Thursday, August 21, 2025

ऐसे छिन रहा बच्चों का बचपन

मोबाइल की चाहत और उसकी लत कई खौफनाक मंजर दिखा रही है। ऐसी कभी कल्पना नहीं की गई थी कि मोबाइल की वजह से आत्महत्याएं होने लगेंगी। बीते दिनों एक सोलह साल के किशोर ने अपनी मां से मोबाइल की मांग की। मां ने असमर्थता प्रकट कर दी तो वह बहुत निराश और आहत हो गया। जैसे उसकी दुनिया ही लुट गई हो। वह मां के सामने ही ऊंची पहाड़ी से कूद गया। अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। दो अन्य और पंद्रह वर्षीय किशारों ने भी यही रास्ता चुना। गरीब किसान पिता के पास बेटे को मोबाइल दिलाने के पैसे नहीं थे। बेटे ने खेत में जाकर पेड़ से लटक कर फांसी लगा ली। इसी तरह से अपने जन्मदिन पर पुत्र ने उपहार में मां से मोबाइल मांगा तो उसने कुछ दिन इंतजार करने को कहा, लेकिन उसे मोबाइल से ज्यादा अपनी जान ज्यादा सस्ती और गैर जरूरी लगी। वह कीटनाशक पीकर इस दुनिया से ही चल बसा। 

सोचो तो बड़े कमाल की चीज़ है यह मोबाइल। छोटों के साथ-साथ बड़े भी इसके चक्रव्यूह में छटपटा रहे हैं। इसकी वजह से तनाव व अनिद्रा के चंगुल में फंस रहे हैं।  कई घरों की मां-बहनें अपने तीन-चार साल के बच्चों को मोबाइल ऐसे पकड़ा रही हैं जैसे वो बच्चे-बच्ची के मन बहलाने का कोई बेहतरीन खिलौना हो। रोते लाडले-लाडली को मोबाइल से बहलाने, चुप कराने और हंसाने वाले पालकों की जब मोबाइल की वजह से ही रोने की नौबत आती है तब उन्हें अपनी गलती का अहसास तो होता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती। है।

मासूम और नादान से लगने वाले बच्चों की मोबाइल की जिद्दी चाहत जब उन्हें खुदकुशी के लिए उकसाती है तो वह अंतत: दिल दहलाने वाली खबर भी बन जाती है। जिसे पढ़ने और सुनने के बाद लोग भूलने में भी देरी नहीं लगाते। लेकिन जिन पर बिजली गिरती है उनके जख्म कभी भी भर ही नहीं पाते। आज के आपाधापी के मायावी दौर ने माता-पिता को बहुत व्यस्त कर दिया है। उनके पास अपने बच्चों की देखरेख के लिए पर्याप्त वक्त नहीं। एक खबर जो मैंने पढ़ी, हो सकता है, आपकी आंखों के सामने से नहीं गुजरी हो, उससे मैं आपको अवगत कराये देता हूं। खबर पंजाब के लुधियाना शहर की है लेकिन ऐसे हालात देश में अब हर कहीं हैं। कोई भी शहर इससे अछूता नहीं। गांव भी इसकी चपेट में हैं। धन-दौलत के चक्कर में रिश्तों की अहमियत को ताक पर रख चुके कामकाजी पालकों के पास अपने बच्चों के लिए भी समय नहीं। अपनी औलादों की देखभाल के लिए उन्हें नौकरानी, आया नर्स आदि रखनी पड़ रही हैं। वही उन्हें नहलाती, सुलाती और खिलाती हैं। बच्चे उनसे जो मांगते हैं, देने की पूरी कोशिश करती हैं। अपना मोबाइल भी मालिकों के बच्चे-बच्ची को खुशी-खुशी पकड़ा कर अपने दूसरे कामों में व्यस्त हो जाती हैं। लुधियाना के एक बड़े नामी-गिरामी उद्योगपति बहुत व्यस्त रहते थे। उनकी पत्नी के पास भी ढेरों समाजसेवा के काम थे, इसलिए वह भी अपने सात साल के बेटे की देखरेख के लिए समय नहीं निकाल पाती थीं। सुबह से रात तक नौकरानी ही बच्चे के साथ रहती। वही उसे नहलाती, खिलाती और तैयार करती। कभी-कभार वह बच्चे के साथ रात को सो भी जाती। किसी छुट्टी के दिन पति-पत्नी को जब लगा कि उनका बच्चा नौकरानी से अत्याधिक जुड़ाव महसूस करने लगा है तो उन्होंने नई नौकरानी रखने को लेकर आपस में बातचीत की। बच्चे ने जब उनकी यह बात सुनी तो उसने झट से कहा कि यही मेरी मां है। अगर यह जाएगी तो मैं भी इसके साथ जाऊंगा। आपके साथ नहीं रहूंगा। इसी तरह से शहर के एक डॉक्टर दंपति का छह साल का बेटा छुट्टी के दिन भी अपनी मां की गोद में जाने के बजाय आया के पास बैठा रहता। इसी दौरान  रात को एक बार जब बच्चे को पिता के पास सोने को कहा गया तो भावनात्मक तौर पर मां-बाप से पूरी तरह दूर और कट चुके बच्चे ने साफ मना कर दिया। उसने आया के साथ सोकर अपनी जिद पूरी की तो डॉक्टर दंपति को यह बात बहुत खटकी। लेकिन अब उनके पास और कोई चारा नहीं। एक छह साल की बच्ची ने जब मोबाइल नहीं दिये जाने पर मां से यह कहा कि आया दीदी बहुत अच्छी हैं, आप बहुत बुरी हैं। जब देखो तब आप मुझे बस डांटती रहती हैं। मेरी कोई बात नहीं मानतीं। दीदी तो अपना मोबाइल झट से मेरे हाथ में पकड़ा देती है। जब एक उच्च पद पर कार्यरत महिला अफसर ने देखा कि उनका छह साल का बेटा आया की बोली, लहजे और शब्दों में बात करने लगा है। बात-बात पर चीखने-चिल्लाने और गालियां भी देने लगता है तो उनकी तो नींद ही उड़ गई। दरअसल, उनकी आया दूसरे राज्य की बोली में बात करती थी और भद्दी-भद्दी गालियां देने में भी संकोच नहीं करती थी। अफसर  जब चाइल्ड एक्सपर्ट के पास पहुंची तो उन्होंने बताया कि छोटे बच्चे वहीं भाषा अपनाते हैं जो वे सबसे ज्यादा सुनते हैं। अब अफसर मां समय निकालकर रोज आधा घंटा बच्चे को प्रेरक कहानी और सही शब्दों का अभ्यास कराती हैं। मनोचिकित्सकों का कहना है कि बच्चों की परवरिश में मां-बाप की अहम भूमिका होती है, अगर वे व्यस्त हैं तो भी रोज कम से कम एक-दो घंटे बच्चों के साथ जरूर बिताएं, ताकि बच्चे खुद को मां-बाप से जुड़ा महसूस करते रहें। बच्चा रोज जिसके साथ होता है, वही उसकी भाषा, व्यवहार और इमोशन तय करता है। अगर वह दिनभर आया के साथ है तो उसके लिए मां की अहमियत कम होती चली जाती है। शुरुआती छह साल बच्चों के व्यवहार और सोच को आकार देते हैं। अगर इन सालों में मां-बाप दूरी बना लें तो बाद में बच्चे का उनसे जुड़ना मुश्किल हो जाता है। मां-बाप की अनदेखी और कमजोर परवरिश उन्हें इस कदर गुस्सैल बना देती है कि वे उनसे नफरत तक करने लगते हैं। अकेलेपन और माता-पिता के सौतेलेपन के शिकार बच्चे अपराध की दुनिया से भी आसानी से जुड़ जाते हैं। इसकी गवाह हैं, शहरों में कुछ सालों में नाबालिगों के अपराध करने की घटनाओं में लगातार बढ़ती संख्या। हाल ही के वर्षों में चोरी, लूटपाट, मारपीट, बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराधों में नाबालिगों केलिप्त होने की खबरों ने विचारकों को चिंताग्रस्त कर दिया है। अत्यंत दुखद पहलू तो यह भी है कि किशोरों को शराब, गांजा, चरस और हुक्का पीने का शौक उन्हें नशेड़ी बना रहा है। इस कुचक्र में बालक ही नहीं बालिकाएं भी फंसती चली जा रही हैं। बीते हफ्ते नागपुर में रहने वाली दो बालिकाओं ने मिलकर छत्तीसगढ़ में अपनी ही दादी की हत्या कर दी। गांजा, एमडी जैसे मादक पदार्थों की डिलिवरी में जब नाबालिग पकड़े जाते हैं तो पुलिस का माथा भी चकरा जाता है। खबरें बताती हैं कि किशोर उम्र के बच्चे नशे के लिए पैसे चुकाने के लिए चोरी, ठगी और अपहरण जैसे अपराधों में अपनी भागीदारी दर्शा रहे हैं। कई नाबालिगों ने तो अपहरण, धोखाधड़ी और बलात्कार जैसे संगीन अपराधों को अंजाम देकर अपने भविष्य को पूरी तरह से अंधकारमय कर लिया है...।

Monday, August 18, 2025

ऐसे कैसे खोता मनोबल?

संतरानगरी नागपुर में स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में एमबीबीएस अंतिम वर्ष के छात्र संकेत दाभाड़े ने होस्टल में शाल की मदद से फांसी लगा ली। संकेत एक होनहार छात्र था। उसके डॉक्टर बनने में मात्र एक वर्ष ही बाकी था। माता-पिता बहुत खुश थे। उनका सपना जो साकार होने जा रहा था। संकेत के पिता शिक्षक हैं। मां संस्कारी, परिश्रमी गृहिणी हैं। कॉलेज के पहले दस अत्यंत होशियार विद्यार्थियों में गिने जानेवाले संकेत ने खुदकुशी क्यों की, इसका भी जवाब नहीं मिल पाया। उसके रहन-सहन और बर्ताव से कभी भी ऐसा नहीं लगा कि वह किसी परेशानी में है। वह नियमित डायरी लिखा करता था। देश की राजधानी दिल्ली के पॉश इलाके बंगाली मार्केट के एक गेस्ट हाऊस में ठहरे धीरज नामक चार्टेड अकाउंटेंट (सीए) ने भी खुदकुशी की, लेकिन उसकी खुदकुशी का तरीका स्तब्ध करने वाला है। आर्थिक तौर पर अच्छे-भले धीरज ने आत्महत्या की पूरी तैयारी के साथ गेस्ट हाऊस में प्रथम मंजिल पर 28 से 30 जुलाई तक के लिए एक बीएचके बुक कराया था। चेक आउट का समय आने पर जब कर्मचारियों ने दरवाजा खटखटाया तो उन्हें कोई प्रतिक्रिया और हलचल नहीं दिखायी दी। उलटे उन्हें अंदर से आ रही असहनीय बदबू की वजह से नाक पर रूमाल रखना पड़ा। खबर पुलिस तक पहुंचायी गयी। दरवाजे को तोड़ने पर धीरज का शव बिस्तर पर पड़ा मिला। मृतक ने एक मास्क पहना हुआ था, जो पतली नीली पाइप के माध्यम से एक वाल्व और मीटर वाले सिलेंडर से जुड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर एक पतली पारदर्शी प्लास्टिक लिपटी हुई थी और गर्दन पर सील थी। घातक तरीके से मुंह में पाइप डालकर शरीर के अंदर हीलियम गैस को प्रवेश करा कर खुदकुशी करने वाला धीरज बिना तड़पे मौत का आलिंगन करना चाहता था। पाइप से शरीर में हीलियम गैस डालकर आत्महत्या करने का यह पहला मामला है। धीरज ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि, मैं जा रहा हूं। इसके लिए किसी को कसूरवार न ठहराया जाए। मौत मेरे लिए जीवन का ही एक खूबसूरत हिस्सा है। मेरी नज़र में खुदकुशी करना गलत नहीं है। वैसे भी यहां मेरा अपना कोई नहीं। फिर मेरा भी किसी से कोई जुड़ाव नहीं रहा। धीरज के पिता की 2003 में मृत्यु हो गई थी और मां ने उनकी मौत होते ही किसी और से शादी कर ली थी। 

भारत के महानगर विशाखापटनम में कलेक्टर के पद पर आसीन चालीस वर्षीय आनंदम ने रेल की पटरी पर सिर रख कर अपनी जान दे दी। इन युवा महत्वाकांक्षी कलेक्टर महोदय को बेहतरीन प्रशासन और मिलनसार स्वभाव का धनी माना जाता था। उनसे जो भी एक बार मिल लेता, हमेशा-हमेशा उनको याद रखता। महिलाओं में खासे लोकप्रिय रहे आनंदम की दिल दहलाने वाली खुदकुशी की वजह हैं उनकी अर्धांगिनी, जिन्हें वो जी-जान से चाहते थे। उनकी एक पांच साल की प्यारी-प्यारी बिटियां भी है। पत्नी भी रेलवे में उच्च पद पर कार्यरत है। ऐसी जोड़ियों को हमारे यहां बहुत खुश नसीब माना जाता है, लेकिन यहां एक गड़बड़ थी। वैसे ऐसी परेशानियां अधिकांश घर-परिवारों में आम हैं। कलेक्टर की पत्नी की अपनी सास से नहीं निभ रही थी। जब देखो तब घर में कलह-क्लेश मचा रहता था। कलेक्टर साहब अपनी बीवी के साथ-साथ मां को भी समझाते-समझाते थक गये थे। इस घरेलू जंग की वजह से मां और बीवी दोनों उन्हें ही कोसते रहते। तमाम बाहरी समस्याओं का चुटकी से हल निकालने वाले कलेक्टर को एक दिन लगा कि वे घर के मोर्चे की जंग पर अंकुश लगाने में सक्षम नहीं हैं। उनकी जिन्दगी नर्क बनती चली जा रही है। जीवन भी बोझ हो चला है। जब उनकी पत्नी और मां को उनकी खुदकुशी की खबर मिली तो उनका रो-रोकर बुरा हाल था। उन्हें अपनी गलती पर पछतावा भी था, लेकिन उन्हीं की वजह से निराश और हताश होकर जाने वाला अब वापस तो नहीं आने वाला था। 

नारंगी नगर के ही एक डॉक्टर को बीमारी, परेशानी और अकेलेपन ने अपने जबड़ों में ऐसा जकड़ा कि उन्होंने जहर खा लिया। मौत के मुंह में समाने के लिए उन्होंने पत्नी को भी राज़ी कर ज़हर का सेवन कराया। डॉक्टर तो चल बसे, लेकिन पत्नी अस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रही है। दूसरों की जान बचाने वाले डॉक्टर ने खुदकुशी करने से पहले जो सुसाइड नोट लिख कर छोड़ा, उसमें इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया। डॉक्टर गंगाधर पिछले काफी समय से पेट के अल्सर और दांतों की गंभीर बीमारी से लड़ रहे थे। लगातार इलाज के बाद भी जब स्थिति नहीं सुधरी तो खुदकुशी को ही अंतिम इलाज मान लिया। ऐसा भी कतई नहीं था कि गंगाधर की प्रैक्टिस नहीं चलती थी। जानने-पहचानने वाले सभी लोग उन्हें सफल और सुलझा हुआ डॉक्टर मानते थे। उनके क्लिनिक में पहुंचने वाले मरीजों को उनके इलाज पर भी भरोसा था। पति-पत्नी दोनों घर में अकेले रहते थे। उनकी बेटी एक निजी स्कूल में शिक्षिका हैं और बेटा उत्तराखंड में एक स्टील प्लांट में अकाउंटेंट है। 

पुलिस को घटनास्थल की जांच के दौरान तीन सुसाइड नोट के साथ-साथ दो कीटनाशक की बोतलें भी मिलीं। यह आत्महत्या करने वाले सभी चेहरे उन खास लोगों में शामिल हैं, जिनसे समाज को अनंत अपेक्षाएं रहती हैं। लोगों को खुश और संतुष्ट रखने की जिम्मेदारी इनके कंधों पर होती है। इनके ही इस तरह से मर जाने पर लोग आसानी से यकीन नहीं कर पाते। बस हतप्रभ रह सोचते रह जाते हैं कि क्या इनके पास कोई और विकल्प नहीं था? जब खुद पर आती है, तो अच्छा भला मनुष्य इतना असहाय, निर्बल और दिशाहीन क्यों हो जाता है? जिन्दगी तो विधाता का सौंपा गया एक अनमोल उपहार है, उसे सहेज और संवार कर रखने की बजाय यूं ही गंवा देना सवाल तो खड़े करता ही है। जहां लोग अपनी लंबी उम्र के लिए तरह-तरह के जतन करते हों, वहीं पर ऐसे लोगों की मौजूदगी सहानुभूति और मान-सम्मान की हकदार भी नहीं लगती। कोरोना की महामारी ने इंसानों को जीवन का मोल समझा दिया था। वैसे भी बीते कुछ वर्षों से भारतीयों में स्वास्थ्य के प्रति सतर्क रहने की भावना बलवती हुई है। सेहतमंद बने रहने के लिए बेहतर खान-पान, मार्निंग वॉक, योग, मेडिटेशन और जिम जाने के चलन में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है। पहले जहां पचपन-साठ साल की उम्र में अधिकांश लोग बिस्तर पकड़ लेते थे, अब सत्तर-अस्सी की उम्र में भी कई स्त्री-पुरुष भागते-दौड़ते दिखायी देते हैं। सतत ऊर्जावान, सेहतमंद और लंबी आयु जीने के मामले में पूरे विश्व में जापानियों को प्रेरणा स्त्रोत माना जाता है। जापान में 70-80 साल की महिलाएं टैक्सी चलाती देखी जा सकती हैं। 100 साल की उम्र के बुजुर्ग खुद अपने लिए खाना बनाते हैं। बागवानी करते हैं। अच्छी तरह से देख और सुन सकते हैं। सकारात्मक सोच, पौष्टिक भोजन, नियमित मॉर्निंग और इवंनिंग वॉक तथा चिन्तामुक्त भरपूर नींद जापानियों की लंबी उम्र का जबरदस्त टॉनिक है। अभी हाल ही में जापान की 114 वर्षीय सेवानिवृत्त चिकित्सक शिगेको कागावा चल बसीं। कागावा ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले मेडिकल स्कूल से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। युद्ध के दौरान ओसाका के अस्पताल में अपनी सेवाएं देने के प्रश्चात प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में अपने परिवार के क्लिनिक का संचालन किया। वह 86 वर्ष की आयु में जब सेवा निवृत्त हुईं तब भी उनकी चुस्ती-फुर्ती में कोई फर्क नहीं आया था। उनसे जब उनकी बेहतरीन सेहत और लंबी उम्र का राज पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘मेरे पास कोई रहस्य नहीं है। मैं बस रोज अपने मनपसंद गेम खेलती हूं। सकारात्मक सोचती हूं। मेरी ऊर्जा ही मेरी सबसे बड़ी पूंजी है। मैं जहां चाहती हूं, वहां तुरंत चली जाती हूं। जो चाहती हूं, वही खाती हूं और जो चाहती हूं, वही करती हूं। एकदम स्वतंत्र होने का यही एहसास मेरा हमेशा मनोबल बढ़ाता है।’

Thursday, August 7, 2025

नई पहल की साहसी दस्तक

 सदियों से इंसानों के जीने के तरीकों का जो रंग-ढंग और सांचा बना हुआ है, उसी में ही अधिकांश लोग ढल और रच बसकर जीना पसंद करते हैं। उनके जीवन में सब कुछ पहले से ही निर्धारित होता है। कब खुशी मनानी है और कब गम इसके लिए किसी को बताना नहीं पड़ता। मिलने पर खुशी और बिछुड़ने पर दुखी होना अदना-सा बच्चा भी जानता है। जन्म पर जश्न और मौत पर गमगीन होने की जगजाहिर परिपाटी से यकीनन सभी वाकिफ हैं, लेकिन कुछ लोग इस परंपरा के विपरीत चलते हुए एक नई राह और नई सोच के प्रबल पक्षधर के रूप में सामने आ रहे हैं। उनसे प्रभावित होकर उनका अनुसरण करने वाले बड़ी तेजी से तो नहीं, लेकिन धीरे-धीरे सामने आकर परंपरावादियों को चौंका रहे हैं। यह भी सच है कि हजारों वर्षों से चली आ रही परंपराओं में एकाएक बदलाव लाना बिलकुल आसान नहीं। खासतौर पर वो आदतें और परंपराएं जो करीबी रिश्तों की सुकोमल, नितांत आत्मिक भावनाओं की नींव पर बड़ी मजबूती से टिकी हों और जिन्हें हिलाने की कोशिश करने वालों को एकजुट होकर लताड़ और दुत्कार लगाने में देरी नहीं की जाती हो। क्रांतिकारी चिंतक, वक्ता ओशो ने वर्षों पूर्व जब अपने सभी शिष्यों को मौत पर गम नहीं, जश्न मनाने का संदेश दिया था तब उन्हें पागल करार देते हुए अनेकों परंपरावादियों ने पूछा था कि किसी प्रियजन की मौत तो हमेशा दुखदायी ही होती है। कोई अपने माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी, चाचा-मामा और जान से प्यारे मित्र के गुजर जाने पर खुश कैसे हो सकता हैं? यह तो निष्ठुरता की इंतिहा है। पवित्र रिश्तों का सरासर अपमान है। ओशो तो ओशो थे। जो कह दिया बस पत्थर की लकीर। प्रत्युत्तर में ओशो बोले थे मृत्यु से डरने की बजाय, इसे जीवन की निरंतरता के रूप में स्वीकार करना चाहिए। मृत्यु शरीर का अंत है, आत्मा का नहीं। आत्मा अमर है और मृत्यु के बाद भी उसका अस्तित्व बना रहता है। इसलिए मृत्यु को जीवन के एक नए चरण की शुरुआत के रूप में देखना चाहिए, न कि उसे अंत मानना चाहिए। मृत्यु का उत्सव मनाना जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण दर्शाता है। साथ ही यह भी दर्शाता है कि हम जीवन के हर पहलू को सहजता से स्वीकार करते हैं, चाहे वह सुखद हो या दुखद। ओशो अपने शिष्यों को अंत तक कहते रहे कि मृत्यु को रहस्य के रूप में नहीं, बल्कि एक प्राकृतिक प्रक्रिया के तौर पर देखें। मृत्यु को उत्सव मनाने का मतलब जीवन के हर पल को समग्रता से जीने और किसी भी चीज से मोह न रखना भी है। जब हम मृत्यु से नहीं डरते तो हम जीवन के हर पल को और अधिक तीव्रता से जी पाते हैं। ओशो के शिष्यों ने 1990 में ओशो रजनीश की हार्ट अटैक की वजह से मृत्यु होने के पश्चात उनकी सीख का पालन करते हुए उनकी मृत्यु को एक जश्न... उत्सव के रूप में मनाया। उनके शव को सभागृह में रखकर धड़ाधड़ तस्वीरें उतारीं तथा रंग-बिरंगे कपड़ों में नृत्य और संगीत का आनंद लेते उनका अंतिम संस्कार किया था। 

फिल्म अभिनेता अनुपम खेर ने भी ओशो का अनुसरण करते हुए अपने पिता की मृत्यु होने पर प्रचलित तरीकों से गमगीम होकर आंसू बहाने की बजाय उन्हें खुशी-खुशी अंतिम विदाई दी। अभिनेता अपने खुशमिजाज पिता को बहुत चाहते थे। उनसे अत्यंत प्रभावित भी थे। अनुपम ने पिता को हमेशा बेफिक्री के साथ हंसते-मुस्कुराते देखा था। वे दूसरों को भी सदा खुश रहने की सीख देते थे। अनुपम के प्रिय पिता जब चल बसे, तभी उन्होंने निश्चय किया कि पिता जैसे आनंद के साथ जीते रहे वैसे ही उनकी मृत्यु को खुशी-खुशी उत्सव के रूप में मना कर उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करेंगे। उन्होंने अंतिम संस्कार में पिता की मौत को रंगीन बनाने के लिए अपने दोस्तों को काले या सफेद लिबास में आने की बजाय रंगारंग कपड़ों में आने को कहा। जश्न में किसी भी तरह की कमी न रहे इसके लिए अनुपम ने विशेष तौर पर रॉक बैंड को आमंत्रित कर रंगीन माहौल बनाते हुए पिता के जीवन के तमाम खुशनुमा, सकारात्मक पहलुओं को साझा किया। भारत में इन दिनों इस तरह के बदलाव की बयार चल रही है। पहले लोग सकुचाते थे-लोग क्या सोचेंगे, क्या कहेंगे? लेकिन अब जो उन्हें सुहाता है उसे कर गुजरने में नहीं हिचकिचाते। हरियाणा के शहर रेवाड़ी में पत्नी की मौत की खबर सुनते ही पति ने कुर्सी पर बैठे-बैठे प्राण त्याग दिए। पति 93 साल के तो पत्नी 90 साल की थी। उम्रदराज माता-पिता के अपार अपनत्व को देखते हुए बच्चों ने उनकी अर्थी को रंग-बिरंगे गुब्बारों से सजाकर धूमधाम से निकाला। दोनों का एक ही चिता में अंतिम संस्कार किया गया। धार्मिक नगरी उज्जैन में कुछ महीने पूर्व मनोरमा नामक 65 वर्षीय महिला का निधन हो गया। इत्तेफाक से उसी दिन उनका जन्म दिन भी था। परिजनों ने उनके जन्म दिन को धूमधाम से मनाने की तैयारी कर रखी थी। उस दिन 14 फरवरी होने के कारण पूरी दुनिया वैलेंटाइन-डे मना रही थी। इस उत्सवी दिन को प्यार का दिन भी कहा जाता है। मनोरमा धार्मिक होने के साथ-साथ समाज सेवा से भी जुड़ी थीं। उन्होंने अपने घरवालों की सहमति से वर्षों पूर्व देहदान का संकल्प लिया था। वह चाहती थी कि मृत्यु होने पर उनका शरीर जरूरतमंदों के काम आए। मनोरमा के अंतिम दर्शन कर श्रद्धा सुमन अर्पित करने पहुंचे अनेकों लोग तब हैरत में पड़ गए जब उन्होंने परिवार वालों को ‘हैप्पी बर्ड डे’ का गीत बड़ी प्रसन्न मुद्रा में गाते देखा। मृत्यु के दुखद अवसर पर तो उन्होंने कभी किसी को ऐसी प्रसन्न हालत में नहीं देखा था। परिजनों की देखादेखी सभी लोगों ने मृतका को शुभकामनाएं देकर श्रद्धा सुमन अर्पित किए। देहदान की प्रक्रिया को पूर्ण करने के बाद जब उनके शरीर को फूलों से सजी एम्बूलेंस में विदा किया गया तो वहां पर मौजूद सभी लोग श्रद्धा से नतमस्तक हो गए। उनके लिए अपने आंसू रोकना काफी मुश्किल था, लेकिन फिर भी उन्होंने खुद को संभाले रखा। 

मध्यप्रदेश के जावरिया गांव में चार कंधों पर जब एक अर्थी निकल रही थी, तभी एकाएक बैंड बाजे की आवाज गूंजने लगी।  एक शख्स अर्थी के आगे आकर झूम-झूम कर नाचने लगा। शवयात्रा में शामिल मृतक के रिश्तेदारों ने उसे यह कहकर मना किया कि यह कोई खुशी का मौका नहीं, जो तुम बैंड बाजे के साथ नाच रहे हो। मातम की घड़ी में कभी कोई ऐसे जश्न मनाता है? लेकिन वह अपनी धुन में जोर-जोर से थिरकता रहा। उसने किसी की एक भी नहीं सुनी। दरअसल, वह मृतक सोहनलाल जैन का खास मित्र था, जो उनकी इच्छा का पालन कर दोस्ती का फर्ज निभा रहा था। वह और सोहनलाल पिछले दस वर्षों से हर सुबह 5 बजे एक साथ प्रभात फेरी पर निकलते थे। इसी दौरान सोहनलाल ने अपने इस मित्र को कहा था कि मैं जब नहीं रहूं तो मेरी अंतिम यात्रा में शामिल होकर मेरी अर्थी के आगे बैंड बाजे के साथ नाचते हुए मुझे विदा करना। एक सच्चे दोस्त ने अपने प्रिय साथी की अंतिम इच्छा को पूर्ण करने वो हिम्मत दिखायी, जो जगहंसाई के डर से लोग दिखा ही नहीं पाते हैं। उसकी इस साहसी पहल ने अंतत: गांव वालों को प्रशंसा भाव के साथ-साथ आंखें नम करने को विवश कर दिया।