संतरानगरी नागपुर में स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में एमबीबीएस अंतिम वर्ष के छात्र संकेत दाभाड़े ने होस्टल में शाल की मदद से फांसी लगा ली। संकेत एक होनहार छात्र था। उसके डॉक्टर बनने में मात्र एक वर्ष ही बाकी था। माता-पिता बहुत खुश थे। उनका सपना जो साकार होने जा रहा था। संकेत के पिता शिक्षक हैं। मां संस्कारी, परिश्रमी गृहिणी हैं। कॉलेज के पहले दस अत्यंत होशियार विद्यार्थियों में गिने जानेवाले संकेत ने खुदकुशी क्यों की, इसका भी जवाब नहीं मिल पाया। उसके रहन-सहन और बर्ताव से कभी भी ऐसा नहीं लगा कि वह किसी परेशानी में है। वह नियमित डायरी लिखा करता था। देश की राजधानी दिल्ली के पॉश इलाके बंगाली मार्केट के एक गेस्ट हाऊस में ठहरे धीरज नामक चार्टेड अकाउंटेंट (सीए) ने भी खुदकुशी की, लेकिन उसकी खुदकुशी का तरीका स्तब्ध करने वाला है। आर्थिक तौर पर अच्छे-भले धीरज ने आत्महत्या की पूरी तैयारी के साथ गेस्ट हाऊस में प्रथम मंजिल पर 28 से 30 जुलाई तक के लिए एक बीएचके बुक कराया था। चेक आउट का समय आने पर जब कर्मचारियों ने दरवाजा खटखटाया तो उन्हें कोई प्रतिक्रिया और हलचल नहीं दिखायी दी। उलटे उन्हें अंदर से आ रही असहनीय बदबू की वजह से नाक पर रूमाल रखना पड़ा। खबर पुलिस तक पहुंचायी गयी। दरवाजे को तोड़ने पर धीरज का शव बिस्तर पर पड़ा मिला। मृतक ने एक मास्क पहना हुआ था, जो पतली नीली पाइप के माध्यम से एक वाल्व और मीटर वाले सिलेंडर से जुड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर एक पतली पारदर्शी प्लास्टिक लिपटी हुई थी और गर्दन पर सील थी। घातक तरीके से मुंह में पाइप डालकर शरीर के अंदर हीलियम गैस को प्रवेश करा कर खुदकुशी करने वाला धीरज बिना तड़पे मौत का आलिंगन करना चाहता था। पाइप से शरीर में हीलियम गैस डालकर आत्महत्या करने का यह पहला मामला है। धीरज ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि, मैं जा रहा हूं। इसके लिए किसी को कसूरवार न ठहराया जाए। मौत मेरे लिए जीवन का ही एक खूबसूरत हिस्सा है। मेरी नज़र में खुदकुशी करना गलत नहीं है। वैसे भी यहां मेरा अपना कोई नहीं। फिर मेरा भी किसी से कोई जुड़ाव नहीं रहा। धीरज के पिता की 2003 में मृत्यु हो गई थी और मां ने उनकी मौत होते ही किसी और से शादी कर ली थी।
भारत के महानगर विशाखापटनम में कलेक्टर के पद पर आसीन चालीस वर्षीय आनंदम ने रेल की पटरी पर सिर रख कर अपनी जान दे दी। इन युवा महत्वाकांक्षी कलेक्टर महोदय को बेहतरीन प्रशासन और मिलनसार स्वभाव का धनी माना जाता था। उनसे जो भी एक बार मिल लेता, हमेशा-हमेशा उनको याद रखता। महिलाओं में खासे लोकप्रिय रहे आनंदम की दिल दहलाने वाली खुदकुशी की वजह हैं उनकी अर्धांगिनी, जिन्हें वो जी-जान से चाहते थे। उनकी एक पांच साल की प्यारी-प्यारी बिटियां भी है। पत्नी भी रेलवे में उच्च पद पर कार्यरत है। ऐसी जोड़ियों को हमारे यहां बहुत खुश नसीब माना जाता है, लेकिन यहां एक गड़बड़ थी। वैसे ऐसी परेशानियां अधिकांश घर-परिवारों में आम हैं। कलेक्टर की पत्नी की अपनी सास से नहीं निभ रही थी। जब देखो तब घर में कलह-क्लेश मचा रहता था। कलेक्टर साहब अपनी बीवी के साथ-साथ मां को भी समझाते-समझाते थक गये थे। इस घरेलू जंग की वजह से मां और बीवी दोनों उन्हें ही कोसते रहते। तमाम बाहरी समस्याओं का चुटकी से हल निकालने वाले कलेक्टर को एक दिन लगा कि वे घर के मोर्चे की जंग पर अंकुश लगाने में सक्षम नहीं हैं। उनकी जिन्दगी नर्क बनती चली जा रही है। जीवन भी बोझ हो चला है। जब उनकी पत्नी और मां को उनकी खुदकुशी की खबर मिली तो उनका रो-रोकर बुरा हाल था। उन्हें अपनी गलती पर पछतावा भी था, लेकिन उन्हीं की वजह से निराश और हताश होकर जाने वाला अब वापस तो नहीं आने वाला था।
नारंगी नगर के ही एक डॉक्टर को बीमारी, परेशानी और अकेलेपन ने अपने जबड़ों में ऐसा जकड़ा कि उन्होंने जहर खा लिया। मौत के मुंह में समाने के लिए उन्होंने पत्नी को भी राज़ी कर ज़हर का सेवन कराया। डॉक्टर तो चल बसे, लेकिन पत्नी अस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रही है। दूसरों की जान बचाने वाले डॉक्टर ने खुदकुशी करने से पहले जो सुसाइड नोट लिख कर छोड़ा, उसमें इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया। डॉक्टर गंगाधर पिछले काफी समय से पेट के अल्सर और दांतों की गंभीर बीमारी से लड़ रहे थे। लगातार इलाज के बाद भी जब स्थिति नहीं सुधरी तो खुदकुशी को ही अंतिम इलाज मान लिया। ऐसा भी कतई नहीं था कि गंगाधर की प्रैक्टिस नहीं चलती थी। जानने-पहचानने वाले सभी लोग उन्हें सफल और सुलझा हुआ डॉक्टर मानते थे। उनके क्लिनिक में पहुंचने वाले मरीजों को उनके इलाज पर भी भरोसा था। पति-पत्नी दोनों घर में अकेले रहते थे। उनकी बेटी एक निजी स्कूल में शिक्षिका हैं और बेटा उत्तराखंड में एक स्टील प्लांट में अकाउंटेंट है।
पुलिस को घटनास्थल की जांच के दौरान तीन सुसाइड नोट के साथ-साथ दो कीटनाशक की बोतलें भी मिलीं। यह आत्महत्या करने वाले सभी चेहरे उन खास लोगों में शामिल हैं, जिनसे समाज को अनंत अपेक्षाएं रहती हैं। लोगों को खुश और संतुष्ट रखने की जिम्मेदारी इनके कंधों पर होती है। इनके ही इस तरह से मर जाने पर लोग आसानी से यकीन नहीं कर पाते। बस हतप्रभ रह सोचते रह जाते हैं कि क्या इनके पास कोई और विकल्प नहीं था? जब खुद पर आती है, तो अच्छा भला मनुष्य इतना असहाय, निर्बल और दिशाहीन क्यों हो जाता है? जिन्दगी तो विधाता का सौंपा गया एक अनमोल उपहार है, उसे सहेज और संवार कर रखने की बजाय यूं ही गंवा देना सवाल तो खड़े करता ही है। जहां लोग अपनी लंबी उम्र के लिए तरह-तरह के जतन करते हों, वहीं पर ऐसे लोगों की मौजूदगी सहानुभूति और मान-सम्मान की हकदार भी नहीं लगती। कोरोना की महामारी ने इंसानों को जीवन का मोल समझा दिया था। वैसे भी बीते कुछ वर्षों से भारतीयों में स्वास्थ्य के प्रति सतर्क रहने की भावना बलवती हुई है। सेहतमंद बने रहने के लिए बेहतर खान-पान, मार्निंग वॉक, योग, मेडिटेशन और जिम जाने के चलन में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है। पहले जहां पचपन-साठ साल की उम्र में अधिकांश लोग बिस्तर पकड़ लेते थे, अब सत्तर-अस्सी की उम्र में भी कई स्त्री-पुरुष भागते-दौड़ते दिखायी देते हैं। सतत ऊर्जावान, सेहतमंद और लंबी आयु जीने के मामले में पूरे विश्व में जापानियों को प्रेरणा स्त्रोत माना जाता है। जापान में 70-80 साल की महिलाएं टैक्सी चलाती देखी जा सकती हैं। 100 साल की उम्र के बुजुर्ग खुद अपने लिए खाना बनाते हैं। बागवानी करते हैं। अच्छी तरह से देख और सुन सकते हैं। सकारात्मक सोच, पौष्टिक भोजन, नियमित मॉर्निंग और इवंनिंग वॉक तथा चिन्तामुक्त भरपूर नींद जापानियों की लंबी उम्र का जबरदस्त टॉनिक है। अभी हाल ही में जापान की 114 वर्षीय सेवानिवृत्त चिकित्सक शिगेको कागावा चल बसीं। कागावा ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले मेडिकल स्कूल से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। युद्ध के दौरान ओसाका के अस्पताल में अपनी सेवाएं देने के प्रश्चात प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में अपने परिवार के क्लिनिक का संचालन किया। वह 86 वर्ष की आयु में जब सेवा निवृत्त हुईं तब भी उनकी चुस्ती-फुर्ती में कोई फर्क नहीं आया था। उनसे जब उनकी बेहतरीन सेहत और लंबी उम्र का राज पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘मेरे पास कोई रहस्य नहीं है। मैं बस रोज अपने मनपसंद गेम खेलती हूं। सकारात्मक सोचती हूं। मेरी ऊर्जा ही मेरी सबसे बड़ी पूंजी है। मैं जहां चाहती हूं, वहां तुरंत चली जाती हूं। जो चाहती हूं, वही खाती हूं और जो चाहती हूं, वही करती हूं। एकदम स्वतंत्र होने का यही एहसास मेरा हमेशा मनोबल बढ़ाता है।’