''कुछ राजनीतिक घरानों ने लोकतंत्र को अपने कब्जे में ले रखा है। नब्बे फीसदी भारतीय जाति और धर्म के नाम पर भेड-बकरियों की तरह झुंड बनाकर मतदान करते हैं। इसी कारण कई अपराधी संसद तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में मैं अपना वोट जाया नहीं करना चाहता। इसलिए मतदान भी नहीं करूंगा।'' यह शब्द हैं इसी देश के सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश के, जिनका नाम है मार्कंडेय काटजू। काटजू साहब वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद के सम्मानित अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने जो कुछ भी कहा है उसे पूरा सच नही माना जा सकता। यह कौन नहीं जानता कि इस देश की राजनीति में धनपतियों और दबंगों का बोलबाला है। यह भी सच है कि कुछ राजनीतिक घरानों ने देश की सत्ता और लोकतंत्र पर अपना कब्जा जमा रखा है। साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर वोट हथियाये जाते हैं। जाति और धर्म का खेल भी खुलकर खेला जाता है। काफी हद तक राजनीति का अपराधीकरण भी हो चुका है। कई बार तो अपराधी और राजनेता में फर्क कर पाना मुश्किल हो जाता है। पर यह कहना सरासर अनुचित है कि देश के नब्बे प्रतिशत मतदाता धर्म और जाति के नाम पर भेड-बकरियों की तरह झुंड बनाकर मतदान करते हैं। यह अतिरंजित आंकडा उन देशवासियों का सरासर अपमान है जो देश में बदलाव चाहते हैं। इसके लिए वे कुछ भी करने और मर-मिटने को तैयार हैं। काटजू का यह कहना कि मैं वोट नहीं डालूंगा... यही दर्शाता है कि वे मान चुके हैं कि देश के हालात जस के तस रहने वाले हैं। मुल्क के मतदाता इतने बेवकूफ हैं कि उन्हें बदल पाना रेत में से तेल निकालने की कहावत को चरितार्थ करने की कसरत से ज्यादा और कुछ नहीं है।
वैसे भी अपने देश के अधिकांश रईस, उद्योगपति, अफसर और अपराधी प्रवृत्ति के लोग वोट डालने से कतराते हैं। जिस दिन वोट डाले जाते हैं उस दिन वे छुट्टी मनाने के जुगाड में लग जाते हैं। कुछ तो सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं तो कई विभिन्न मनोरंजन स्थलों और मदिरालयों की शोभा बढाते हैं। यही वजह है कि हिंदुस्तान में कभी पचास तो कभी साठ प्रतिशत तक ही वोटिंग हो पाती है। ऐसे लोगों को भी लोकतंत्र का हिमायती नहीं कहा जा सकता।
काटजू जैसे विद्वानों के बोलवचन अक्सर मुझे परेशान करते हैं। यह इतने घोर निराशावादी क्यों हैं? इन्हें अपने देशवासियों पर भरोसा क्यों नहीं है? इन्होंने यह बात क्यों गांठ बांध ली है कि देश की नब्बे प्रतिशत जनता लकीर की फकीर है और उसने बदहाल हालात के समक्ष घुटने टेक दिये हैं। अब उसका तनकर खडा हो पाना नामुमकिन है! इन्हें देश की फिज़ाओं में गूंजने वाले क्रांति-गीत क्यों नहीं सुनायी देते? क्या इन्हें खबर नही है कि आम आदमी ने महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, शोषण और अत्याचार के असली जन्मदाताओं की शिनाख्त भी कर ली है? वह आर-पार की लडाई लडने के लिए अपनी कमर भी कस चुका है। उसे मालूम है कि यही फैसले की असली घडी है। इस बार भी चूक गये तो आने वाली पीढियां उसे कोसते नहीं थकेंगी।
आज देश के आमजन को सच्चे नेतृत्व की तलाश है। तभी तो वह अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के आंदोलन के साथ जुडने में देरी नही लगाता। अपना घर-बार छोडकर फौरन दिल्ली पहुंच जाता है। दिल्ली उसे दुत्कारती है, फटकारती है, फिर भी वह हिम्मत नहीं हारता।
ऐसे बदलते हालात में तो देशवासियों का मनोबल बढाने की जरूरत है। काटजू को तो लोकतंत्र के दुश्मनों की जडें उखाड फेंकने की अपील करनी चाहिए थी। उन्हें उन मतदाताओं को सचेत करना चाहिए था जो अपने वोट का इस्तेमाल नहीं करते। उन्हें उन वोटरों को भी लताडना चाहिए था जो नोट, दारू, कंबल, साडी जैसे उपहारों की ऐवज में अपना कीमती वोट बेच देते हैं। उन्हें तो लोगों को यह भी बताना चाहिए था कि जाति-धर्म के नाम पर होने वाले मतदान ने देश का कितना अहित किया है। पर वे तो वोट ही न डालने की वकालत पर उतर आये! पूर्व जज काटजू इस तथ्य से भी अंजान लगते हैं कि आज देश का युवा वर्ग जाग चुका हैं। उसे जगह-जगह फैला भाई भतीजावाद शूल की तरह चुभता है। सत्ताधीशों की हेराफेरी, लूटमार और राष्ट्रीय संपदा की बंदरबांट के समाचार उसे हिलाकर रख देते हैं। देश की किसी भी मां, बेटी, बहन की अस्मत लुटती है तो उसका खून खौल जाता है।
आज जब हिंदुस्तान के लोकतंत्र को चौराहे पर लाकर खडा कर दिया गया है और विकास और बदलाव के मार्ग अवरुद्ध कर दिये गये हैं तब देशवासियों को अफीम खिलाकर सुलाने की नही, चेतना के गीत सुनाकर जगाने की जरूरत है। देश के कुछ सच्चे बुद्धिजीवी, समाज सेवक, नेता, लेखक, पत्रकार और कवि इस दायित्व को बखूबी निभा रहे हैं। किसी देशभक्त कवि की कविता की ये पंक्तियां काबिलेगौर हैं:
''अभी समय है सुधार कर लो
ये आनाकानी नहीं चलेगी,
सही की नकली मुहर लगाकर
गलत कहानी नही चलेगी।
घमंडी वक्तों के बादशाहो,
बदलते वक्त की नब्ज देखो
महज तुम्हारे इशारों पे अब,
हवा सुहानी नही चलेगी।
किसी की धरती, किसी की खेती,
किसी की मेहनत, फसल किसी की
जो बाबा आदम से चल रही थी,
वो बेईमानी नहीं चलेगी।
समय की जलती शिला के ऊपर,
उभर रही है नयी इबारत
सितम की छाँहों में सिर झुकाकर,
कभी जवानी नही चलेगी!''
वैसे भी अपने देश के अधिकांश रईस, उद्योगपति, अफसर और अपराधी प्रवृत्ति के लोग वोट डालने से कतराते हैं। जिस दिन वोट डाले जाते हैं उस दिन वे छुट्टी मनाने के जुगाड में लग जाते हैं। कुछ तो सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं तो कई विभिन्न मनोरंजन स्थलों और मदिरालयों की शोभा बढाते हैं। यही वजह है कि हिंदुस्तान में कभी पचास तो कभी साठ प्रतिशत तक ही वोटिंग हो पाती है। ऐसे लोगों को भी लोकतंत्र का हिमायती नहीं कहा जा सकता।
काटजू जैसे विद्वानों के बोलवचन अक्सर मुझे परेशान करते हैं। यह इतने घोर निराशावादी क्यों हैं? इन्हें अपने देशवासियों पर भरोसा क्यों नहीं है? इन्होंने यह बात क्यों गांठ बांध ली है कि देश की नब्बे प्रतिशत जनता लकीर की फकीर है और उसने बदहाल हालात के समक्ष घुटने टेक दिये हैं। अब उसका तनकर खडा हो पाना नामुमकिन है! इन्हें देश की फिज़ाओं में गूंजने वाले क्रांति-गीत क्यों नहीं सुनायी देते? क्या इन्हें खबर नही है कि आम आदमी ने महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, शोषण और अत्याचार के असली जन्मदाताओं की शिनाख्त भी कर ली है? वह आर-पार की लडाई लडने के लिए अपनी कमर भी कस चुका है। उसे मालूम है कि यही फैसले की असली घडी है। इस बार भी चूक गये तो आने वाली पीढियां उसे कोसते नहीं थकेंगी।
आज देश के आमजन को सच्चे नेतृत्व की तलाश है। तभी तो वह अन्ना हजारे और अरविंद केजरीवाल के आंदोलन के साथ जुडने में देरी नही लगाता। अपना घर-बार छोडकर फौरन दिल्ली पहुंच जाता है। दिल्ली उसे दुत्कारती है, फटकारती है, फिर भी वह हिम्मत नहीं हारता।
ऐसे बदलते हालात में तो देशवासियों का मनोबल बढाने की जरूरत है। काटजू को तो लोकतंत्र के दुश्मनों की जडें उखाड फेंकने की अपील करनी चाहिए थी। उन्हें उन मतदाताओं को सचेत करना चाहिए था जो अपने वोट का इस्तेमाल नहीं करते। उन्हें उन वोटरों को भी लताडना चाहिए था जो नोट, दारू, कंबल, साडी जैसे उपहारों की ऐवज में अपना कीमती वोट बेच देते हैं। उन्हें तो लोगों को यह भी बताना चाहिए था कि जाति-धर्म के नाम पर होने वाले मतदान ने देश का कितना अहित किया है। पर वे तो वोट ही न डालने की वकालत पर उतर आये! पूर्व जज काटजू इस तथ्य से भी अंजान लगते हैं कि आज देश का युवा वर्ग जाग चुका हैं। उसे जगह-जगह फैला भाई भतीजावाद शूल की तरह चुभता है। सत्ताधीशों की हेराफेरी, लूटमार और राष्ट्रीय संपदा की बंदरबांट के समाचार उसे हिलाकर रख देते हैं। देश की किसी भी मां, बेटी, बहन की अस्मत लुटती है तो उसका खून खौल जाता है।
आज जब हिंदुस्तान के लोकतंत्र को चौराहे पर लाकर खडा कर दिया गया है और विकास और बदलाव के मार्ग अवरुद्ध कर दिये गये हैं तब देशवासियों को अफीम खिलाकर सुलाने की नही, चेतना के गीत सुनाकर जगाने की जरूरत है। देश के कुछ सच्चे बुद्धिजीवी, समाज सेवक, नेता, लेखक, पत्रकार और कवि इस दायित्व को बखूबी निभा रहे हैं। किसी देशभक्त कवि की कविता की ये पंक्तियां काबिलेगौर हैं:
''अभी समय है सुधार कर लो
ये आनाकानी नहीं चलेगी,
सही की नकली मुहर लगाकर
गलत कहानी नही चलेगी।
घमंडी वक्तों के बादशाहो,
बदलते वक्त की नब्ज देखो
महज तुम्हारे इशारों पे अब,
हवा सुहानी नही चलेगी।
किसी की धरती, किसी की खेती,
किसी की मेहनत, फसल किसी की
जो बाबा आदम से चल रही थी,
वो बेईमानी नहीं चलेगी।
समय की जलती शिला के ऊपर,
उभर रही है नयी इबारत
सितम की छाँहों में सिर झुकाकर,
कभी जवानी नही चलेगी!''
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