मोबाइल की चाहत और उसकी लत कई खौफनाक मंजर दिखा रही है। ऐसी कभी कल्पना नहीं की गई थी कि मोबाइल की वजह से आत्महत्याएं होने लगेंगी। बीते दिनों एक सोलह साल के किशोर ने अपनी मां से मोबाइल की मांग की। मां ने असमर्थता प्रकट कर दी तो वह बहुत निराश और आहत हो गया। जैसे उसकी दुनिया ही लुट गई हो। वह मां के सामने ही ऊंची पहाड़ी से कूद गया। अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। दो अन्य और पंद्रह वर्षीय किशारों ने भी यही रास्ता चुना। गरीब किसान पिता के पास बेटे को मोबाइल दिलाने के पैसे नहीं थे। बेटे ने खेत में जाकर पेड़ से लटक कर फांसी लगा ली। इसी तरह से अपने जन्मदिन पर पुत्र ने उपहार में मां से मोबाइल मांगा तो उसने कुछ दिन इंतजार करने को कहा, लेकिन उसे मोबाइल से ज्यादा अपनी जान ज्यादा सस्ती और गैर जरूरी लगी। वह कीटनाशक पीकर इस दुनिया से ही चल बसा।
सोचो तो बड़े कमाल की चीज़ है यह मोबाइल। छोटों के साथ-साथ बड़े भी इसके चक्रव्यूह में छटपटा रहे हैं। इसकी वजह से तनाव व अनिद्रा के चंगुल में फंस रहे हैं। कई घरों की मां-बहनें अपने तीन-चार साल के बच्चों को मोबाइल ऐसे पकड़ा रही हैं जैसे वो बच्चे-बच्ची के मन बहलाने का कोई बेहतरीन खिलौना हो। रोते लाडले-लाडली को मोबाइल से बहलाने, चुप कराने और हंसाने वाले पालकों की जब मोबाइल की वजह से ही रोने की नौबत आती है तब उन्हें अपनी गलती का अहसास तो होता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती। है।
मासूम और नादान से लगने वाले बच्चों की मोबाइल की जिद्दी चाहत जब उन्हें खुदकुशी के लिए उकसाती है तो वह अंतत: दिल दहलाने वाली खबर भी बन जाती है। जिसे पढ़ने और सुनने के बाद लोग भूलने में भी देरी नहीं लगाते। लेकिन जिन पर बिजली गिरती है उनके जख्म कभी भी भर ही नहीं पाते। आज के आपाधापी के मायावी दौर ने माता-पिता को बहुत व्यस्त कर दिया है। उनके पास अपने बच्चों की देखरेख के लिए पर्याप्त वक्त नहीं। एक खबर जो मैंने पढ़ी, हो सकता है, आपकी आंखों के सामने से नहीं गुजरी हो, उससे मैं आपको अवगत कराये देता हूं। खबर पंजाब के लुधियाना शहर की है लेकिन ऐसे हालात देश में अब हर कहीं हैं। कोई भी शहर इससे अछूता नहीं। गांव भी इसकी चपेट में हैं। धन-दौलत के चक्कर में रिश्तों की अहमियत को ताक पर रख चुके कामकाजी पालकों के पास अपने बच्चों के लिए भी समय नहीं। अपनी औलादों की देखभाल के लिए उन्हें नौकरानी, आया नर्स आदि रखनी पड़ रही हैं। वही उन्हें नहलाती, सुलाती और खिलाती हैं। बच्चे उनसे जो मांगते हैं, देने की पूरी कोशिश करती हैं। अपना मोबाइल भी मालिकों के बच्चे-बच्ची को खुशी-खुशी पकड़ा कर अपने दूसरे कामों में व्यस्त हो जाती हैं। लुधियाना के एक बड़े नामी-गिरामी उद्योगपति बहुत व्यस्त रहते थे। उनकी पत्नी के पास भी ढेरों समाजसेवा के काम थे, इसलिए वह भी अपने सात साल के बेटे की देखरेख के लिए समय नहीं निकाल पाती थीं। सुबह से रात तक नौकरानी ही बच्चे के साथ रहती। वही उसे नहलाती, खिलाती और तैयार करती। कभी-कभार वह बच्चे के साथ रात को सो भी जाती। किसी छुट्टी के दिन पति-पत्नी को जब लगा कि उनका बच्चा नौकरानी से अत्याधिक जुड़ाव महसूस करने लगा है तो उन्होंने नई नौकरानी रखने को लेकर आपस में बातचीत की। बच्चे ने जब उनकी यह बात सुनी तो उसने झट से कहा कि यही मेरी मां है। अगर यह जाएगी तो मैं भी इसके साथ जाऊंगा। आपके साथ नहीं रहूंगा। इसी तरह से शहर के एक डॉक्टर दंपति का छह साल का बेटा छुट्टी के दिन भी अपनी मां की गोद में जाने के बजाय आया के पास बैठा रहता। इसी दौरान रात को एक बार जब बच्चे को पिता के पास सोने को कहा गया तो भावनात्मक तौर पर मां-बाप से पूरी तरह दूर और कट चुके बच्चे ने साफ मना कर दिया। उसने आया के साथ सोकर अपनी जिद पूरी की तो डॉक्टर दंपति को यह बात बहुत खटकी। लेकिन अब उनके पास और कोई चारा नहीं। एक छह साल की बच्ची ने जब मोबाइल नहीं दिये जाने पर मां से यह कहा कि आया दीदी बहुत अच्छी हैं, आप बहुत बुरी हैं। जब देखो तब आप मुझे बस डांटती रहती हैं। मेरी कोई बात नहीं मानतीं। दीदी तो अपना मोबाइल झट से मेरे हाथ में पकड़ा देती है। जब एक उच्च पद पर कार्यरत महिला अफसर ने देखा कि उनका छह साल का बेटा आया की बोली, लहजे और शब्दों में बात करने लगा है। बात-बात पर चीखने-चिल्लाने और गालियां भी देने लगता है तो उनकी तो नींद ही उड़ गई। दरअसल, उनकी आया दूसरे राज्य की बोली में बात करती थी और भद्दी-भद्दी गालियां देने में भी संकोच नहीं करती थी। अफसर जब चाइल्ड एक्सपर्ट के पास पहुंची तो उन्होंने बताया कि छोटे बच्चे वहीं भाषा अपनाते हैं जो वे सबसे ज्यादा सुनते हैं। अब अफसर मां समय निकालकर रोज आधा घंटा बच्चे को प्रेरक कहानी और सही शब्दों का अभ्यास कराती हैं। मनोचिकित्सकों का कहना है कि बच्चों की परवरिश में मां-बाप की अहम भूमिका होती है, अगर वे व्यस्त हैं तो भी रोज कम से कम एक-दो घंटे बच्चों के साथ जरूर बिताएं, ताकि बच्चे खुद को मां-बाप से जुड़ा महसूस करते रहें। बच्चा रोज जिसके साथ होता है, वही उसकी भाषा, व्यवहार और इमोशन तय करता है। अगर वह दिनभर आया के साथ है तो उसके लिए मां की अहमियत कम होती चली जाती है। शुरुआती छह साल बच्चों के व्यवहार और सोच को आकार देते हैं। अगर इन सालों में मां-बाप दूरी बना लें तो बाद में बच्चे का उनसे जुड़ना मुश्किल हो जाता है। मां-बाप की अनदेखी और कमजोर परवरिश उन्हें इस कदर गुस्सैल बना देती है कि वे उनसे नफरत तक करने लगते हैं। अकेलेपन और माता-पिता के सौतेलेपन के शिकार बच्चे अपराध की दुनिया से भी आसानी से जुड़ जाते हैं। इसकी गवाह हैं, शहरों में कुछ सालों में नाबालिगों के अपराध करने की घटनाओं में लगातार बढ़ती संख्या। हाल ही के वर्षों में चोरी, लूटपाट, मारपीट, बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराधों में नाबालिगों केलिप्त होने की खबरों ने विचारकों को चिंताग्रस्त कर दिया है। अत्यंत दुखद पहलू तो यह भी है कि किशोरों को शराब, गांजा, चरस और हुक्का पीने का शौक उन्हें नशेड़ी बना रहा है। इस कुचक्र में बालक ही नहीं बालिकाएं भी फंसती चली जा रही हैं। बीते हफ्ते नागपुर में रहने वाली दो बालिकाओं ने मिलकर छत्तीसगढ़ में अपनी ही दादी की हत्या कर दी। गांजा, एमडी जैसे मादक पदार्थों की डिलिवरी में जब नाबालिग पकड़े जाते हैं तो पुलिस का माथा भी चकरा जाता है। खबरें बताती हैं कि किशोर उम्र के बच्चे नशे के लिए पैसे चुकाने के लिए चोरी, ठगी और अपहरण जैसे अपराधों में अपनी भागीदारी दर्शा रहे हैं। कई नाबालिगों ने तो अपहरण, धोखाधड़ी और बलात्कार जैसे संगीन अपराधों को अंजाम देकर अपने भविष्य को पूरी तरह से अंधकारमय कर लिया है...।
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