Thursday, January 30, 2025

प्रतिशोध

    कुछ लोग अपने अहंकार के कवच को उतार फेंकने में बहुत देरी लगा रहे हैं। उन्हें गरीब, असहाय, पिछड़े भारतीय कीड़े-मकोड़े से लगते हैं। वे इन्हें कुचल देना चाहते हैं, लेकिन उन्हें यह याद दिलाना भी जरूरी है कि, वक्त बदल रहा है। दलितों, शोषितों और असहायों पर अत्याचार करना बहुत महंगा पड़ सकता है। महात्मा गांधी छुआछूत के खात्मे के लिए जीवनभर लड़ते रहे। आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी शोषक प्रवृत्ति के लोग दंभ और घटिया सोच का दामन कसकर थामे हुए हैं। कर्नाटक का एक छोटा-सा गांव है मारकुंबी। इस गांव में ऐसे सवर्णों का वर्चस्व है, जो यह मानते हैं कि दलितों और गरीबों को इस दुनिया में सम्मान के साथ जीने का कोई हक नहीं है। कोई दलित यदि पढ़-लिखकर ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाता है, तो इनके सीने में सांप लोट जाता है। मारकुंबी गांव में एक नाई की दुकान है, जहां बिना किसी भेदभाव के सभी की दाढ़ी और बाल काटे जाते थे, लेकिन एक दिन अचानक नाई ने दलितों के बाल काटने से मना कर दिया। दलितों के विरोध जताने पर नाई ने अपनी पीड़ा और परेशानी बतायी कि, सवर्णों की चेतावनी के समक्ष वह बेबस है। उसे चेतावनी दी गयी है कि, वह दलितों को अपनी दुकान की चौखट पर पैर भी न रखने दे। यदि उनकी बात नहीं मानी गयी तो उसकी खैर नहीं। दलितों के बढ़ते आक्रोश को देख सवर्ण तिलमिला गये। इनकी इतनी जुर्रत कि हमारे सामने सिर उठाएं। दलित और सवर्ण आमने-सामने डट गए। मारा-पीटी की नौबत आने में देरी नहीं लगी। आपसी संघर्ष में 27 लोग घायल हो गए। दलितों के तीन मकान राख कर दिये गये। दरअसल, देश के कई ग्रामीण इलाके ऐसे हैं, जहां सवर्णों, धनवानों और बाहुबलियों की तूती बोलती है। उन्हीं का शासन चलता है। उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं है। उनके लिए यह 21वीं सदी नहीं, सोलहवीं सदी है। वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। उन्हें लगता है कि यह देश सिर्फ उन्हीं का है। सत्ता भी उनकी, शासक भी उनके। 

    कर्नाटक के बेल्लारी जिले के तलुर गांव में भी मारकुंबी की तरह सवर्णों ने तांडव मचाया। यहां भी सवर्णों की दादागिरी से खौफ खाकर नाईयों ने दलितों के बाल काटने से इंकार कर दिया। यहां भी आपस में खूब जूते और डंडे चले। जमकर हाथापाई हुई। नाईयों के द्वारा दलितों के बाल काटने में असमर्थता जताने में पंचायत के उस आतंकी फरमान का बहुत बड़ा योगदान रहा, जिसमें साफ-साफ कहा गया कि किसी भी हालत में दलितों के बाल न काटे जाएं। जिस कुर्सी पर बाल कटवाने तथा दाढ़ी बनवाने के लिए सवर्ण और धनवान बैठते हैं, उसके आसपास दलितों को न फटकने दिया जाए। जिस आईने में सवर्ण अपना चेहरा निहारते हैं, उस पर तो किसी भी हालत में दलितों की परछाई नहीं पड़नी चाहिए। इस ऐलान के विरोध में पांच दिनों तक गांव के पांचों सैलून बंद रहे। सैलून मालिक भी इस भेदभाव की नीति के खिलाफ देखे गए। धारवाड जिले के हुबली तहसील के गांव कोलीवाड के दलितों को बाल कटवाने के लिए मीलों दूर हुबली जाना पड़ता है। बुजुर्ग शांत हैं, लेकिन दलित युवकों का गुस्सा उफान पर है। पता नहीं वे क्या कर गुजरें। उनका कहना है कि, अब हम इस जुल्म को सहन नहीं कर सकते। हमें कमजोर कतई नहीं समझा जाए। हम भी इसी देश के नागरिक हैं। इस पर हमारा भी उतना हक है, जितना दूसरों का। ऐसे में भेदभाव करने वालों के दबाव में हम क्यों आएं। हम चुप नहीं रहेंगे। ईंट से ईंट बजा देंगे। उम्रदराज लोग तो गांव से दूर जाकर बाल कटवा सकते हैं, लेकिन बच्चे कहां जाएं? सदियों से सबलों की चलती आयी है। ताकतवर धनवानों ने निर्बलों-गरीबों का गला काटा है। सामंती सोच रखने वालों ने दलितों के शोषण के लिए नये-नये तरीके ईजाद कर रखे हैं। यह आज़ादी का मजाक नहीं तो क्या है? 

    मध्यप्रदेश के इंदौर शहर के निकट स्थित पीथमपुर से 15 किलोमीटर दूर बसा है सुलवाड़ गांव। इस गांव में किसी दलित की शवयात्रा सवर्णों की गली से नहीं गुजर सकती। दलितों की शवयात्रा गांव के कच्चे रास्ते से निकलती है। दलित डामर वाली सड़क से जुलूस आदि भी नहीं निकाल सकते। दलितों को 90 साल के कुवरा पूनम की मौत की अंतिम यात्रा अच्छी तरह से याद है। बेटों ने अंतिम यात्रा के लिए बैंड-बाजे बुलवाए थे। जैसे ही यात्रा गांव के भीतर पहुंची, तभी एकाएक पथराव हुआ और सवर्णों ने दलितों पर लाठियां बरसायीं और उन्हें धमकाया और डराया। दलितों को शवयात्रा को पलटा कर गांव के बाहरी गंदे रास्ते से ले जाना पड़ा। बेटों ने पुलिस, कलेक्टर और सरकार तक अपनी शिकायत पहुंचायी, लेकिन किसी ने नहीं सुनी। मदमस्त सवर्णों ने दलितों का हुक्का-पानी बंद कर दिया। 

    देश की राजधानी दिल्ली में एक युवक जबरन पीटा गया। उसका कसूर था कि, वह दलित था। वह जब घुड़ चढ़ी की रस्म निभाने के लिए बग्घी पर सवार हो रहा था, तो उसी दौरान दो दबंग युवक अपनी दादागिरी दिखाने लगे। उन्होंने दूल्हे पर अपशब्दों की तेजाबी बौछार की और घोड़े पर चढ़ने से रोका। विरोध किये जाने पर दूल्हे तथा उसके परिजनों को भी मारा-पीटा गया। दबंगों को दलित की तामझाम वाली शादी और घुड़ चढ़ायी शूल की तरह चुभ गयी। ऐसे में उन्होंने अपना आपा खोने में जरा भी देरी नहीं लगायी और अपनी औकात पर उतर आये। अभी हाल ही में एक दलित दूल्हे की बारात में बारातियों से ज्यादा पुलिस वाले के शामिल होने की खबर देशभर के अखबारों में छपी। राजस्थान में स्थित लबेरा गांव में दूल्हे के घरवालों को आशंका थी कि, दूल्हे की आन-बान और शान के साथ घोड़ी पर बारात निकलने से कुछ दबंग आपत्ति और विरोध के स्वर बुलंद करते हुए मारपीट कर सकते हैं। इसलिए उन्होंने विवाह समारोह से पहले प्रशासन से सुरक्षा व्यवस्था करने की गुहार लगाई। दरअसल इस गांव में लगभग बीस वर्ष पूर्व एक दूल्हे के घोड़े पर बारात निकालने से सामंती सोच वाले कुछ लोगों ने ऐतराज जताते हुए दलित दूल्हे को घोड़ी से नीचे गिरा दिया था। इसी घटना की याद अभी भी उनके मन में बसी हुई थी, लेकिन तब और अब में काफी बदलाव आ चुका हैं, तब तो दलित शांत रह गए थे, लेकिन अब उनका विरोध भी हिंसक हो सकता था। इसलिए प्रशासन ने सतर्क होते हुए सुरक्षा व्यवस्था चाक-चौबंद कर दी। बारात में जहां बारातियों की संख्या बीस-पच्चीस, वहीं खाकी वर्दी पचास-साठ की संख्या में बारात के साथ-साथ चल रहे थे। तामिलनाडु के मदुरै के निकट स्थित एक ग्राम में सत्रह वर्षीय दलित लड़के को दबंगों ने उसकी जाति के कारण जानवरों की तरह मारा-पीटा और गंदी-गंदी गालियां दीं। इतना ही नहीं एक छह वर्ष के बच्चे की मौजूदगी में उस पर पेशाब कर अपनी गुंडागर्दी का नंगा नाच किया। अपमान और प्रतिशोध की आग में जल रहे किशोर ने पुलिस थाने में रिपोर्ट लिखवाने के बाद कहा कि वक्त आने पर वह उन्हें जरूर सबक सिखायेगा और ऐसे नानी याद दिलायेगा कि वे दलितों पर जुल्म ढाने की हिम्मत नहीं कर पायेंगे। आपसी मनमुटाव, भेदभाव, ईर्ष्या और अहंकार की भावना अब तो आदिवासियों में भी सिर उठाने लगी है। छत्तीसगढ़ के बस्तर में स्थित छिंदावाड़ा गांव में एक व्यक्ति के अंतिम संस्कार में विघ्न डाले जाने के कारण उसका शव कई दिनों तक शवगृह में इसलिए पड़ा रहा, क्योंकि गांव के लोगों ने एक साल पहले सर्वसम्मति से फैसला किया था कि ईसाई आदिवासियों को गांव में शव को दफन करने की इजाजत नहीं दी जाएगी। ऐसे कितने ही मामले अक्सर पढ़ने और सुनने में आते हैं। यह सब कुछ उन राजनेताओं की आंखों के सामने होता चला आ रहा है, जो दलितों शोषितों के मसीहा कहलाते हैं। वे तो दलितों और शोषितों के वोटों की बदौलत कहां से कहां पहुंच गये पर ये शोषित और गरीब अपमान का घूंट पीते हुए वहीं के वहीं खड़े जद्दोजहद कर रहे हैं। आजादी का असली मज़ा तो चंद दलित नेता ले रहे हैं। एक बार सत्ता पाते ही राजा-महाराजाओं को मात देने लगते हैं। पूंजीपति राजनेताओं और धन्नासेठों के साथ उठना-बैठना शुरू हो जाता है और उनके रंग में रंगकर दलितों और गरीबों को पूरी तरह से भूल जाते हैं।

Thursday, January 23, 2025

महाकुंभ में...

    इस बार के महाकुंभ का जलवा अद्भुत और खास है। भस्म लपेटे, जटाधारी, गेरूआ वस्त्र पहने साधुओं की भीड़ में कई अचंभित करते चेहरे भी नजर आ रहे हैं। देश और विदेशों से भी कई साधु-संत और पर्यटक इस आस्था के उत्सव में शमिल होकर मीडिया की सुर्खियां पा रहे हैं। सोशल मीडिया में छाये बाबा गिरी, अभय सिंह उर्फ आईआईटीयन बाबा, तीन फीट के गंगापुरी बाबा, चायवाले बाबा, भक्तों को अपने हाथ से रबड़ी बनाकर खिलाने वाले बाबा, बीस किलो चाबियां लेकर चलने वाले बाबा, एम्बेसडर कार दौड़ाते बाबा, सात फीट के बॉडी बिल्डर बाबा के साथ-साथ और भी कई साधु-संतों के क्रियाकलापों तथा असली-नकली खूबसूरत साध्वियों के सोशल मीडिया पर वायरल होते वीडियो ने महाकुंभ को मनोरंजक भी बना दिया है। इसमें दो मत नहीं कि, भारतीय संस्कृति में संत महात्माओं की विशेष अहमियत है। सभी संत अपनी-अपनी विशेषताओं के लिए जाने जाते हैं। नागा साधु अपनी रहस्यमयी दुनिया और जीवनशैली के लिए हमेशा जिज्ञासा का विषय रहे हैं। पुरुष नागा साधु तो कभी-कभार देखने में आ जाते हैं। उनकी शाही सवारी और स्नान की भी चर्चाएं और खबरें सुनने-पढ़ने में आती रहती हैं। लेकिन महिला नागा साध्वियां ज्यादातर लोगों की नजरों से दूर ही रहती हैं। लेकिन इस बार प्रयागराज के महाकुंभ में इनकी उपस्थिति ने स्तब्ध कर दिया है। अपनी तमाम इच्छाओं और धन दौलत का त्याग करना कतई आसान नहीं होता। साधु और साध्वी बनना हर किसी के बस की बात नहीं है। यह आस्था और भक्ति का ऐसा मार्ग है, जहां खुद को पूरी तरह से बदल देना पड़ता है। गुफाओं, जंगलों-पहाड़ों के एकांत में तप और तपस्या करनी पड़ती है। कुंभ मेले में कई साधु-संत और तपस्वी अपार उत्सुकता, जिज्ञासा और आकर्षण का विषय बने हुए हैं, जिनकी तपस्या और जीवन यात्रा अद्भुत और स्तब्ध करने वाली है। उन्हीं में शामिल हैं योग साधक स्वामी शिवानंद। भारत सरकार के द्वारा पद्मश्री से सम्मानित शिवानंद महाराज की आधार कार्ड के अनुसार उम्र 128 वर्ष है। उम्र के इस पड़ाव पर होने के बावजूद पूरी तरह से सक्रिय शिवानंद बाबा हर कुंभ में शामिल होते हैं। उनका यह सिलसिला 100 साल से निरंतर बरकरार है। बाबा कभी किसी से दान-दक्षिणा नहीं लेते। उबला हुआ खाना खाते है और अभी भी कठिन से कठिन आसन बड़ी आसानी से कर लेते हैं। इनके माता-पिता अत्यंत गरीब थे। भीख मांग कर किसी तरह से दिन काट रहे थे। चार साल की उम्र में मां-बाप ने इन्हें गांव में पधारे संत ओंकारानंद गोस्वामी के हवाले कर दिया, ताकि कम अज़ कम उनके बच्चे को खाना तो मिल जाए। शिवानंद ने चार साल की उम्र तक दूध, फल, रोटी अच्छी तरह से नहीं देखी थी, कालांतर में यही इनकी जीवनशैली बन गई। अभी भी आधा पेट ही भोजन करते हैं। बाबा रात को नौ बजे सो जाते है और नियमित सुबह तीन बजे उठते हैं और शौच आदि से निवृत्त होकर योग साधना में लीन हो जाते हैं। दिन में कभी भी उन्हें सोते नहीं देखा गया। युवाओं को उनका यही संदेश है कि, प्रतिदिन सुबह जल्दी उठो। आधा घंटा हर हालत में योग करो। टहलना कभी भी न भूलो। संतुलित जीवन शैली अपनाओगे तो हमेशा स्वस्थ रहोगे।

    41 साल से मौन व्रत पर हैं दिनेश स्वरूप ब्रह्मचारी। महाकुंभ में भीड़ से घिरे रहनेवाले इन बाबा को चायवाले बाबा के नाम से भी जाना जाता है। बाबा ने पिछले 41 वर्षों से अन्न, जल ग्रहण नहीं किया है। वे सिर्फ चाय पीते हैं। अपने अटूट संकल्प के बारे में किसी से कोई जानकारी साझा नहीं करते। हर बात का जवाब लिखकर देते हैं। वह बाएं हाथ से लिखते हैं। उनकी कलम जब चलती है तो बोलने की स्पीड को मात देती प्रतीत होती है। बाबा प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी करने वाले अभ्यार्थियों को एक कुशल अध्यापक की तरह पढ़ाते हैं। वे नोट्स तैयार करके देने के साथ-साथ छात्रों की शंकाओं का समाधान मोबाइल पर टाइप करके भेजते हैं। उनके पढ़ाये 40 से ज्यादा छात्र उच्च अधिकारी बन चुके हैं। महाकुंभ में भी छात्र उन्हें घेरकर सफलता के गुरू मंत्र लेते दिखाई देेते हैं। अंग्रेजी और गणित जैसे विषयों के विशेषज्ञ हठयोगी चायवाले बाबा कहते है कि, वह तो ज्ञान की गंगा में प्रतिदिन डुबकी लगाते हैं। उनका हर दिन शाही स्नान की तरह होता है। महाकुंभ मेले में पधारे आचार्य महामंडलेश्वर अरुण गिरी अपने अनुयायियों को दो पेड़ लगाने के लिए प्रेरित करते हैं। एक पेड़ अंतिम संस्कार के लिए और एक पीपल का पेड़ आक्सीजन के लिए। 2016 में वैष्णोदेवी से कन्याकुमारी तक बाबा ने 27 लाख पौधे वितरित किए। एक करोड़ से अधिक पेड़ लगाने का संकल्प ले चुके अरुण गिरी को उनके भक्त बड़े मान-सम्मान के साथ ‘पर्यावरण बाबा’ कहते हैं। 

    प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ में अनेकों विदेशी बाबाओं की साधना और तपस्या लोगों को प्रेरित और आकर्षित कर रही है। अमेरिका में जन्मे और अमेरिकी सेना में सैनिक रहे माइकल वर्ष 2000 में अपनी पत्नी और बेटे के साथ भारत आए थे। तब वे विभिन्न धार्मिक स्थलों के भ्रमण और साधु-संतों के प्रवचनों से अत्यंत प्रभावित हुए थे। दो वर्ष के पश्चात उनके पुत्र का आकस्मिक निधन हो गया। उन्हें गम और तनाव ने बुरी तरह से घेर लिया। तब उन्हें भारत में बिताये दिन याद हो आए और एहसास हुआ कि जीवन में कुछ भी स्थायी नहीं है। भारत आकर उन्होंने बहुत गहराई के साथ सनातन धर्म का अध्ययन करते हुए संन्यास की राह पकड़ ली। माइकल को अब मोक्षपुरी बाबा के नाम से जाना जाता है। ध्यान ने उन्हें सभी चिंताओं से मुक्ति दिलाई है। इस बार के महाकुंभ में मोक्षपुरी सनातन धर्म के शाश्वत संदेश को फैला रहे हैं। वेदों, उपनिषदों और भगवद् गीता के ज्ञानी अमेरिकी बाबा अनेकों भारतीयों के प्रिय बन चुके हैं। प्रयागराज में जूना अखाड़े के सात फुट कद के आत्मा प्रेमगिरी बाबा के चेहरे की चमक दमक और चुस्ती-दुरुस्ती का आकर्षण लाजवाब है। जो भी एक बार देखता है उन्हें भूल नहीं पाता। विख्यात पायलट बाबा के अनुयायी रह चुके आत्मा प्रेमगिरी बाबा जब महाकुंभ में भ्रमण के लिए निकलते हैं तो भीड़ उनके पीछे-पीछे चलने लगती है। यह बाबा भी मूलत: रूस के रहने वाले हैं। पेशे से अध्यापक हैं, लेकिन सनातन धर्म के आकर्षण में इस कदर बंधे कि पिछले तीस साल से नेपाल में रहकर हिंदू धर्म का प्रचार कर रहे हैं। फौलादी शरीर की वजह से वाहवाही बटोरते इस बाबा को परशुराम का अवतार भी बताया जा रहा है। 

    अभय सिंह नाम का एक दुबला-पतला युवक मेले की शुरुआत में असंख्य लोगों के आकर्षण और जिज्ञासा का विषय बनज्ञ रहा। सोशल मीडिया ने तो उसे जमीन से आसमान तक पहुंचा दिया। एयरोस्पेस इंजीनियरिंग की पृष्ठभूमि वाले आईआईटी बॉम्बे के पूर्व छात्र अभय ने अच्छी खासी मोटी तनख्वाह वाली नौकरियों को लात मारकर अध्यात्मका मार्ग चुना। अपने इस जुनून के चलते मां-बाप की नाराजगी और प्रेमिका को भी खोना पड़ा। बाबा अभय सिंह की मासूम मुस्कराहट पर उसके कटु बयान भारी पड़ गये। जूना अखाड़े के संत और संन्यासी उसे बार-बार समझाते रहे कि वह संयम का दामन न छोड़े। लेकिन वह नशे की धुन में कभी अपने माता-पिता तो कभी अपने गुरू के बारे में ऐसे-ऐसे बेहूदा और अशोभनीय बयान देने में लगा रहा, जो किसी संन्यासी बाबा को तो कतई शोभा नहीं देते। दरअसल देश के इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने भी उसे चने के झाड़ पर चढ़ा दिया था। उसे लगने लगा था कि वह विद्वान भी है और अत्यंत महान भी। उसकी तथाकथित लोकप्रियता से कुछ लोग चिढ़ रहे हैं। ईर्ष्या कर रहे हैं। इसी अहंकार में वह ऊटपटांग बोलता चला गया। कल तक जिस अभय सिंह की कहानी सुनकर लोग उसके प्रति सहानुभूति दर्शा रहे थे, दांतो तले उंगलियां दबा रहे थे, अब उसे ढोंगी और नौटंकी बाज कहते हुए कोस रहे हैं। कुंभ की शुरुआत में ही सोशल मीडिया स्टार हर्षा रिछारिया भी अपनी विभिन्न आकर्षक मुद्राओं और बोलवचनों के कारण काफी छायी रही। सोशल मीडिया उस पर पूरी तरह से लट्टू और मेहरबान रहा। तीस वर्षीय इस खूबसूरत युवती के बारे में जानने के लिए देशभर के लोगों की उत्सुकता बढ़ती चली गई। हर्षा जब निरंजनी अखाड़े के रथ पर विराजमान हुई तो विरोध के साथ-साथ तरह-तरह की बातें होने लगीं। उस पर निशाना साधा जाने लगा कि यह सब खूबसूरती का कमाल है। उसके भगवा वस्त्र धारण करने पर भी आपत्ति के स्वर गूंजे। तब गुस्सायी हर्षा ने एक वीडियो शेयर किया, जिसमें फूट-फूट कर रोती दिखी। अंतत: कुंभ छोड़कर जाने से पहले हर्षा ने कहा, लोगों को शर्म आनी चाहिए। एक लड़की जो धर्म से जुड़ने, धर्म को जानने, सनातन संस्कृति को समझने के लिए आईं थी, लेकिन उसे इस लायक भी नहीं समझा गया कि वो कुंभ में शांति से रूक सके। मैं तो अभिनय को छोड़कर सुकून की तलाश में यहां आई थी, लेकिन कुछ लोगों को मेरा साध्वी का रूप रास नहीं आया...।

Thursday, January 16, 2025

अगले जन्म जरूर आना वापस...

    बीते हफ्ते गुजरात के पोरबंदर में इंडियन कोस्टगार्ड का एक हेलिकॉप्टर क्रैश हो गया। इस आकस्मिक हादसे में भारत माता के तीन लाल शहीद हो गए। तीनों के भरे-पूरे परिवार पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। हम और आप में से अधिकांश लोग ऐसी शहादत की खबरों को पढ़ने-सुनने के बाद अन्य दूसरी खबरों की तरह शीघ्र भूल-भाल जाते हैं। हमें किसी के जाने का कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन जिन पर बीतती है, वही अपनों को खोने के गम और पीड़ा को समझ पाते हैं। हिंदुस्तान के शहीदों और उनके परिजनों की देशभक्ति की कहानियों से कई ग्रंथ पड़े हैं। जिनसे देश की रक्षा के लिए हंसते-हंसते कुर्बान होने की प्रेरणा मिलती है, लेकिन यह भी सच है कि सभी देशवासी अपनी संतानों को सेना में भेजने का साहस नहीं दिखाते। लेकिन जिनमें देशप्रेम की भावना कूट-कूट कर भरी होती है वे खुद तो खुद अपने बच्चों को भी सरहद पर भेजकर गर्वित होते हैं। अपने परिजनों के युद्ध में या अपने कर्तव्य निर्वाह के दौरान शहीद होने वाले सैनिकों की विदायी परिजनों को जहां रूलाती है, वही गर्व से भी भर देती है। फिर भी उनका संयम, साहस और धैर्य उनकी अटूट देशभक्ति से साक्षात्कार करवाते हुए नतमस्तक कर देता है। कोस्टगार्ड पायलट सुधीर कुमार यादव का तिरंगे में लिपटा पार्थिव शरीर जैसे ही घर लाया गया, सभी की आंखों से आंसू बहने लगे। शहीद की जज पत्नी आवृत्ति नैथानी ने धैर्य के साथ खुद को संभालते हुए पार्थिव शरीर को नमन किया और अपने हाथ से लिखा एक पत्र शरीर के पास रखते हुए कहा कि, प्लीज इसे जरूर पढ़ लेना। कोई फॉल्ट हो गया हो तो माफ कर देना। पति के प्रति ऐसे अनूठे प्रेम, समर्पण और विश्वास के पवित्रतम भाव को देखकर सभी स्तब्ध और नतमस्तक रह गए। शहीद की मां बार-बार बेटे की तस्वीर को चूमे और अपलक निहारे जा रही थी। पार्थिव देह के पास बैठकर बिलखती मां का यह कहना हर संवेदनशील इंसान की आंखों को भिगो गया, ‘‘हाय हमार बाबू चला गा... हमार हीरा चला गा...। हमसे फूल चढ़वा रहा है, तुम्हें हमारे चढ़ाना चाहिए था। मेरे बेटन की जोड़ी फूट गई। अगले जन्म में घर वापस जरूर आना...।’’ बेटे के ताबूत पर पुष्प अर्पित करते-करते पिता की जो अश्रु धारा बही उसे रोकना मुश्किल था। धैर्यवान पिता यह कहना भी नहीं भूले कि, मेरा बेटा देश सेवा करते-करते शहीद हुआ, हम सबको उस पर गर्व है। 

    42 वर्षीय कमांडेंट सौरभ यादव के पार्थिव शरीर को कोस्टगार्ड की नौ सदस्यीय टीम जब घर लेकर पहुंची तो पूरा प्रयागराज गमगीन हो गया। उनकी बहादुरी और सहज सरल स्वभाव की गाथाएं बड़े गर्व के साथ पेश की जाने लगीं। अंतिम यात्रा के लिए ले जाते वक्त भारत माता की जयकारों के साथ-साथ कमांडेंट सौरभ अमर रहे, सौरभ तुम्हारा ये बलिदान नहीं भूलेगा हिन्दुस्तान के नारे गूंजते रहे। शहीद की छह साल की बेटी टीका की दर्द भरी चीत्कार सुनकर पत्थर से पत्थर इंसान को रोना आ गया। मासूम बिटिया बार-बार सभी से अनुरोध कर रही थी कि ‘‘कोई मेरा पापा को उठा दो। पापा आप कब तो सोये रहोगे?.. जागो न’’ तीन साल के नादान बेटे को कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। उसे इस सच का तनिक भी आभास नहीं था कि अब वह अपने प्यारे पापा को कभी नहीं देख पायेगा। तिरंगे में लिपटे पति के पार्थिव शरीर को अश्रुपूति निगाहों से ताकती पत्नी को परिजन सांत्वना दे रहे थे, लेकिन वह बुत बनी बैठी थी। जब अंतिम विदाई देने की घड़ी आई तो वह बेहोश होकर गिर पड़ी। शहीद की मां और पिता भी बेसुध थे। उनकी सदैव सुध लेने वाले उनके कर्मठ आज्ञाकारी बेटे ने बीते महीने जाते-जाते वादा किया था कि, मैं बहुत जल्द वापिस आऊंगा। लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था। इन खबरों के बीच एक खबर यह भी... 

    ‘‘बारह साल बाद 13 जनवरी को प्रारंभ होने जा रहे महाकुंभ में दो-तीन दिन के लिए घूमने आए एक माता-पिता ने अपनी 13 साल की पुत्री को जूना अखाड़े में दान कर दिया। इस महाआयोजन में देश-विदेश से करोड़ों लोग शामिल होने के लिए आते हैं। लड़की के माता-पिता का कहना था कि उनकी बेटी राखी साध्वी बनने की इच्छुक थी। उसे बचपन से ही धार्मिक कार्यों में काफी रुचि थी। नौंवी कक्षा की छात्रा राखी पढ़ने में अव्वल होने के साथ-साथ सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़- चढ़कर भाग लेती रही है। राखी को साध्वी की दीक्षा दिये जाने तथा नया नाम गौरी गिरी रखने की खबर सोशल मीडिया पर छायी तो एक वीडियो भी धड़ाधड़ वायरल होने लगा। जिसमें लड़की को कहते सुना गया कि वो बड़ी होकर आईएएस बनना चाहती थी, लेकिन अब उसे साध्वी की तरह रहना पड़ेगा। इस वीडियो के वायरल होने के बाद पुलिस ने हस्तक्षेप किया। अखाड़े के लोग भी नींद से जाग गए। लड़की को संन्यास दिलाने वाले महंत कौशलगिरी को सात साल के लिए निष्कासित कर दिया गया। अखाड़े के नियमों के मुताबिक नाबालिग को कभी दीक्षा नहीं दी जा सकती। अखाड़े का नियम यह भी कहता है कि 25 वर्ष की आयु पूर्ण कर चुकी लड़कियों को अखाड़े में प्रवेश दिया जाता है। माता-पिता के आग्रह पर केवल छोटी आयु के लड़कों को जूना अखाड़े में प्रवेश दिया जाता है। लड़की अब अपने आईएएस बनने के सपने को पूरा कर पाएगी। जो लोग बेटियों को वस्तु समझते हैं और उसे ‘दान’ कर अपनी पीठ थपथपाते हैं उन्हें भी सतर्क हो जाना चाहिए। महत्वाकांक्षी लड़की अपने माता-पिता के साथ अपने घर पहुंच चुकी है...।

Thursday, January 9, 2025

नराधम

    नये साल के पहले दिन तो अच्छी खबरें पढ़ने-सुनने की आकांक्षा रहती है। बीते साल की कटु यादों को भूलाने के लिए ही तो 31 दिसंबर की रात दिल खोलकर जश्न मनाया जाता है। कोशिश यह भी होती है कि नाराजगी और मनमुटाव को पीछे छोड़कर एक-दूसरे से मिला-मिलाया जाए और नववर्ष की शुभकामनाएं दी जाएं। होली, ईद, दिवाली, क्रिसमस की तरह सभी को नये साल का भी बेसब्री से इंतजार रहता है। नये साल के पहले दिन अच्छा ही अच्छा होने की हर किसी की तमन्ना रहती है, ताकि पूरा साल खुशी-खुशी गुजरे, लेकिन 2025 की शुरुआत बहुत आहत कर गई। सुबह-सुबह अखबार के पहले पन्ने पर खून से सनी कुछ खबरों ने दिल को दहलाकर रख दिया। नारंगी नगर नागपुर में एक नालायक, नराधम, नीच, लम्बट कुपुत्र ने अपने मां-बाप की इसलिए नृशंस हत्या कर दी, क्योंकि वे उसका भला चाहते थे। उसे बेहतर इंसान बनने की बार-बार नसीहत देते थे। इंजीनियरिंग में दूसरे वर्ष का छात्र हत्यारा उत्कर्ष छह साल से परीक्षा में पास ही नहीं हो रहा था, इसलिए पिता को उसके भविष्य की चिंता सताने लगी थी। सोचते-सोचते उनकी रातों की नींद उड़ जाती थी। हमारे नहीं रहने पर इकलौते बेटे का जीवन कैसे गुजरेगा। इसे तो अपने आनेवाले कल की चिन्ता ही नहीं। पढ़ने-लिखने में इसका मन नहीं लगता। यहां-वहां मटरगश्ती करते हुए टाइमपास कर रहा है। एक ही क्लास में छह साल से अटका है। शराब, गांजा और एमडी जैसे नशों के चंगुल में भी बुरी तरह से फंस चुका है। नशे तो पतन और बरबादी की जड़ होते हैं। आखिर ऐसा कब तक चलेगा? जब भी उसे समझाने की कोशिश करते हैं तो बेअदबी से पेश आते हुए चीखने-चिल्लाने लगता है। कई बार तो आंखें दिखाते हुए हावी भी हो जाता है, जिससे उन्हें भय लगने लगता है। उस दिन उन्होंने इतना ही तो कहा था कि जब पढ़ने में मन नहीं लगता तो परिवार की पुश्तैनी खेती-बाड़ी में क्यों नहीं लग जाते। कई युवा नये-नये तरीकों से खेती कर लाखों रुपये कमा रहे हैं। तुम भी मेहनत करोगे तो यकीनन बेहतर प्रतिफल मिलेगा, लेकिन वह तो ऐसे आगबबूला हो गया था, जैसे कि खेती का काम कोई अपमानजनक घटिया पेशा हो। 25 दिसंबर की रात भी पिता लीलाधर अपने जवान बेटे उत्कर्ष को सही राह पर चलने की सीख दे रहे थे। उत्कर्ष ने जब सीधे-मुंह बात नहीं की तो गुस्से में उन्होंने उत्कर्ष के गाल पर जोरदार तमाचा जड़ दिया। पिता के चांटे को सुझाव और नसीहत का हिस्सा मानने की बजाय उत्कर्ष ने उसी समय उनका हमेशा-हमेशा के लिए काम तमाम करने का दृढ़ निश्चय करते हुए बाजार जाकर धारदार चाकू खरीद कर पैंट की जेब में रख लिया। 26 दिसंबर की सुबह लगभग दस बजे पिता किसी नजदीकी की अंत्येष्टि में गए हुए थे। केवल उत्कर्ष और उसकी मां ही घर में थे। मां ने भी पिता की तरह बेटे को बार-बार फेल होने को लेकर कड़ी फटकार लगाते हुए गांव जाकर खेत में पसीना बहाने को कहा तो उत्कर्ष का तन-बदन सुलग गया। मां-बेटे में लगभग डेढ़ घंटे तक विवाद होता रहा। इसी दौरान गुस्से से तमतमाये उत्कर्ष ने मां की गला घोटकर हत्या कर दी और बड़े इत्मीनान से टीवी देखते हुए पिता के लौटने का इंतजार करने लगा। दोपहर साढ़े चार बजे घर लौटकर जब पिता स्नान के लिए बाथरूम जाने लगे तभी बोखलाये हिंसक जानवर की तरह उत्कर्ष उन पर टूट पड़ा। अचानक हुए आक्रमण से पिता कुछ समझ नहीं पाए। उत्कर्ष ने पिता की पीठ पर चाकू से जैसे ही वार किया तो उन्होंने अपनी पत्नी को सहायता के लिए पुकारा। बेरहम उत्कर्ष ने उन्हें तुरंत बताया कि मां को तो मैंने पहले ही ऊपर भेज दिया है। ऐसे में अब अकेले रह कर क्या करेंगे? घबराये पिता ने बेटे को शांत होने के अनुरोध के साथ मिल-बैठकर बात करने की विनती की। उन्होंने कुछ पल प्रभु की अर्चना करने का भी पुत्र से समय मांगा, लेकिन उत्कर्ष पर तो खून सवार था। उसने अपने जन्मदाता पर रहम करने की बजाय हमेशा के लिए मौत की नींद के हवाले करके ही दम लिया। अपने मां-बाप की नृशंस हत्या करने के बाद वह किंचित भी चिंतित और विचलित नहीं हुआ। उसकी बहन शेजल जो कि बीएएमएस की छात्रा है, उसे उसने बताया कि मम्मी-पापा मेडिटेशन के लिए अचानक बेंगलुरु चले गए हैं। अपने घर में रहने की बजाय बहन के साथ वह निकट स्थित गांव में अपने रिश्तेदार के यहां उधेड़ बुन में लगा रहा। एक-एक दिन उस पर भारी पड़ रहा था। इसी दौरान घर से दुर्गंध आने की वजह से पड़ोसियों में भी सुगबुगाहट शुरू हो गई। पुलिस तक भी बात जा पहुंची। पड़ोसियों तथा रिश्तेदारों ने दरवाजा तोड़कर भीतर प्रवेश किया तो पति-पत्नी के शवों ने उनके पैरोंतले की जमीन खिसका दी। उत्कर्ष ने अपना गुनाह कबूलने में ज्यादा देरी नहीं लगाई। उसके हावभाव बता रहे थे कि उसे अपने जन्मदाताओं की हत्या करने का जरा भी मलाल नहीं है। उसका कहना था कि मेरे पास और कोई रास्ता नहीं था। ये न करता तो क्या सारी उम्र उनके ताने सुनते रहता? 

    इसी तरह से उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ में नये साल के पहले ही दिन एक युवक ने अपनी मां और चार बहनों को मौत के घाट उतार दिया। इस हत्याकांड में उसे अपने पिता का भी पूरा-पूरा समर्थन और साथ मिला। यह परिवार मूलत: आगरा का रहने वाला था। अरशद ने मां और बहनों का खून करने के बाद एक वीडियो के माध्यम से बताया कि बस्ती वालों की गंदी सोच और वासना भरी निगाहों से बहनों को बचाने के लिए उसे हत्यारा बनना पड़ा। मेरी बहनों को हैदराबाद की देहमंडी में बेचने की साजिशें रची जा रही थीं। भाई होने के नाते मैं ऐसा कैसे होने देता? अशरद का पूरा परिवार 31 दिसंबर की रात लखनऊ पहुंचा था। होटल वालों ने सोचा कि सभी नया साल सेलिब्रेट करने के लिए आगरा से लखनऊ आये हैं। होटल में अशरद ने मां और बहनों को पहले जबरन शराब पिलाई। पहले मां के मुंह में दुपट्टा ठूंसकर गला घोंटा। फिर बहनों को भी तरह-तरह की यातनाएं देकर तड़पा-तड़पा कर मार डाला। अरशद और उसके परिवार का आगरा की जिस बस्ती में घर है, वहां के लोगों का कहना है कि बाप-बेटा दोनों बेहद सनकी हैं। मां तथा बहनों को कभी भी घर से बाहर कदम ही नहीं रखने देते थे। उनके लिए तो घर ऐसा कैदखाना था, जहां से रिहाई असंभव थी।  ज़रा-ज़रा-सी बात पर पड़ोसियों से लड़ना-झगड़ना बाप-बेटे की आदत में शुमार था। खुद ही लड़ते थे और खुद ही पुलिस को बुला लेते थे। बस्ती वालों पर बहनों को बेचने और जिस्म फरोशी कराने की साजिश रचने के आरोप भी पूर्णत: बेहूदा  और असत्य हैं। अरशद की साल 2017 में जिस लड़की से शादी हुई थी। वह सिर्फ दो महीने में ही इतनी परेशान हो गई कि, ससुराल को हमेशा-हमेशा के लिए छोड़कर मायके चल दी। मायके वालों का कहना था कि, अरशद का बाप अपनी बहू पर बुरी नजर रखता था। इसलिए फटाफटा तलाक का रास्ता चुना गया। 

    ये खबरें नहीं, धारदार खंजर हैं, इनकी कातिल चुभन दिल-दिमाग को दहलाकर सुन्न कर देती है। मां, बाप, भाई-बहन और पति-पत्नी के रिश्तों से बढ़कर तो कुछ भी नहीं होता, लेकिन कुछ वहशी हैवान प्रवृत्ति के लोग इन्हीं पवित्र, आत्मिक रिश्तों को बड़ी बेरहमी से कत्ल करने में ज़रा भी नहीं सकुचाते। कोई भी माता-पिता अपनी संतान के अहित की कैसे सोच सकते हैं! वे तो उन्हें आकाश की बुलंदियों पर देखना चाहते हैं। इसके लिए वे अपना सबकुछ लुटाने को भी तत्पर रहते हैं, लेकिन जब उन्हें पता चलता है कि उनके बच्चे नालायक साबित हो रहे हैं। लोग उनकी परवरिश पर सवाल उठा रहे हैं तो वे जिस गम और टूटन से गुजरते हैं उसे बच्चे कम ही समझ और जान पाते हैं। उन्हें तो मां-बाप की नसीहत शूल की तरह चुभती है। यहीं से जो टकराव शुरू होता है उसके दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। भारतीय नारियां अपने पति को मात्र दिखावे के लिए परमेश्वर नहीं मानतीं, लेकिन कुछ कपटी पुरुष पत्नी की भावना को पढ़ ही नहीं पाते। किसी भी बेटे, पिता, भाई, बहन और पति का कातिल चेहरा कई-कई सवाल छोड़ जाता है...।

Thursday, January 2, 2025

। महामानव ।

    भारतवर्ष के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह पंचतत्व में विलीन हो चुके हैं। 92 वर्ष की उम्र में उन्होंने दिल्ली के एम्स में अंतिम सांस ली। आर्थिक सुधारों के नायक मनमोहन सिंह की जीवन यात्रा का पन्ना-पन्ना अत्यंत प्रेरक और पठनीय है। उनका जन्म 26 सितंबर 1932 में पश्चिमी पंजाब (अब पाकिस्तान में) के एक गांव में हुआ था। देश के बंटवारे के बाद उनके परिवार ने सर्वप्रथम हलद्वानी में शरण ली। बचपन में ही उनकी मां का निधन हो गया। उनकी नानी ने उनका पालन-पोषण किया। गरीबी की वजह से बालक मनमोहन ने गांव में लालटेन की रोशनी में पढ़ाई की। पिता का सपना था, बेटा पढ़-लिखकर डॉक्टर बने, लेकिन नियति ने तो कुछ और ही ठान रखा था। अपने शैक्षणिक जीवन में सदैव प्रथम रहे मनमोहन सिंह कुछ वर्ष तक पंजाब विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के टीचर के रूप में कार्यरत रहे। उसके पश्चात वहां अर्थशास्त्र के प्रोफेसर भी रहे। कालांतर में वे भारत सरकार में कई प्रमुख पदों पर आसीन हुए। रिजर्व बैंक के गवर्नर, योजना आयोग के उपाध्यक्ष और प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार जैसे कई महत्वपूर्ण पदों को सुशोभित करने वाले डॉ. मनमोहन को सक्रिय राजनीति में लाने का श्रेय पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय पी.वी. नरसिंह राव को दिया जाता है। पी.वी. नरसिंह राव डॉ.मनमोहन की देशभक्ति, सूझबूझ, दूरदर्शिता के जबरदस्त कायल थे। भारत के मध्यमवर्ग को अच्छे दिन दिखाने वाले डॉ.मनमोहन जितने शिक्षित थे, उतना भारत की राजनीति में दूसरा और कोई नेता दूर-दूर तक दिखायी नहीं देता। यह तथ्य भी काबिलेगौर है कि सफल वित्तमंत्री और प्रधानमंत्री रहे डॉ.मनमोहन राजनीति के कुशल खिलाड़ी नहीं थे। यही वजह रही कि वे राजनीतिक नेता नहीं बन सके।

    विद्वता और विनम्रता की प्रतिमूर्ति मनमोहन सिंह श्रीमती सोनिया गांधी के अनुरोध पर 2004 में भारतवर्ष के प्रधानमंत्री बने और 2014 तक लगातार इस पद पर आसीन रहे। मनरेगा, सूचना का अधिकार, आधार, ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन जैसी परियोजनाएं उन्हीं के कार्यकाल में प्रारंभ हुई। दस वर्षों तक देश के प्रधानमंत्री रहे डॉ. मनमोहन कभी लोकसभा के सदस्य नहीं रहे, लेकिन 1991 से 2019 तक असम से और 2019 से 2024 तक राजस्थान से राज्यसभा सदस्य रहकर देश की राजनीति की शान बने रहे और बने रहेंगे। लाइसेंसी राज का खात्मा करने वाले मनमोहन के बारे में यह भी प्रचारित किया गया कि वे सोनिया गांधी के इशारों पर नाचते हैं। इस तरह के और भी कई आरोप उनकी संघर्ष यात्रा के साथी बने रहे। देश को आर्थिक संकट से बाहर निकालने वाले पूर्व प्रधानमंत्री को माननीय राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने इन शब्दों के साथ श्रद्धा सुमन अर्पित करते हुए याद किया। 

    ‘‘पूर्व प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह जी उन चुनींदा राजनेताओं में से एक थे, जिन्होंने शिक्षा और प्रशासन की दुनिया में भी समान सहजता से काम किया। सार्वजनिक पदों पर अपनी विभिन्न भूमिकाओं में उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था में सुधार के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिया। उनका निधन हम सभी के लिए बहुत बड़ी क्षति है। उनकी सरलता और सादगी के अनेकों किस्से हैं, जो बताते हैं कि वे कितने आम और महान थे। वर्ष 2004 से लगभग तीन वर्ष तक उनके बॉडीगार्ड रहे असीम अरुण ने ‘एक्स’ पर एक पोस्ट में लिखा, ‘‘प्रधानमंत्री रहते हुए मनमोहन सिंह को बीएमडब्ल्यू के बजाय अपनी मारुति-800 पसंद थी, क्योंकि वे इस कार के जरिए मध्यमवर्ग से जुड़ाव महसूस करते थे। पीएम हाउस में काली चमचमाती बीएमडब्ल्यू के एकदम पीछे मारुति खड़ी रहती थी। वे बार-बार मुझे कहते-अरुण मुझे महंगी कार से चलना पसंद नहीं। मेरी गड्डी तो यह (मारुति) है। मैं सादर उनसे कहता कि, सर यह गाड़ी आपके ऐश्वर्य के लिए नहीं है। इसके सिक्योरिटी फीचर्स वैसे हैं, जिनके लिए एसपीजी ने इसे लिया है, लेकिन जब बीएमडब्ल्यू को लेकर निकलता तो वे हमेशा पीछे खड़ी मारुति को बार-बार देखते रहते। जैसे संकल्प दोहरा रहे हो कि, मैं मिडिल क्लास व्यक्ति हूं और आम आदमी की चिन्ता करना मेरा काम है। करोड़ों की गाड़ी पीएम की है, मेरी तो यह मारुति है...।’’ 

    डॉ. मनमोहन पर कभी भी भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे, लेकिन उनके कार्यकाल में राजनीति, उद्योग और मीडिया के कुछ बेइमानों ने खूब जमकर चांदी काटी। यह भी जोर-शोर से कहा और प्रचारित किया गया कि वे भ्रष्टाचारियों को देख-जानकर भी अनदेखा कर देते हैं। कहीं न कहीं ऐसा करने के पीछे उनकी राजनीतिक मजबूरियां रही होंगी। अपने दूसरे कार्यकाल के दौरान निरंतर बदनामी और विवादों से घिरे रहे मनमोहन की चुप्पी भी बड़ी लाजवाब रही। आरोप के तीर चलाने वाले उनसे जवाब चाहते थे, लेकिन उनका कहना था, ‘‘हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी।’’ राहुल गांधी ने भरी सभा में अध्यादेश के टुकड़े-टुकड़े कर जिस तरह से उन्हें अपमानित किया, ठीक वैसे ही देश का अधिकांश प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया भी उन पर काफी ज्यादा आक्रामक बना रहा। मीडिया के तीखे से तीखे सवाल तथा अनुचित हमलों को भी बड़ी सहजता से झेलने वाले मनमोहन ने कभी भी किसी भी कलमकार, संवाददाता और संपादक को अपमानित नहीं किया। वे ऐसा सोच भी नहीं सकते थे। वे मानते थे कि स्वतंत्र और निष्पक्ष मीडिया लोकतांत्रिक व्यवस्था को चलाने के लिए नितांत आवश्यक है। जीवन की हर राह में मौन को अपनी सबसे बड़ी ताकत मानने वाले डॉ. मनमोहन के निधन के तुरंत बाद एक तरफा चलने वाले मीडिया तथा राजनेताओं ने गिरगिट की तरह रंग बदलने में देरी नहीं लगाई। अपने जीवन काल में वे जिस मान-सम्मान के हकदार थे वह उन्हें तब मिला जब वे चल बसे। दरअसल, मीडिया को अपनी गलती का अहसास हो गया था कि पूर्व प्रधानमंत्री के शासन काल में उसने उन पर जो आरोप लगाए उनमें से अधिकांश बाद में गलत साबित हुए। भारतीय मीडिया की पश्चाताप करने की आदत नहीं है। वह अपने ही तौर-तरीकों से काम करता आया है। गुजरे वक्त में उसने जिन्हें खलनायक दिखाया दर्शाया उन्हीं को बाद में नायक के रूप में प्रतिष्ठित करने की जरूरत और मजबूरी को कई बार हमने देखा है। चुप्पी को अपनी ताकत मानने वाले डॉ. मनमोहन के संसद में एक चर्चा के दौरान कहे अल्लाम इकबाल के इस शेर की गूंज सोशल मीडिया में भी दूर-दूर तक सुनाई दे रही है, ‘‘माना कि तेरी दीद के काबिल नहीं हूं मैं, तू मेरा शौक देख, मिरा इतज़ार देख...।’’ डॉ. मनमोहन के मन में देश के प्रति कैसी सम्मानजनक भावनाएं थीं, उन्हें उनकी इन पंक्तियों से जाना जा सकता है ‘‘मुझे जो कुछ भी मिला है इस देश से ही मिला है, एक ऐसा देश, जिसने बंटवारे के कारण बेघर हुए एक बच्चे को इतने ऊंचे पद तक पहुंचा दिया, ये एक ऐसा कर्ज है, जिसे मैं कभी अदा नहीं कर सकता, ये एक ऐसा सम्मान भी जिस पर मुझे हमेशा गर्व रहेगा...।’’