Thursday, December 11, 2025

अंतिम निर्णय

मैं तो चिंतित हो जाता हूं। घबराहट होने लगती है। कई बार माथा पकड़ भी बैठ जाता हूं। आप भी बताएं कि ऐसी खबरों को पढ़कर आप पर क्या बीतती है? क्या ऐसा नहीं लगता कि नारी की आजादी, बदलाव, विकास और तरक्की के जो दावे किये जा रहे हैं, उनमें आधी-अधूरी सच्चाई है। सच तो कुछ और ही है..., जो कभी सामने आता है, कभी छुप जाता है तो कभी दबा दिया जाता है। कितने लोगों ने यह खबर पढ़ी?

छत्तीसगढ़ में स्थित बस्तर के एक छोटे से गांव बकावंड में एक डरपोक निर्दयी बाप ने अपनी बेटी को पूरे बीस साल तक अपने घर के अंधेरे दमघोटू कमरे में बंदी बनाकर रखा। बच्ची जब मात्र आठ साल की थी, तभी कायर बाप को लगा कि गांव के एक बदमाश युवक की गंदी निगाहें बच्ची पर हैं। उसने पुलिस स्टेशन जाकर शिकायत दर्ज कराने या युवक को फटकारने की हिम्मत करने की बजाय अपनी ही पुत्री की सुरक्षा के लिए यह खौफनाक रास्ता चुना। बच्ची की मां की बहुत पहले मौत हो गई थी। यह बाप मजदूरी कर किसी तरह से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाता था। जिस बिना खिड़की वाले मिट्टी के कच्चे कमरे में लड़की बीस वर्षों तक कैद रही वहां पिता रोज दरवाजा खोलकर खाना रखता और फिर दरवाजा ऐसे बंद कर देता था कि लाख कोशिश के बाद बेटी के लिए बाहर निकलना तो दूर झांकना भी मुश्किल था। उसने बीस साल तक किसी बाहरी इंसान का चेहरा नहीं देखा। घोर आश्चर्य की बात है कि उसका नहाना, जागना, सोना और खाना-पीना बंद कमरे में इतने वर्षों तक होता रहा। पड़ोसियों को भी खबर नहीं लगी कि निकट के घर की दिवारों के पीछे एक मासूम बेटी कैद होकर खून के आंसू बहा रही है। लड़की के भाई-भाभी भी ज्यादा दूर नहीं रहते थे, लेकिन उन्होंने भी कभी उसकी सुध लेना जरूरी नहीं समझा। सतत अंधेरे में रहते-रहते लड़की की आंखों की रोशनी जाती रही। वह पूरी तरह से अंधी हो गई। सन्नाटे और अकेलेपन ने उसकी आवाज भी छीन ली। बच्ची से जवान हो चुकी यह बिटिया तो घुट-घुटकर अंतत: दम ही तोड़ देती यदि उसके दादा ने समाज कल्याण विभाग को इस जुल्म के बारे में जानकारी नहीं दी होती। लड़की का नाम लिसा है। लिसा को मेडिकल जांच के बाद आश्रय स्थल ‘घरौंदा’ में रखा गया है। यहां के साफ-सुथरे हवादार माहौल में पौष्टिक भोजन और नियमित स्वास्थ्य सेवाओं के साथ उसकी देखरेख की जा रही है। लिसा धीरे-धीरे मानसिक रूप से सामान्य तो हो रही है, लेकिन किसी भी अनजान इंसान को देखकर कांपने और डरने लगती है। उसकी देखरेख में जी-जान से लगी सिस्टर टेसी फ्लावर चाहती हैं कि लिसा न सिर्फ सेहतमंद हो, बल्कि जीवन को फिर से समझे और बेखौफ होकर खुशी-खुशी जीना प्रारंभ करे। लिसा का बाप अपनी बेवकूफी पर शर्मिंदा है। उसने अस्पताल के डॉक्टरों से निवेदन किया है कि अब मैं वृद्ध हो गया हूं। आप ही इसकी देखरेख करें।

तीन महीने पहले दिल्ली में था। एक दूर के रिश्तेदार के यहां ठहरा हुआ था। उनका नाम है अशोक सेठी। सेठी जी की सोनीपत के पास शू फैक्ट्री है। हर तरह के शूज के निर्माता, इन महाशय की विवाहित बेटी कुछ दिनों से अपने मायके में आकर रह रही थी। कविता नाम की इस बिटिया की शादी दो साल पहले ही उत्तम नगर के रईस खानदान में हुई थी। उसका पति अनूप चड्ढा सरकारी ठेकेदारी के साथ-साथ जमीनों की खरीदी-बिक्री का बड़ा खिलाड़ी है। धन-दौलत के मामले में अपने ससुर को टक्कर देने वाले अनूप ने कुछ दिन तो कविता से अच्छा व्यवहार किया, फिर कालांतर में जब वह रोज-रोज शराब के नशे में धुत होकर आधी-आधी रात को घर आने लगा तो कविता का माथा ठनका। कविता को शराब पीने वालों से शुरू से ही नफरत थी। जब रिश्ते की बात चली थी तब उसे आश्वस्त किया गया था कि अनूप में कोई ऐब नहीं है। शराब और लड़की बाजी में लिप्त होने की बीमारी से दूर-दूर तक उसका कोई वास्ता नहीं है। वह तो सिर्फ अपने कारोबार में डूबा रहता है, लेकिन शादी के चंद रोज के बाद ही कविता को पड़ोसियों से पता चल गया कि उसका दो-दो औरतों से चक्कर चल रहा है। वेश्याओं के यहां जाकर रातें बिताने के चर्चे तो उसके तब होने लगे थे जब वह कॉलेज में पढ़ रहा था। शराब के साथ-साथ गांजा और एमडी भी वह तभी लेने लगा था। उसके करोड़पति खानदान में कोई भी शरीफ आदमी अपनी लड़की ब्याहने को तैयार नहीं था। कविता के पिता को अंधेरे में रखकर चट मंगनी-पट ब्याह का बड़ी तेजी से ऐसा चक्कर चलाया गया, जिससे उन्हें लड़के के बारे में ज्यादा खोज-खबर लेने का मौका ही नहीं मिल पाया। जिसने जो बताया उसे ही सच मानकर कविता की अनूप से शादी कर दी गई। इस शादी में कम अज़ कम पांच करोड़ रुपये की आहूति दी गई। लाखों की कार, सोना-चांदी, कपड़े एवं अन्य महंगे-महंगे उपहार देकर सेठी अपनी इकलौती बेटी का गंगा नहाने के अंदाज में कन्यादान कर कुछ हफ्तों के लिए विदेश यात्रा पर निकल लिए। शुरुआत में तो कविता यह सोचकर अपने पति की प्रताड़ना सहती रही कि वह उसे धीरे-धीरे सही राह में लाने में कामयाब हो जाएगी, लेकिन हफ्ते, महीने गुजर जाने के बाद भी रात को उसका नशे में लड़खड़ाते आना और गालीगलौच करना कायम रहा। कविता की बर्दाश्त करने की ताकत तब खत्म हो गई जब उसे अंधाधुंध मारा-पीटा जाने लगा। बार-बार घर से लाखों रुपये लाने की मांग भी की जाने लगी। दो-तीन बार उसकी मांग की पूर्ति भी की गई, लेकिन लालच का सिलसिला बना रहा। रोती-बिलखती कविता जब भी अपने मायके पहुंची तो मां-बाप ने उसे इस दिलासे के साथ सुसराल वापस जाने को विवश कर दिया कि तुम कुछ तो सब्र करो, जब बच्चा हो जाएगा तो पति खुद-ब-खुद सुधर जाएगा। कविता न चाहते हुए भी लौट तो गई, लेकिन अनूप का नजरिया नहीं बदला। उसने कविता को कोल्ड ड्रिंक में जहर मिलाकर मारने की भी कोशिश की। उसका मुंह बंद रखने के लिए खौलता हुआ पानी भी फेंका। एक रात तो जब वह अपनी पुरानी प्रेमिका को घर ले आया तो कविता के रहे सहे सब्र का पैमाना चूर-चूर हो गया। उसने फौरन अपना कुछ जरूरी सामान अटैची में भरा और पिता की शरण में चली आई। 

कविता ने जब अपना दुखड़ा मुझे सुनाया तो मैंने अशोक से कहा कि जब बेटी सुसराल में रहना ही नहीं चाहती तो बार-बार वापस जाने का फरमान सुनाकर उसे किस अपराध की सजा दे रहे हो? उसका तो कोई दोष नहीं। अब जब गलत लोगों से पाला पड़ गया है तो बेटी के हित में कोई रास्ता तो निकालना तुम्हारा फर्ज है। प्रत्युत्तर में अशोक ने यह कहकर मुझे आहत कर दिया, ‘‘तुम्हें मालूम तो है कि मैंने शादी में अपने खून-पसीने से कमाये करोड़ों रुपए खर्च किए थे। यह लड़की एडजस्ट करना ही नहीं जानती। बार-बार जिस तरह से मुंह उठाये चली आती है, उससे मेरे मान-सम्मान को ठेस लगती है। आसपास रहने वाले कई तरह की बातें करते हैं। उन्हें इसमें ही कुछ न कुछ खोट और कमी लगती हैं। मैं तो तलाक के पक्ष में भी नहीं हूं।’’

‘‘मैं तुम्हारी सोच से बिल्कुल सहमत नहीं। तुम्हें पता है कि बाप अपनी बेटी के लिए क्या-क्या नहीं करते? कुछ महीने ही हुए हैं। एक विवेकशील पिता को जब उसकी बेटी ने अश्रुपूरित आंखों से बताया कि उसका पति राक्षस से भी गया बीता है। वह ससुराल के अपमानजनक वातावरण से मुक्ति चाहती है। मुझे डर है कि, कहीं वह मेरी हत्या न कर दे या फिर मैं ही खुदकुशी करने पर विवश हो जाऊं। पिता ने बिना कोई उपदेश दिये बेटी को नर्क से वापस लाने का फैसला कर लिया। उसने अपने कुछ शुभचिंतकों को एकत्रित किया और बैंड-बाजे के साथ अपनी लाडली बिटियां को लेने जा पहुंचा। ससुराल वाले स्तब्ध रह गए। उन्हें बताया गया कि हम अपनी बेटी को लेने आये हैं। हमे उनसे कोई रिश्ता नहीं रखना है। लड़केवालों ने बिना कोई नाटक किए दहेज में मिले तमाम सामान को वापस देते हुए शर्मिंदगी से अपना सिर झुका लिया। बेटी आज अपने पिता के घर में नई शुरुआत करते हुए खुश और संतुष्ट है। मैं चाहता हूं कि अपनी बेटी के लिए तुम भी दस-बीस लोगों को बारात की शक्ल में लड़के वालों के यहां धड़धड़ाते हुए जा पहुंचो और बेटी को सम्मान के साथ वापस ले आओ, बिल्कुल वैसे ही जैसे वे नाचते-कूदते हुए वे बेटी को ब्याह कर ले गए थे। ऐसे लोगों को ऐसे ही तमाचा जड़ा जाना जरूरी है।’’

मैं सोच रहा था अशोक सेठी मेरे सुझाव को सिर आंखों पर लेते हुए सकारात्मक फैसला लेने में देरी नहीं करेगा, लेकिन उसने तो मेरी ही ऐसी-तैसी करके रख दी और मुझे अपमानित कर अपने घर से बाहर कर दिया। सेठी की पत्नी और बेटे ने भी मुझे तीखे शब्दों के वार से अपमानित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दिल्ली से नागपुर आने के बाद मैं अपने कामकाज में व्यस्त हो गया। कुछ दिनों के बाद किसी मित्र ने मोबाइल कर अत्यंत दुखद खबर दी, ‘‘कविता ने ज़हर खाकर अपने पिता के घर में आत्महत्या कर ली है। वह किसी भी हालत में ससुराल नहीं जाना चाहती थी, लेकिन माता-पिता और भाई उस पर दबाव डाल रहे थे कि उसे पिता के घर से जाना ही होगा। अपने मायके में रहकर कब तक हमारी बदनामी का कारण बनी रहोगी?’’

 बदनामी और मान-सम्मान दोनों ही कहीं न कहीं उस अभिमान से जुड़े हैं, जिसकी वजह से अभी तक न जाने कितनी बहन, बेटियों और बहुओं की जान जा चुकी है। ऊंच-नीच, अमीर गरीब की स्वार्थी और घटिया सोच का कभी अंत होगा भी या नहीं? इक्कीस साल की आंचल और बीस साल के सक्षम ने एक दूसरे से सच्चा प्रेम ही तो किया था। दोनों निश्छल प्रेमी अलग-अलग जाती के थे। सदियों से चला आ रहा यही अंतर, भेदभाव उनका दुश्मन बन गया। लड़की के परिजन हर तरह से बलवान थे। उन्होंने प्रेमी सक्षम को अपने बेटी से मिलने से बहुत रोका-टोका, लेकिन न तो वो माना और प्रेमिका भी अडिग बनी रही। दोनों लगभग तीन वर्ष से प्रेम के पवित्र रिश्ते की मजबूत डोर से बंधे हुए थे। नांदेड़ शहर में जन्मा और पला बढ़ा सक्षम ताटे बौद्ध समाज का युवक था तो आंचल का पदमशाली (बुनकर) समाज से नाता था। यह कम्यूनिटी स्पेशल बैकवर्ड क्लास में आती है। अहंकारी आंचल के परिवार को दोनों का एक होना कतई मंजूर नहीं था। उन्होंने सक्षम की बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी। कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। सक्षम की गोली मार कर हत्या की गई थी। कविता को जैसे ही अपनेे प्रेमी की नृशंस हत्या के बारे में पता चला तो वह रात को ही अपने पिता का घर छोड़ सक्षम के घर जा पहुंची और उसने हमेशा-हमेशा के लिए वहीं रहने का ऐलान कर दिया। जब सक्षम के अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी तब आंचल ने जो फैसला किया उससे हर कोई स्तब्ध रह गया। समर्पित प्रेमिका ने अपने प्रेमी को अंतिम विदाई देने से पहले दुल्हे की तरह सजा कर शादी की रस्में निभाते हुए उसके शरीर पर हल्दी-कुमकुम लगाई और उसके हाथ से वही हल्दी-कुमकुम अपने शरीर पर लगाया तथा शव के हाथ में सिंदूर देकर उसे अपने माथे पर लगा दिया और मांग में भी भर दिया। जब अंतिम संस्कार की पूर्ण तैयारी हो गई और परिजन अर्थी को कंधा देने के लिए उठाने लगे तो आंचल ने सबको रोक कर अर्थी के साथ रोते-बिलखते हुए सात फेरे लेते हुए  कहा यह उसका सच्चा विवाह है। मरते दम तक मैं किसी और के बारे में नहीं सोचूंगी। मेरा परिवार चाहता था कि हम अलग हो जाएं, लेकिन मैंने तो सक्षम से शादी कर ली। अंतिम यात्रा से पहले उसके नारियल फोड़ते ही आसपास मौजूद पड़ोसी और सभी परिवार वाले फूट-फूटकर रो पड़े। कविता ने अपने हत्यारे पिता और भाइयों को फांसी के फंदे पर लटकाने की मांग की है।

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