सदियों से इंसानों के जीने के तरीकों का जो रंग-ढंग और सांचा बना हुआ है, उसी में ही अधिकांश लोग ढल और रच बसकर जीना पसंद करते हैं। उनके जीवन में सब कुछ पहले से ही निर्धारित होता है। कब खुशी मनानी है और कब गम इसके लिए किसी को बताना नहीं पड़ता। मिलने पर खुशी और बिछुड़ने पर दुखी होना अदना-सा बच्चा भी जानता है। जन्म पर जश्न और मौत पर गमगीन होने की जगजाहिर परिपाटी से यकीनन सभी वाकिफ हैं, लेकिन कुछ लोग इस परंपरा के विपरीत चलते हुए एक नई राह और नई सोच के प्रबल पक्षधर के रूप में सामने आ रहे हैं। उनसे प्रभावित होकर उनका अनुसरण करने वाले बड़ी तेजी से तो नहीं, लेकिन धीरे-धीरे सामने आकर परंपरावादियों को चौंका रहे हैं। यह भी सच है कि हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराओं में एकाएक बदलाव लाना बिलकुल आसान नहीं। खासतौर पर वो आदतें और परंपराएं जो करीबी रिश्तों की सुकोमल, नितांत आत्मिक भावनाओं की नींव पर बड़ी मजबूती से टिकी हों और जिन्हें हिलाने की कोशिश करने वालों को एकजुट होकर लताड़ और दुत्कार लगाने में देरी नहीं की जाती हो। क्रांतिकारी चिंतक, वक्ता ओशो ने वर्षों पूर्व जब अपने सभी शिष्यों को मौत पर गम नहीं, जश्न मनाने का संदेश दिया था तब उन्हें पागल करार देते हुए अनेकों परंपरावादियों ने पूछा था कि किसी प्रियजन की मौत तो हमेशा दुखदायी ही होती है। कोई अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, चाचा-मामा और जान से प्यारे मित्र के गुजर जाने पर खुश कैसे हो सकता हैं? यह तो निष्ठुरता की इंतिहा है। पवित्र रिश्तों का सरासर अपमान है। ओशो तो ओशो थे। जो कह दिया बस पत्थर की लकीर। प्रत्युत्तर में ओशो बोले थे मृत्यु से डरने की बजाय, इसे जीवन की निरंतरता के रूप में स्वीकार करना चाहिए। मृत्यु शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं। आत्मा अमर है और मृत्यु के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है। इसलिए मृत्यु को जीवन के एक नए चरण की शुरुआत के रूप में देखना चाहिए, न कि उसे अंत मानना चाहिए। मृत्यु का उत्सव मनाना जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण दर्शाता है। साथ ही यह भी दर्शाता है कि हम जीवन के हर पहलू को सहजता से स्वीकार करते हैं, चाहे वह सुखद हो या दुखद। ओशो अपने शिष्यों को अंत तक कहते रहे कि मृत्यु को रहस्य के रूप में नहीं, बल्कि एक प्राकृतिक प्रक्रिया के तौर पर देखें। मृत्यु को उत्सव मनाने का मतलब जीवन के हर पल को समग्रता से जीने और किसी भी चीज से मोह न रखना भी है। जब हम मृत्यु से नहीं डरते तो हम जीवन के हर पल को और अधिक तीव्रता से जी पाते हैं। ओशो के शिष्यों ने 1990 में ओशो रजनीश की हार्ट अटैक की वजह से मृत्यु होने के पश्चात उनकी सीख का पालन करते हुए उनकी मृत्यु को एक जश्न... उत्सव के रूप में मनाया। उनके शव को सभागृह में रखकर धड़ाधड़ तस्वीरें उतारीं तथा रंग-बिरंगे कपड़ों में नृत्य और संगीत का आनंद लेते उनका अंतिम संस्कार किया था।
फिल्म अभिनेता अनुपम खेर ने भी ओशो का अनुसरण करते हुए अपने पिता की मृत्यु होने पर प्रचलित तरीकों से गमगीम होकर आंसू बहाने की बजाय उन्हें खुशी-खुशी अंतिम विदाई दी। अभिनेता अपने खुशमिजाज पिता को बहुत चाहते थे। उनसे अत्यंत प्रभावित भी थे। अनुपम ने पिता को हमेशा बेफिक्री के साथ हंसते-मुस्कुराते देखा था। वे दूसरों को भी सदा खुश रहने की सीख देते थे। अनुपम के प्रिय पिता जब चल बसे, तभी उन्होंने निश्चय किया कि पिता जैसे आनंद के साथ जीते रहे वैसे ही उनकी मृत्यु को खुशी-खुशी उत्सव के रूप में मना कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। उन्होंने अंतिम संस्कार में पिता की मौत को रंगीन बनाने के लिए अपने दोस्तों को काले या सफेद लिबास में आने की बजाय रंगारंग कपड़ों में आने को कहा। जश्न में किसी भी तरह की कमी न रहे इसके लिए अनुपम ने विशेष तौर पर रॉक बैंड को आमंत्रित कर रंगीन माहौल बनाते हुए पिता के जीवन के तमाम खुशनुमा, सकारात्मक पहलुओं को साझा किया। भारत में इन दिनों इस तरह के बदलाव की बयार चल रही है। पहले लोग सकुचाते थे-लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे? लेकिन अब जो उन्हें सुहाता है उसे कर गुजरने में नहीं हिचकिचाते। हरियाणा के शहर रेवाड़ी में पत्नी की मौत की खबर सुनते ही पति ने कुर्सी पर बैठे-बैठे प्राण त्याग दिए। पति 93 साल के तो पत्नी 90 साल की थी। उम्रदराज माता-पिता के अपार अपनत्व को देखते हुए बच्चों ने उनकी अर्थी को रंग-बिरंगे गुब्बारों से सजाकर धूमधाम से निकाला। दोनों का एक ही चिता में अंतिम संस्कार किया गया। धार्मिक नगरी उज्जैन में कुछ महीने पूर्व मनोरमा नामक 65 वर्षीय महिला का निधन हो गया। इत्तेफाक से उसी दिन उनका जन्म दिन भी था। परिजनों ने उनके जन्म दिन को धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रखी थी। उस दिन 14 फरवरी होने के कारण पूरी दुनिया वैलेंटाइन-डे मना रही थी। इस उत्सवी दिन को प्यार का दिन भी कहा जाता है। मनोरमा धार्मिक होने के साथ-साथ समाज सेवा से भी जुड़ी थीं। उन्होंने अपने घरवालों की सहमति से वर्षों पूर्व देहदान का संकल्प लिया था। वह चाहती थी कि मृत्यु होने पर उनका शरीर जरूरतमंदों के काम आए। मनोरमा के अंतिम दर्शन कर श्रद्धा सुमन अर्पित करने पहुंचे अनेकों लोग तब हैरत में पड़ गए जब उन्होंने परिवार वालों को ‘हैप्पी बर्ड डे’ का गीत बड़ी प्रसन्न मुद्रा में गाते देखा। मृत्यु के दुखद अवसर पर तो उन्होंने कभी किसी को ऐसी प्रसन्न हालत में नहीं देखा था। परिजनों की देखादेखी सभी लोगों ने मृतका को शुभकामनाएं देकर श्रद्धा सुमन अर्पित किए। देहदान की प्रक्रिया को पूर्ण करने के बाद जब उनके शरीर को फूलों से सजी एम्बूलेंस में विदा किया गया तो वहां पर मौजूद सभी लोग श्रद्धा से नतमस्तक हो गए। उनके लिए अपने आंसू रोकना काफी मुश्किल था, लेकिन फिर भी उन्होंने खुद को संभाले रखा।
मध्यप्रदेश के जावरिया गांव में चार कंधों पर जब एक अर्थी निकल रही थी, तभी एकाएक बैंड बाजे की आवाज गूंजने लगी। एक शख्स अर्थी के आगे आकर झूम-झूम कर नाचने लगा। शवयात्रा में शामिल मृतक के रिश्तेदारों ने उसे यह कहकर मना किया कि यह कोई खुशी का मौका नहीं, जो तुम बैंड बाजे के साथ नाच रहे हो। मातम की घड़ी में कभी कोई ऐसे जश्न मनाता है? लेकिन वह अपनी धुन में जोर-जोर से थिरकता रहा। उसने किसी की एक भी नहीं सुनी। दरअसल, वह मृतक सोहनलाल जैन का खास मित्र था, जो उनकी इच्छा का पालन कर दोस्ती का फर्ज निभा रहा था। वह और सोहनलाल पिछले दस वर्षों से हर सुबह 5 बजे एक साथ प्रभात फेरी पर निकलते थे। इसी दौरान सोहनलाल ने अपने इस मित्र को कहा था कि मैं जब नहीं रहूं तो मेरी अंतिम यात्रा में शामिल होकर मेरी अर्थी के आगे बैंड बाजे के साथ नाचते हुए मुझे विदा करना। एक सच्चे दोस्त ने अपने प्रिय साथी की अंतिम इच्छा को पूर्ण करने वो हिम्मत दिखायी, जो जगहंसाई के डर से लोग दिखा ही नहीं पाते हैं। उसकी इस साहसी पहल ने अंतत: गांव वालों को प्रशंसा भाव के साथ-साथ आंखें नम करने को विवश कर दिया।