Thursday, August 18, 2016

यही तो हो रहा है...

कितना कुछ बदल गया! लेकिन जिस परिवर्तन की आस थी, उसका करोडों देशवासियों को आज भी बेसब्री से इंतजार है। बेबस चेहरों पर सवालों की तख्तियां टंगी हैं। आजादी के ६९ वर्ष बाद भी उत्तर नदारद है। कितनी सरकारें बदल गयीं। शासक बदल गये। सत्ता और व्यवस्था का वो चेहरा-मोहरा नहीं बदला जो आम आदमी को डराता है। अंतहीन चिन्ता के गर्त में धकेल देता है। महात्मा गांधी कहा करते थे कि भारत वर्ष गांवों में बसता है। ग्राम ही इस देश की आत्मा हैं। यह जानकर हैरानी होती है कि हिन्दुस्तान के करोडों गांव आज भी अंधेरे और अशिक्षा से जूझ रहे हैं। कई ग्रामों में बिजली के खंभे तो तन गये हैं, लेकिन बिजली नदारद है। स्वास्थ्य और शिक्षा सेवाओं का अभाव गांधी के गांवों का सच बता देता है। साफ-साफ दिखता है कि शहर तो चमक रहे हैं, लेकिन ग्राम पिछडेपन के दर्द को भोगने को विवश हैं। ग्रामीण इलाके रोजगार से वंचित हैं। देश का अन्नदाता कर्ज के बोझ तले दबा है। रोजगार की तलाश में उसे तथा उसकी संतानों को शहर की तरफ भागना पडता है। शहर उसका शोषण करने का कोई मौका नहीं छोडते। किसानों को सरकारी सुख-सुविधाएं उपलब्ध कराने का ढिंढोरा तो वर्षों से पीटा जा रहा है, लेकिन सच्चाई यही है कि इस मामले में भी संपन्न किसान ठीक वैसे ही बाजी मार ले जाते हैं जैसे शहरी धनवान देश के सभी साधनों और सुख-सुविधाओं पर कब्जा जमाये हैं। छोटे और मध्यमवर्ग के किसानों को कर्ज से अंत तक मुक्ति नहीं मिल पाती। उन्हें सरकारी बैंक भी आतंकित करते है और साहूकार भी। इस देश में चंद हजार रुपयों के कर्ज के कारण किसानों को आत्महत्या करनी पडती है और हजारों करोड का कर्जदार विजय माल्या कानून को ठेंगा दिखाते हुए विदेश फुर्र हो जाता है और राजा-महाराजाओं-सी जिन्दगी जीता है। ऐसे कई धन्नासेठ हैं जिनपर सरकारी बैंकों का अरबों-खरबों रुपया बकाया है, लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। बिजली तो सिर्फ गरीबों और असहायों पर ही गिरायी जाती है। यह वे दबे-कुचले लोग हैं जिनके वोटों से सरकारें बनती है। अदना से नेता कहां से कहां पहुंच जाते है। यह लिखने में संकोच कैसा कि अफसरों ने भी आजाद भारत को लूटने में कोई कसर नहीं छोडी। आज अगर सरकार काले धन की पकडा-धकडी का ईमानदारी से अभियान छेडती है तो सबसे ज्यादा काला पैसा नेताओं और अधिकारियों की तिजोरियों में पडा नजर आयेगा। लेकिन जो लोग सरकार चला रहे हैं, सरकारों के साथी हैं उन पर हाथ डालना आसान नहीं है। उन धनवानों पर भी शिकंजा कसना मुश्किल है जो चुनावों के मौसम में नेताओं और राजनीतिक दलों को फंड मुहैया कराते हैं। असली आजादी तो इन्हीं लोगों के हिस्से में आयी है। आजादी का असली मज़ा राजनेता, सरकारी अधिकारी, सत्ता के दलाल, काले कारोबारी और सरकारी व गैर सरकारी लुटेरे लूट रहे हैं। नेताओं और करोडों-करोडों लोग आज भी अपने-अपने तरीके से आजादी की जंग लड रहे हैं। यह योद्धा खुद की हार का तमाशा देखते-देखते थक गये हैं। कुछ के बगावती स्वर भी देखने और सुनने को मिल जाते हैं। जब देश गुलाम था तब विदेशी लूटमार किया करते थे। आज उन लोगों ने कई रूपों-बहुरूपों के साथ ठगी और भ्रष्टाचार की दुकानें खोल रखी हैं जिन्हें शासक, नेता, अफसर और बाहुबलि आदि-आदि के नामों से जाना-पहचाना जाता है। कहने को देश में लोकतंत्र है, लेकिन लूटतंत्र का ही बोलबाला है। सफेदपोशों, नकाबपोशों ने आतंकवाद, अपहरण, चोरी-डकैती को अपना पेशा बना लिया है। दिखता जरूर है कि शासक बदल गये हैं, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं है। एक बार जिनके हाथ में सत्ता आ जाती है, बार-बार उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमती नजर आती है। अपनों के ही सिर पर सत्ता का ताज रखने वालों ने लोकतंत्र को राजतंत्र में तब्दील कर दिया है। वोटों की बदौलत चुने गए विधायक, सांसद और मंत्री किसी सम्राट से कम नज़र नहीं आते। राजनीति आज सबसे बडे फायदे वाला धंधा बन चुकी है। इसके धंधेबाज अपने हित के चक्कर में हद दर्जे के मतलब परस्तों को कोसों पीछे छोड चुके हैं। जनता महंगाई की मार से मरती है तो मरती रहे। जनप्रतिनिधियों को अपनी आर्थिक तरक्की की चिन्ता सताती रहती है। महाराष्ट्र में विधायकों की तनख्वाह में एकाएक बढोत्तरी कर दी गयी। विधायकों के पीए के वेतन में भी इजाफा कर दिया गया। मुख्यमंत्री और कैबिनेट मंत्रियों ने भी अपनी तनख्वाहें और सुविधाए दुगनी-तिगुनी करवा लीं। सत्ताधीश मानते हैं जनता को महंगाई से कोई फर्क नहीं पडता। वह बदहाली की अभ्यस्त हो चुकी है। इससे पहले दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार भी विधायकों और मंत्रियों की तनख्वाहों और सुख-सुविधाओं में अभूतपूर्व इजाफा कर अपनी दरिया-दिली दिखा चुकी है। उत्तरप्रदेश में भी यही खेल खेला गया। यह भी काबिलेगौर है कि अपने देश में अधिकांश विधायक और सांसद करोडपति हैं। कईयों के तो अरबों, खरबों के उद्योगधंधे चलते हैं। यानी वे सत्ताधारी भी हैं और व्यापारी भी। देश इन्हीं के हाथों का खिलौना बन कर रह गया है। यह धरती माता का मनमाना दोहन कर रहे हैं। जब शोषक ही सत्ता पर काबिज हों और भ्रष्टाचारी नौकरशाही के हाथों में पूरी व्यवस्था हो तो देश में बदलाव की उम्मीद बेमानी है। फिर भी बदलाव के सपने देखे जा रहे हैं। जनता के खून पसीने की कमाई ऐशो-आराम में लुटायी जा रही हैं। गरीबों का हक छीनकर अमीरों को और अधिक ताकतवर बनाया जा रहा है। यकीनन आजादी के बाद यही तो हो रहा हैं...। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों की भी लाटरी खुल चुकी है। बस बेचारा आम आदमी वहीं का वहीं है। उसकी कोई सुनने वाला नहीं है।

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