Thursday, September 25, 2025
Thursday, September 18, 2025
चलती-फिरती किताबें
कुछ लोग ऐसे होते है जिनका जीवन किसी ऐसी किताब से कम नहीं होता जिसे पढ़ने का हर किसी का मन होता है।
‘‘मेरा जन्म 1991 में आंध्रप्रदेश के सीतारामपुरम गांव में हुआ। माता-पिता को तब आघात लगा, जब उन्हें पता चला कि उनका बच्चा तो अंधा है। रिश्तेदारों, अड़ोसी, पड़ोसियों ने भी उन्हें घोर बदकिस्मत करार दे डाला। सभी ने उन्हें सलाह दी कि ऐसे बच्चे का होना न होना एक बराबर है। वैसे भी लड़के तो मां-बाप की सेवा और उनका नाम रोशन करने के लिए जन्मते हैं। मां-बाप के सपने अपनी अच्छी औलाद की बदौलत ही साकार होते हैं। यह अंधा तो उनके लिए फंदा है। ऐसे फंदों से मुक्ति पाना ही अक्लमंदी है। जैसे दूसरे समझदार मां-बाप करते हैं, तुम भी इसका गला घोंट दो। चुपचाप कहीं दफना दो। यह नहीं कर सकते तो अनाथालय में ले जाकर छोड़ दो। वही इसे खिलाएंगे, पिलायेंगे और जो उनकी मर्जी होगी, करेंगे। अनाथालय की शरण में पल-बढ़कर भीख मांगना तो सीख ही लेगा। तुम लोगों का तो इसे पालते-पालते ही दम निकल जायेगा। घर के बर्तन तक बिक जायेंगे और हाथ में कटोरा पकड़कर भीख मांगने की नौबत आ जाएगी।’’
कई दिन तक तो मां हर किसी के सुझावों को मजबूरन सुनती रहीं। लेकिन जब उनके चुभने वाले बोल वचनों की अति हो गई वह उन पर बिफर पड़ीं। उन्हें आसपास फटकने तक से मना कर दिया। मां के अंतिम फैसले के तौर पर कहे गये इन शब्दों ने तो सभी की जुबानें बंद कर दीं, ‘‘तुम लोग कान खोलकर सुन लो, जब तक मैं जिन्दा हूं, अपने बच्चे पर आंच नहीं आने दूंगी। खुद को बेचकर भी इसकी इतनी अच्छी तरह से परवरिश करूंगी कि दुनिया भी हतप्रभ देखती रह जाएगी। मैं चार साल का हुआ तो मां ने गांव के स्कूल में दाखिला करवा तो दिया, लेकिन घर से अकेले बाहर निकलना मेरे लिए आसान नहीं था। कभी पिता स्कूल छोड़ने जाते तो कभी मां छोड़ आतीं और लेने भी पहुंच जातीं। स्कूल में मेरे साथ पढ़ने वाले बच्चे मुझ से दूरी बनाये रखते। जब मैं तीसरी कक्षा में पहुंचा तो प्रिंसिपल ने मेरे लिए फरमान जारी कर दिया कि हमें ऐसे बच्चे की जरूरत नहीं, जिसके लिए हमें जरूरत से ज्यादा दिमाग खपाना और अपना कीमती समय बरबाद करना पड़े। मां के जुनून ने मुझे हैदराबाद के ब्लाइंड स्कूल में पहुंचा दिया, लेकिन वहां भी मुझे कुछ भी सुझायी नहीं देता था। चौबीस घंटे बस घबराया-घबराया रहता। एक रात मैंने स्कूल से भागने की कोशिश की तो वार्डन की मुझ पर निगाह पड़ गई। उन्होंने मेरे इरादे को भांप लिया था। गुस्से में उन्होंने मुझे अपने पास खींचा और पांच-सात तमाचे जड़ते हुए कहा कि कहां-कहां भागोगे? ऐसे भागने से तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। अपना नहीं तो उस मां का ख्याल करो, जिसने कई सपने पाल रखे हैं। ईश्वर ने तुम्हें किसी चमत्कार के लिए इस धरती पर भेजा है। डरो नहीं, बस लड़ो...लड़ते ही रहो। वार्डन के चांटों और शब्दों का ही असर था कि उस दिन मुझे लगा कि मैं तो देख सकता हूं। मुझे हर चुनौती का डटकर सामना करते हुए खुशी-खुशी जीना है। मेरे अंदर साहस की रोशनी की तरंगें दौड़ने लगीं। मैं दसवीं तक टॉपर रहा, लेकिन मेरे मनोबल को तोड़ने वाली ताकतें तब भी मेरे पीछे पड़ी रहीं।
दसवीं के बाद आईआईटी की कोचिंग के लिए एक कोचिंग सेंटर गया तो वहां के संचालक ने तीखे थप्पड़-सा शब्द-बाण मारा कि तुम जैसे पौधे कभी पेड़ नहीं बन सकते, क्योंकि उनमें तेज बारिश और आंधियों को सहने की ताकत नहीं होती। हमेशा-हमेशा के लिए फौरन धराशायी हो जाते हैं और साथियों के तेजी से दौड़ते कदमों से रौंद दिये जाते हैं। साइंस में एडमिशन पाने के लिए अंतत: मुझे कोर्ट की शरण लेनी पड़ी। मां के हाथ और साथ के दम पर वो लड़ाई भी मैंने डट कर लड़ी और जीत हासिल की। आंध्रप्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड में साइंस लेकर 92 प्रतिशत नंबर के साथ पास होने वाला मैं पहला नेत्रहीन छात्र बना। उसके बाद तो बड़ी आसानी से अमेरिका के एमआईटी में प्रवेश मिल गया और यहां भी तब तक किसी दृष्टिहीन छात्र को प्रवेश नहीं मिला था। अमेरिका से पढ़ाई कर लौटा तो तकदीर मेरे स्वागत के लिए सभी दरवाजे खोले खड़ी थी। मैं हौसले से लबालब था। मां खुशी से फूली नहीं समा रही थी। मैंने अपने दम पर हैदराबाद में कंज्यूमर फूड पैकेजिंग कंपनी शुरू की।
23 की उम्र में बोलैंट कंपनी का सीईओ बना। आज जब छत्तीस साल का होने जा रहा हूं। मेरी कंपनी 600 करोड़ के आंकड़े को छू चुकी है, जहां चार सौ कर्मचारी काम करते हैं, जिनमें 70 प्रतिशत दिव्यांग हैं। जिन्दगी ने मुझे एक ही पाठ पढ़ाया है कि ऊपर वाला भी तभी साथ देता है, जब हम हिम्मत और योजना के साथ चलते रहते हैं। चाहे कितनी भी मुश्किल भरी राहें हों, जुनूनी संघर्ष की बदौलत अंतत: आसान हो ही जाती हैं और मंजिल खुद-ब-खुद गले लगाती है। अब मेरे कदम सतत ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं। आने वाले वक्त में मेरी तिजोरी में हो सकता है पांच-दस हजार करोड़ रुपये हों, लेकिन वो धन मेरी मां और उनकी कुर्बानी से बढ़कर तो नहीं हो सकता। मेरी सबसे बड़ी दौलत तो मेरी मां हैं, जिन्होंने मुझे यहां तक पहुंचाया है।’’ यह आत्मकथन है श्रीकांत बोला का जो जन्म से दृष्टि बाधित हैं। अपनी हिम्मत के दम पर सफलताओं का परचम लहराते हुए लोगों को अचंभित करते रहे हैं। वर्तमान में देश के प्रतिष्ठित उद्योगपतियों में शुमार श्रीकांत बोला की संघर्ष भरी यात्रा पर एक चर्चित फिल्म भी बन चुकी है। ‘श्रीकांत’ नाम की 2024 में रिलीज हुई इस फिल्म ने करोड़ों दर्शकों को प्रभावित किया है।
एक सवाल कि एक रुपये में क्या होता है, क्या मिलता है? हलकी सी चाकलेट और संतरे के स्वाद वाली गोली जरूर मिल जाती है, जिसे आज के बच्चे भी पसंद नहीं करते। भिखारी भी एक रुपये के सिक्के को लेने से कतराते हैं। कागज़ के नोट तो वैसे भी आजकल कम नज़र आते हैं, जो हैं भी, वो शादी, ब्याह या किसी अन्य शुभ कार्य में दस को ग्यारह, सौ को एक सौ एक और पांच सौ को पांच सौ एक के शुभ आंकड़े बनाने... दर्शाने के काम आते हैं। महंगाई भी कितनी बढ़ा दी गई है। कुछ भी सस्ता नहीं मिलता। अनाज, दूध, सब्जियां, दवाएं सब महंगी होती चली जा रही हैं। पीने के पानी तक की कीमत चुकानी पड़ रही है। गरीब आदमी यदि किसी गंभीर बीमारी का शिकार हो जाए तो उसका बचना मुश्किल है। डॉक्टरी के पेशे की इंसानियत भी जाती रही है, लेकिन फिर भी सच्चे इंसानों के अंदर का इंसान जिन्दा है इसे साबित कर दिखाया है ओडिशा के संबलपुर जिले के युवा डॉक्टर शंकर रामचंदानी ने। उन्होंने गरीबों और वंचितों के इलाज के लिए ‘एक रुपया’ क्लिनिक खोला है। किराये के मकान में खोले गये इस अस्पताल में मरीजों की भीड़ लगी रहती है। गरीबों से एक रुपया फीस भी इसलिए लेते हैं, ताकि उन्हें यह न लगे कि वे मुफ्त में इलाज करा रहे हैं। वे लंबे समय से चाह रहे थे कि ऐसे चिकित्सालय की स्थापना करें, जहां गरीब और बेसहारा लोग आसानी से पहुंचकर मुफ्त में इलाज करवा सकें। उनका मानना है बड़े-बड़े अस्पतालों में बड़े निवेश की आवश्यकता होती है, इसलिए वहां पर इलाज भी महंगा हो जाता है। इसलिए उन्होंने आलीशान अस्पताल खोलने की बजाय साधारण अस्पताल खोला है, जहां पर उनकी कोशिश है कि जिनकी जेबें खाली हैं वे भी गर्व के साथ बीमारी से छुटकारा पा सकें। चालीस वर्षीय डॉक्टर की पत्नी भी डॉक्टर हैं। दोनों विभिन्न अस्पतालों में कई वर्षों तक कार्यरत रहे हैं। दोनों अधिकांश डॉक्टरों की धनलोलुपता से वाकिफ है।
महाराष्ट्र के प्रगतिशील नगर पुणे में एक डॉक्टर हैं जिन्होंने बेटियों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। गणेश राख है इनका नाम। तेरह साल में 2500 बेटियों की नि:शुल्क डिलीवरी कराने का कीर्तिमान रच चुके डॉ.गणेश बताते हैं कि 29 दिसंबर 2011 को उनके अस्पताल में एक गरीब दिहाड़ी श्रमिक अपनी पत्नी की डिलीवरी के लिये आया था। उसने बड़े दुखी और बुझे स्वर में बताया था कि उसे पहले दो बेटियां हैं, दोनों ही सीजेरियन से हुई हैं लेकिन अब वह खर्च वहन नहीं कर सकेगा। लेकिन अगर लड़का हुआ तो वह अपना घर गिरवी रखकर भी अस्पताल का खुशी-खुशी बिल चुकाएगा। मुझे यह बात बहुत खटक गई। मैंने उससे कहा कि यदि तुम्हारे यहां बेटी पैदा हुई तो मैं फीस नहीं लूंगा। संयोग से इस बार भी उसके यहां बेटी जन्मी तो वह बहुत निराश हो गया। फिर भी उसने पूछा कि आपकी फीस कितनी हुई? जब मैंने कहा शून्य तो उसकी आंखें भीग गईं। उसके चेहरे पर उभरे राहत के भाव को देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। उसी पल से मैंने ठान लिया कि मेरे अस्पताल में जब भी लड़की पैदा होगी तो परिजनों से कोई फीस नहीं ली जाएगी। यह भी निर्णय किया गया कि जैसे लड़के के जन्मने पर उनके परिजन जश्न मनाते हैं, स्वागत करते हैं, वैसे ही हम लड़की के आगमन पर केक और मिठाइयां बांटकर जश्न मनाएंगे। डॉ.गणेश राख की इस पहल की सभी तारीफ कर रहे हैं। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने भी जमकर उनकी सराहना की है। डॉक्टर साहब का सपना है, शीघ्र ही सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल खोलें जहां पर महिलाओं की सभी प्रकार की बीमारियों का इलाज एकदम मुफ्त में कर सकें।
Thursday, September 11, 2025
रेत की सत्ता
राजनेताओं और नौकरशाहों के बीच मनमुटाव और टकराव कोई नई बात नहीं है। दोनों अपने-अपने अहंकार और जिद के गुलाम हैं। उन्हें करनी तो जनसेवा चाहिए, लेकिन वे जनता को जीरो और खुद को हीरो समझते हैं। किसी को कुछ भी न समझने की तांडवी मनोवृत्ति के शिकार कुछ मंत्री, विधायक तो अक्सर अपने कपड़े उतारकर बेशर्मी की सुर्खियां बटोरते दिख जाते हैं। मध्यप्रदेश के भिंड जिले में विधायक नरेंद्र सिंह कुशवाह और कलेक्टर संजीव श्रीवास्तव कुत्ते बिल्ली की तरह आपस में भिड़ गए। कलेक्टर ने विधायक की ओर उंगली उठाई तो विधायक ने उनके मुंह की रंगत बिगाड़ने के इरादे से मुक्का तान लिया। विधायक और कलेक्टर को तीखे आवेश में तू...तू, मैं...मैं करते देख वहां पर उपस्थित लोग आनंदित होते रहे और लड़ाई के और उग्र रूप धारण करने की बेसब्री से राह देखते रहे। गुस्सैल विधायक कुशवाह वर्ष 2012 में तत्कालीन एसपी जयनंदन को थप्पड़ जड़ने के आरोप के भी दागी हैं। उन्हें खामोश रहकर आज्ञा पालन करने वाले अधिकारी सुहाते हैं। जो प्रशासनिक अधिकारी सिर उठा कर बात करता है उसका तो बैंड बजाने में कोई कसर नहीं छोड़ते, लेकिन इस बार अपनी टक्कर के नौकरशाह से उनका पाला पड़ गया। कलेक्टर श्रीवास्तव को विधायक का तल्ख लहजे में बात करना बर्दाश्त नहीं हुआ तो उन्होंने उनकी विधायकी का लिहाज न करते हुए भड़कते हुए आक्रामक शब्दों की गोली दागी, ‘‘औकात में रहकर बात करो।’’ ऐसे में विधायक को तैश में आना ही था, उन्होंने चीखते हुए कहा, ‘‘औकात किसे बता रहे हो, तू हमें नहीं जानता?’’, ‘‘अच्छी तरह से जानता हूं। बहुत हो चुका। अब मैं तेरी रेत चोरी बिलकुल नहीं चलने दूंगा।’’ विधायक का प्रतिउत्तर आया, ‘‘सबसे बड़ा चोर तो तू हैं...’’
किसानों की खेती-बाड़ी के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण जरूरत खाद से शुरू हुई जंग उस रेत तक आ पहुंची जिसकी वजह से बार-बार देश के लगभग सभी प्रदेशों में धमाके होते रहते हैं। कोई भी प्रदेश हो, रेत की लूट हर कहीं छायी रहती है। यही रेत ही है जो कई मंत्रियों, विधायकों तथा उनकी पार्टी के कार्यकर्ताओं की अंधाधुंध काली कमायी का आसान जरिया है, तो वहीं तहसीलदार, कलेक्टर और उनके अधीनस्थ कर्मचारियों की जेब भरायी का सहज सुलभ साधन है। यह लिखना सरासर गलत होगा कि अपने देश में सिर्फ भ्रष्टों का ही जमावड़ा है। बेइमानों की अपार भीड़ में कुछ ईमानदार भी हैं, जिनकी चोर-लुटेरों से अक्सर मुठभेड़ होती रहती है। एक पुख्ता निष्कर्ष यह भी है कि, अधिकांश सत्ताधीशों को ईमानदार अधिकारी शूल की तरह चुभते हैं। उत्तरप्रदेश में एक आईएएस अधिकारी रही हैं दुर्गा नागपाल। इस कर्तव्य परायण अधिकारी ने कई बार भूमाफियाओं, खनिज माफियाओं और स्मगलरों को दबोच कर उन्हें जेल पहुंचाया। इसी पकड़ा-धकड़ी में प्रदेश के एक बलवान मंत्री के करीबी रिश्तेदार और कार्यकर्ता भी नहीं बच पाए। ऐसे में एक दिन मंत्री ने अधिकारी दुर्गा नागपाल को तुरंत अपनी कोठी में हाजिर होने का फरमान सुनाया। दुर्गा को लगा था कि तारीफ करते हुए उनकी पीठ थपथपायी जाएगी, लेकिन बौखलाये मंत्री उन्हें देखते ही धमकाते हुए गरजे कि तुम्हारी यह हिम्मत कि तुम हमारे लोगों को रेत चोरी करने से रोको। तुम्हारी इस हिटलरशाही से तो हमारा चुनाव जीतना भी मुश्किल हो जाएगा। अपने इन्हीं खास कार्यकर्ताओं तथा शुभचिंतकों की भाग-दौड़ की बदौलत ही तो हम हर चुनाव में विजय की पताका लहराते चले आ रहे हैं। उसूलों की पक्की दुर्गा नागपाल ने जब मंत्री के आदेश को मानने से इंकार कर दिया तो उन्हें तुरंत निलंबित कर दिया गया।
इसी तरह से हरियाणा में अनिल विज नाम के भाजपा के पुराने नेता हैं। मंत्री बने बिना उन्हें चैन नहीं आता। मुख्यमंत्री बनने के लिए हाथ-पैर पटकते रहते हैं, लेकिन अभी तक दाल नहीं गली। उन्हें भी अपने प्रदेश की आईपीएस अफसर संगीता वालिया का कर्तव्यपरायण होना कभी रास नहीं आया। अनिल विज तब स्वास्थ्य मंत्री थे। उन्होंने जिला शिकायत एवं लोक मामलों की समिति की बैठक बुलायी थी। उसी दौरान इस मंत्री ने एक एनजीओ की शिकायत का हवाला देते हुए एसपी संगीता पर शराब बिकवाने का संगीन आरोप जड़ दिया। ईमानदार अधिकारी संगीता के लिए यह आरोप किसी तमाचे से कम नहीं था। मंत्री जब सारी हदें पार करते हुए संगीता को अपमानित करने पर तुल गए और वर्दी उतरवाने की धौंस देने लगे तो स्वाभिमानी संगीता बगावत की मुद्रा अख्तियार करते हुए उन्हें खरी-खोटी सुनाने लगीं। उन्होंने एक-एक सवाल का जवाब देकर सबके सामने मंत्री की बोलती बंद कर दी। मंत्री हैरान-परेशान संगीता का मुंह ताकते रह गए। अभी तक उनका ऐसे अफसरों से ही वास्ता पड़ा था, जो उनकी डांट-फटकार चुपचाप सुन अपराधी की तरह अपना सिर झुका लेते थे। स्वच्छ छवि की परिश्रमी इस खाकी वर्दी धारी नारी को जब गेट आउट कहा गया तो उसने ललकारने वाले तेवरों के साथ कहा, ‘‘श्रीमानजी इस वर्ष ढाई हजार से अधिक अवैध शराब विक्रेताओं को हमने पकड़ा था। दुख इस बात का है कि हम मेहनत करते हैं, लेकिन अधिकारियों को आसानी से कोर्ट से जमानत मिल जाती है। जब देखो तब आप लोगों का भी फोन आ जाता है कि जिन्हें पकड़ा गया है, वे हमारे आदमी हैं, उन्हें तुरंत छोड़ दो। पिछले महीने भाग-दौड़ी कर मैंने कुछ रेत माफियाओं पर हाथ डाला था। उन्हें किसी भी हालत में जेल भिजवाने की ठान चुकी थी, लेकिन आपका फोन आ गया कि, यह तो मेरे समर्पित कार्यकर्ता हैं, इन्हें कुछ भी नहीं होना चाहिए। ऐसे में बहुत से अधिकारियों को समझ में ही नहीं आता कि कानून का पालन करें या गुलामों की तरह आपके आज्ञाकारी बने रहें, लेकिन मैं औरों की तरह नहीं जो अपने मूल फर्ज़ से नाता तोड़ आपकी जी हजूरी करती रहूं। मैं आपको बताये देती हूं कि आपका बर्ताव अशोभनीय होने के साथ-साथ पद के प्रतिकूल भी है और बेहद शर्मनाक भी।’’ हरियाणा के सनकी मंत्री अनिल विज की तरह महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजित पवार भी तू...तड़ाक और गुस्सा दिखाने के मामले में आम लोगों में कुख्यात तो अपने प्रशंसकों और चम्मचों के आदर के पात्र हैं। सोच समझकर बोलने से परहेज रखने वाले अजित पवार और प्रदेश की आईपीएस अधिकारी अंजना कृष्णा के बीच की बातचीत के वीडियो ने एक बार फिर से अजित पवार को चर्चित कर दिया। महाराष्ट्र के सोलापुर जिले में अंधाधुंध रेत खुदाई की पुख्ता जानकारी मिलने के पश्चात अंजना कृष्णा ने दल-बल के साथ वहां पहुंचने में देरी नहीं लगायी, जहां रेत की डकैती को बेखौफ अंजाम दिया जा रहा था। नदी में रेत यानी मरूम की खुदाई करने में लगे रेत माफियाओं को उन्होंने काम रोकने को कहा तो वे अपनी ऊंची पहुंच की आवाज बुलंद करते हुए उन्हें ही धमकाने लगे। कर्तव्य परायण महिला पुलिस अधिकारी ने जब कानून का डंडा चलाते हुए कड़ी कार्रवाई करने की घोषणा कीे तो किसी ने अपने आका से बात करते-करते अपना मोबाइल महिला अधिकारी के हाथ में थमा दिया। उधर से कहा गया, ‘‘मैं डिप्टी चीफ मिनिस्टर बोल रहा हूं, तुरंत एक्शन रोको।’’ अधिकारी उपमुख्यमंत्री की आवाज को नहीं पहचानती थीं, इसलिए उन्होंने इसे गंभीरता से नहीं लिया। यह भी हो सकता है उनके मन में विचार आया हो कि रेती की अवैध खुदाई करने वाले शातिर ने उन पर दबाव बनाने के लिए किसी ऐरे-गैरे को फोन लगाकर उन्हें पकड़ाया हो, लेकिन दूसरी तरफ मंत्री महोदय का तो तन-बदन सुलग उठा। एक महिला अधिकारी की इतनी हिम्मत! मंत्री ने फौरन महिला पुलिस अधिकारी से वीडियो कॉल पर बातचीत करते हुए पूछा, ‘‘क्या वे अब उनका चेहरा पहचान रही हैैं?’’ जवाब में वे बोलीं, ‘‘उन्होंने तुरंत समझा नहीं कि वह उपमुख्यमंत्री से बात कर रही हैैं...।’’ यह पूरा माजरा यह तो स्पष्ट कर ही रहा है कि इस देश के नेता अपने चहेते कार्यकर्ताओं के कमाने-धमाने की कितनी चिंता और ध्यान रखते हैं।
Thursday, September 4, 2025
पतन दर पतन
राजनीति के मैदान में चुनावी योद्धा एक दूसरे को नीचा दिखाते-दिखाते नीचता की हर हद को लांघ रहे हैं। देश में जब भी कहीं चुनाव होने होते हैं, तो विपक्षी दल और नेता सत्तासीन होने के सपने देखने लगते हैं। सपने देखना गलत नहीं। वर्षों से यही होता आया है। चुनाव प्रचार के दौरान पक्ष और विपक्ष के नेताओं से शालीनता और मर्यादा के पालन की उम्मीद की जाती है, लेकिन अब पहले जैसी बात नहीं रही। तब विरोध में भी शिष्टाचार समाहित रहता था। उम्र और पद की गरिमा का पूरा-पूरा ध्यान रखते हुए अपनी जुबान पर नियंत्रण रखा जाता था, लेकिन अब कई नेता घटिया से घटिया भाषा का इस्तेमाल कर अपने घोर पतित और चरित्रहीन होने के भी सबूत पेश कर रहे हैं। उनकी यह गिरावट उनकी पार्टी को भी कठघरे में खड़ा कर रही है। सत्ता की चाहत के लिए ऐसे पतन की यकीनन कल्पना नहीं की गई थी। सत्ताधीशों की कार्यप्रणाली से नाखुश होने पर उनके खिलाफ जनजागरण करने की बजाय गालीगलौच करने की प्रवृत्ति अक्षम्य होने के साथ-साथ खुद के लिए मौत का कुआं खोदने वाली बेवकूफी है।
जब से नरेंद्र मोदी भारत वर्ष के प्रधानमंत्री बने हैं, तब से कुछ नेता, पत्रकार, संपादक, उम्रदराज वकील तथा खास किस्म के बुद्धिजीवी पानी से बाहर फेंक दी गई मछली की तरह छटपटा और फड़फड़ा रहे हैं। मोदी की हर अच्छी बात में खोट निकालने की जिद में जोकर बने नज़र आ रहे हैं। साफ-साफ दिखाई दे रहा है कि नरेंद्र मोदी पर वोटों की हेराफेरी कर प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज होने के आरोप वो ‘मंडली’ लगा रही है, जो वर्षों से येन-केन प्रकारेण सत्ता हथियाने के लिए बौखलायी और पगलायी है। यह मंडली जब कहीं से चुनाव जीतती है तो जोर-शोर से अपनी पीठ थपथपाती है, लेकिन शर्मनाक पराजय होने पर ईवीएम यानी इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन में हुई वोटों की हेराफेरी के राग अलापने लगती है। नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी को पीएम बनने की बहुत जल्दी है। जिस तरह से राहुल धैर्य खोकर आक्रामक हो गये हैं, उससे भाजपा ही नहीं सजग देशवासी भी हैरान हैं। राजनीति में एक दूसरे पर बयानों की तोप चलाना, खामियां गिनाना भी कोई नई बात नहीं। ये तो सतर्कता की पहचान है, लेकिन ओछेपन पर उतर आना तो अज्ञानी और नालायक होने की निशानी है। कुछ वर्ष पहले तक भाजपा के कुछ नेताओं ने राहुल गांधी का खूब मजाक उड़ाया। उन्हें शहजादे कहकर प्रधानमंत्री ने भी उन पर तंज कसे। उन्हें नासमझ ‘पप्पू’ साबित करने का भरपूर अभियान भी भाजपा वालों ने चलाया। अब राहुल खुद को परिपक्व दिखाने के चक्कर में बार-बार आपा खोते नज़र आते है। उनके कार्यकर्ता और नेता भी अपने नायक का अनुसरण कर रहे हैं। उनकी वोट अधिकार यात्रा के दौरान दरभंगा के मंच से एक कांग्रेसी ने विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के प्रधानमंत्री को मां की गाली देकर अपने मुंह पर कालिख पोत ली। राहुल गांधी को लोकसभा चुनावों में आंशिक सफलता क्या मिली कि उनके तेवर ही बदल गये। उनकी देखा-देखी कांग्रेस के अदने से कार्यकर्ता और नेता भी तू-तड़ाक करते हुए बेहूदगी और निर्लज्जता के काले परचम लहराने लगे। दरभंगा में जिस मंच पर माननीय प्रधानमंत्री और उनकी आदरणीय माताजी के लिए अपमानजनक शब्द उगले गये, वहां हालांकि स्वयं राहुल गांधी मौजूद नहीं थे, लेकिन उनका अनुसरण कर जहर उगलने वालों का हौसला बुलंद था। लगता है अब राहुल गांधी एंड कंपनी के पास और कोई रास्ता नहीं बचा है। पिछले एक दशक से कांग्रेस को देश और प्रदेशों में लगातार चुनावी हार झेलनी पड़ रही है। आज केवल हिमाचल, तेलंगाना और कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार है। साउथ और नॉर्थ मेें भी कांग्रेस अकेले दम पर सरकार बनाने की हैसियत में नहीं है। जाहिर है कि ऐसे में निराशा और हताशा स्वाभाविक है, लेकिन एटम बम और हाइड्रोजन बम फोड़ने की धमकी देने के क्या मायने हैं? आपको सच्चाई बताने से कौन रोक रहा है, लेकिन बम और बारूद की भाषा तो मत बोलिए। लगता है कि जनता का ध्यान आकर्षित करने के लिए कांग्रेस के नायक को खलनायक बनने में संकोच नहीं हो रहा है तथा उनकी पार्टी के छोटे-मोटे नेताओं को अपमानजनक और आक्रामक भाषा के जरिए विषैले तीर चलाने की आदत पड़ती जा रही है। कांग्रेस के अधिकांश प्रवक्ता भी हर उस शख्स को अपना शत्रु मानने लगे हैं, जो भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी के प्रति श्रद्धा तथा सॉफ्ट कार्नर रखता है। यह लाइलाज बीमारी तो कुछ चुनिंदा पत्रकारों को भी अपनी गिरफ्त में ले चुकी है। उन्होंने भाजपा और मोदी की बुराई करने की शपथ ले रखी है। ऐसा तो नहीं है कि मोदी सरकार ने जनहित के कोई कार्य ही न किए हों, लेकिन इन्होंने तो अपनी आंख पर पट्टी और मुंह पर ताले लगा रखे हैं। इन्होंने कसम खा रखी है कि ये ताले तभी खुलेंगे, जब कांग्रेस सत्ता पायेगी और राहुल गांधी प्रधानमंत्री बनेंगे।
हाल ही में इंडिया टुडे ग्रुप की ओर से मूड ऑफ नेशन सर्वे कराया गया है। इस सर्वे का मकसद यह जानना है अगर आज लोकसभा चुनाव हो जाएं तो क्या नतीजे बदलेंगे या वही रहेंगे। यह सर्वे कहता है कि अभी चुनाव होने पर सरकार तो एनडीए की ही बनेगी! सीटों की संख्या में भी मामूली बदलाव हो सकते हैं। 2024 में 293 सीटें जीतने वाली एनडीए 324 सीटें जीत सकती है, जबकि कांग्रेस के नेतृत्व वाले विपक्षी गठबंधन की सीटें 234 से घटकर 208 में सिमट जाने का अनुमान है। यानी विपक्ष अभी इस लायक नहीं कि अपनी छाती तान सके। आम जनता की सोच एक पक्षीय सोच वाले मीडिया जैसी नहीं है। वह यह भी जानती है कि नरेंद्र मोदी का विकल्प देश में अभी तो दूर-दूर तक दिखायी नहीं दे रहा है। अब बात करते हैं नरेंद्र मोदी के अपनी उम्र के 75 साल पूर्ण करने के पश्चात रिटायर होने की। वैसे तो अनुमान तो संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के रिटायर होने के भी लगाये जा रहे थे। 11 सितंबर को 75 साल के होने जा रहे मोहन भागवत ने स्पष्ट कर दिया है कि, उनका रिटायर होने का कोई इरादा नहीं। एक कार्यक्रम के मंच पर उन्होंने स्पष्ट किया कि, मैंने यह नहीं कहा था कि मैं रिटायर हो जाऊंगा या किसी और को 75 साल के होने पर रिटायर हो जाना चाहिए। मैं 80 की उम्र तक शाखा लगाऊंगा। तय है कि विरोधी कितना भी सिर पटक लें, आरोपों के हाइड्रोजन बम फेंक लें, लेकिन 17 सितंबर को 75 साल के होने जा रहे नरेंद्र मोदी भी गद्दी नहीं छोड़ने वाले। उनमें कम अज़ कम 85 साल की उम्र तक देश की सेवा करने का पूरा दमखम है। विरोधी उनके रिटायर होने के दिन-रात सपने देखने और धड़ाधड़ गालियां देने के लिए स्वतंत्र हैं।
Monday, September 1, 2025
कितनी लाचार और नादान हैं बेचारी!
कोई दिन ऐसा नहीं जिस दिन ऐसी खबर नहीं। गंगा जमुना रेड एरिया में पुलिस का छापा। आठ लड़कियों को मुक्त कराया। इनमें पांच हैं नाबालिग। देह मंडी से पुलिस चौकी लगी हुई है। खाकी वर्दी वालों ने जानकारी होने के बावजूद आंखें मूंदे रखीं। बस जेब भरते रहे। संतरा नगरी में एक कुख्यात गैंगस्टर की छत्रछाया में चल रहे कॉपर सैलून में पुलिसिया छापे के दौरान सैक्स रैकेट का भंडाफोड़। पांच पीड़िताओंको पुलिस ने अपने कब्जे में लिया। इनमें दो छात्राओं का भी समावेश है। पिस्तौल की नोंक पर गैंगस्टर ने पहले इनसे बलात्कार किया, फिर देह के धंधे में झोंक दिया।
क्राइम ब्रांच के सामाजिक सुरक्षा दस्ते ने हुडकेश्वर इलाके में चल रहे देह व्यापार के अड्डे से छत्तीसगढ़ की रहने वाली एक महिला को मुक्त कराया। सुनीता और उसका बेटा यश इस अड्डे के संचालक हैं। दोनों ही लड़कियों को अच्छी कमायी का लालच देकर फांसते थे और बेखौफ होकर जिस्म फरोशी करवाते थे। छत्तीसगढ़ से रोजी-रोटी की तलाश में आई महिला को भी मां-बेटे ने मिलकर अपने जाल में फंसाया था। इसी तरह से रईसों के इलाके वाठोड़ा में स्थित एक होटल में गुप्त कमरे में चल रहे देह व्यापार में लिप्त दो पीड़ित महिलाओं को छुड़ाया गया। यह दोनों महिलाएं पहले भी कई बार ग्राहकों के जिस्म की भूख मिटाती पकड़ी जा चुकी हैं। शहर में बीयर बार की आड़ में चोरी-छिपे डांस बार की खबर लगने पर पुलिस ने जब छापा मारा तो पुलिस ने देखा कि तीन युवतियां आधे-अधूरे वस्त्रों में अश्लील नृत्य कर रही थीं। रात के डेढ़ बजे लगभग पचास से ज्यादा शौकीन बेशर्मी से सराबोर डांस का शराब पीते हुए मज़ा ले रहे थे। उनके द्वारा नशे में झूमती बालाओं पर धड़ाधड़ नोट भी बरसाये जा रहे थे। ‘शिव शक्ति’ नामक इस बार में अलग से एक कमरा भी था, जहां पर खासमखास ग्राहक मदहोशी की हालत में लोटपोट हो रहे थे। कुछ तो अपनी पसंद की युवतियों को अपनी गोद में बिठा कर अश्लील हरकतें कर रहे थे।
मायानगरी मुंबई की तर्ज पर नागपुर में भी ऐसे कई बार हैं, जहां पर आर्केस्ट्रा का लाइसेंस लेकर नये किस्म की वेश्यावृत्ति करवायी जाती है। नियमित आने वाले रईसों, अपराधियों को विशेष छूट देने का भी प्रावधान है। बार गर्ल पर नोटों की बरसात करने की जिसकी जितनी क्षमता होती है, उसकी उसी के अनुसार पूछ परख और इज्ज़त होती हैं। शहर में कुछ करोड़पति मतवाले ऐसे भी हैं जिनका इन महफिलों में पहुंचना रोज का काम है। उन्हें करारे नोट उड़ाने के अलावा बार गर्ल को नोटों के हार पहनाने में अलौकिक आनंद आता है। मुंबई की तर्ज पर नागपुर में भी ऐसे उद्योगपतियों, नेताओं और माफियाओं की भरमार है जिनके अधिकांश खाकी वर्दीधारियों से मधुर संबंध हैं और इन्हीं की बिरादरी के अधिकांश लोग ऐसे अय्याशी के अड्डों की जान, शान हैं। पुलिस कभी-कभार छापा मारने का नाटक कर अपने होने के निशानी छोड़ती रहती है। फिर गहरी नींद में लीन हो जाती है। जागरूक जनता लाख जगाने की कसरत करती रहे, लेकिन उसकी हर मेहनत धरी की धरी रह जाती है। एक सच जिस पर बहुत कम गौर किया जाता है, वो ये भी है कि ब्यूटी पार्लरों, मसाज के विभिन्न चमकते-दमकते ठिकानों, यूनी सेक्स सैलूनों, फार्म हाऊसों में अपना जिस्म बेचती जिन लड़कियों, औरतों की पकड़ा-धकड़ी की नौटंकी की जाती है उन्हें बड़े सम्मान और सहानुभूति के साथ पीड़िता दर्शाया जाता है। जबकि इनमें से अधिकांश बार-बार पकड़ में आती रहती हैं। फिर भी बेचारी, भोली-भाली और नादान पंछी घोषित कर आजाद उड़ने के लिए छोड़ दी जाती हैं। सच तो यह है कि हमारे यहां अपराध कर्म में पुुरुषों से प्रतिस्पर्धा करती महिलाओं को कुछ ज्यादा ही छूट दी जा रही है। कल तक स्त्रियां दहशत में थीं, आज पुरुष डरे-सहमे हैं। कभी किसी पति का शव नीले ड्रम में मिलता है तो कभी किसी अंधी गहरी खाई में उसका शव पाया जाता है। हर नारी अपना जीवनसाथी चुनने के लिए स्वतंत्र है। माता-पिता के चयन पर आपत्ति दर्शाने का हर युवती को पूरा-पूरा हक है। लेकिन गलत फैसले और नकाबपोशी उन्हें कलंकित करते हुए कठघरे में खड़ा कर देती है। अभी हाल ही में रेलगाड़ी से इंदौर से कटनी के लिए निकली एक 29 वर्षीय युवती अपनी मर्जी से बड़े शातिर अंदाज से अपने मित्र के साथ गायब हो गई। इस गुमशुदा युवती को खोजने के लिए पचासों पुलिस वाले जमीन-आसमान एक करते रहे लेकिन वह हाथ नहीं लगी। उसके गुम होने को लेकर कई तरह की शंकाएं जन्मती रहीं। कहीं चलती टे्रन से गिर तो नहीं पड़ी। किसी बदमाश ने अपहरण तो नहीं कर लिया। लोग युवती के प्रति सहानुभूति तो पुलिस को कोसते हुए उसे नालायक ठहराते रहे। पुलिस को गुमराह करने के लिए शातिर लड़की ने जंगल में अपना मोबाइल फेंक दिया था। अपना सामान तक ट्रेन में लावारिस छोड़ चलती बनी थी। यह युवती वकील है। जज बनने का सपना देख रही थी। घरवाले उसकी शादी के लिए योग्य साथी तलाश कर रहे थे लेकिन वह तो अपने यार के साथ जिन्दगी गुजारने की ठाने थी, इसलिए उसके साथ बीच रास्ते में उतरी और अपहरण का नाटक रचते हुए जा पहुंची नेपाल। पुलिस उसे तलाशने के लिए जहां-तहां नाचती रही। यह तो अच्छा हुआ कि गुमराह करने में माहिर शातिर वकीलन को तेरह दिन बाद काठमांडु से बरामद कर लिया। यदि नहीं मिलती तो हंगामा मचा रहता कि इस देश में औरतें बिल्कुल सुरक्षित नहीं हैं। चलती रेल गाड़ियों से उन्हें गायब करवा दिया जाता है। इसे आप नारी के आधुनिक और प्रगतिशील होने का प्रमाण कहेंगे या कुछ और? मैंने तो जब यह खबर पढ़ी तो सन्न रह गया। रामपुर जिले के एक गांव की महिला, जो शादीशुदा होने के बावजूद दस बार अपने पुराने आशिक के साथ भाग चुकी है। अपनी इस भगौड़ी पत्नी से परेशान पति ने अंतत: पंचायत की शरण ली। महिला ने पंचों के सामने स्पष्ट कहा कि मैं पंद्रह दिन अपने प्रेमी के साथ तो पंद्रह दिन पति के साथ रहूंगी। यदि पति को मंजूर है तो ठीक नहीं तो मेरे लिए तो प्रेमी के घर के दरवाजे खुले हैं। जहां मैं मौज मजे के साथ रहने में देरी नहीं लगाऊंगी।
Thursday, August 21, 2025
ऐसे छिन रहा बच्चों का बचपन
मोबाइल की चाहत और उसकी लत कई खौफनाक मंजर दिखा रही है। ऐसी कभी कल्पना नहीं की गई थी कि मोबाइल की वजह से आत्महत्याएं होने लगेंगी। बीते दिनों एक सोलह साल के किशोर ने अपनी मां से मोबाइल की मांग की। मां ने असमर्थता प्रकट कर दी तो वह बहुत निराश और आहत हो गया। जैसे उसकी दुनिया ही लुट गई हो। वह मां के सामने ही ऊंची पहाड़ी से कूद गया। अस्पताल ले जाते समय रास्ते में ही उसकी मौत हो गई। दो अन्य और पंद्रह वर्षीय किशारों ने भी यही रास्ता चुना। गरीब किसान पिता के पास बेटे को मोबाइल दिलाने के पैसे नहीं थे। बेटे ने खेत में जाकर पेड़ से लटक कर फांसी लगा ली। इसी तरह से अपने जन्मदिन पर पुत्र ने उपहार में मां से मोबाइल मांगा तो उसने कुछ दिन इंतजार करने को कहा, लेकिन उसे मोबाइल से ज्यादा अपनी जान ज्यादा सस्ती और गैर जरूरी लगी। वह कीटनाशक पीकर इस दुनिया से ही चल बसा।
सोचो तो बड़े कमाल की चीज़ है यह मोबाइल। छोटों के साथ-साथ बड़े भी इसके चक्रव्यूह में छटपटा रहे हैं। इसकी वजह से तनाव व अनिद्रा के चंगुल में फंस रहे हैं। कई घरों की मां-बहनें अपने तीन-चार साल के बच्चों को मोबाइल ऐसे पकड़ा रही हैं जैसे वो बच्चे-बच्ची के मन बहलाने का कोई बेहतरीन खिलौना हो। रोते लाडले-लाडली को मोबाइल से बहलाने, चुप कराने और हंसाने वाले पालकों की जब मोबाइल की वजह से ही रोने की नौबत आती है तब उन्हें अपनी गलती का अहसास तो होता है, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती। है।
मासूम और नादान से लगने वाले बच्चों की मोबाइल की जिद्दी चाहत जब उन्हें खुदकुशी के लिए उकसाती है तो वह अंतत: दिल दहलाने वाली खबर भी बन जाती है। जिसे पढ़ने और सुनने के बाद लोग भूलने में भी देरी नहीं लगाते। लेकिन जिन पर बिजली गिरती है उनके जख्म कभी भी भर ही नहीं पाते। आज के आपाधापी के मायावी दौर ने माता-पिता को बहुत व्यस्त कर दिया है। उनके पास अपने बच्चों की देखरेख के लिए पर्याप्त वक्त नहीं। एक खबर जो मैंने पढ़ी, हो सकता है, आपकी आंखों के सामने से नहीं गुजरी हो, उससे मैं आपको अवगत कराये देता हूं। खबर पंजाब के लुधियाना शहर की है लेकिन ऐसे हालात देश में अब हर कहीं हैं। कोई भी शहर इससे अछूता नहीं। गांव भी इसकी चपेट में हैं। धन-दौलत के चक्कर में रिश्तों की अहमियत को ताक पर रख चुके कामकाजी पालकों के पास अपने बच्चों के लिए भी समय नहीं। अपनी औलादों की देखभाल के लिए उन्हें नौकरानी, आया नर्स आदि रखनी पड़ रही हैं। वही उन्हें नहलाती, सुलाती और खिलाती हैं। बच्चे उनसे जो मांगते हैं, देने की पूरी कोशिश करती हैं। अपना मोबाइल भी मालिकों के बच्चे-बच्ची को खुशी-खुशी पकड़ा कर अपने दूसरे कामों में व्यस्त हो जाती हैं। लुधियाना के एक बड़े नामी-गिरामी उद्योगपति बहुत व्यस्त रहते थे। उनकी पत्नी के पास भी ढेरों समाजसेवा के काम थे, इसलिए वह भी अपने सात साल के बेटे की देखरेख के लिए समय नहीं निकाल पाती थीं। सुबह से रात तक नौकरानी ही बच्चे के साथ रहती। वही उसे नहलाती, खिलाती और तैयार करती। कभी-कभार वह बच्चे के साथ रात को सो भी जाती। किसी छुट्टी के दिन पति-पत्नी को जब लगा कि उनका बच्चा नौकरानी से अत्याधिक जुड़ाव महसूस करने लगा है तो उन्होंने नई नौकरानी रखने को लेकर आपस में बातचीत की। बच्चे ने जब उनकी यह बात सुनी तो उसने झट से कहा कि यही मेरी मां है। अगर यह जाएगी तो मैं भी इसके साथ जाऊंगा। आपके साथ नहीं रहूंगा। इसी तरह से शहर के एक डॉक्टर दंपति का छह साल का बेटा छुट्टी के दिन भी अपनी मां की गोद में जाने के बजाय आया के पास बैठा रहता। इसी दौरान रात को एक बार जब बच्चे को पिता के पास सोने को कहा गया तो भावनात्मक तौर पर मां-बाप से पूरी तरह दूर और कट चुके बच्चे ने साफ मना कर दिया। उसने आया के साथ सोकर अपनी जिद पूरी की तो डॉक्टर दंपति को यह बात बहुत खटकी। लेकिन अब उनके पास और कोई चारा नहीं। एक छह साल की बच्ची ने जब मोबाइल नहीं दिये जाने पर मां से यह कहा कि आया दीदी बहुत अच्छी हैं, आप बहुत बुरी हैं। जब देखो तब आप मुझे बस डांटती रहती हैं। मेरी कोई बात नहीं मानतीं। दीदी तो अपना मोबाइल झट से मेरे हाथ में पकड़ा देती है। जब एक उच्च पद पर कार्यरत महिला अफसर ने देखा कि उनका छह साल का बेटा आया की बोली, लहजे और शब्दों में बात करने लगा है। बात-बात पर चीखने-चिल्लाने और गालियां भी देने लगता है तो उनकी तो नींद ही उड़ गई। दरअसल, उनकी आया दूसरे राज्य की बोली में बात करती थी और भद्दी-भद्दी गालियां देने में भी संकोच नहीं करती थी। अफसर जब चाइल्ड एक्सपर्ट के पास पहुंची तो उन्होंने बताया कि छोटे बच्चे वहीं भाषा अपनाते हैं जो वे सबसे ज्यादा सुनते हैं। अब अफसर मां समय निकालकर रोज आधा घंटा बच्चे को प्रेरक कहानी और सही शब्दों का अभ्यास कराती हैं। मनोचिकित्सकों का कहना है कि बच्चों की परवरिश में मां-बाप की अहम भूमिका होती है, अगर वे व्यस्त हैं तो भी रोज कम से कम एक-दो घंटे बच्चों के साथ जरूर बिताएं, ताकि बच्चे खुद को मां-बाप से जुड़ा महसूस करते रहें। बच्चा रोज जिसके साथ होता है, वही उसकी भाषा, व्यवहार और इमोशन तय करता है। अगर वह दिनभर आया के साथ है तो उसके लिए मां की अहमियत कम होती चली जाती है। शुरुआती छह साल बच्चों के व्यवहार और सोच को आकार देते हैं। अगर इन सालों में मां-बाप दूरी बना लें तो बाद में बच्चे का उनसे जुड़ना मुश्किल हो जाता है। मां-बाप की अनदेखी और कमजोर परवरिश उन्हें इस कदर गुस्सैल बना देती है कि वे उनसे नफरत तक करने लगते हैं। अकेलेपन और माता-पिता के सौतेलेपन के शिकार बच्चे अपराध की दुनिया से भी आसानी से जुड़ जाते हैं। इसकी गवाह हैं, शहरों में कुछ सालों में नाबालिगों के अपराध करने की घटनाओं में लगातार बढ़ती संख्या। हाल ही के वर्षों में चोरी, लूटपाट, मारपीट, बलात्कार और हत्या जैसे संगीन अपराधों में नाबालिगों केलिप्त होने की खबरों ने विचारकों को चिंताग्रस्त कर दिया है। अत्यंत दुखद पहलू तो यह भी है कि किशोरों को शराब, गांजा, चरस और हुक्का पीने का शौक उन्हें नशेड़ी बना रहा है। इस कुचक्र में बालक ही नहीं बालिकाएं भी फंसती चली जा रही हैं। बीते हफ्ते नागपुर में रहने वाली दो बालिकाओं ने मिलकर छत्तीसगढ़ में अपनी ही दादी की हत्या कर दी। गांजा, एमडी जैसे मादक पदार्थों की डिलिवरी में जब नाबालिग पकड़े जाते हैं तो पुलिस का माथा भी चकरा जाता है। खबरें बताती हैं कि किशोर उम्र के बच्चे नशे के लिए पैसे चुकाने के लिए चोरी, ठगी और अपहरण जैसे अपराधों में अपनी भागीदारी दर्शा रहे हैं। कई नाबालिगों ने तो अपहरण, धोखाधड़ी और बलात्कार जैसे संगीन अपराधों को अंजाम देकर अपने भविष्य को पूरी तरह से अंधकारमय कर लिया है...।
Monday, August 18, 2025
ऐसे कैसे खोता मनोबल?
संतरानगरी नागपुर में स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) में एमबीबीएस अंतिम वर्ष के छात्र संकेत दाभाड़े ने होस्टल में शाल की मदद से फांसी लगा ली। संकेत एक होनहार छात्र था। उसके डॉक्टर बनने में मात्र एक वर्ष ही बाकी था। माता-पिता बहुत खुश थे। उनका सपना जो साकार होने जा रहा था। संकेत के पिता शिक्षक हैं। मां संस्कारी, परिश्रमी गृहिणी हैं। कॉलेज के पहले दस अत्यंत होशियार विद्यार्थियों में गिने जानेवाले संकेत ने खुदकुशी क्यों की, इसका भी जवाब नहीं मिल पाया। उसके रहन-सहन और बर्ताव से कभी भी ऐसा नहीं लगा कि वह किसी परेशानी में है। वह नियमित डायरी लिखा करता था। देश की राजधानी दिल्ली के पॉश इलाके बंगाली मार्केट के एक गेस्ट हाऊस में ठहरे धीरज नामक चार्टेड अकाउंटेंट (सीए) ने भी खुदकुशी की, लेकिन उसकी खुदकुशी का तरीका स्तब्ध करने वाला है। आर्थिक तौर पर अच्छे-भले धीरज ने आत्महत्या की पूरी तैयारी के साथ गेस्ट हाऊस में प्रथम मंजिल पर 28 से 30 जुलाई तक के लिए एक बीएचके बुक कराया था। चेक आउट का समय आने पर जब कर्मचारियों ने दरवाजा खटखटाया तो उन्हें कोई प्रतिक्रिया और हलचल नहीं दिखायी दी। उलटे उन्हें अंदर से आ रही असहनीय बदबू की वजह से नाक पर रूमाल रखना पड़ा। खबर पुलिस तक पहुंचायी गयी। दरवाजे को तोड़ने पर धीरज का शव बिस्तर पर पड़ा मिला। मृतक ने एक मास्क पहना हुआ था, जो पतली नीली पाइप के माध्यम से एक वाल्व और मीटर वाले सिलेंडर से जुड़ा हुआ था। उसके चेहरे पर एक पतली पारदर्शी प्लास्टिक लिपटी हुई थी और गर्दन पर सील थी। घातक तरीके से मुंह में पाइप डालकर शरीर के अंदर हीलियम गैस को प्रवेश करा कर खुदकुशी करने वाला धीरज बिना तड़पे मौत का आलिंगन करना चाहता था। पाइप से शरीर में हीलियम गैस डालकर आत्महत्या करने का यह पहला मामला है। धीरज ने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि, मैं जा रहा हूं। इसके लिए किसी को कसूरवार न ठहराया जाए। मौत मेरे लिए जीवन का ही एक खूबसूरत हिस्सा है। मेरी नज़र में खुदकुशी करना गलत नहीं है। वैसे भी यहां मेरा अपना कोई नहीं। फिर मेरा भी किसी से कोई जुड़ाव नहीं रहा। धीरज के पिता की 2003 में मृत्यु हो गई थी और मां ने उनकी मौत होते ही किसी और से शादी कर ली थी।
भारत के महानगर विशाखापटनम में कलेक्टर के पद पर आसीन चालीस वर्षीय आनंदम ने रेल की पटरी पर सिर रख कर अपनी जान दे दी। इन युवा महत्वाकांक्षी कलेक्टर महोदय को बेहतरीन प्रशासन और मिलनसार स्वभाव का धनी माना जाता था। उनसे जो भी एक बार मिल लेता, हमेशा-हमेशा उनको याद रखता। महिलाओं में खासे लोकप्रिय रहे आनंदम की दिल दहलाने वाली खुदकुशी की वजह हैं उनकी अर्धांगिनी, जिन्हें वो जी-जान से चाहते थे। उनकी एक पांच साल की प्यारी-प्यारी बिटियां भी है। पत्नी भी रेलवे में उच्च पद पर कार्यरत है। ऐसी जोड़ियों को हमारे यहां बहुत खुश नसीब माना जाता है, लेकिन यहां एक गड़बड़ थी। वैसे ऐसी परेशानियां अधिकांश घर-परिवारों में आम हैं। कलेक्टर की पत्नी की अपनी सास से नहीं निभ रही थी। जब देखो तब घर में कलह-क्लेश मचा रहता था। कलेक्टर साहब अपनी बीवी के साथ-साथ मां को भी समझाते-समझाते थक गये थे। इस घरेलू जंग की वजह से मां और बीवी दोनों उन्हें ही कोसते रहते। तमाम बाहरी समस्याओं का चुटकी से हल निकालने वाले कलेक्टर को एक दिन लगा कि वे घर के मोर्चे की जंग पर अंकुश लगाने में सक्षम नहीं हैं। उनकी जिन्दगी नर्क बनती चली जा रही है। जीवन भी बोझ हो चला है। जब उनकी पत्नी और मां को उनकी खुदकुशी की खबर मिली तो उनका रो-रोकर बुरा हाल था। उन्हें अपनी गलती पर पछतावा भी था, लेकिन उन्हीं की वजह से निराश और हताश होकर जाने वाला अब वापस तो नहीं आने वाला था।
नारंगी नगर के ही एक डॉक्टर को बीमारी, परेशानी और अकेलेपन ने अपने जबड़ों में ऐसा जकड़ा कि उन्होंने जहर खा लिया। मौत के मुंह में समाने के लिए उन्होंने पत्नी को भी राज़ी कर ज़हर का सेवन कराया। डॉक्टर तो चल बसे, लेकिन पत्नी अस्पताल में जिन्दगी और मौत के बीच झूल रही है। दूसरों की जान बचाने वाले डॉक्टर ने खुदकुशी करने से पहले जो सुसाइड नोट लिख कर छोड़ा, उसमें इसके लिए किसी को दोषी नहीं ठहराया। डॉक्टर गंगाधर पिछले काफी समय से पेट के अल्सर और दांतों की गंभीर बीमारी से लड़ रहे थे। लगातार इलाज के बाद भी जब स्थिति नहीं सुधरी तो खुदकुशी को ही अंतिम इलाज मान लिया। ऐसा भी कतई नहीं था कि गंगाधर की प्रैक्टिस नहीं चलती थी। जानने-पहचानने वाले सभी लोग उन्हें सफल और सुलझा हुआ डॉक्टर मानते थे। उनके क्लिनिक में पहुंचने वाले मरीजों को उनके इलाज पर भी भरोसा था। पति-पत्नी दोनों घर में अकेले रहते थे। उनकी बेटी एक निजी स्कूल में शिक्षिका हैं और बेटा उत्तराखंड में एक स्टील प्लांट में अकाउंटेंट है।
पुलिस को घटनास्थल की जांच के दौरान तीन सुसाइड नोट के साथ-साथ दो कीटनाशक की बोतलें भी मिलीं। यह आत्महत्या करने वाले सभी चेहरे उन खास लोगों में शामिल हैं, जिनसे समाज को अनंत अपेक्षाएं रहती हैं। लोगों को खुश और संतुष्ट रखने की जिम्मेदारी इनके कंधों पर होती है। इनके ही इस तरह से मर जाने पर लोग आसानी से यकीन नहीं कर पाते। बस हतप्रभ रह सोचते रह जाते हैं कि क्या इनके पास कोई और विकल्प नहीं था? जब खुद पर आती है, तो अच्छा भला मनुष्य इतना असहाय, निर्बल और दिशाहीन क्यों हो जाता है? जिन्दगी तो विधाता का सौंपा गया एक अनमोल उपहार है, उसे सहेज और संवार कर रखने की बजाय यूं ही गंवा देना सवाल तो खड़े करता ही है। जहां लोग अपनी लंबी उम्र के लिए तरह-तरह के जतन करते हों, वहीं पर ऐसे लोगों की मौजूदगी सहानुभूति और मान-सम्मान की हकदार भी नहीं लगती। कोरोना की महामारी ने इंसानों को जीवन का मोल समझा दिया था। वैसे भी बीते कुछ वर्षों से भारतीयों में स्वास्थ्य के प्रति सतर्क रहने की भावना बलवती हुई है। सेहतमंद बने रहने के लिए बेहतर खान-पान, मार्निंग वॉक, योग, मेडिटेशन और जिम जाने के चलन में जबरदस्त बढ़ोत्तरी हुई है। पहले जहां पचपन-साठ साल की उम्र में अधिकांश लोग बिस्तर पकड़ लेते थे, अब सत्तर-अस्सी की उम्र में भी कई स्त्री-पुरुष भागते-दौड़ते दिखायी देते हैं। सतत ऊर्जावान, सेहतमंद और लंबी आयु जीने के मामले में पूरे विश्व में जापानियों को प्रेरणा स्त्रोत माना जाता है। जापान में 70-80 साल की महिलाएं टैक्सी चलाती देखी जा सकती हैं। 100 साल की उम्र के बुजुर्ग खुद अपने लिए खाना बनाते हैं। बागवानी करते हैं। अच्छी तरह से देख और सुन सकते हैं। सकारात्मक सोच, पौष्टिक भोजन, नियमित मॉर्निंग और इवंनिंग वॉक तथा चिन्तामुक्त भरपूर नींद जापानियों की लंबी उम्र का जबरदस्त टॉनिक है। अभी हाल ही में जापान की 114 वर्षीय सेवानिवृत्त चिकित्सक शिगेको कागावा चल बसीं। कागावा ने द्वितीय विश्व युद्ध से पहले मेडिकल स्कूल से स्नातक की डिग्री प्राप्त की थी। युद्ध के दौरान ओसाका के अस्पताल में अपनी सेवाएं देने के प्रश्चात प्रसूति एवं स्त्री रोग विशेषज्ञ के रूप में अपने परिवार के क्लिनिक का संचालन किया। वह 86 वर्ष की आयु में जब सेवा निवृत्त हुईं तब भी उनकी चुस्ती-फुर्ती में कोई फर्क नहीं आया था। उनसे जब उनकी बेहतरीन सेहत और लंबी उम्र का राज पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘मेरे पास कोई रहस्य नहीं है। मैं बस रोज अपने मनपसंद गेम खेलती हूं। सकारात्मक सोचती हूं। मेरी ऊर्जा ही मेरी सबसे बड़ी पूंजी है। मैं जहां चाहती हूं, वहां तुरंत चली जाती हूं। जो चाहती हूं, वही खाती हूं और जो चाहती हूं, वही करती हूं। एकदम स्वतंत्र होने का यही एहसास मेरा हमेशा मनोबल बढ़ाता है।’