Thursday, May 21, 2020

हमका नहीं देखना शहर

"तीन सडक हादसों में ३२ प्रवासी मजदूरों की गई जान, कई लोग घायल, ट्रक की टक्कर से पति का पैर टूटा, मदद के लिए रोती-गिडगिडाती रही पत्नी, दिव्यांग बेटे को १२०० किमी ले जाने को बेबस पिता ने साइकिल चुराई, खाली जेब ट्रेन पकडने दौडते श्रमिक की मौत, परिवार को रिक्शे में बिठाकर की पांच सौ किमी यात्रा, प्रवासी श्रमिकों की रेलवे स्टेशन पर गुंडागर्दी। बेखौफ होकर स्नैक्स, कोल्डड्रिंक और पानी की बोतलें लूटीं। प्रवासी मजदूरों को मिल रहा है मुफ्त अनाज, सरकार का दावा। घर लौट रहे मजदूर के चार वर्षीय बेटे ने दम तोडा, नदी किनारे कर दिया दफन, उद्योगपतियों में तोडा प्रवासी श्रमिकों का भरोसा, जिगर के टुकडे को मां ने सूटकेस पर सुलाया... फिर उस सूटकेस को घसीटते हुए तय किया ८०० किमी का सफर। अपने गांव पहुंचने के लिए पिता को बेचना पडी अपनी मासूम बच्ची की कान की बाली, मजदूरों, किसानों के लिए सरकार ने खोली तिजोरी, भोजन, पानी और परिवहन की समुचित व्यवस्था न होने से भडके सैकडो प्रवासी।"
इन शीर्षकों को पढ, सुन और देखकर आप भी जरूर चौंके होंगे। यह तो कुछ भी नहीं। सभी खबरें अखबारों में नहीं छपतीं। हर खबर न्यूज चैनलों में जगह नहीं पाती। इसलिए उसके शीर्षक बनने का सवाल ही नहीं उठता। जाहिर है यह खबरें देश के मजदूरों की हैं, किसानों, दलितों और शोषितों, गरीबों, बेबसों की हैं, जिनके आजादी के ७२ साल बाद भी हाथ खाली के खाली हैं। इनके संघर्षों को देख-सुनकर दिल बैठने लगता है। यह तमाम हृदय विदारक शीर्षक और उनके अंतर्गत प्रकाशित खबरें हिन्दुस्तान के उस असली सच को बताती हैं, जिन्हें हुक्मरान छिपाये रखना चाहते हैं, लेकिन कोरोना नामक महामारी ने उसे सारी दुनिया के समक्ष उजागर कर दिया है। इस भयावह चिन्ताजनक 'कोरोना काल' ने इस देश के राजनेताओं, सत्ताभोगियों और प्रशासनिक फरेबियों को कटघरे में खडा कर दिया है। हमेशा की तरह अब ये कपटी कोई सही जवाब देने से रहे, लेकिन सच तो यही है कि कितने-कितने जगजीवनराम, मायावती, रामविलास पासवान, मीरा कुमार, राम आठवले आदि-आदि दलितों, शोषितों, श्रमिकों के उद्धार और विकास के झूठे वायदे कर वोट हथियाते रहे और सत्ता का सुख और मज़ा लूटते रहे। जीरो से हीरो होते ही उनकी कोठियां तन गईं। महल खडे हो गये। लग्जरी कारों के काफिले के साथ हवाई जहाजों की यात्राएं भी होने लगीं। जिनके वोटों की बदौलत यह चमत्कार हुआ उन लाखों-करोडों लोगों को तो रहने के लिए न कोई छत मिली और न ही रोजी-रोटी का स्थायी ठिकाना। उनकी कई पीढ़ीयां ही ऐसे ही चल बसीं। यह बदनसीब भी दो वक्त रोटी के लिए इस उम्मीद के साथ बनवास भोगते चले आ रहे हैं कि कभी तो उनके दिन बदलेंगे। अपने गांव से बेटे के पास शहर में रहने आयी एक मां ने जब इसी कोरोना काल में वापस अपने गांव जाने की जिद पकडी तो उसे अपने बेटे की बेबसी पर बडा रोना आ गया। कई दिनों के इन्तजार के बाद शहर की एक बडी निर्माण कंपनी में मजदूरी करने वाले बेटे, उसकी पत्नी, दो बच्चे, भतीजे के साथ बडी मुश्किल से बस में जब बैठी तो उसका कहना था कि मैं पहली बार अपने गांव से बाहर आई हूं और यह अंतिम बार है। मां बेटे को यह कहने से भी नहीं चूकी, 'बेटुआ, अब हम कभी नहीं आई, तू बेशक हमका कांधा देने भी मत आई। हमका नहीं देखना शहर।' बेटा तो यह सोचकर मां को शहर लाया था कि वह खुश होगी। उसका दिल बहल जाएगा। लेकिन....। वैसे कोई भी बेटा मां-बाप और अपना गांव छोड तब तक नगरों तथा महानगरों की तरफ नहीं जाना चाहता जब तक रोजी-रोटी की मजबूरी न हो। गांव में खेती घाटे का सौदा होकर रह गयी है। कमाने-खाने के अन्य कोई पुख्ता साधनों का न होना शहरों में जाने को विवश कर देता है। अपने देश के करोडों लोग वर्षों से अपना घर-बार छोड शहरों में जाकर मजदूरी करने को अभिशप्त हैं। कौन चाहेगा कि उसे रिक्शा चलाना पडे, ईंट, सीमेंट, गारा ढोना पडे तथा वो सभी काम करने पडें, जो नाम मात्र की मजदूरी की रकम के बदले जीवन की लगभग सभी खुशियां छीन लेते हैं। वे इनसे इतने पैसे भी नहीं बचा पाते जो उनके आडे वक्त में काम आ सकें। दिन-रात खून-पसीना बहाकर जो हाथ आता है वह जरूरी खर्चों में फुर्र हो जाता है। असुरक्षित हालातों में जीने वाले इन करोडों भारतवासियों को कोरोना ने जिस भयावह सच से रूबरू कराया है उसे वे कैसे भूल पायेंगे!
कोविड-१९ के चलते हुए लॉकडाउन ने करोडो भारतीयों को गृहग्राम, गृहनगर तथा अपनी छत की अहमियत बता दी है। इस महासंकट ने उनके दिमाग पर लगे तालों को खोला है। वे यह तो जान-समझ गये हैं कि राजनीति, सत्ता और सत्ताधीश उन्हें किस तरह से छलते चले आ रहे हैं। वर्षों पहले श्रीमती इंदिरा गांधी ने 'गरीबी हटाओ' के नारे को उछालकर सत्ता तो पा ली, लेकिन गरीबी खत्म नहीं कर पायीं। उसके बाद कितने मुखौटेधारी सपने दिखा-दिखाकर देश की सत्ता पर काबिज होकर देशवासियों को छलते रहे, जनता खुद को ठगा पाकर भी कुछ नहीं कर पायी। आज भी वह रोटी-रोजी के चक्कर में ऐसे उलझी है कि तमाशे पर तमाशा देखने को मजबूर है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का भी अच्छे दिन लाने का चुनावी वायदा कब पूरा होगा, राम जाने...। यह पंक्तियां लिखते समय बार-बार मेरी आखों के सामने अपने उम्रदराज माता-पिता के कंधो पर बैठे कई बच्चे तथा सूटकेस पर लटका बच्चा आ-जा रहा है। सोच रहा हूं इनका भविष्य कैसा होगा? मां-बाप तो उम्र भर भटकते रहे, लेकिन क्या इनके हिस्से में अच्छे दिन आयेंगे?

No comments:

Post a Comment