली बसें अब पहले पेई कारम्बू में रुकती हैं, जहां पर डॉक्टर कलाम की कब्र है। मंदिर जाने वाले हजारों लोग प्रतिदिन पहले कब्र पर शीश नवाते हैं, अपने श्रद्धा सुमन च‹ढाते हैं फिर रामेश्वर की तरफ प्रस्थान करते हैं। देश के करोडों लोगों के आदर्श डॉक्टर कलाम के प्रति लोगों का यह आदर किसी दबाव या प्रचार का प्रतिफल नहीं है। यह तो उनके देशप्रेम और जनसेवा का प्रतिफल है जिसके कारण वे जन-जन के पूज्यनीय हैं।

Thursday, August 20, 2015

रोशनी के लुटेरे

हम सबका देश भारत वाकई महान भी है... अद्भुत और निराला भी। तभी तो इक्कसवीं सदी में भी यहां पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी पूरे दमखम के साथ जिंदा है। बिहार के कैमूर जिले में रहने वाले कोरबा जनजाति के लोग इस आधुनिक दौर में भी तांत्रिकों और ओझाओं को अपना भगवान मानते हैं। कोरबा आदिवासी देश और दुनिया की चमक-धमक से कोसों दूर हैं। हिंदुस्तान के यह आदिवासी आज भी उस आदिम युग में रह रहे हैं जहां आजादी का उजाला अभी तक नहीं पहुंच पाया है। अधिकांश आदिवासियों ने रेलगाडी में चढना तो दूर, उसे देखा तक नहीं है। इनकी तमन्ना है कि वे अपने जीते जी एक बार तो रेलगाडी देख लें और अपने बच्चों को भी उसके दीदार करवा दें।
उन्हें चूहा, चिडिया, खरगोश, सांप आदि खाकर खुद को जिंदा रखना पडता है। वो दिन तो उनके लिए उत्सव हो जाता है जब पीने को महुआ की दारू और खाने को चावल नसीब हो जाते हैं। असुविधा, अशिक्षा, गरीबी और असुरक्षा इनके जीवन भर के साथी हैं। घोर अभावों और विपदाओं को अपने गले से लगाकर संघर्षरत रहने वाले यह भारतवासी जब किसी गंभीर बीमारी का शिकार होते हैं तो उन्हें मजबूरन तांत्रिक और ओझाओं की शरण लेनी पडती है। यही उनका अस्पताल और डॉक्टर हैं। इन डॉक्टरों के पास कोई विश्वसनीय दवाइयां तो होती नहीं इसलिए ये तंत्र-मंत्र और किस्म-किस्म के पूजापाठ का चक्र चलाते हैं। मरीज के मन में यह बात बिठा दी जाती है कि बुरी आत्माओं की नाराज़गी और रोष के चलते उसे बीमारी ने जकड लिया है। यही वजह है कि आदिवासियों को जब भी टीबी, चेचक, डायरिया, पीलिया, दस्त जैसी बीमारियां और तकलीफें दबोचती हैं तो इन्हें भूत, डायन या चुडैल का जादूटोना होने का डर दिखाकर अपने-अपने तरीके से इलाज किया जाता है। जिसकी मौत हो जाती है उसके लिए कहा जाता है कि भूत के बहुत गुस्से में होने तथा उचित समय पर झडवाने के लिए नहीं लाये जाने के कारण बीमार चल बसा।
भारत दुनिया का पहला देश है जहां लाख कोशिशों के बाद भी अंधविश्वास की जडें पूरी तरह से कट नहीं पायी हैं। अंधभक्ति और अंधविश्वास के कारण कुछ लोग इंसान से हैवान बनने में जरा भी देरी नहीं लगाते। झारखंड की राजधानी रांची के निकट अंजाम दी गयी यह शैतानी वारदात अच्छे-भले आदमी का दिल दहला सकती है। जो बेरहम और मतलबपरस्त हैं उनके लिए यह जालिमाना हरकत महज एक खबर है जिसे पढकर फौरन भुला दिया जाना बेहतर है। झारखंड के इस गांव में बीते कुछ महीनों में एक-एक कर चार बच्चों की किसी बीमारी की वजह से मौत हो गयी। गांव के कुछ लोगों ने गहन-चिंतन मनन किया कि आखिर बच्चे अचानक क्यों चल बसे? अंतत: उन्होंने यह निष्कर्ष निकाला कि यह मौतें उन पांच महिलाओं की देन हैं, जो कि वस्तुत: डायन हैं। अपने जादू-टोने से अच्छे खासे इंसान को ऊपर पहुंचा सकती हैं। यह रहस्योद्घाटन होते ही गांव वालों के गुस्से को आसमान पर पहुंचने में देरी नहीं लगी। कुछ लोगों ने अपने-अपने घरों में रखे घातक हथियार उठाये और पहुंच गए उन तथाकथित डायनोें के घर। पांचों को बडी दरिंदगी के साथ घर से निकाला गया। फिर उन्हें निर्वस्त्र कर, बुरी तरह से पीटा और घसीटा गया। इतने में भी उनकी हैवानियत की आग ठंडी नहीं हुई। वह औरतें, जिसमें एक मां-बेटी भी शामिल थी, रोती और गिडगिडाती रहीं, लेकिन किसी का भी दिल नहीं पसीजा। इस कू्रर तमाशे की भीड में गांव की महिलाएं भी शामिल थीं। उनके चेहरे पर गम नहीं, खुशी की रौनक थी। गजब का तसल्ली भाव भी था। आखिरकार भरी भीड के समक्ष पांचों औरतों को पत्थरों और भालों से लहुलूहान कर  मौत के घाट उतार दिया गया।
यदि आप यह सोचते हैं कि अंधभक्ति, अंधविश्वास और ढोंगियों के जाल का फैलाव सिर्फ गांवों तक ही सीमित है और अनपढ ही इसकी लपेट में आते हैं तो आप फौरन अपनी सोच बदल लें। आज के युग के कपटी भगवाधारी नगरों और महानगरों में लूट और अंधविश्वास की फसलें बोने में पूरी तरह से कामयाब हैं। एक आसाराम के तंत्र-मंत्र और छलकपट के मायाजाल के पर्दाफाश होने की सुर्खियों की आग ठंडी भी नहीं पडती कि कोई नया आसाराम श्रद्धा और आस्था के बाजार में परचम लहराता नजर आता है। कोई रूपसी राधे मां बन जहां-तहां हलचल मचा देती है। असंत होने के बावजूद संतों का भेष धारण कर आडंबर करने वाले तथाकथित साधु-संतों को मान-सम्मान देने वाले न तो उनका काला अतीत जानना चाहते हैं और न ही पर्दे के पीछे का घिनौना वर्तमान। लोगों की इसी कमजोरी का फायदा उठाने के लिए ही आसाराम और राधे मां जैसे चेहरे धर्म और आस्था के बाजार में बेखौफ उतर जाते हैं, जहां धन भी बरसता है और भरपूर मान-सम्मान भी। वैसे भी इस देश में भगवाधारियों के प्रवचन सुनने को लोग बेताब रहते हैं। उन पर अपना सर्वस्व अर्पण करने में भी देरी नहीं लगाते। उनकी आस्था की तंद्रा कभी भी नहीं टूटती। आसाराम की जेलयात्रा के बाद भी उसके अंधभक्तों की भक्ति में कोई कमी नहीं आयी। वे मानने को तैयार ही नहीं कि आसाराम एक ऐसा अपराधी है जिसने अपने आश्रमों को अय्याशी का ऐसा अड्डा बना दिया था जहां महिलाओं की अस्मत लूटी जाती थी। राधे मां के इर्द-गिर्द भी जिस तरह से रसूखदारों और धनवानों की भीड कवच बनी खडी नजर आती है उससे यह भी प्रतीत होता है कि इन आत्मघोषित भगवानों की बदौलत और भी कई लोगों के स्वार्थ सधते होंगे, इसलिए सच से वाकिफ होने के बावजूद भी यह परमभक्त टस से मस नहीं होते। अदालतों और पुलिस थानों में भी अपने आराध्य के झूम-झूम कर जयकारे लगाते हैं। आजकल टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर भी तंत्र-मंत्र का कारोबार बुलंदियों पर है। कुछ गुजरे जमाने के फिल्मी सितारे भी बडे-बडे दावों के साथ खुशहाली लाने वाले चमत्कारी यंत्रों की विज्ञापनबाजी कर मोटी कमाई कर रहे हैं। इनके झांसे में आने वाले अनाडियोेंं के दिन तो बदलने से रहे, लेकिन छल, कपट और फरेब का कारोबार तो अबाध गति से बढता ही चला जा रहा है!

Thursday, August 13, 2015

हिन्दुस्तान की पीडा

देश की आजादी की वर्षगांठ पर वो उमंग और खुशी नदारद है, जिसकी तरंगों से देश का जन-जन उमंगों के झूले में झूलता नजर आना चाहिए था। नयी सरकार भी देशवासियों को प्रफुल्लित नहीं कर पायी। अजीब-सी खामोशी है जो चीखने को बेताब है। पिछले कई वर्षों से देश को लहुलूहान करती चली आ रही नक्सली समस्या का भी अभी तक कोई हल नहीं तलाशा जा सका। हिंदुस्तान की धरती पर पलते किस्म-किस्म के गद्दार भी अमन-शांति और तरक्की की राह में जबरदस्त अवरोध बने हुए हैं। कुछ भारतीय पत्रकारों के विदेशी ताकतों के हाथों खेलने और आइएस में शामिल होने की राह पर बढने की खबरों ने स्तब्ध कर दिया है। उस पर पडौसी देश पाकिस्तान अपनी दरिंदगी और नीचता से कभी भी बाज नहीं आने की कसम खाये है। तभी तो पंजाब के गुरदासपुर में एक पुलिस थाने पर जहरीले पाकिस्तान के सिखाये-पढाये आतंकवादी हमला करने की जुर्रत कर दिखाते हैं। इस हमले की खबरें अभी ठंडी भी नहीं पडतीं कि जम्मू-श्रीनगर राष्ट्रीय राजमार्ग पर पाकिस्तानी आतंकी बीएसएफ के दो जवानों को मार गिराते हैं। यह आतंकी वारदातें यही बताती हैं कि कुत्ते की पूंछ के सीधे होने के भ्रम में रहना कितना घातक हो सकता है। मात पर मात खाता पाकिस्तान अपनी अंदरूनी बरबादी से इतना बौखलाया हुआ है कि उसे कुछ भी नहीं सूझ रहा है। बस...भारत में आंतक के नये-नये मोर्चे खोलता चला जा रहा है। आश्चर्य, हम बेबस हैं! हां, यह अच्छी बात है कि एक आतंकी को हमने जीवित पकडने में सफलता पाकर पाकिस्तान को मुंहतोड जवाब देने का अवसर जरूर पा लिया। इस पाकिस्तानी को पकडने और दबोचने में अगर स्थानीय लोग हिम्मत और सतर्कता नहीं दिखाते तो यह मौका भी धरा रह जाता। मुंबई हमलों के गुनहगार अजमल कसाब के बाद पाकिस्तान में पले-बढे और प्रशिक्षित हुए इस दूसरे आतंकी के जिन्दा पकडे जाने से पूरी दुनिया भी जान गयी है कि भारतवर्ष यूं ही शोर नहीं मचाता कि पाकिस्तान ही आतंक और आतंकियों का असली पोषक और जन्मदाता है। इस अपाहिज देश के शातिर हुक्मरानों ने पडौसी देश का जीना हराम कर रखा है। यह खुद के देश को गर्त में डुबोते हुए हिन्दुस्तान में बम-बारूद बिछवाकर निर्दोष इंसानों की जानें लेते चले आ रहे हैं।
 पकड में आया आतंकी नावेद पाकिस्तान की साजिशों का वो निर्मम चेहरा है जिसका एक ही मकसद है भारत पर बार-बार हमले और आतंक का कहर बरपाते चले जाना। भारतीय सीमा तथा भारत के कई शहरों में भी पाकिस्तान की पाठशाला के कई नावेदों के फैले होने की प्रबल संभावना है। पकडा गया आतंकी गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर है। वह कभी अपना नाम कासिम खान, कभी उस्मान तो कभी नावेद बताकर चकमा देने की कोशिश करता रहा। उसकी उम्र बीस के आसपास है, लेकिन जिहादी जुनून, धार्मिक कट्टरता और दु:साहस ने उसे हद से ज्यादा अंधभक्त और कू्रर बना दिया।
मैं यहां हिन्दुओं को मारने आया हूं, मुझे ऐसा करने में मज़ा आता है।'  कुटिल मुस्कान के साथ कहे गये उसके यह शब्द उसके पूरी तरह से पत्थर दिल होने के गवाह हैं। उसके दिल और दिमाग में यह बिठा दिया गया है कि हिन्दुओं का कत्लेआम करने के बाद उसे हर हालत में जन्नत नसीब होगी।  देश के उम्रदराज विख्यात लेखक पत्रकार श्री रमेश नैयर कई बार पाकिस्तान की यात्रा कर चुके हैं। उन्होंने अपने यात्रा संस्करण में लिखा है कि, '१९९५ में पाकिस्तान यात्रा में मैंने पाया कि वहां के बच्चों को शुरुआत से ही भारत के प्रति नफरत का पाठ पढाया जाता है। स्कूलों में जो इतिहास पढाया जाता है, उसकी शुरुआत २० जून सन ७१२ इस्वी में मुहम्मद बिन कासिम द्वारा सिंध के राजा दाहिर सेन की पराजय व हत्या से होती है। बच्चों को बार-बार याद दिलाया जाता है कि 'उन्होंने आठ सदियों तक हिन्दुस्तान पर हुकूमत की थी और फिर से करेंगे। पिछले कई वर्षों से पाकिस्तान ने भारत को परेशान करने के लिए क्या कुछ नहीं किया। हालांकि युद्ध के मैदान में मुंह की खाने के बाद उसे यह पता चल ही गया है कि भारत को पराजित करने की उसकी औकात नहीं है। फिर भी वह सपने देखने से बाज नहीं आता। आज हिन्दुस्तान इतना मजबूत हो चुका है कि सौ पाकिस्तान भी इसका बाल भी बांका नहीं कर सकते। यहां के बच्चों को दुष्ट पाकिस्तान की तरह अनैतिकता  और हिंसा का पाठ नहीं पढाया जाता। न ही भारत वर्ष से पाकिस्तान में चोरी छिपे आत्मघाती दस्तों को भेजकर पीठ में छूरा घोपने की नीच हरकतें की जाती हैं। भारत तो पाकिस्तान के साथ एक सच्चे साथी की तरह रहना चाहता है, लेकिन पाकिस्तान अभी भी उन सपनों में खोया है जो कभी पूरे नहीं होने वाले। दुनिया के किसी भी देश में भारत से टकराने का दम नहीं, लेकिन घर में छिपे गद्दारों का क्या किया जाए? आजादी के ६९वें वर्ष में भी हिंदुस्तान को यही चिंता खाए जा रही है। जम्मू और कश्मीर में उर्दू और अंग्रेजी में कुछ अखबार छपते हैं जो हिंसा को भडकाने के हिमायती हैं। देशहित की खबरों को प्राथमिकता देने के बजाय इन अखबारों में भारत की संप्रभुता और अखंडता को खतरा पहुंचाने वाली खबरें और लेख धडाधड छापे जाते हैं फिर भी इन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। इस देश की हवा में सांस लेने वाले कई बुद्धिजीवियों की संदिग्ध हरकतें भी qचता में डाल देती हैं। बेहद गुस्सा भी आता है। आतंकवादी याकूब को जब फांसी की सजा सुनायी गयी तो तथाकथित बुद्धिजीवियों ने जिस तरह से हो-हल्ला मचाया, वह सच्चे देशप्रेमियों को कतई रास नहीं आया। देश की लोकसभा और राज्यसभा में होने वाली तमाशेबाजी ने भी शासकों तथा राजनेताओं के कद को घटाया है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस यह कहकर नहीं बच सकती कि उसने भी वही किया जो कभी भाजपा ने किया था। इसमें आखिर देश हित कहां है? स्वतंत्रता दिवस पर समस्त देशवासियों का हार्दिक अभिनंदन ...असीम शुभकामनाएं।

Thursday, August 6, 2015

सूरत की असली सूरत

किसी भी शहर की असली पहचान वहां की लम्बी-चौडी सडकों, जहां-तहां तन कर खडी गगनचुम्बी इमारतों और विशालतम मॉल से नहीं, वहां पर रहने और बसने वाले लोगों से होती है। उनके व्यवहार, रहन-सहन और उनके आपसी रिश्तों से तस्वीर का काफी कुछ सच बयां हो जाता है। इमारतें तो बनती, टूटती रहती हैं। मॉल और बाजारों की शक्ल बदलने में भी देरी नहीं लगती। गुजरात के तेजी से बढते शहर सूरत को यूं तो कपडा और हीरा उद्योग के लिए जाना जाता है, लेकिन इस शहर की और भी कई विशेषताएं हैं, जो इसे खास दर्जे से भी काफी ऊपर ले जाती हैं। यह कहना कहीं कोई अतिशयोक्ति नहीं कि इस व्यावसायिक नगरी में पूरा भारत बसता है। बिहार, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, उडीसा के मेहनतकश लोगों को यह शहर सम्मानजनक नौकरियां और रोजगार उपलब्ध कराता है। हरियाणा और छत्तीसगढ के पानीपत, सोनीपत, रोहतक, झज्जर, रायपुर, बिलासपुर, कोरबा, राजनांदगांव आदि जैसे छोटे शहरों से कई लोग यहां आए और अपनी मेहनत और सूझबूझ के दम पर देखते ही देखते कपडा बाजार के सम्राट बन करोडों और अरबों में खेलने लगे। उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि वे इतनी अधिक आर्थिक तरक्की कर लेंगे कि देखने वालों की आंखें चौंधिया जाएंगी। दरअसल, यह शहर बिना किसी भेदभाव के हर किसी की उन्नति और स्वागत को तत्पर रहता है। जिनके हौसले बुलंद होते हैं और अपने सपनों को साकार करने की अथाह जिद होती है, उन्हें यह नगरी कभी निराश नहीं करती। यहां पर कई पीढ़ियों से रहते चले आ रहे गुजराती भाई और अन्य बाशिंदे टांग खीचने की बजाय पीठ थपथपाने की परिपाटी के हिमायती हैं। यहां के किसी नेता ने बाहर से आने वाले लोगों के प्रति कभी रोष नहीं जताया। किसी भी उभरते नेता ने गुजरातियों को भडकाने के लिए यह भाषणबाजी नहीं उछाली कि देश के दूसरे प्रदेशों से आने वाले लोगों ने यहां के मूल निवासियों की तरक्की के रास्ते रोक दिए हैं। गुजरात और सूरत पर सिर्फ हमारा अधिकार है। अगर आपको साम्प्रदायिक सौहाद्र्र की जीवंत तस्वीर देखनी हो तो गुजरात के शहर सूरत से बेहतर और कोई जगह नहीं हो सकती। यहां पर लाख कोशिशों के बाद भी आपको गोधरा कांड और उसके बाद हुए गुजरात दंगों की याद दिलाने वाली स्मृति की परछाई तक दिखायी नहीं देगी। यह शहर कभी भी अतीत में नहीं जीता। यहां के लोग वर्तमान में जीने की कला में पारंगत हैं। जो बीत गया, वो सपना था। कटु सपनों को याद रखने से क्या फायदा...। यहां के लोग रिश्ते निभाने में कभी कोई कंजूसी नहीं करते। जाति और धर्म की संकीर्ण भावना से ऊपर उठकर इन्हें अटूट दोस्ती निभाना भी खूब आता है। ऐसी ही एक दोस्ती की दास्तां से जब मुझे रूबरू होने का अवसर मिला तो एक बारगी तो मन में विचार आया कि ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में होता है, लेकिन यह सच है। सौ फीसदी सच। हिंदू जय और मुस्लिम जुनेद सूरत की पहचान बन चुके हैं। प्रबल एकता और भाईचारे के प्रतीक। जय और जुनेद की दोस्ती की शुरुआत लगभग तीस वर्ष पूर्व हुई। जय का पूरा नाम है जयकुमार अग्रवाल और जुनेद का मेमण जुनेद ओरावाला। दोनों के विचार मिलते थे,  इसलिए पहली मुलाकात में ही दोस्ती की ऐसी नींव पडी, जिसे आज तक कोई हिला नहीं पाया। १९८९, १९९२ तथा २००२ में जब गुजरात में दंगे हुए तो सूरत भी उनकी लपेट में आने से नहीं बच पाया था। जय और जुनेद ने चुपचाप तमाशा देखने की बजाय फौरन दंगाग्रस्त क्षेत्र में पहुंचकर पीडितों की तन-मन-धन से मदद की। इतना ही नहीं, उन्होंने दोनों समुदायों के लोगों को समझाया-बुझाया और मिलजुल कर रहने का पाठ पढाया। हमारे यहां धर्म-कर्म के ढोल तो बहुत पीटे जाते हैं, लेकिन इन्हें जीवन में उतारने का जब समय आता है तो अक्सर कन्नी काट ली जाती है। सभी धर्मों का आदर-सम्मान करने वाले जय और जुनेद के धर्म और जीवन का मूल मंत्र दुखियारों, गरीबों और सभी जरूरतमंदों की निस्वार्थ सेवा करना है। जय और जुनेद की दोस्ती को उनके परिजनों तथा समाज ने भी पूरे मन के साथ स्वीकारा और सराहा है। सभी को उनकी इस आदर्श दोस्ती पर फख्र है। दोनों के परिवारों के बीच की प्रगाढ आत्मीयता देखते बनती है। एक दूसरे के पारिवारिक कार्यक्रमों, त्योहारों में जय और जुनेद के परिवार के लोग बडे उत्साह के साथ उपस्थित होकर खुशियां मनाते हुए एक दूसरे को अटूट शुभकामनाओं और बधाई से सराबोर कर देते हैं। राजस्थान में रहने वाली जय की बहन मंजू तो जुनेद पर अपनी जान छिडकती है। उसे जुनेद पर अपने भाई जय से ज्यादा भरोसा है। वह किसी पर्व पर भले ही जय को भूल जाए, लेकिन जुनेद को याद करना नहीं भूलती। दोनों दोस्त अपने-अपने धर्म के प्रति भी पूरी तरह से समर्पित हैं। जय जहां प्रतिदिन मंदिर जाकर पूजा अर्चना करते हैं वहीं जुनेद की नियमित नमाज में कभी कोई चूक नहीं होती। इनकी दोस्ती का संदेश दूर-दूर तक पहुंचा है। सूरत तथा आसपास के इलाके के असहाय मरीजों की देखभाल करने वाली संस्था मरहूम अ. सत्तार नुरानी सार्वजनिक सहायता केंद्र में जय कुमार को सदस्य बनाया है। इस संस्था में २४ सदस्य हैं। जय कुमार एकमात्र हिंदू सदस्य हैं। सूरत के जय और जुनेद ने दोस्ती की आदर्श मिसाल पेश कर किसी कवि की लिखी इन पंक्तियों को यकीनन बडी सहजता और खूबसूरती के साथ साकार किया है :
"दोस्ती की नन्हीं-सी परिभाषा,
मैं शब्द, तुम अर्थ, तुम बिन मैं व्यर्थ।।"