Thursday, July 3, 2025

संत-असंत की माया

हम सबके देश भारत और भारतवासियों की यह खुशकिस्मती है कि हमें समय-समय पर प्रेरणा के दीप जलाकर अंधेरों को दूर करने वाले सच्चे साधु-संतों, उपदेशकों, कथावाचकों का आशीर्वाद और सुखद सानिध्य मिलता रहा है। इस काल में भी कुछ ऐसे महामानव हैं, जिनकी मधुर प्रभावी वाणी नतमस्तक होने को विवश कर देती है। देवी नंदन ठाकुर, पंडित प्रेमानंद जी महाराज, पंडित प्रदीप मिश्रा, अनिरुद्धाचार्य और महिला कथावाचक जया किशोरी, देवी चित्रलेखा,  पलक किशोरी आदि के कथा वाचन को जितना भी सुनें...जी नहीं भरता। आज के इस दौर में जब यह कहने वाले ढेरों हैं कि कथावाचकों तथा प्रवचनकारों का जमाना लद गया है। आज किसके पास फुर्सत है जो इनके रटे-रटाये प्रवचनों को सुनने के लिए अपना कीमती समय खराब करे। लेकिन फिर भी प्रभावी वाचकों के यूट्यूब और सोशल मीडिया पर लाखों-करोड़ोंफॉलोअर्स प्रशसंक हैं। यहां से इनकी झोली में लाखों रुपये बरसते हैं। इनके कथावाचन को रूबरू सुनने के लिए भी आयोजक लाखों रुपए सहर्ष देने को तैयार रहते हैं। यह उपलब्धि असंख्य जागरुक भक्तों, प्रशंसकों और श्रोताओं की बदौलत ही संभव है। यह सच अपनी जगह है कि पिछले कुछ वर्षों से कुछ प्रवचनकारों, बाबाओं के संदिग्ध आचरण के कारण लाखों लोगों ने संत समाज से ही दूरी बना ली है। उन्हें सभी संत-महात्मा एक जैसे लगते हैं। इसलिए वे उनके निकट जाना भी पसंद नहीं करते। लेकिन यह अधूरा सच है। अपने देश में ऐसे संतों की कमी नहीं जो वास्तव में निष्कंलक हैं।

बीते सप्ताह उत्तरप्रदेश के इटावा से जुड़े दांदरपुर गांव में एक कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके सहायक के साथ बदसलूकी की गई। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो को भी लाखों लोगों ने देखा। जिसमें गांव के ब्राह्मणों ने उनकी जाति पूछी तो उन्होंने कहा कि पहले तो उनकी कोई जाति नहीं है। वे 14 साल से भागवत कर रहे हैं। उनको सुनने के लिए लाखों की भीड़ उमड़ती है। लेकिन ग्रामीण उनकी जाति के बारे में जानने के लिए अड़े रहे। वे यह बताने से कतराते रहे कि वे यादव जाति से हैं। उन्होंने वहां पर उपस्थित साधुओं को भी समझाने का बहुतेरा प्रयास किया। गांव के कुछ युवा उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थे। उन्हें बार-बार मुकुट मणि यादव पर गुस्सा आ रहा था। उसके पश्चात गुस्साये युवक उन्हें खींचकर गांव के बाहर ले गए। वहां पर उनसे मारपीट कर उनका मुंडन कर दिया। उनके साथी की भी चोटी काटी गई। इस अमानवीय, अपमानजनक घटना का भी वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद पक्ष और विपक्ष के बीच शाब्दिक युद्ध चल पड़ा।

लगभग हर विद्वान, बुद्धिजीवी का यही मानना है कि भागवत कथा करने का अधिकार सभी को है। किसी को रोका नहीं जा सकता। हमारी सनातन परंपरा में ऐसे तमाम गैर ब्राह्मण हैं, जिनकी गणना ऋषि के रूप में की गई है। इसमें चाहे महर्षि वाल्मीकि हों, वेद व्यास हों या रविदास हों। सनातन परंपरा में सभी को सम्मान और आदर प्राप्त है। सच तो यह है कि, जो शास्त्रों को जानते हैं, भक्तिभाव, सत्यनिष्ठ, ज्ञानवान और जानकार है, उन्हें कथा कहने का अधिकार है। किसी भी विद्वान और ज्ञानी को अपना धर्म और जाति छिपाने की कोई जरूरत नहीं। किसी को उसकी जाति के कारण अपमानित करने का भी कोई अधिकार नहीं है। मुकुट मणि यादव और उसके साथी पर जाति छुपाने और दो आधार कार्ड रखने के आरोप हैं। उन्होंने ऐसा क्यों किया, क्यों करना पड़ा, यह भी चिंतन और खोज का विषय है। हालांकि, मुकुट मणि बार-बार कहते रहे कि मुकुट मणि अग्निहोत्री नाम का जो आधार कार्ड वीडियो पर वायरल हुआ उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। यह तो उनके खिलाफ उन अपराधियों की साजिश है, जिन्होंने उन्हें अपमान कर सिर के बाल काटे, नाक रगड़वाई, पैर छूने को विवश कर मूत्र छिड़कने का आतंकी कृत्य किया। अपने देश में ऐसे मामलों में राजनीति न हो, नेताओं की बिरादरी चुप रहे, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। नेताओं को तो ऐसे अवसरोेंं का बेसब्री से इंतजार रहता है। ऐसे समय में स्वार्थी नेता आग में घी डालने की अपनी शर्मनाक आदत से बाज नहीं आते। 

यदि कथावाचक की कथा में कोई खोट था, या कोई भारी कमी थी तो एक बार उसका विरोध समझ में आता और इतना शोर-शराबा भी नहीं होता। लेकिन उनके गैर ब्राह्मण होने के कारण उन्हें अपमानित करना यकीनन अक्षम्य है। हां, खुद की जाति छुपाने की उनकी कोशिश कहीं न कहीं संशय खड़ा करती है और उनका आतंरिक बौनापन भी उजागर करती है। विद्वान तो डंके की चोट पर अपनी बात कहने के लिए जाने जाते हैं। झूठ और छल-कपट तो धूर्तों के बनावटी सुरक्षा कवच हैं। जिनके तहस-नहस होने में अंतत: देरी नहीं लगती। एक सच यह भी कि कुछ चतुर चालाक और अति होशियार लोगों ने राजनीति और समाज सेवा की तर्ज पर प्रवचन और कथावाचन को भी धंधा बना लिया है। उन्हें वे लाखों रुपये प्रलोभित करते हैं, जो स्थापित कथावाचकों को उनकी साख की बदौलत बड़ी आसानी से मिलते हैं। लेकिन उनके द्वारा किये जाने परोपकारी, जनहितकारी कार्य किसी को दिखायी नहीं देते। जिस तरह से कई लुच्चे-लफंगे नेता, जाति-धर्म के नाम पर चुनाव जीत कर विधायक, सांसद और मंत्री बन जाते हैं, वैसे ही कुछ कपटी बाबा भीड़ की आंखों में धूल झोंक कर माया बटोर रहे हैं। काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। सच की राह पर चलने के उपदेश देनेवाले झूठे, मक्कार प्रवचनियों की जब पोल खुलती है, जैसे-जैसे उनका घिनौना और शर्मनाक सच बाहर आता है, तो उनका हश्र भी कलंकित आसाराम, राम रहीम आदि-आदि जैसों जैसा हो ही जाता है।

 संतई के क्षेत्र में नाम और दाम कमाने को आतुर शैतानों को यही लगता है कि वे उन जेल यात्रियों से बहुत ज्यादा चालाक और चौकन्ने हैं, जो अपने कर्मों की सजा भुगत रहे हैं। कोई लाख कोशिशें करता रहे लेकिन उनका तो बाल भी बांका नहीं हो सकता। बनावटी और नकली बाबाओं को अपना परचम लहराने के लिए यदि असली-नकली भक्तों-अंधभक्तों का साथ न मिले तो उनका एक कदम भी आगे बढ़ पाना असंभव है। लेकिन एक-दूसरे की देखा-देखी भेड़चाल चलने वालों ने दुष्टों का हौसला बढ़ाने और देश का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ने की जैसे कसम ही खा रखी है।

Thursday, June 26, 2025

दहशत

यह हमारे युग का कटु सच है। दिन-ब-दिन और भयावह होते इस सच ने दहशत का माहौल बना दिया है। अभी-अभी यह खबर मेरे पढ़ने में आयी है : ‘‘भारत के शहर उन्नाव में अंडे-आमलेट की दुकान लगाने वाले रोहित नामक शख्स ने घर में मनपसंद खाना न मिलने पर अपनी पत्नी और दो मासूम बच्चों को ज़हर देकर मार डाला। यह शराबी रोज शराब पीकर घर आता था और पत्नी से मारपीट कर अपनी मर्दानगी का शर्मनाक प्रदर्शन करता था। उसके घर में पैर रखते ही डरे-सहमे बच्चे  छुप जाते थे।’’ कुछ लोग इस धारणा के साथ जीते हैं कि सब कुछ उनकी इच्छा के अनुसार हो। विपरीत हालातों से लड़ने की बजाय मरने-मारने पर उतारू होने वाले लोगों की संख्या इन दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ती जा रही हैं। उन्हें अपनों की जान लेने में जरा भी देरी नहीं लगती। यह लोग आत्महत्या करने से भी नहीं घबराते। बीते हफ्ते मेरठ में बारहवीं कक्षा के एक छात्र ने अपने घर में खिड़की से रस्सी बांधकर फांसी लगा ली। आत्महत्या करने से पहले उसने बाकायदा एक पत्र लिखा, ‘अब मेरी जीने की इच्छा नहीं रही। इसलिए मौत का दामन थाम रहा हूं।’ आदित्य नाम के इस लड़के की खुदकुशी ने उसके माता-पिता को जो सदमा दिया है, उससे वे शायद ही उबर पाएंगे। आदित्य के मन में दसवीं के बाद भी फांसी के फंदे पर झूलने का विचार आया था, लेकिन तब परिजनों ने उसे संभाल लिया था। लेकिन फिर भी उसके मन-मस्तिष्क में अपनी जान लेने के विचार नहीं थमे। माता-पिता तथा अन्य करीबियों को उम्रभर का गम देकर इस दुनिया से चल बसे आदित्य ने अपने सुसाइड नोट में सभी से माफी मांगी है।

राजस्थान में दौसा जिले के लालपोट की रहने वाली डॉक्टर अर्चना शर्मा की आत्महत्या ने अपनों तथा बेगानों को चकित कर दिया। डॉक्टर तो दूसरों की जान बचाने के लिए होते हैं। अर्चना शर्मा ने भी अपने निजी अस्पताल में आशा की जान बचाने के लिए अपनी पूरी जान लगा दी थी, लेकिन प्रसव के बाद उनकी मौत हो गई। देश और दुनिया के बड़े से बड़े अस्पतालों में इलाज के दौरान ऐसी मौतें होती रहती हैं, लेकिन डॉक्टरों को हत्यारा तो नहीं मान लिया जाता। जिस औरत की इलाज के दौरान मौत हुई उसके परिजनों ने इसे ईश्वर की मर्जी माना और अस्पताल की एंबुलेंस से शव को घर ले आए थे। अंत्येष्टि की तैयारी की जा रही थी कि तीन-चार छुटभैया किस्म के नेता वहां आ धमके। उन्होंने मृतका के परिजनों को अस्पताल से मोटा मुआवजा लेने के लिए उकसाया। परिवारजनों की असहमति के बावजूद वे जबरन शव को फिर से अस्पताल ले आए। उनके साथ तमाशबीनों की अच्छी-खासी भीड़ भी थी। उन लोगों ने शव को अस्पताल के बाहर रखकर नारे लगाने प्रारंभ कर दिये, ‘डॉक्टर को गिरफ्तार करो। हत्या का मामला दर्ज करो। अस्पताल पर हमेशा-हमेशा के लिए ताले लगवा दो।’ नारेबाजी के साथ-साथ डॉक्टर अर्चना शर्मा और उनके पति को गंदी-गंदी गालियां भी दी जाती रहीं। पुलिस वाले मूकदर्शक बन सड़क छाप नेताओं का सुनियोजित खेल देखते रहे। तीन-चार घंटे तक ब्लैकमेलरों की दादागिरी चलती रही। आजू-बाजू का कोई भी कुछ नहीं बोला। हैरानी की बात तो यह थी कि जिस महिला मरीज की मौत हुई उसके पति ने किसी भी तरह की रिपोर्ट पुलिस थाने में दर्ज नहीं करवायी। वह तो अदना-सा श्रमिक है। जो ठीक तरह से लिखना और पढ़ना तक नहीं जानता। उससे जबरन कागजों पर हस्ताक्षर करवाए गए। अंतत: धूर्त नेता और उनके कपटी चेले-चपाटे पुलिस पर दबाव बनाने में सफल रहे, जिससे पुलिस ने भी सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन की अनदेखी कर गायकोलॉजिस्ट डॉ. अर्चना शर्मा के खिलाफ धारा 302 (हत्या) के तहत मुकदमा दर्ज कर लिया। बिकाऊ खाकी वर्दी, लुंजपुंज कानून व्यवस्था तथा बद और बदमाश नेताओं ने एक होनहार डॉक्टर को प्रताड़ित कर इस कदर भयभीत कर दिया कि वह डिप्रेशन में चली गई। उन्होंने कभी भी ऐसे अपमान और तमाशे की कल्पना नहीं की थी। उनके मन में बस यही विचार आते रहे कि अब तो उनकी डॉक्टरी पर कलंक लग गया है। वर्षों की मेहनत पर पानी फेर दिया गया है। उनके कारण पति और बच्चों को भी अपराधी समझा जा रहा है। वह हत्यारिन घोषित की ही जा चुकी हैं। बुरी तरह आहत डॉक्टर अर्चना शर्मा ने मौत का दामन थामने से पहले एक पत्र लिखा, ‘मैं अपने पति और बच्चों से बहुत प्यार करती हूँ। प्लीज मेरे मरने के बाद इन्हें परेशान न किया जाए। मैंने कोई गलती नहीं की, किसी को नहीं मारा। मैंने इलाज में भी कोई कमी नहीं की। कृपया डॉक्टरों को इतना प्रताड़ित करना बंद करो। मेरी मौत शायद मेरी बेगुनाही साबित कर दे।’’ यह कितनी शर्मनाक और कायराना हकीकत है कि जब नेता, ब्लैकमेलर पत्रकार, डॉक्टर अर्चना शर्मा के अस्पताल की घेराबंदी कर नारेबाजी कर रहे थे तब किसी ने अर्चना की साथ नहीं दिया। कोई खबर नहीं ली। लेकिन जब वह चल बसीं तो सभी उनके हमदर्द बन गये।

डॉक्टर अर्चना की खुदकुशी के कुछ दिन बाद महानगर के स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली छात्रा आर्या ने फांसी लगा ली। मात्र 13 साल की इस बच्ची की जब नोटबुक खंगाली गई तो उसमें जगह-जगह लिखा था ‘आई लव यू डेथ’, मुझे मौत से प्यार है, मुझे मरना अच्छा लगता है। सुसाइड नोट में ‘आई लव यू डेथ’ लिखकर दुनिया को सदा-सदा के लिए छोड़कर चल देने वाली लड़की के मां-बाप और भाई उसकी आत्महत्या की वजह से अनजान और हतप्रभ हैं! लेकिन, हतप्रभ कर देने वाली बात यह भी है कि लड़की लगातार अपनी नोट बुक्स में ‘आई लव यू डेथ’ लिखकर इशारा करती रही और मां-बाप अनजान रहे! इसी तरह से आदित्य पहले भी खुदकुशी की राह पकड़ने के संकेत दे चुका था, लेकिन माता-पिता ने भी उसका मानसिक उपचार नहीं कराया। 

जब जिन्दगी अच्छी नहीं चल रही होती है तो इंसान का विचलित और परेशान होना स्वाभाविक है। यह भी सच है कि इंसान चुभने वाली बातों और तानों से अक्सर निराश और हताश हो जाता है, लेकिन वह यह क्यों भूल जाता है कि लोगों का तो काम ही है मीन-मेख निकालना। अच्छाइयों को नजरअंदाज कर कमियों और बुराइयों के ढोल पीटना। मरना तो एक न एक दिन सभी को है, लेकिन किन्हीं भी हालातों में तथा किसी भी उम्र में की गयी खुदकुशी उन्हें अथाह पीड़ा और बदनामी की सौगात दे देती हैं, जिन्हें उम्र भर के लिए रोने-बिलखने के लिए छोड़ दिया जाता है...।

Thursday, June 19, 2025

छपरी

ऐसा लग रहा है, न जाने कब से नाराज और गुस्सायी महिलाओं ने इस दौर में पुरुषों से बदला लेने का भरपूर साहस जुटा लिया है। महिलाओं के गुस्से के प्रकटीकरण के तौर-तरीकों पर आम और खास लोग हैरान हैं। यह अनियंत्रित रोष, आक्रोश कहां पर जाकर थमेगा, कुछ भी लिखना-बताना मुश्किल है। यह भी सच है कि विद्रोही औरतें पुरुषों को ज्यादा पसंद नहीं आतीं। इक्कीसवीं सदी में भी अधिकांश पुरुष चुपचाप समझौता करने तथा कम बोलने वाली नारियों को पसंद करते हैं। उनका अत्याधिक मुखर होना पुरुषों को किसी चुनौती से कम नहीं लगता। अब वो वक्त नहीं रहा जब महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों की खबरें ही पढ़ने-सुनने में आती थीं। अब तो महिलाओं के हिंसक और बेकाबू होने की खबरें भी सुर्खियां बटोर रही हैं। महिलाएं जहां अपनी सुरक्षा के लिए भी किसी भी हद तक जा रही हैं। वहीं, अपना आतंकी चेहरा भी दिखा रही हैं, ‘बिहार में मुजफ्फरपुर में साहूकार युवक ने एक महिला को कुछ रुपये ब्याज पर दिए थे। निर्धारित समय पर जब भुगतान नहीं हुआ तो युवक महिला के घर जा पहुंचा। महिला को घर में अकेली देख उसकी नीयत बिगड़ गई और वह उससे जबरदस्ती करने लगा। महिला के पुरजोर विरोध करने पर भी जब वह नहीं माना तो महिला ने युवक के प्राइवेट पार्ट को चाकू से काट डाला। महिला यदि कमजोर पड़ जाती तो युवक उस पर आसानी से बलात्कार कर गुजरता, लेकिन नारी का यह भयावह अपराध कर्म! उत्तर प्रदेश के एक हाईवे पर स्थित फ्यूल सेंटर पर पति, पत्नी और उनकी बेटी अपनी कार में सीएनजी भरवाने के लिए पहुंचे। सीएनजी डलवाते समय सुरक्षा की दृष्टि से गाड़ी से उतरना बहुत जरूरी होता है। इसीलिए सीएनजी भरवाने के दौरान सेल्समैन ने उनसे गाड़ी से उतरने को कहा, लेकिन गाड़ी में बैठे तीनों ने इसे अपना अपमान मानते हुए उतरने से मना कर दिया। उन्हें अंदर बैठे रहकर गैस डलवाने के खतरे के बारे में बताया गया। फिर भी वे गाड़ी से नहीं उतरे। ऐसे में उनकी जान की फिक्र करते हुए सेल्समैन ने सीएनजी डालने से साफ-साफ मना कर दिया। सेल्समैन का नियम-कायदे का पक्का होना उन्हें रास नहीं आया। वे उससे भिड़ गये और गाली-गलौज करने लगे। सेल्समैन के विरोध करने पर युवा बेटी का खून खौल उठा और उसने सेल्समैन के सीने पर रिवॉल्वर तानते हुए वहीं के वहीं मौत के घाट उतारने की धमकी दे दी। पुलिस ने वहां पहुंचकर किसी तरह से युवती को शांत किया।

हम सबको वो जमाना भी अच्छी तरह से याद है, जब मां-बाप अपनी बेटियों की शादी अपने मनपसंद लड़कों से कर खुश हो लेते थे। बेटियां भी चुपचाप विदा हो जाती थीं, लेकिन अब अधिकांश शादी-ब्याह के रिश्ते बेटियों की मर्जी और स्वीकृति से होने लगे हैं। स्त्रियों पर अपना सर्वोपरि अधिकार जमाने और उन्हें अपनी सम्पति मानने की मां-बाप तथा पतियों की सोच की बड़ी तेजी से हत्या के साथ-साथ महिलाओं के द्वारा अपने पैरों पर भी कुल्हाड़ी मारी जाने लगी है। मध्यप्रदेश के शहर इंदौर की सोनम आत्मनिर्भर थी। पिता के प्लायवुड के कारोबार में साथ देती थी। माता-पिता ने बहुत सोच-समझकर उसकी शादी इंदौर के ही युवा ट्रांसपोर्ट कारोबारी से करवा दी। शादी से पहले सोनम ने कोई विरोध नहीं किया। चुपचाप सात फेरे ले लिये। सोनम के संदिग्ध आचरण के बारे में उसकी मां को पूरी खबर थी। उसे यह भी पता था कि वह उन्हीं के यहां काम करने वाले युवक राज कुशवाह को चाहती है, लेकिन राज दूसरी जाति का था, इसलिए मां के साथ-साथ पिता को भी वह शादी के लिए उपयुक्त नहीं लगा। शादी के बाद षडयंत्रकारी सोनम ने हनीमून के लिए अपने पति पर मेघालय जाने का दबाव बनाया, जबकि पति राजा रघुवंशी का वहां जाने का बिल्कुल मन नहीं था। 11 मई को दोनों की धूमधाम से शादी हुई थी और 23 मई को हनीमून के लिए मेघालय रवाना हो गए। अगले दिन झरने के पास एक खाई में राजा का शव मिला। सोनम ने परिवारजनों को गुमराह करने की हजारों कोशिशें की। कई दिनों तक कई-कई झूठ बोले। अंतत: हनीमून के दौरान पति-पत्नी के रिश्ते की नृशंस हत्या का सच बाहर आ ही गया। इस हत्याकांड में सोनम के प्रेमी राज की प्रमुख भूमिका रही। सोनम के परिवार ने बार-बार कहा कि, दोनों में भाई-बहन जैसा रिश्ता है। सोनम राज को राखी बांधती थी। राज सोनम से पांच साल छोटा है। इससे कुछ हफ्ते पहले मेरठ में सौरभ राजपूत हत्याकांड में पत्नी मुस्कान और उसके प्रेमी साहिल का खूनी हाथ सामने आया। इन दोनों हत्याकांडों की अंदरूनी सच्चाई ने 2006 के मुन्नार केस की याद दिला दी। चेन्नई के रहने वाले 30 वर्षीय अनंतरमन और विद्यालक्ष्मी बड़े तामझाम के साथ परिणय सूत्र में बंधे थे। शादी के 9 दिन बाद दोनों हनीमून मनाने के लिए मुन्नार गये। अगले दिन अनंतरमन को मौत के घाट उतार दिया गया। विद्या ने पुलिस को भटकाने के बहुतेरे प्रयास किये। अज्ञात लोगों के द्वारा जेवर लूटने और पति की हत्या की जो कहानी उसने सुनायी वह किसी को भी हजम नहीं हुई। जांच में स्पष्ट हो गया कि विद्या स्कूल के दिनों में जिस युवक को दिलोजान से चाहती थी उसी से शादी करना चाहती थी, लेकिन परिवार वाले नहीं माने। विद्या के प्रेमी का गरीब तथा अनंतरामन का अमीर होना शादी में बाधक बना। विद्या के प्रेमी ने अपने किसी मित्र के साथ मिलकर अनंतरामन का काम तमाम कर दिया। अपने पति का कत्ल करने और करवाने वाली नारियों का यह सच भी अत्यंत हैरान करनेवाला है कि अधिकांश के कातिल प्रेमी उनके पतियों के समकक्ष कहीं भी नहीं ठहरते। न धन में, न तन में। आड़ी-तिरछी शक्ल सूरत और संदिग्ध व्यवहार। ऐसे युवकों को ‘छपरी’ कहा जाता है, जो दिखावा पसंद होने के साथ-साथ चालबाज तथा घोर नशेड़ी भी होते हैं। इनके चरित्र में कही कोई गरिमा और गहराई नहीं होती। समाज की चिंता और परवाह नहीं करने वाले ये ‘छपरी’ इन दिनों विद्रोही लड़कियों की पसंद बन रहे हैं। मेरठ के हत्यारे मुस्कान और साहिल नशे के आदी हैं। जेल में भी शराब, गांजा और चरस की मांग करते रहते हैं। सोशल मीडिया पर वायरल होने वाले वीडियो में पति की हत्यारिन मुस्कान बार-बार फरियाद करती दिखी कि बिना नशा किये उसे नींद नहीं आती। मुस्कान साहिल पर इसलिए मर मिटी थी, क्यूंकि वह सौरभ से ज्यादा उसकी चिंता करता था। सौरभ के पास उतना समय ही नहीं होता था जो मुस्कान के चेहरे पर हर वक्त मुस्कान ला सके। साहिल के पास मुस्कान को खुश करने के अलावा और कोई काम नहीं था। देश के एक जाने-माने मनोरोग विश्लेषक का कहना है कि कई लड़कियां खुलकर जीना चाहती हैं पर विभिन्न बंदिशों की वजह से जी नहीं पातीं। ये लड़कियां उन लड़कों पर तुरंत फिदा हो जाती हैं, जो बेबाक और बिंदास होते हैं। मरने-मारने पर तुरंत उतारू हो जाते हैं। कल की चिंता छोड़ आज में खुलकर जीते हैं। अपने नये नवेले पति को नशे का हाई डोज देकर पहाड़ी से नीचे फेंकने वाली सोनम के साथी राज के बारे में बार-बार कहा गया कि वह तो उससे राखी बंधवाता था। राखी बंधवाने वाला किसी पर गलत नज़र कैसे डाल सकता है? आज से लगभग 45 वर्ष पूर्व की आंखों देखी हकीकत को मैं कभी भी नहीं भूल सकता। उन दिनों मैं छत्तीसगढ़ के कटघोरा में था। वहां श्रीवास्तव नामक एक शिक्षक थे। उन्हीं के साथ हाईस्कूल में एक बंगाली खूबसूरत युवा टीचर भी थीं। शिक्षक श्रीवास्तव शादीशुदा थे और शिक्षिका कुंआरी। एक साथ पढ़ाते-पढ़ाते दोनों एक दूसरे के जिस्म को पढ़ने लगे। उनके इश्क के चर्चे भी बस्ती में होने लगे। शिक्षक ने इसे दुश्मनों का षडयंत्र कहकर अपनी पत्नी को समझाने की कोशिश की, लेकिन पत्नी की शंका में कोई कमी नहीं आयी। मामला बढ़ता देख एक दिन शिक्षक महोदय ने शिक्षिका को अपने घर बुलवाया और पत्नी के समक्ष कलाई पर राखी बंधवा ली। अब तो पत्नी बेफिक्र हो गई। वक्त बीतता गया लोगों ने भी दोनों पर ध्यान देना बंद कर दिया। कुछ महीने के बाद बहुत जबरदस्त धमाका हो गया। शिक्षिका के गर्भवती होने से श्रीमती श्रीवास्तव माथा पिटती रह गईं। राखी को ढाल बनाकर अपनी प्रेमिका से सतत जिस्मानी रिश्ते बनाये रखने वाले शिक्षक ने यह ऐलान कर सभी को चौंका दिया कि हम दोनों तो बहुत पहले से विवाह बंधन में बंध चुके हैं। अब जिसको जो सोचना हो... सोचता रहे।

Thursday, June 12, 2025

दीवानों की जान

अभी तक तो यही पढ़ने-सुनने में आ रहा था कि किसी प्रवचनकर्ता के यहां उमड़ी भीड़ में भगदड़ मचने के कारण पच्चीस-पचास श्रद्धालु चल बसे। मंदिर में पूजा करने के लिए इस कदर लोग जमा हो गए कि, उन्हें संभलना मुश्किल हो गया और फिर लोग एक दूसरे को कुचलते चले गए और बहुत भयावह हादसा हो गया। विभिन्न मेले-ठेलों में भी भीड़ के बेकाबू होने के कारण मौते होने की खबरों से हम और आप अक्सर रूबरू होते रहते हैं। कुंभ मेले में हुई भगदड़ के कारण हुई मौतों को तो कभी भुलाया नहीं जा सकता। इस ऐतिहासिक आयोजन में तीस से अधिक श्रद्धालुओं की भीड़ में दब-कुचलकर मौत हो गई। यह सरकारी आंकड़ा था। सरकारी आंकड़े अक्सर विश्वसनीय नहीं होते। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार मृतकों की संख्या 100 से ज्यादा थी। क्रिकेट की वजह से इस तरह से जानें जाने की खबर हमने तो पहली बार सुनी। रॉयल चैलेंजर्स बेंगलुरु (आरसीबी) की जीत के जश्न ने 11 क्रिकेट प्रेमियों की जान ले ली और लगभग 40 लोगों को घायल होकर अस्पताल की शरण लेनी पड़ी। अधिकांश भारतीयों की क्रिकेट के प्रति दीवानगी से सभी वाकिफ हैं, लेकिन आईपीएल चैंपियन बेंगलुरुरॉयल चैलेंजर्स की विजय परेड के दौरान चिन्नास्वामी स्टेडियम के पास मची भगदड़ में हुए हादसे ने सभी के दिल को दहला और रूला दिया। अनियंत्रित भीड़ की अफरातफरी में अपनी सदा-सदा के लिए जान खोने वाली देवी नामक युवती क्रिकेट और विराट कोहली की जबरदस्त प्रशंसक थी। शहर में होने वाला कोई भी क्रिकेट मैच मिस नहीं करती थी, लेकिन बेंगलुरु रॉयल चैलेंजर्स की विक्ट्री परेड वाले दिन वह टिकट से वंचित रह गई थी। फिर भी अपने दफ्तर के बॉस से मिन्नतें कर उसने छुट्टी ली और अपना लैपटॉप लावारिस हालत में टेबल पर छोड़ फौरन स्टेडियम की तरफ दौड़ पड़ी। खुशी के समंदर में गोते लगाती देवी को उम्मीद थी कि क्रिकेट के नये भगवान विराट कोहली से करीब से मिलने का अवसर उसे जरूर मिलेगा। उसने ऑटोग्राफ बुक भी संभाल कर रख ली थी। देवी ने ऑफिस से निकलते ही अपने दोस्त को मैसेज कर दिया था कि वह स्टेडियम जाने के लिए निकल पड़ी है। यदि उसे भी आना हो तो तुरंत आ जाए। ये देवी की आखिरी आवाज थी, जो उसके दोस्त ने सुनी। उसके बाद तो गमगीन होने के सिवा उसके पास कोई चारा नहीं था। स्टेडियम के बाहर अथाह भीड़ थी। देवी ने टिकट पाने के लिए भी भरपूर हाथ-पैर मारे, लेकिन असफल रही। 40 हजार लोगों की क्षमता वाले स्टेडियम में दो लाख से अधिक भीड़ का जमावड़ा था। फिर भी अति उत्साहित देवी जोखिम लेने पर तुल गई। देवी की तरह हर किसी को स्टेडियम के अंदर जाने की जल्दी थी। इसी बेतहशा भागम-भाग ने ऐसी भगदड़ मचायी कि देखते ही देखते लोग एक-दूसरे पर गिरने और दबने लगे। कुछ लोग ऐसे गिरे कि दम घुटने के कारण उठ ही नहीं पाये। उन्हीं में देवी भी शामिल थी। 

जिन 11 लोगों की जान गई, उनमें सभी की उम्र 33 साल से कम थी। इन्हीं में एकमात्र 13 साल का लड़का भी था। इस क्रिकेट के दीवाने बेटे की मौत की खबर सुनकर उसकी मां बार-बार बेहोश होती रही। अब तो उसकी सारी उम्र रो-रोकर बीतने वाली है। इसी तरह से पानीपूरी बेचने वाले एक उम्रदराज पिता ने भी अपने 18 वर्षीय बेटे को क्रिकेट की आंधी में खो दिया। यह संस्कारित बेटा अपने पिता के काम में नियमित हाथ बंटाता था। कई बार जब पिता बीमार होते या शहर से दूर होते तो वह खुद पानीपूरी का ठेला लगाता था। सरकार ने जब अन्य मृतकों के साथ-साथ इस बेटे के लिए भी 10 लाख रुपए का मुआवजा देने की घोषणा की तो दुखी और निराश पिता के इस कथन ने सभी संवेदनशील भारतीयों के दिल को झकझोर दिया, ‘मैं 1 करोड़ रुपये देने को तैयार हूं, लेकिन क्या इससे मेरा बेटा वापस आ जाएगा?’ इस पिता के उन सपनों की ही हत्या हो गई हैं जो उसने अपने परिश्रमी आज्ञाकारी बेटे के लिए देखे थे। बेटा, पिता के सपनों को साकार करने की राह पर बढ़ रहा था कि अंधी और जुआरी क्रिकेट ने उसकी जान ले ली। स्टेडियम के बाहर धक्का-मुक्की और अफरातफरी होने से जब लाशें बिछ रही थीं, लोग घायल हो रहे थे तब अंदर नाचते-गाते हुए जश्न मनाया जा रहा था। खिलाड़ियों से ज्यादा तो क्रिकेट के दीवानों को मौज-मस्ती सूझ रही थी। जीत की ट्राफी हाथ में लेते ही कप्तान विराट कोहली के फफक-फफक रोने पर कई लोग खुद को आंसू बहाने से नहीं रोक पाये। कोहली और उनकी पत्नी अभिनेत्री अनुष्का शर्मा का अत्यंत भावुक होकर गले लगना उनके प्रशंसकों के लिए यादगार बन गया। सच तो यह है कि करोड़ों क्रिकेट प्रेमियों का क्रिकेटरों से लगाव कोई नई बात नहीं है। नई बात तो हादसे में हुई 11 लोगों की मौत है। ये मौतें पुलिस के निकम्मेपन और भीड़ प्रबंधन में हुई चूक का नतीजा हैं। इन मौतों ने पूरे देश को गमगीन कर दिया। यदि सुरक्षा इंतजामों में खामियां नहीं होतीं तो दिल दहलाने वाली यह दुर्घटना नहीं होती। क्रिकेट के पहले भगवान सचिन तेंदुलकर के तो होश ही उड़ गए। उन्होंने सोशल मीडिया एक्स पर पोस्ट शेयर करते हुए लिखा, ‘बेंगलुरु के स्टेडियम में जो कुछ हुआ, वह दुखद से भी अधिक है। मेरी संवेदनाएं हर पीड़ित परिवार के साथ हैं।’ हरभजन सिंह ने अपना दर्द इन शब्दों में बयां किया, ‘इस घटना ने खेल की भावना पर एक काली चादर डाल दी है।’ फिल्म अभिनेता सुनील शेट्टी ने इन शब्दों में अपनी संवेदना व्यक्त की, ‘खुशी का एक पल...अकल्पनीय घटना में बदल गया। जान गंवाने वालों के बारे में सुनकर मेरा तो दिल ही टूट गया।’ क्रिकेट किंग विराट कोहली को आईपीएल ट्रॉफी हाथ में थामे सारी दुनिया ने रोते हुए तो देखा, लेकिन उन्होंने मृतकों के परिजनों से मिलकर संवेदना और अपनत्व के दो शब्द बोलना जरूरी नहीं समझा! घटना के अगले दिन ही बीवी बच्चों के साथ लंदन के लिए उड़ गए। यह तो निष्ठुरता की इंतिहा और घोर मतलब परस्ती है। क्रिकेट की बदौलत अरबों-खरबों कमाने वाले विराट का दिल अब भारत में नहीं लगता। उन्होंने लंदन में अपना आलीशान आशियाना बना लिया है। वहीं उन्हें सुकून और शांति मिलती है। भारत में तो क्रिकेट के पागल-दीवाने प्रशंसक उन्हें मौका पाते ही घेर लेते हैं। इससे उनका दम घुटने लगता है। हमारे देश के शासक भी बहुत बेरहम, बदतमीज और बेलगाम हैं। कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने इस हादसे को महाकुंभ में मची भगदड़ में जोड़ते हुए यह कहने में देरी नहीं लगायी कि कुंभ मेले में भी तो भगदड़ मचने से 50-60 लोग मारे गए थे...। यह कौन सी बड़ी बात है। जिनकी जवाबदेही बनती है, वही जब अपने बचाव के लिए ऐसे घटिया चौंकाने वाले बयान देने लगें तो आप ही सोचिए कि हादसों और दुर्घटनाओं पर लगाम लगेगी या बेकसूर बस यूं ही कीड़े-मकोड़ों की तरह मरते ही रहेंगे?

Thursday, June 5, 2025

परोपकार...तिरस्कार

मानव, महामानव और दानव। इंसान की पहचान उसकी खूबसूरत शक्ल से नहीं, उसके कर्मों से होती है। अमूमन दिखने-दिखाने में तो लगभग सभी स्त्री-पुरुष एक से होते हैं, लेकिन किसी की एक सार्थक पहल और परोपकारी सोच, संवेदनशीलता उसे देवता के समक्ष खड़ा कर देती है। लोगों का हुजूम उसके समक्ष नतमस्तक होने को विवश हो जाता है। बात उन दिनों की है, जब महाराष्ट्र के चंद्रपुर जिले में पूरी तरह से शराब पर पाबंदी थी। फिर भी कुछ अपराधी अवैध शराब बेचने से बाज नहीं आ रहे थे। मुफ्तखोरों को दूसरा कोई मेहनत मजदूरी करने वाला काम रास नहीं आता था। बेईमानी और अपराध कर्म से वे दूर ही नहीं होना चाहते थे। इससे उनके बाल-बच्चों पर भी बुरा असर पड़ रहा था, लेकिन उन्हें इसकी कोई चिंता नहीं थी। शहर के एक आदतन अपराधी, अवैध शराब विक्रेता को तत्कालीन पीएसआई मेघा गोखरे ने गिरफ्तार कर लिया। उसे थाने में लाये अभी दो-तीन घंटे ही बीते थे कि तभी पांचवीं कक्षा में पढ़ने वाला एक बच्चा अपने पिता की जमानत के लिए आ पहुंचा। 

उसके फर्राटे से अंग्रेजी में बात करने के आकर्षक अंदाज से मेघा स्तब्ध रह गईं। उन्होंने उससे कहा कि अभी तुम बच्चे हो। तुम्हारी जमानत पर तुम्हारे पिता को छोड़ना संभव नहीं है, लेकिन बच्चा जिद पर अड़ा रहा। मेघा ने बड़े प्यार से उसे अपने करीब बिठाते हुए पूछा कि, क्या तुम नियमित स्कूल जाते हो? तब उसके पिता ने सिर झुकाकर बताया कि मेरे कहने पर अपने स्कूल बैग में शराब की बोतलें रख कर नियमित ग्राहकों को पहुंचाने जाता है। एक दिन स्कूल वालों ने उसके बैग में जब शराब की बोतल देखी तो उन्होंने उसी दिन से हमेशा-हमेशा के लिए स्कूल से निकाल दिया है। बच्चे ने बड़ी मासूमियत के साथ कहा, पर मैडम जी इसी काम से ही उनके घर का खर्चा चलता है। वैसे भी अपने पिता की सहायता करना उसका पहला फर्ज है। वहीं बच्चे के पिता को यकीन था कि बेटे की उम्र कम होने की वजह से उसे सजा नहीं मिलेगी। पुलिस उस पर दया कर चलता कर देगी। मेघा को बच्चे का अपराधी होना आहत कर गया। उन्होंने तुरंत स्कूल के प्रिंसिपल से मुलाकात की और बच्चे के हित में कदम उठाने का निवेदन किया। प्रिंसिपल बोले, इसमें सुधार आना मुश्किल है। यह पूरी तरह से बिगड़ चुका है। कई बार मना करने के बावजूद बैग में शराब की बोतल लेकर आता था। इसकी वजह से दूसरे बच्चे भी बिगड़ रहे थे। मेघा की मिन्नत का मान रखते हुए अंतत: प्रिंसिपल ने बच्चे को स्कूल में रख लिया। कालांतर में बच्चे के पिता की भी जमानत हो गई। मेघा ने उसे पांच हजार रुपए देते हुए कहा कि यदि बच्चे का भला चाहते हो तो तुम शराब बेचना बंद कर मछली बेचना प्रारंभ कर दो। उसने मेघा की सलाह का पालन करते हुए शराब बेचनी छोड़ दी और बच्चे की पढ़ाई पर ध्यान देने लगा। स्कूल की पढ़ाई के पश्चात बच्चे को चंद्रपुर स्थित राजीव गांधी इंजीनियरिंग कॉलेज में एडमिशन मिल गया। अंतत: उसकी मेहनत रंग लाई और वह इंजीनियर बन गया। 2023 में हैदराबाद की एक कंपनी में अच्छी खासी पगार पर नौकरी भी मिल गई। वर्तमान में वह दिल्ली की एक बड़ी कंपनी में लाखों रुपए के वेतन पर काम कर रहा है। बच्चे के इंजीनियर बनते-बनते मेघा भी तरक्की करते हुए पीएसआई से एपीआई बन गईं। उस बच्चे ने कई बार उनसे संपर्क करने का प्रयास किया, लेकिन मोबाइल नंबर बदल जाने के कारण बात नहीं हो सकी। अभी हाल में जब मेघा एक मामले के सिलसिले में मूल गईं तो उस बच्चे के पिता से अचानक मुलाकात हो गई। तब पिता ने उन्हें बताया कि शराब बेचने वाला बच्चा अब इंजीनियर बन चुका है। मेरा मछली का कारोबार भी बहुत बढ़िया चल रहा है। यह आपके प्रयास और उपकार का ही प्रतिफल है। बेटा आगे की पढ़ाई के लिए विदेश जाने वाला है और आपसे मिलने को अत्यंत उत्सुक है...।

भिखारी कौन होते हैं? किसी के लिए भी जवाब देना मुश्किल नहीं। अधिकांश भिखारी अपंग और असहाय होते हैं। कोई काम धाम नहीं कर पाते, इसलिए कटोरा हाथ में लेकर भीख मांगने निकल पड़ते हैं। लोग उनकी हालत पर रहम खाकर चंद सिक्के उसके कटोरे में डाल देते हैं। इसी से जैसे-तैसे उनका जीवन कटता है। कुछ लोग ऐसे भी हैं, जिनके हाथ-पैर सलामत हैं, लेकिन निहायत बेशर्मी के साथ भीख मांगते फिरते हैं। उन्हें लोगों के दुत्कारने और फटकारने से कभी कोई लज्जा नहीं आती। उनके लिए भीख आसानी से पैसा कमाने का टिकाऊ धंधा है। ऐसे कुछ धंधेबाज प्रतिदिन हजारों रुपए पीट लेते हैं। उनके बच्चे अच्छे स्कूल कॉलेजों में पड़ते है। भीख की बदौलत फ्लैट, कार और दुकानों के मालिक बने इन भिखारियों को आखिर कहा तो भिखारी ही जाता है और मान-सम्मान भी इन्हें नहीं मिलता।

देश की राजधानी दिल्ली में जीतेश कुमार वर्षों से बसों में भीख मांगते नजर आते हैं, लेकिन लोग उनका अथाह मान-सम्मान करते है और उनका मनोबल बढ़ाते हैं। हर तरह से स्वस्थ और सेहतमंद जीतेश बसों में यात्रा करने वाले स्त्री-पुरुषों, युवकों और बच्चों से भीख में मात्र दस रुपए देने की मांग करते हैं। स्वेच्छा से कुछ सवारियां इससे ज्यादा भी दे देती हैं। जीतेश भीख में मिले एक भी पैसे का अपने लिए इस्तेमाल नहीं करते। मात्र कक्षा दूसरी तक  पढ़े जीतेश मासूम नौनिहालों का भविष्य संवारने के लिए यह काम करते हैं।बदरपुर इलाके में पिछले दस वर्षों से स्कूल चलाते आ रहे जीतेश की नेक नीयत को देखकर एक शिक्षा-प्रेमी, दरियादिल व्यक्ति ने अपने मकान का एक हिस्सा उन्हें स्कूल चलाने के लिए दे दिया है। वह महीने में 12 से 15 दिन विभिन्न बसों में भिक्षाटन करते हैं। हर रोज ढाई से तीन हजार रुपए बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। उनके स्कूल में नर्सरी से कक्षा पांचवीं तक पढ़ाने वाले शिक्षक नाममात्र का वेतन लेते हैं। कुछ स्वेच्छा से बिना वेतन अपनी सेवाएं देते हैं। झुग्गी झोपड़ी में रहनेवाले गरीब परिवारों के बच्चों को मुफ्त में कॉपी-किताब भी उपलब्ध करायी जा रही है। जीतेश अब तक 500 से ज्यादा बच्चों को पांचवी तक पढ़ाने के बाद आगे की शिक्षा के लिए सरकारी स्कूल में दाखिला करा चुके हैं...। पुलिस अधिकारी मेघा गोखरे और शिक्षा की अलख जलाते जीतेश कुमार पर जनहित के लिए किसी ने दबाव नहीं डाला था। परोपकार करने के पीछे उनकी कोई मजबूरी भी नहीं थी। वे भी अपनी राह पर चल सकते थे, जिस पर अन्य लोग चलते हैं। 

अस्पतालों में कार्यरत डॉक्टरों, नर्सों तथा अन्य कर्मचारियों को मरीजों की देखरेख के लिए मोटी-मोटी तनख्वाहें मिलती हैं। सतर्क रहकर अपनी डयूटी निभाना उनका प्राथमिक कर्तव्य है, लेकिन वे क्या कर रहे हैं! जो सच सामने है वह तो...बेहद दु:ख के साथ गुस्सा भी दिलाता है। मन होता है कि इनकी जीभरकर धुनाई की जाए और नौकरी भी छीन ली जाए। कानपुर के निकट स्थित एक ग्राम में सुनील नायक नामक शख्स की गर्भवती पत्नी सरिता को रात को प्रसव पीड़ा हुई। रात को 1 बजे सुनील ने पत्नी को कानपुर के मेडिकल कॉलेज के महिला अस्पताल में भर्ती करवा दिया। रात 2 बजे प्रसव पीड़ा बढ़ने पर उन्होंने इधर-उधर देखा, लेकिन उन्हें अस्पताल का कोई कर्मचारी नजर नहीं आया। उन्होंने दो कमरों में सो रहे कर्मचारियों को जगाने का प्रयास किया। मगर कोई भी नहीं उठा। इसी दौरान गर्भवती का प्रसव हो गया। शर्मनाक और पीड़ादायी हद तो तब हुई जब प्रसव के तुरंत बाद नवजात बेड के किनारे रखे कचरे के डिब्बे में जा गिरा और देखते ही देखते उसने गंदगी में ही दम तोड़ दिया। बिहार की राजधानी पटना के सरकारी अस्पताल नालंदा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल के हड्डी विभाग में भर्ती उम्रदराज अवधेश प्रसाद की उंगलियों को चूहों ने बुरी तरह से कुतर कर लहूलुहान कर दिया। वे रात भर दर्द के मारे तड़पते रहे। अवधेश मधुमेह के मरीज हैं और अपने टूटे हुए दाएं पांव का इलाज कराने आये थे। किसी के भी मन में यह प्रश्न खलबली मचा सकता है कि आखिर जब चूहे ने मरीज का पांव कुतरना प्रारंभ किया तो उन्हें मालूम क्यों नहीं चला? दरअसल अवधेश डायबिटिक न्यूरोपैथी से ग्रसित हैं, जिसका सबसे ज्यादा असर पांव पर पड़ता है। डायबिटिक न्यूरोपैथी में अलग-अलग स्टेज हैं। इसमें एक स्टेज ऐसी भी आती है, जब मरीज के पांव का सेन्सेशन खत्म हो जाता है। यानी पांव में कुछ भी हो उसे अनुभव नहीं होता। यह तो हुई असहाय बेबस मरीज की हकीकत और मजबूरी लेकिन सरकारी अस्पताल के डॉक्टर, नर्सें एवं अन्य कर्मचारी क्यों अंधे, बहरे और दिमागी तौर पर लकवाग्रस्त हो जाते हैं कि उन्हें अपने कर्तव्य के स्थान पर हरामखोरी रास आती है?

Thursday, May 29, 2025

समझ-नासमझ

चित्र-1 : उसके मां-बाप ने उसे डॉक्टरी की पढ़ाई के लिए आस्ट्रेलिया भेजा था। वहां वह सिजोफ्रेनिया जैसे खतरनाक मानसिक रोग का शिकार हो गया। डॉक्टरी की निर्धारित कोर्स की किताबेें पढ़ने की बजाय उसका दिमाग इधर-उधर छलांगे लगाने लगा। इसी दौरान उसने ‘आत्मा’ के बारे में पढ़ा और सुना तो वह दिन-रात आत्मा के बारे में ही सोचने लगा। आत्मा कैसी दिखती है, हमारा शरीर आत्मा के साथ कैसे काम करता है। मौत होते ही क्या हम आत्मा को देख सकते हैं? उसकी जिज्ञासा बढ़ती चली गई। कई और सवाल परेशान करते हुए उसकी नींद उड़ाने लगे। एक शाम उसने डॉक्टरी की सारी किताबें आग के हवाले कर दीं। आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन करने के लिए उसने अपने मां-बाप और बहन की बेहद कू्ररता से हत्या कर दी। उसके पश्चात वह ‘आत्मा’ को ढूंढता रहा, लेकिन वह नहीं मिली। अलबत्ता सड़-गलकर मरने के लिए उसे जेल जरूर जाना पड़ा।

चित्र-2 : माता-पिता को अपनी औलाद से ज्यादा कुछ भी प्यारा नहीं होता। मां की आत्मा और समस्त चेतना में तो सिर्फ और सिर्फ अपने बच्चों की जान बसती है। वह उनके लिए किसी भी मुसीबत को झेलने को तैयार रहती है। महाराष्ट्र के ठाणे के मुंब्रा इलाके में रहने वाला 17 साल का सुहैल यह कहकर घर से निकला कि आधे घण्टे में लौट आऊंगा, लेकिन देर रात तक जब वह घर वापस नहीं आया तो मां बेचैन हो गयी। उसने आधी रात को ही थाने में जाकर बेटे के गुम होने की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। इतना ही नहीं मां फरीदा ने रात में ही बेटे के दोस्तों के घर का दरवाजा खटखटाया, लेकिन सभी ने अनभिज्ञता दर्शा दी। दिन-पर-दिन बीतते चले गए, लेकिन बेटे का कोई सुराग नहीं मिला। अपने दुलारे की तलाश में भूखी-प्यासी रहकर उसने कई दिन-रात थाने और जेलों के बाहर बैठकर बिताये। अजमेर में रहने वाले अपने रिश्तेदारों को भी बार-बार फोन कर पता लगाती रही कि उन्होंने सोहेल को दरगाह पर तो नहीं देखा। जब उसकी समझ में आ गया कि पुलिस का उसकी मदद करने का कोई इरादा नहीं है तो उसने एक स्थानीय पत्रकार से मुलाकात की। दोनों और जोर-शोर से सोहेल की तलाश में लग गये। कई जाने-अनजाने लोगों तथा सोहेल के नये-पुराने यार-दोस्तों में मिलने-मिलाने के बाद पता चला कि सोहेल का एक दोस्त भी उसी दिन से लापता है, जिस दिन सुहेल गायब हुआ। पत्रकार कुछ हफ्ते दौड़धूप करने के बाद अपने किसी और काम में लग गया, लेकिन मां ने धैर्य और हिम्मत का दामन थामे रखा। अपने गुमशुदा बेटे का पता निकालने वह जासूस बन गई। उसने खुद ही कड़ी-दर-कड़ी ऐसे सबूत तलाशे जिनसे दो हत्याओं का खुलासा हो गया। एक हत्या उसके बेटे सुहेल की और दूसरी उसके दोस्त की। मां की ममता के खोजी  साहस को देखकर पुलिस भी हतप्रभ रह गई।

कोलकाता के निकट के एक गांव के तेरह साल के बच्चे को जब भूख ने बहुत सताया तो वह दौड़ा-दौड़ा मिठाई की दुकान पर जा पहुंचा। दुकान पर तरह-तरह की चिप्स रखीं थीं, लेकिन दुकानदार नदारद था। बच्चा ने तीन पैकेट हाथ में लेकर इधर-उधर देखने लगा। तभी दुकानदार आ गया। उसने बच्चे को चोर समझ कर पकड़ा और अंधाधुंध पीटने लगा। बच्चे ने गुस्साये दुकानदार को बीस का नोट देते हुए भूल के लिए बार-बार माफी मांगी। बच्चे की मां को जब इस घटना का पता चला तो उसने भी उसे कड़ी फटकार लगाई। भावुक और संवेदनशील बच्चे ने घर लौटने के बाद खुद को कमरे में बंद कर लिया। मां दरवाजा खटखटाती रही, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। कुछ देर के बाद पड़ोसियों की मदद से दरवाजा तोड़ा गया तो बच्चा बेहोश मिला। उसने बंगाली में एक नोट लिख छोड़ा था, ‘‘मां मैं चोर नहीं हूं। मैंने चोरी नहीं की। अंकल (दुकानदार) वहां नहीं थे। मैंने उनके आने की राह देखी। मुझे बहुत भूख लगी थी। वैसे भी कुरकुरे मुझे बहुत पसंद हैं। मेरे उन्हें उठाते ही अंकल आ गए और उन्होंने मेरी एक भी नहीं सुनी...। ये मेरे अंतिम शब्द हैं। कृपया मुझे इस काम के लिए माफ कर देना।’’ अस्पताल ले जाने के कुछ ही समय बाद उसने अंतिम सांस ले ली। मां की आत्मा चीत्कार उठी। वह खुद को कोसती रह गई कि थोड़ा धीरज रख अपने बच्चे की सुन लेती तो वह आहत होकर इस तरह से मौत के मुंह में तो नहीं समाता।

चित्र-3 : इन दिनों कई मां-बाप बच्चों की मनमानी से बहुत आहत और परेशान हैं। मोबाइल फोन तो उनके लिए बहुत बड़ी समस्या बन गया है। अधिकांश बच्चे मोबाइल को आसानी से छोड़ने को तैयार ही नहीं होते। टिकटॉक, इंस्टाग्राम, फेसबुक और ऑनलाइन गेम उनकी लत बन गई हैं। मां-बाप के रात को सो जाने के पश्चात भी बच्चे मोबाइल फोन से चिपके रहते हैं। रात को देरी से सोने के कारण उनकी आंख समय पर नहीं खुलती। मां-बाप उठा-उठाकर थक जाते हैं। 

केरल में स्थित नेदुंवपुरम ग्राम पंचायत ने बच्चों का मोबाइल के नशे से ध्यान हटाने के लिए अनोखी पहल की है। इसके तहत गांव के आठवीं से 12वीं क्लास के छात्रों को बीमार लोगों के साथ-साथ बुज़ुर्गों से मिलने और उनका हालचाल जानने के लिए भेजा जाता है। बच्चे उनका हौसला बढ़ाते हैं कि आप चिंता न करें। ईश्वर आपको शीघ्र ही भला-चंगा करेंगे। जागरूक ग्रामवासियों का मानना है कि मरीजों के साथ अधिक से अधिक वक्त व्यतीत करने से बच्चे ज्यादा संवेदनशील होंगे और बड़े-बुजुर्गों की देखभाल के प्रति जागरूक होंगे। उन्हें बुजुर्गों से बहुत कुछ नया सीखने को मिलेगा, जो किताबों में नहीं है। बच्चों को फर्स्ट एड की ट्रेनिंग भी दी जा रही है। गांव के डॉक्टर गोयल कहते हैं कि बच्चों को मोबाइल से दूर रखने का लक्ष्य उन्हें दयालू और सामाजिक बनाना है। जब बच्चे बिस्तर पर पड़े किसी रोगी से बात करते हैं, उसका हालचाल पूछते हैं तो उनके व्यवहार में सकारात्मक बदलाव आते हैं। उनमें दूसरों की सहायता करने की भावना में बढ़ोतरी होती है। हम चाहते हैं कि बच्चे मोबाइल से दूरी बनाते हुए अपनी ऊर्जा, ज्ञान और कौशल का इस्तेमाल असहायों की मदद के लिए करें। बचपन और किशोरावस्था में बहुत एनर्जी होती है। यदि इसे सही दिशा दे दी जाए तो वे बड़े होकर बेहतरीन नागरिक बन सकते हैं। ग्राम पंचायत की सकारात्मक कोशिश रंग लाने लगी है। आयुर्वेदिक अस्पताल के डॉक्टर अविनेश गोयल इस बदलाव को लेकर अत्यंत प्रसन्न हैं। वे बताते हैं कि बच्चे पहले गांव के मरीजों का सर्वे करते हैं। इससे उनको गांव की प्राथमिक और जमीनी स्थिति का पता चलता है। उनकी सोच और समझ विकसित होती चली जाती है। इसके बाद वे डेटा का विश्लेषण करते हैं। फिर वे महीने में एक बार कम से कम मरीज से जरूर मिलने जाते हैं। हालांकि वे जितने चाहें उतने मरीजों से मिल सकते हैं। उन्हें एक डायरी भी दी गई है, जिसमें उन्हें सारी सूचनाएं अपनी भावनाएं लिखनी होती हैं। यह डायरी हर महीने चेक की जाती है, जिसकी सेवा सबसे अच्छी होती है। उसे इनाम भी दिया जाता है। यह भी सच है कि मोबाइल के अत्याधिक चक्कर में पड़े रहने की बीमारी सिर्फ बच्चों को ही नहीं है। कई बड़े-बुजुर्ग भी इसके गुलाम हो चुके हैं। जब मौका मिलता है मोबाइल खोलकर बैठ जाते हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर के वीआइपी रोड पर स्थित है ‘नुक्कड़ कैफें। यहां पर जो ग्राहक खाना खाने के लिए आते हैं उनका मोबाइल पहले ही जमा करवा लिया जाता है। कैफे ने इसे डिजिटल डिटॉक्स का नाम दिया है। कैफे के संचालक चाहते हैं कि अपने परिवार या दोस्तों के साथ कैफे में आने वाले लोग अधिकतम समय एक-दूसरे के साथ बिताएं। मोबाइल में उलझे रहने की बजाय आपस में बातचीत करें। इसके बदले में उनके बिल में दस प्रतिशत विशेष छूट भी दी जाती है।

Thursday, May 22, 2025

लोकतंत्र में लूटतंत्र

यह खबर यकीनन सभी ने तो नहीं पढ़ी होगी, ‘‘महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा के नेता नारायण राणे जब महाराष्ट्र सरकार में राजस्व मंत्री थे तब उन्होंने वन विभाग की 300 एकड़ जमीन अपने अत्यंत चहेते बिल्डर को दे दी थी। इस जमीन की कीमत करोड़ों रुपये थी। नारायण राणे ने इस उपकार के बदले यकीनन मोटी रकम ली होगी। नेता यूं ही दरियादिली नहीं दिखाते, लेकिन हां, सरकारी संपति को लुटाने में इन्हें न कोई शर्म आती है और न ही दर्द होता है। विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही सरकारी जमीनों को अपनी खानदानी प्रॉपर्टी मानने वाले नेताओं की फसल बीते कई वर्षों से खूब फल-फूल रही है। चव्हाण नामक जिस जुगाड़ू और धुरंधर ने 1998 में मंत्री नारायण राणे से यह सौगात मिट्टी के मोल पायी थी, उसने इसे रिची रिच कोऑपरेटिव सोसाइटी को दो करोड़ में बेचकर अपनी तिजोरी का वजन बढ़ा लिया। वन विभाग की यह जमीन कृषि भूमि थी, लेकिन घोर आश्चर्य युक्त हकीकत यही है कि कुछ ही दिनों में तत्कालीन पुणे संभागीय आयुक्त राजीव अग्रवाल, कलेक्टर विजय माथनकर और वन संरक्षक अशोक खडसे ने यह प्रमाणित करने में किचिंत भी विलंब नहीं किया कि, यह कीमती तीस एकड़ भूमि गैर कृषि जमीन है। यानी इस पर मनचाही भव्य परियोजना को साकार कर अरबों-खरबों रुपये कमाने की खुली छूट है।

देश के मुख्य न्यायाधीश माननीय भूषण गवई ने पद ग्रहण करने के तुरंत बाद अपने पहले फैसले में इस जमीन को वन विभाग को वापस करने का निर्देश देकर राजनीति को धंधा बनाने वाले नेता नारायण राणे को तीखा झटका दे दिया। इसके साथ ही उनके भ्रष्टतम काले पन्ने पर मुहर लगाकर देशवासियों को सचेत होने का संदेश दे दिया है। नारायण राणे के प्रति मैं लाख चाहकर भी चोर, डाकू, धूर्त, बेईमान, शातिर जैसे तीखे शब्दों का इस्तेमाल करने से बच रहा हूं, क्योंकि वे माननीय सांसद हैं। उन्हें लाखों स्त्री-पुरूषों, युवक, युवतियों ने अपना कीमती वोट देकर सांसद बनाया है। नारायण राणे ने चिकन शॉप से राजनीति का जो सफर तय किया है वह भी किसी दृष्टि से सराहने के लायक तो नहीं है, लेकिन लोकतंत्र में जिसे भी वोटर मालामाल कर देते हैं वही साहूकार हो जाता है। वोटरों की इसी नादानी की वजह से ही नालायक से नालायक चेहरे विधायक और सांसद बनते चले आ रहे हैं। भारत में जो भी शख्स चुनाव में बाजी मार लेता है, उसके लिए सरकारी जमीनें पाना और हथियाना बहुत आसान और जन्मसिद्ध अधिकार हो जाता है। देश की संपत्ति को अपने बाप-दादा की जागीर समझने वाले नेता हर राजनीतिक पार्टी में हैं। किसी में ज्यादा तो किसी में कम। कांग्रेस के शासन में तो अदना-सा बंदा भी विधायक बनते ही स्कूल-कॉलेज के लिए करोड़ों की सरकारी जमीन मुफ्त में पाने का हकदार हो जाता था। महाराष्ट्र में तो शायद ही कोई कांग्रेसी नेता होगा, जिसने सरकारी जमीनें नहीं हथियायी होंगी। जमीनखोर, विधायकों, सांसदों की खोजी निगाहें उन जमीनों पर टिकी रहती है, जो स्कूलों, बाग-बगीचों, अस्पतालों, पुस्तकालयों आदि के लिए निर्धारित होती हैं, लेकिन अपने पद और पहुंच का फायदा उठाकर चुटकी बजाते ही उन्हें अपने नाम करवा लिया जाता है। इस छल-कपट के धूर्त-कर्म में उच्च सरकारी अधिकारी उनका पूरा साथ भी देते हैं और उन जमीनों का अता-पता भी बताते हैं, जिन्हें हथिया कर अपने बाप की जागीर बनाया जा सकता है। कुछ नेता तो लूट और बेशर्मी की सभी हदें पार करने में भी नहीं सकुचाते। उन्हें शहीद सैनिकों की जमीनें हथियाने में न संकोच होता है और न ही तनिक लज्जा आती है। 

महाराष्ट्र सरकार ने युद्ध में शहीद हुए सैनिकों और रक्षा मंत्रालय के कर्मचारियों को सिर ढकने के लिए छत दिलाने के लिए मुंबई के कोलाबा में आदर्श हाउसिंग सोसाइटी का निर्माण किया था, लेकिन नियमों को ताक में रखकर इस सोसाइटी के अधिकांश फ्लैट नेताओं तथा अफसरों को बेहद कम कीमत में दे दिये गए। जांच में पाया गया कि 25 फ्लैट गैरकानूनी तौर पर आवंटित किये गए। इनमें से 22 फ्लैट फर्जी नाम से खरीदे गये। शहीदों के लिए बनाये गये फ्लैटों को झटकने वालों में प्रदेश में तत्कालीन मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण, पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख, सुनील कुमार शिंदे और शिवाजीराव निलंगेकर के नाम शामिल पाए जाने पर हंगामा मच गया था। लोगों ने ऐसे कपटी, लालची नेताओं की जात पर बार-बार थू...थू की थी। प्रमुख घोटालेबाज प्रदेश के मुखिया अशोक चव्हाण को इस्तीफा देकर अपने घर में बैठना पड़ा था।

सरकारी जमीनों को औने-पौने दाम में हथियाने के लूटकांड में कई बड़े-बड़े अखबार मालिकों की शर्मनाक भूमिका की ज्यादा चर्चा नहीं होती। देश में जितने भी नामी-गिरामी अखबार वाले हैं, उनमें शायद ही कोई ऐसा होगा, जिसने सरकार से करोड़ों की जमीनें कौड़ियों में न पायी हों। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहलाने वाले कई अखबारीलाल ऐसे हैं, जिन्होंने सरकार से बेतहाशा जमीनें तो लीं अपने अखबार की प्रिंटिंग प्रेस और कार्यालय के लिए, लेकिन उन्होंने उनके अधिकांश हिस्से पर दुकानें और फ्लैट बना उन्हें मोटे किराये पर देकर खूब चांदी काटी है। कुछ शातिर मीडिया वालों ने सत्ताधीशों की चापलूसी कर यह दर्शाते हुए हजारों वर्गफुट जमीन की सौगात पाने में सफलता पायी और पाते चले आ रहे हैं कि हम तो बेघर है। हमें सिर ढकने के लिए सरकार मदद नहीं करेगी तो कौन करेगा। ध्यान रहे कि वास्तव में लोकतंत्र के चौथे खम्भे की गाड़ी को चलाने और दौड़ाने में जमीनी श्रमजीवी पत्रकारों का ही प्रमुख योगदान होता है। लेकिन उन्हें सजग और निर्भीक पत्रकारिता के लिए कई तरह के खतरे उठाने और खून-पसीना बहाने के बाद भी किराये के छोटे-मोटे घरों में उम्र बीतानी पड़ती है। 

मुख्य न्यायाधीश भूषण गवई ने राजनेताओं, बिल्डरों और प्रशासनिक अधिकारियों के आपसी गठजोड़ को लेकर फटकार लगाते हुए कहा है कि, वन विभाग की 30 एकड़ जमीन बिल्डर को देने का निर्णय इस बात का ज्वलंत उदाहरण है कि किस तरह से यह लोग देश के साथ धोखाधड़ी करते चले आ रहे हैं। देशभर में फैली लुटेरों और डकैतों की टोली में रेलवे, सेना और अन्य सरकारी विभागों की जमीनों को हड़पने की प्रतिस्पर्धा चलती चली आ रही है। अपने निजी स्वार्थ के लिए झुग्गी-झोपड़ी की कतारें लगवाने और जगह-जगह अवैध कब्जे करवाने वाले सत्ताधीशों, नेताओं की नकेल हर हाल में कसी जानी जरूरी है। सीजेआई भूषण गवई आम लोगों की समस्याओं से बहुत गहराई से वाकिफ हैं। उनका मानना है कि जजों को समाज की जमीनी सच्चाई समझकर फैसले देने चाहिए। केवल कानून की किताबों के सफेद-काले अक्षरों के आधार पर नहीं। देश के 52वें चीफ जस्टिस भूषण गवई के पिता रामकृष्ण सूर्यभान गवई एक जाने-माने आंबेडकरवादी नेता और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापक थे। उन्हें बिहार, केरल और सिक्किम का राज्यपाल बनने का गौरव भी हासिल हुआ था। वे वकील बनना चाहते थे, लेकिन समाजसेवा में सक्रिय होने के कारण उनका सपना पूरा नहीं हो पाया। हालांकि उनके सुपुत्र ने उनका हर सपना पूरा कर दिखाया है और अब देशवासियों के सपनों का पूरा करने की जिम्मेदारी है।