Thursday, April 24, 2025

काला-गोरा

 कुछ दिन पूर्व मैं अपने एक डॉक्टर मित्र के यहां बैठा था। तभी एक गोरी-चिट्टी महिला लगभग साल सवा साल के बच्चे को गोद में लेकर वहां पहुंची। वह काफी घबराई-घबराई-सी लग रही थी। मुझे लगा कि मासूम बच्चे की तबीयत ज्यादा खराब होगी, इसलिए मां चितिंत और परेशान है, लेकिन उसने जो समस्या बयां की, उससे हतप्रभ मैं उसे देखता रह गया। ‘‘डॉक्टर साहब, मेरे इस बच्चे का रंग बहुत काला है, प्लीज़ कोई ऐसी दवा या इंजेक्शन दीजिए, जिससे यह एकदम गोरा हो जाए। इसके लिए मैं कोई भी कीमत देने को तैयार हूं। देखिए न... मैं कितनी खूबसूरत हूं और इसके पिता भी गोरे-चिट्टे, हैंडसम हैं, लेकिन यह पता नहीं किस पर गया है। रिश्तेदार तथा यार-दोस्त भी इसके रंग पर जिस तरह से हैरत जताते हैं, उससे मुझे बहुत ठेस पहुंचती है। दु:खी और आहत मन को काबू में लाना मुश्किल हो जाता है।’’ बेचैन महिला की पीड़ा जानने के बाद डॉक्टर हल्के से मुस्कराए, फिर बोले, ‘‘काले को गोरा बनाने का अभी तक तो कहीं भी कोई इलाज ईजाद नहीं हो पाया है। वैसे भी यह कोई गंभीर समस्या नहीं है। इसलिए आप अपने बच्चे के रंग को लेकर चिंतित और परेशान होना छोड़ उसकी बेहतर परवरिश पर ध्यान देंगी तो यही बच्चा भविष्य में आपके परिवार का नाम ऐसा रोशन करेगा कि आप सबकुछ भूल जाएंगी। आपको पता होना चाहिए कि सांवले या काले रंग वाले बच्चों ने बड़े होकर कई क्षेत्रों में सफलता के नये-नये आयाम रचे हैं। आपने फिल्म अभिनेता मिठुन चक्रवर्ती और नवाजुद्दीन सिद्दीकी की कोई न कोई फिल्म तो जरूर देखी होगी। दोनों को काले रंग का होने के कारण फिल्म निर्माता शुरू-शुरू में अपने पास फटकने ही नहीं देते थे, लेकिन इन्होंने जिद और जुनून का कसकर दामन थामे रखा। ऐसे में जब फिल्म मिली तो अपने अभिनय कौशल का ऐसा झंडा गाड़ दिखाया कि दुत्कारने वालों को भी शर्मसार होना पड़ा। मिठुन चक्रवर्ती ने तो अपनी पहली फिल्म ‘मृगया’ में प्रभावी अभिनय कर राष्ट्रीय पुरस्कार अपने नाम किया तो वहीं नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने भी देश और दुनिया में भरपूर नाम कमाया और पुरस्कार जीते। दोनों फिल्मी सितारे वर्षों से फिल्मी दुनिया में अपनी चमक-दमक बनाये हुए हैं। यह अलग बात है कि बॉलीवुड ने आज भी पूरी तरह से अपनी मानसिकता नहीं बदली है।’’ महिला डॉक्टर की बातों को बड़े ध्यान से सुनने के बाद मुस्कराते हुए उठ कर चल दी। 

महिला के जाने के बाद मैंने अपने मित्र से प्रश्न किया कि उसे महिला को इतना सारा ज्ञान का डोज पिलाने की आखिर क्या जरूरत थी? सिर्फ यह कहकर उसे चलता किया जा सकता था कि, काले को गोरा बनाना किसी भी हालत में संभव नहीं। मित्र ने जो जवाब दिया उससे मैं चौंका। मेरी आंखें भी खोल दीं, 

‘‘अपने यहां ऐसे डॉक्टर भी भरे पड़े है, जो रईसों की जेबें काटने के लिए ही डॉक्टर बने हैं। यह सौदागर किस्म के चेहरे काले को गोरा बनाने के लिए तरह-तरह के कैप्सूल और इजेक्शन लगाकर मोटी फीस वसूल करते रहते हैं। मैं नहीं चाहता था कि यह महिला किसी ऐसे डॉक्टर के जाल में फंस कर लाखों रुपए लुटाए और अंतत: माथा पीटती रह जाए। मैं यह भी जानता हूं कि यह महिला इतनी जल्दी हार नहीं मानेंगी और पांच-सात डॉक्टरों के यहां जरूर जाएगी। मेरे यहां सांवली और काली त्वचा वाली बेटियों के मां-बाप भी अक्सर आते रहते हैं। उनकी बेचैनी तो और भी देखते ही बनती है। बेटी के काले रंग को गोरे रंग में तब्दील करवाने के लिए वे कोई भी कीमत देने को तत्पर नजर आते हैं। जिस बच्ची ने अभी चलना भी नहीं शुरू किया उसके वैवाहिक संबंधों को लेकर उनकी नींद उड़ी रहती है। अपने देश में काले या सांवले रंग की बेटियों के रिश्ते आसानी से तय नहीं होते। काले रंग के युवा भी गोरी युवती की ही चाहत रखते हैं। कई मां-बाप तो यह भी मानते हैं कि काले लड़के या लड़की की संतान भी गोरी जन्मने से रही। वे इस तथ्य को नजरअंदाज कर देते हैं कि गोरे मां-बाप को यदि तीन संताने हैं, तो सभी का रंग एक सा नहीं होता। किसी बच्चे का रंग काला या सांवला भी होता है। कुछ हफ्ते पूर्व केरल की मुख्य सचिव शारदा मुरलीधरन ने अपनी त्वचा को लेकर की जाने वाली टिप्पणियों और तानों को लेकर बहुत कुछ कहा और बताया। देश के सबसे शिक्षित राज्य केरल में रंग को लेकर ऐसा भेदभाव है तो दूसरे प्रदेशों के लोगों की सोच की बड़ी आसानी से कल्पना की जा सकती है। शारदा मुरलीधरन कहती हैं कि मैं अक्सर सोचती रह जाती हूं कि लोगों को काले रंग से इतनी चिढ़ क्यों है? काला, तो इस ब्रह्मांड की सर्वव्यापी सच्चाई है। यह काला रंग ही है, जो सब कुछ अपने भीतर समा लेता है। शारदा बताती हैं कि जब मैं चार साल की थी तो मां से बार-बार पूछा करती थी कि क्या मुझे अपनी कोख में दोबारा डाल सकती हैं और झक गोरा तथा सुंदर बनाकर निकाल सकती है? शारदा की जैसे-जैसे उम्र बढ़ती गई, अपने रंग की चिंता से मुक्त होती चली गईं। उन्होंने पढ़ाई-लिखाई पर अपना संपूर्ण ध्यान केंद्रित रख उच्च शिक्षा प्राप्त की। उनकी योग्यता ने ही उन्हें वी.वेणु जैसे खूबसूरत शासकीय अधिकारी की जीवनसाथी बनने का सौभाग्य प्रदान किया। यह भी काबिलेगौर है कि अपने पति वी.वेणु के रिटायर होने के पश्चात शारदा केरल की मुख्य सचिव बनीं हैं। 

फिल्म अभिनेत्री नीना गुप्ता की पुत्री हैं, मसाबा गुप्ता। नीना गुप्ता ने विदेशी क्रिकेटर विवियन रिचर्ड से शादी किए बिना शारीरिक रिश्ता बनाते हुए मसाबा को जन्म दिया था, क्रिकेटर का रंग काला है। मोसाबा भी उसी पर गयी हैं। अब 35 वर्ष की हो चुकी हैं। अपना अच्छा खासा व्यवसाय है, लेकिन लोग अब भी काली कहकर नीचा दिखाने से बाज नहीं आते, लेकिन वह अपनी मस्ती में जीवन जीती हैं। फिल्म अभिनेत्री और निर्देशक नंदिता दास कहती हैं लोग उनकी त्वचा के रंग पर कटाक्ष क्यों करते हैं। मैंने फिल्मों में अभिनय करने के साथ-साथ निर्देशन भी किया है। मेरी प्रतिभा पर बोलने और लिखने की बजाय मेरे रंग पर जाने वालों पर अब तो मुझे दया आने लगी है। एक महत्वकांक्षी मॉडल-अभिनेत्री जो कभी विख्यात स्किन-व्हाइटनिंग क्रीम ब्रांड, दास ग्लो एंड लवली के विज्ञापनों में छायी रहती थी, उसी को हाल ही में एक टेलीविजन शो में मुख्य भूमिका से वंचित कर दिया गया, क्योंकि उसकी त्वचा का रंग काफी सांवला है, लेकिन उसे इसका कोई गम नहीं। वह अपने तरीके से जीने में यकीन रखती है। उसके लिए हर दिन जश्न है। जब कोई कटाक्ष करता है तो वह मुस्कुराते हुए इतना भर कह देती है, ये रंग मुझे अपने मां-बाप से मिला है, जिनकी तो मैं पूजा करती हूं...।

Thursday, April 17, 2025

रघु का सपना

चित्र - 1 : नेताजी दूसरी बार लोकसभा चुनाव में विजयी हुए। इस बार जीत का हार पहनने के लिए उन्हें ऐसे-ऐसे पापड़ बेलने पड़े, जिसकी उन्होंने कल्पना ही नहीं की थी। उन्हें धूल चटाने के लिए सभी विरोधी दल एकजुट हो गये थे। उनका एक ही मकसद था कि नेताजी किसी भी हालत में सांसद न बन पाएं, लेकिन पिछले चुनाव की तरह इस बार भी धनबल ने अंतत: अपना चमत्कार दिखा ही दिया। उनके हजारों कार्यकर्ताओं की भीड़ ने भी कम दम नहीं लगाया। नेताजी ने अपने सभी कार्यकर्ताओं को उनकी हैसियत के अनुसार थैलियां थमाने में भरपूर दरियादिली दिखायी। इन कार्यकर्ताओं में विधायक और पार्षद भी शामिल थे, जिन्हें आगामी महानगर पालिका और विधानसभा के चुनाव में टिकट देने का आश्वासन देकर अपने खूंटे से ऐसे बांधा गया था, जैसे बैल और बकरी के सामने चारा डालकर उन्हें इधर-उधर न ताकने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। नेताजी की चुनावी जीत का जश्न चार दिन पहले मनाया जा चुका था। आज उनके केंद्रीय मंत्री बनने पर गुलदस्तों और मिठाई के डिब्बों के साथ कार्यकर्ताओं और तरह-तरह के लोगों का हुजूम कोठी को खचाखच कर चुका था। कुछ अतिउत्साही कार्यकर्ता कोठी की बाउंड्रीवॉल पर चढ़कर नेताजी के नाम का जयकारा लगा रहे थे। नेताजी के सुरक्षाकर्मी भीड़ को नियंत्रित और संयमित होने का अनुरोध कर रहे थे, लेकिन जीत का जोश उन्हें बेकाबू और बेचैन किये था। भीड़ को बार-बार यह भी बताया जा रहा था कि नेता जी आज सुबह ही मंत्री पद की शपथ लेकर दिल्ली से लौटे हैं। उन्हें तैयार होकर आने में कम अज़ कम दो घण्टे लग सकते हैं। जोश में मस्तायी भीड़ के लिए दो घण्टे दो मिनट समान थे। उसे इन्तजार करने और नारे लगाने की जन्मजात आदत थी। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, भीड़ को संभालना मुश्किल होता चला जा रहा था। शहर के जाने-माने-उद्योगपति, व्यापारी, ठेकेदार और अखबारों और न्यूज चैनलों के वो संपादक और मालिक, जिन्होंने नेता जी के आरती गान की सभी सीमाओं को लांघ कर पत्रकारिता और चापलूसी के अंतर की निर्ममता से हत्या कर दी थी, गुलदस्तों और हारों के साथ पहुंच चुके थे। कुछ तो पांच सौ और दो हजार के नोटों के हार भी लाये थे। उन्हें नेताजी के निजी कमरे में शोभायमान कर दिया गया था। उनके लिए किशमिश, काजू-बादाम के साथ-साथ तरह-तरह के पेय पदार्थों की भी व्यवस्था थी। 

नेताजी की एक झलक पाने को लालायित भीड़ का साम्राज्य कोठी के सामने की मुख्य सड़क पर भी अपना कब्जा जमाने लगा था। इस भीड़ में पसीने से तरबतर रघु भी खड़ा था। उसके हाथ में एक बड़ा गुलदस्ता था। चार दिन पहले नेताजी के जीतने की खुशी में मनाये गये जश्न की भीड़ में भी रघु शमिल हुआ था, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी उसका नेताजी के निकट जाना संभव नहीं हो पाया था। रिक्शा चालक रघु उस दिन तो खुशी से फूला नहीं समाया था, जब उसकी जर्जर झोपड़ी में नेताजी के चरण पड़े थे। उनके साथ क्षेत्र के पार्षद तथा कई और पार्टी कार्यकर्ता थे, जिन्हें रघु अच्छी तरह से पहचानता था। पार्षद ने रघु की तारीफ करते हुए नेताजी को बताया था कि यह बंदा बड़े काम का है। झोपड़पट्टी के सभी लोग इसी के इशारे पर चलते हैं। यह जिसे वोट देने को कहेगा उसी को उनके वोट मिलेंगे। नेताजी के चेहरे पर चमक आ गई थी। उन्होंने झट से रघु से हाथ मिलाया था। पीठ भी थपथपायी थी। उनके साथ आये एक कार्यकर्ता ने चुपके से पांच-पांच सौ के दस नोट उसकी तरफ बढ़ाये थे, जिन्हें रघु ने यह कहते हुए लेने से इन्कार कर दिया था कि मैंने कभी भी अपना वोट नहीं बेचा। वोट बेचने वालों से मैं नफरत करता हूं। नेताजी उसका चेहरा देखते रह गये थे। उन्होंने जाते-जाते कहा था कि तुम्हारे जैसे ईमानदार वोटरों की बदौलत ही मैंने पिछला चुनाव जीता था। इस बार भी कोई माई का लाल मुझे हरा नहीं सकता। पिछली बार की तरह इस बार भी मेरा मंत्री बनना तय है। चुनाव का परिणाम आने के पश्चात तुम मुझसे जरूर मिलना। तुम सभी झोपड़पट्टी के निवासियों के लिए शीघ्र ही पक्के घरों की व्यवस्था करवा दूंगा।

गर्मी की तपन बढ़ती जा रही थी। रघु का दम घुटने लगा था। उसके कपड़े पसीने से गीले होकर उसके बदन से चिपक गये थे। एकाएक रघु पर उसी की झोपड़पट्टी में रहने वाले विद्रोही नामक पत्रकार की नजर पड़ी तो उसने रघु पर सवाल दागा कि क्या तुम भी नेताजी को उनका वादा याद दिलाने आये हो? रघु हैरान होकर पत्रकार को देखता रह गया। फिर पत्रकार ने बताया कि वोट हथियाने के लिए मतदाताओं से तरह-तरह के वादे करना और मनमोहक प्रलोभनों के जाल फेंकना तो नेताजी का पुराना पेशा है। वोटरों को बेवकूफ बनाने की इसी कला की बदौलत ही तो आज वे सत्ता की बुलंदियों पर हैं। इस भीड़ में तुम जैसे हजारों लोग शामिल हैं, जो नेताजी से मिलने की आस में पहुंचे हैं। चुनाव जीतने के बाद नेताजी को अपने खास लोगों के काम करवाने और उन्हें मालामाल करने से कभी फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में वे तुम जैसे आम लोगों से क्या खाक मिलेंगे! रघु पत्रकार का चेहरा देख रहा था और पत्रकार खिलखिला रहा था। उनकी बातचीत चल ही रही थी कि वहां पर पुलिस वाले भीड़ को खदेड़ने लगे। नेताजी अपने खास लोगों से मेल-मुलाकात करने के बाद सुरक्षाकर्मियों के घेरे में कोठी से निकले और अपनी चमचमाती कार में बैठकर फुर्र हो गये। रघु को बड़ा गुस्सा आया। उसने गुलदस्ते को तोड़ा-मरोड़ा और वहीं सड़क पर फेंक दिया। यह देश के नब्बे प्रतिशत से अधिक नगरों, महानगरों और वहां के जनप्रतिनिधियों की कड़वी हकीकत है इसलिए किसी एक शहर और नेता का नाम लिखना बेमानी है।

चित्र - 2 : अपने देश में विधायक और सांसद का चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं। अथाह धन लुटाने के बाद भी जीत हासिल हो, ऐसा कोई दावा नहीं किया जा सकता। रघु ने कई जमीनी नेताओं को विधायक और सांसद बनते देखा है। चुनाव जीतने के पश्चात जमीन की बजाय आकाश में उड़ने वाले अधिकांश नेताओं की असली फितरत से रघु खूब वाकिफ है। उसने कई नेताओं को अपने रिक्शे पर बैठाकर यहां-वहां घुमाया है। उसने फटेहाल नेताओं को विधायक, सांसद बनने के बाद करोड़ों में खेलते देखा है। उसे यह जानकर हैरानी होती है कि प्रदेश के कुछ नेता हजारों करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं। यह सारी धन-दौलत उन्होंने विधायक, सांसद और मंत्री बनने के बाद जुटायी है। शहर के कुछ नेता भी उनका अच्छी तरह से अनुसरण कर रहे हैं। किसी अनपढ़ विधायक को मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज चलाते देख अब उसे कोई हैरानी नहीं होती। हां, पहले जरूर होती थी। शहर में कुछ नेता ऐसे भी हैं, जिन्होंने चुनाव जीतने के बाद धड़ाधड़ सरकारी जमीनें अपने नाम करायीं और स्कूल, कॉलेज और शराब के कारखाने तान दिए। करोड़ों की जमीने कौड़ी के मोल हथियाने वाले नेताओं में कुछ तो ऐसे हैं, जिनके विभिन्न शहरों में पचासों स्कूल कॉलेज हैं। इन कॉलेजों में गरीब आदमी के बच्चों को प्रवेश ही नहीं मिलता। खुद रघु इसका भुग्तभोगी है। उसके बेटे को योग्य होने के बावजूद मंत्री जी के मेडिकल कॉलेज में दाखिला इसलिए नहीं मिला था, क्योंकि उसकी पचास लाख रुपए डोनेशन देने की औकात नहीं थी। रघु ने मंत्री महोदय की उन दिनों की याद भी दिलायी थी जब वे फटेहाल उसके रिक्शे की सवारी किया करते थे! आज कई कारों और कोठियों के मालिक बन चुके नेताजी बस मुस्कराते रह गए थे। अपने इकलौते बेटे को डॉक्टर बनाने का रघु का सपना धरा का धरा रह गया। कुछ महीने पहले ओडिशा के बालासोर लोकसभा क्षेत्र से सांसद बने प्रताप चंद्र सारंगी शहर में आये हुए थे। रघु ने ही उन्हें शहर घुमाया था। उनका लिबास और व्यवहार देखने के बाद रघु सोचता रह गया था कि कोई सांसद इतना सहज और सरल भी हो सकता है। उसे यह जानकर हैरत हुई थी कि सारंगी ने चुनाव में एक पैसा भी खर्च नहीं किया और करोड़पति को मात दे दी। सारंगी दो बार विधायक भी रह चुके हैं। अपना एक साप्ताहिक अखबार निकालते है, जिसमें आम आदमी की समस्याओं को निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ उठाया जाता है। गांव और शहर की गलियों में पैदल घूमते हैं। चुनाव लड़ने से पहले जिस मिट्टी और बांस के कच्चे घर में रहते थे। वह आज भी जस का तस है। उनके घर के दरवाजे चौबीसों घण्टे सभी के लिए खुले रहते है। उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में कई स्कूल और अस्पताल बनवाये हैं, जहां मुफ्त शिक्षा और इलाज की सुविधा उपलब्ध है। लोकसभा चुनाव जीतकर जब सारंगी संसद भवन पहुंचे थे तब हर कोई इन्हे देखने और मिलने को आतुर था। उनकी ईमानदारी और सादगी को देखते हुए पहली बार सांसद बनने पर भी उन्हें मंत्रिमंडल में जगह दी गई। जब उन्होंने मंत्रीपद की शपथ ली तब तालियां थमने का नाम नहीं ले रही थीं। रघु कहता है कि शहर के अधिकांश नेताओं ने भले ही कितनी-कितनी काली माया बटोर ली हो, लेकिन सारंगी जैसा मान-सम्मान उनके नसीब में नहीं। बेइमानों का लोग भले ही ऊपर-ऊपर से सजदा करते हैं, लेकिन पीठ पीछे भद्दी-भद्दी गालियों से नवाजते हैं। रघु वर्षों से सपना देखता आ रहा है कि, उसके शहर में भी सारंगी जैसा कोई शख्स विधायक और सांसद बने जो हर आम आदमी के सुख-दु:ख का सच्चा साथी हो...।

Thursday, April 10, 2025

अपना-अपना सफरनामा

चित्र-1 : उसने एमए किया था। मां-बाप को यकीन था कि बेटा शीघ्र अच्छी नौकरी हासिल करेगा। सभी तकलीफें दूर हो जाएंगी। उनकी तपस्या रंग लाएगी। उसे शिक्षित करने के लिए उन्होंने साहूकार से अच्छा-खासा लोन लिया था। कर्जे की वसूली के लिए उसने बार-बार घर में दस्तक देनी शुरू कर दी थी। उन्होंने जवान बेटे की किसी अच्छी गुणवान लड़की से शीघ्र शादी करने की पुख्ता योजना भी बना ली थी, लेकिन काफी प्रयास के बाद भी बेटे को मनचाही नौकरी नहीं मिल पायी। उसके चचेरे भाई को बीए पास करने के बाद ज्यादा हाथ पैर नहीं मारने पड़े थे। उसे शहर की विख्यात रेडिमेड कपड़े की दुकान पर हाथों-हाथों सेल्समैन की नौकरी मिलने से उसके परिजन खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। फर्स्ट डिविजन से एमए करने वाले युवक को लगातार मानसिक तनाव में रहना पड़ रहा था। वह ऐसी-वैसी जगह पर नौकरी नहीं करना चाहता था। उसकी तो बस सरकारी नौकरी कर मज़े से दिन काटने की चाह थी। एक दिन की सुबह जब वह काफी देर तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकला तो मां-बाप ने दरवाजा खटखटाया, काफी हो-हल्ला भी मचाया, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। आखिरकार पड़ोसियों के सहयोग से दरवाजे को तोड़ा गया। अंदर युवक का शव फांसी पर लटका मिला। बिस्तर पर जो सुसाइड नोट मिला, उसमें लिखा था, कई महीनों तक चप्पलें घिसने के बाद भी सरकारी नौकरी नहीं मिली। उस पर परिजनों के असफल और नकारा होने के तानों ने मेरा जीना दूभर कर दिया है। इसलिए मैंने मर जाना ही उचित समझा। युवक ने खुदकुशी करने के दौरान अपने मोबाइल में तीन घंटे का वीडियो भी बनाया, जिसमें उसकी अपनी ही हत्या करने की हकीकत रिकार्ड हो गई। अच्छे खासे हट्टे-कट्टे युवक की खुदकुशी से घर में कोहराम मच गया। माता-पिता रो-रोकर कर बेहाल हैं।

चित्र-2 : प्रशांत हरिदास, राजधानी दिल्ली का निवासी है। सरकारी, अर्ध सरकारी और प्राइवेट कार्यालयों के चक्कर काटते-काटते थक गया, लेकिन नौकरी नदारद। निराशा और हताशा ने जब लस्त-पस्त कर दिया उसने खुद के लिए एक शोक संदेश पोस्ट कर दिया। इसमें उसने अपनी तस्वीर पर ‘रेस्ट इन पीस’ लिखते हुए नौकरी की तलाश में मिली हताशा और निराशा का खुलकर वर्णन करते हुए स्पष्ट किया कि, भले ही उसकी नौकरी पाने की कोशिशें रंग नहीं लाईं, लेकिन फिर भी उसने किसी भी तरह से खुद को चोट पहुंचाने की कभी नहीं सोची। मैं खुद को उन लोगों में शामिल कर भगौड़ा और कायर नहीं कहलाना चाहता, जो विपरीत परिस्थिति से घबराकर खुदकुशी कर लेते हैं। अभी मेरी उम्र ही क्या है। मुझे कई वर्षों तक जीते हुए तरह-तरह के खाने का स्वाद चखना है। देश और दुनिया में घूमने फिरने की कई जगहें हैं, जहां की मुझे यात्राएं करनी हैं। करीब तीन साल तक बेरोजगार और अलग-थलग रहने के बाद जो अनुभव मेरे हिस्से में आये हैं, वो भी मेरे लिए बहुत कीमती हैं। इन्होंने ही मुझे बिगड़ी चीज़ों को दुरुस्त करने, नौकरी पाने की और...और कोशिशें करने और जीवन से प्यार करने की प्रेरक ऊर्जा और शक्ति दी हैं।’

चित्र-3 : राजस्थान के बांसवाड़ा में जन्मे बालक कृष्णा के जन्म से ही हाथ- पांव नहीं हैं। दिव्यांगता के बावजूद जन्म से ही कृष्णा की मुस्कान इतनी मनमोहक थी, जिसकी वजह से माता-पिता ने सभी गमों को भुलाते हुए उसका नाम कृष्णा रख दिया। डॉक्टरों ने कृष्णा के बचने की बहुत कम संभावना बतायी थी, लेकिन कृष्णा ने उनके अनुमान पर पानी फेर दिया। कृष्णा जैसे-जैसे बढ़ा होता गया, अपनी अपंगता के अटल सच को समझते हुए हिम्मती और आत्मविश्वासी बनता चला गया। उसके मनोबल को दिव्यांगता कहीं भी शिथिल नहीं कर सकी। चार साल का होने पर वह खुद ही नहा-धोकर घुटनों से चलते हुए स्कूल जाने लगा। अभी वह पांच साल का ही था कि मां का देहांत हो गया। घुटनों में चप्पल और कोहनियों के सहारे लिखने वाले होनहार छात्र कृष्णा की बड़ा होकर एक अच्छा शिक्षक बनने की तमन्ना है। वह जब कोहनियों से क्रिकेट खेलता है तो लोग तालियां बजाते नहीं थकते। कृष्णा के पिता मजदूरी करते हैं। उसके दादा उसे घर से दो किमी दूर स्थित स्कूल छोड़ने जाते हैं। दादा कभी-कभार चलते-चलते थक जाते हैं, लेकिन कृष्णा बिलकुल नहीं थकता-रूकता। स्कूल की छुट्टी होने पर वह पैदल-पैदल अकेला ही घर पहुंच जाता है। जिन शिक्षकों को शुरू-शुरू में लगता था कि वह भविष्य में कुछ नहीं कर पायेगा, अब वही क्लास के सबसे होनहार छात्र के बारे में यह कहते हैं कि, परम पिता परमेश्वर ने इसे कोई नया इतिहास रचने के लिए भेजा है। वह बीमार होने पर भी कभी स्कूल मिस नहीं करता। कहता है, स्कूल तो मेरा मंदिर है...।

चित्र-4 : संघर्ष के बिना मनचाही सफलता नहीं मिलती। कुछ लोगों का संघर्ष हतप्रभ कर देता है। आंखें नम हो जाती हैं। उनके कभी हार नहीं मानने के जज्बे को बार-बार सलाम करने को जी चाहता है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो तमाम सुख-सुविधाओं के होने के बावजूद नाकामयाब होने पर तरह-तरह की शिकायतों और बहानों की झड़ी लगा देते हैं। वहीं भुखमरी, गरीबी और लाचारी के शिकार कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपने लक्ष्य को पाने के लिए कोई शोर-शराबा नहीं करते। उन्हीं में शामिल हैं आईएएस बी अब्दुल नासर। कम उम्र में पिता की मौत हो जाने की वजह से बी अब्दुल नासर को अनाथालय में रहना पड़ा। स्कूल की फीस भरने के लिए घर-घर अखबार बांटे, ट्यूशन पढ़ाई, होटल में खाना परोसा, फोन आपरेटर की नौकरी की और अनेकों अवरोधों का डट कर सामना किया, लेकिन फिर भी अपनी पढ़ाई पर अपना सारा ध्यान केंद्रित रखा। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद भी अब्दुल नासर ने केरल स्वास्थ्य विभाग में सरकारी नौकरी की। उसके पश्चात केरल की राज्य सिविल सेवा परीक्षा पास करके डिप्टी कलेक्टर बने। उन्हें सर्वश्रेष्ठ डिप्टी कलेक्टर के रूप में सम्मानित भी किया गया। उनकी शानदार परफॉर्मेंस और प्रशासनिक कुशलता को देखते हुए कलांतर में केरल सरकार ने उन्हें आईएएस अधिकारी के तौर पर प्रमोट किया। इसके बाद वह कोल्लम के जिला कलेक्टर और केरल सरकार के हाउसिंग कमिश्नर जैसे उच्च पदों पर विराजमान रहे। अनाथालय से आईएएस अफसर बनने तक के उनके सफरनामे से हजारों युवक-युवतियों को प्रेरणा मिल रही है और वे भी उन्हीं की तरह शिखर पर पहुंचने के लिए सतत संघर्ष करने को तैयार हैं...।

Thursday, April 3, 2025

चरित्र के चित्र...

 आज सुबह अखबार को हाथ में लेते ही सबसे पहले इन दो खबरों पर नज़र गढ़ी की गढ़ी रह गई। पहली खबर का शीर्षक है, ‘‘टुकड़े कर ड्रम में भर दूंगी, बिगड़े पति को पत्नी की धमकी’’ 

‘‘उत्तरप्रदेश के शहर मेरठ में एक युवक ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवायी है कि उसकी बीवी ने उसे ईंट मारकर बुरी तरह घायल कर दिया। युवक के सिर पर पट्टी बंधी थी। रात को वह शराब पीकर घर पहुंचा था। हमेशा की तरह दोनों में कहा-सुनी हुई। खाना खाने के बाद वह चारपाई पर लेट गया। पत्नी का बड़बड़ाना कम नहीं हुआ, जिससे विवाद और बढ़ता चला गया। पहले भी वह विरोध जताती थी, लेकिन इस बार तो उसने ईंट उठाकर सिर पर दे मारी और उसे लहूलुहान कर दिया। इतने से भी शायद उसका मन नहीं भरा। उसने चीखते हुए धमकी दे दी कि इस बार तो उसने सिर फोड़ा है, अगली बार यदि वह अपनी पीने की आदत से बाज नहीं आया तो जिस्म के टुकड़े-टुकड़े कर ड्रम में भर देगी। किसी को उसकी लाश का भी अता-पता नहीं चल पायेगा।’’

दूसरी खबर का शीर्षक है, ‘‘महिलाएं भी रिश्वतखोरी में कम नहीं, खेल अधिकारी डेढ़ लाख लेते पकड़ाई’’ 

‘‘एंटी करप्शन ब्यूरो ने जिला महिला खेल अधिकारी कविता को डेढ़ लाख रुपए की रिश्वत लेते हुए रंगेहाथ गिरफ्तार किया है। एक ठेकेदार के बिल को मंजूर करने की ऐवज में यह वसूली की जा रही थी। आरोपी कविता के परभणी स्थित घर की तलाशी के दौरान एसीबी ने एक लाख पांच हजार रुपए नकद जब्त किए। उसके छत्रपति संभाजी नगर और पुणे स्थित घरों की तलाशी का अभियान चल रहा है...।’’ इन दोनों खबरों को पढ़ते ही मेरे दिमाग की घड़ी की सुई दो हफ्ते पहले की उन दो खबरों पर जाकर रुक गई, जो लगातार देशभर के न्यूज चैनलों तथा अखबारों की सुर्खियां बनी रहीं। उत्तरप्रदेश के मेरठ में वासना की आंधी में उड़ती मुस्कान नामक युवती ने प्रेमी के साथ मिलकर मर्चेंट नेवी अधिकारी अपने पति सौरभ के 15 टुकड़े किए फिर उन्हें एक ड्रम में भरकर सीमेंट और रेत के साथ ड्रम में बंद कर दिया। मुस्कान और उसके प्रेमी साहिल ने पुलिसिया पूछताछ में बताया कि उन्होंने सौरभ का गला काटा और सिर धड़ से अलग करने के साथ-साथ उसकी उंगलियों को भी काट डाला। इस नृशंस हत्याकांड को बड़ी चालाकी से अंजाम देने के बाद सिर को धड़ से अलग किया। कलाइयां भी काटीं। फिर सिर और धड़ को अलग-अलग रख दिया, ताकि लाश पहचान में ही न आए। शराब, गांजा और चरस की लत में डूबी मुस्कान लंबे समय से कर्मठ सौरभ को रास्ते से हटाने की योजना बना रही थी। सौरभ मुस्कान से बहुत प्यार करता था। वह उसे दुनिया की सभी खुशियां देना चाहता था, लेकिन मुस्कान का वफा और समर्पण से कोई वास्ता नहीं था। देह की भूख ही उसके लिए सबकुछ थी। इसलिए उसने जिस शख्स के साथ कभी जीने-मरने की कसमें खाई थीं, उसी के टुकड़े-टुकड़े कर ड्रम में दफन कर दिया। 

अपने साथी को फ्रिज, कूकर, बैग, दीवार, फर्श, बोरे, बिस्तर और ड्रम में दफन करने वाले प्रेमी, प्रेमिका, पति, पत्नी बाद में चैन से कैसे जी पाते होंगे? संवेदनशील लोग तो सोच-सोचकर बेचैन हो जाते हैं। उनकी रातों की नींद उड़ जाती है। मेरठ के लोगों ने तो अब ड्रम भी सोच-समझकर खरीदने का निर्णय कर लिया है। हत्यारी मुस्कान ने जिस ड्रम मेें पति की लाश के टुकड़ों को पैक किया था उसका रंग नीला था। लोगों ने नीले रंग के ड्रमों से ही दूरी बनानी प्रारंभ कर दी है। बेचारे दुकानदार ग्राहकों को समझा-समझा कर थक गए हैं कि इन नीले ड्रमों का कोई कसूर नहीं है। कसूरवार तो वो इंसानी हरकतें हैं, जिनके चलते इंसान शैतान, हैवान और पत्थरदिल  बन जाता है और रिश्तों की अहमियत और मान-मर्यादा को सूली पर लटका देता है। लेकिन लोग हैं कि अब नीले रंग के ड्रम को छूने को तैयार नहीं। आखिरकार दुकानदारों ने भी अपनी दुकानों से नीले रंग के ड्रमों को हटा कर नए-नए रंगों के ड्रम रखने प्रारंभ कर दिए हैं...। 

जिस देश में न्याय पालिका भ्रष्टाचार के छींटों से दागदार हो रही हो, कुछ वकीलों और जजों की मिलीभगत से न्याय के बिकने-बिकाने की खबरों का अंबार लगा हो, वहां पर यदि कोई नारी रिश्वत लेते पकड़ी जाए तो आश्चर्य कैसा? शासकीय कार्यालयों में रिश्वत लेकर जायज काम करने की नाजायज परंपरा से तो देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। मेहनतकश आम आदमी को हजार पांच सौ रुपए कमाने के लिए कई-कई तिकड़मे और कसरतें करनी पड़ती हैं, लेकिन भ्रष्टाचार में लिप्त अधिकारी, कर्मचारी, नेता, मंत्री की तिजोरी चुटकी बजाते-बजाते भर जाती है। इस लुटेरी जमात के मान-सम्मान पर भी कभी कोई आंच भी नहीं आती। इनके बचाव के लिए पूरा तंत्र-मंत्र चौबीस घंटे लगा रहता है। रात को कोर्ट के दरवाजे तक खुल जाते हैं। किसी को पता ही नहीं चलता और संगीन अपराधी बाइज्जत बरी हो जाते हैं। उनका स्वागत, मान-सम्मान करने के लिए हार-गुलदस्ते लेकर भीड़ भी अदालतों तक पहुंच जाती है। 

14 मार्च 2025 के दिन होली थी। लोग रंग और भंग में डूबने के बाद रात को गहरी नींद में थे। दिल्ली हाईकोर्ट के माननीय (?) जज यशवंत वर्मा के आधिकारिक आवास में लगी आग में करोड़ों रुपयों की नोटों की गड्डियां धू...धू कर जलते हुए इंसाफ के रखवाले को कटघरे में खड़ा कर रही थीं। जज साहब के स्टोर रूम में जले-अधजले नोटों को बड़ी चालाकी से रहस्य की काली चादर में लपेट-समेट दिया गया। नोटों के वीडियों तथा तस्वीरें तो सभी ने देखीं, लेकिन नोट नहीं दिखे! यानी अधजले नोट भी गायब कर दिये गए। 15 से 20 करोड़ की रकम कम नहीं होती। यदि किसी व्यापारी, उद्योगपति के यहां यह अग्निकांड हुआ होता तो पूरे देश में हंगामा मच जाता। इस रहस्यमय कांड ने जजों के चरित्र और साख पर सवालिया निशान तो लगा ही दिया है। न्याय की कुर्सी पर विराजमान कुछ जजों पर पहले भी कलंक के छींटे पड़ चुके हैं। कुछ विद्वान जजों ने ऐसे-ऐसे फैसले सुनाये हैं, जिन्हें भरपूर शंका की निगाह से देखा गया है। कुछ जजों ने तो बचकाने निर्णय सुना कर आम जनों को चौंकाते हुए मीडिया की भरपूर काली-पीली सुर्खियां बटोरी हैं। बीते कई वर्षों से देश की न्यायपालिका के पूरे तंत्र में बदलाव लाने की वर्षों से मांग उठ रही है। आम लोगों को लगने लगा है कि उन्हें न्याय नहीं मिलता। अदालतों में तारीख पर तारीख देकर गरीबों की कमर तोड़ने और अमीरों को राहत देने की कष्टदायी परिपाट बन चुकी है। 17 मार्च 2025 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति राम मनोहर मिश्रा ने अपने एक निर्णय में यह कहकर देश और दुनिया को हतप्रभ कर दिया कि नाबालिग लड़की के स्तनों को छूना, उसके पायजामे के नाड़े को खोलना और उसे पुलिया के नीचे खींचने का प्रयास करना बलात्कार या बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में नहीं आता। यह मामला उत्तरप्रदेश के कासगंज का है। जहां 2021 में दो व्यक्तियों पर 11 वर्षीय नाबालिग लड़की पर बलात्कार का आरोप लगाया गया था। जज साहब के ‘स्व विवेकी’ निर्णय ने सजग भारतीयों के मन-मस्तिष्क की संवेदनशील जड़ों को ज़मीन विहीन करके रख दिया है...।

Thursday, March 27, 2025

मन की किताब

जो हार नहीं मानते। हालातों से टकराते हैं। वही अंतत: मील का पत्थर बन राह दिखाते हैं। लोग उन्हीं के अटूट संघर्ष की मिसालें देकर हताश निराश और उदास लोगों का हौसला बढ़ाते हैं। किताबों के पन्नों में भी वही नज़र आते हैं। किताब को जब तक हाथ में लेकर खोला नहीं जाए तब तक उनमें समाहित ज्ञान से रूबरू नहीं हुआ जा सकता। किताबों ने न जाने कितने भटके लोगों को नई दिशा देते हुए मंजिल तक पहुंचाया है। असम के रहने वाले 33 वर्षीय डेका आर्थिक तंगी की वजह ज्यादा दिन तक स्कूल नहीं जा पाए। अनपढ़ होने के कारण ढंग की नौकरी नहीं मिली। जो नौकरी मिली उसमें कभी मन नहीं लगा। बेमन से नौकरी बजाते-बजाते डेका को पुस्तकें पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि वह उन्हीं में रम गया। तभी उसे अपनी भूल और कमी का भी पता चला। मन में यह विचार भी बार-बार आया कि यदि हिम्मत कर किसी तरह से पढ़-लिख जाता तो ऐसे मर-मर कर अभावों की आंधी में सूखे पत्तों की तरह इधर-उधर नहीं उड़ना-बिखरना पड़ता। विभिन्न विचारकों, विद्वानों के प्रेरक शब्दों ने उसकी नकारात्मक सोच को बहुत पीछे छोड़ दिया। उसने अपने भीतर दबे-छिपे ज्ञान और शक्ति से रूबरू होकर हमेशा-हमेशा के लिए किताबों से रिश्ता जोड़ने का निश्चय करते हुए अपनी बाइक को किताबों की दुकान बना दिया। बाइक पर किताबें लादकर वह आसपास तथा दूर-दराज के ग्रामों तक जाने लगा। उसे यह देखकर हैरानी हुई कि ग्रामवासी अपनी मनपसंद किताबों की मांग करने के साथ-साथ उसकी सुझायी किताबें खुशी-खुशी खरीदने लगे। शहरों में तो पाठकों को अपनी मनचाही पुस्तकें आसानी से मिल जाती हैं लेकिन ग्रामों में बड़ी मुश्किल होती है। डेका की मेहनत और कोशिश को रंग लाने में ज्यादा समय नहीं लगा। कुछ ही महीनों में पास और दूर के लगभग दस गांवों के लोग उसके नियमित ग्राहक बन गए। नयी-नयी किताबों के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा स्टेशनरी के भी आर्डर मिलने लगे। अपनी बाइक पर ही बुक एवं स्टेशनरी की दुकान चला रहे डेका की अब हर माह बड़ी आसानी से पचास हजार रुपये की कमायी हो रही है। मात्र पांच-छह साल में किताबों की बदौलत लाखों में खेल रहे डेका का युवाओं से बस कहना है कि नौकरी के पीछे मत भागो। अपनी मेहनत से देर-सबेर जो सफलता मिलेगी उसकी खुशी से तुम झूम उठोगे। मन सदैव यह सोच-सोच कर गदगद रहेगा कि हमने जो भी पाया अपनी मेहनत और लगन से पाया। 

असम-अरुणाचल की सीमा पर बसे भोगवारी गांव के बच्चे चाहकर भी स्कूल नहीं जा पाते थे। उनके घर का वातावरण अत्यंत निराशाजनक था। पुरुषों को पीने की लत ने लगभग नकारा बना दिया था। जो भी कमाते शराब पर उड़ा देते। घर में रोज-रोज होने वाले लड़ाई-झगड़े, गाली-गलौज ने बच्चों को भी हिंसक, आवारा और गालीबाज बना दिया था। पिता के हाथों जब-तब पिटना उनका नसीब बन कर रह गया था। इसी गांव में रहने वाली युवती अनिंदिता बच्चों की दुर्गति देख-देख कर हैरान-परेशान होती रहती थी, लेकिन इससे समस्या का हल नहीं होने वाला था। अनिंदिता ने बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए खुद की जमापूंजी से लाइब्रेरी की शुरुआत की। इस लाइब्रेरी में उसने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के लिए आवश्यक कॉपी, किताबों के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाएं तथा पुस्तकें रखनी प्रारंभ कर दीं। उसने बच्चों के मां-बाप को भी रोड साइड लाइब्रेरी में आने का निवेदन किया। मूलभूत आवश्यकताओं से जूझते माता-पिता भी शिक्षा और अध्ययन के महत्व और जरूरत से अंजान नहीं थे। अनिंदिता को शुरू-शुरू में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना प़ड़ा। खुद की पूंजी भी कुछ महीनों में खत्म हो गई। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। इलाके के धनवानों तथा समाजसेवी लोगों से उसका सेवाकार्य और संघर्ष छिपा नहीं था। अनिंदिता जब उसके पास सहयोग के लिए पहुंची तो उन्होंने उम्मीद से ज्यादा तन-मन-धन से उसका साथ देना प्रारंभ कर दिया। अब तो अनिंदिता के हौसले, संघर्ष की बदौलत भोगबारी गांव में बच्चों तथा बड़ों की जिन्दगी में बदलाव आ चुका है। नयी रोशनी ने सभी के चेहरे पर चमक ला दी है। रोड साइड लाइब्रेरी चौबीसों घण्टे खुली रहती है। गांव के 200 बच्चे नियमित पढ़ने आते हैं। जिन बच्चे-बच्चियों के घरों में रहने की सुविधा नहीं है वे यहीं खाते-पीते और सोते हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए अनिंदिता ने क्लॉथ हाउस भी शुरू किया है। यहां से सभी गांववासी अपनी आवश्यकता के अनुसार कपड़े ले सकते है। जिनकी हैसियत कीमत चुकाने की नहीं उन्हें बिलकुल नि:शुल्क वस्त्र प्रदान किये जाते हैं। अनिंदित की लाइब्रेरी से बच्चे ही नहीं वयस्क भी जुड़ते चले जा रहे हैं। 

मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में पुस्तकों को पढ़ने वाले कम हो गये हैं। विभिन्न विधाओं की पुस्तकें तो धड़ाधड़ छप रही हैं, लेकिन पाठकों की संख्या बढ़ने का नाम नहीं ले रही है। हर साहित्यकार की यही शिकायत है कि अधिकांश युवा तो पुस्तकों के निकट ही नहीं जाते। उन्हें मोबाइल से ही फुर्सत नहीं है। शहरों व ग्रामों में पहले वाचनालयों का जो चलन था, उनमें भी बहुत कमी देखी जा रही हैं। अधिकांश वाचनालय पाठकों का इंतजार करते रहते है। यह भी सच है कि वहां पर सभी की पसंद की कृतियों का नितांत अभाव रहता है।  देश के प्रदेश केरल को छोड़कर कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहां सार्वजनिक वाचनालयों की उल्लेखनीय उपस्थिति बनी हुई हो। लगभग 3.34 करोड़ की आबादी वाले केरल राज्य में किसी भी कस्बे या शहर में चले जाइए आपको सार्वजनिक पुस्तकालय अवश्य दिखाई देंगे। इन वाचनालयों में आपको हर उम्र के पाठक अपनी-अपनी पसंद की पुस्तकें तलाशते और पढ़ते नज़र आ जाएंगे। किताबों की भीनी-भीनी महक और शब्दों का जादू नये-नये पाठकों को वाचनालयों तक खींच लाता है। केरल में स्थित कन्नूर की आबादी लगभग तीस हजार है। यहां पर 34 वाचनालय हैं। यानी हर वर्ग किलोमीटर में लगभग एक वाचनालय! हर वाचनालय पढ़ने के शौकीनों से आबाद रहता है। अधिकांश में कम्प्यूटर व एकीकृत कैटलॉग की सुविधा के साथ-साथ प्रशिक्षित लाइब्रेरियन पदस्थ हैं, जो वहां आने वाले पाठकों का मार्गदर्शन करते हैं। कुछ युवक और युवतियां मूविंग लाइब्रेरी (चलती-फिरती) के जरिए सजग पाठकों के घरों तथा संस्थानों तक किताबें और पत्रिकाएं नियमित पहुंचाते हैं। सभी प्रदेशवासी वाचनालयों के प्रति आकर्षित हों इसके लिए सरकार तो नियमित फंड उपलब्ध कराती ही है। इसके साथ-साथ कुछ सार्वजनिक संस्थाए और सक्षम लोग भी इस जनहित कार्य में पीछे नहीं रहते। केरल में कुछ लाइब्रेरी ऐसी हैं जिन्हें आम लोगों ने आपस में राशि एकत्रित कर स्थापित किया है। लोगों का लाइब्रेरी से इस कदर लगाव है कि जब भी क्षेत्र में नया घर बनता है तो लाइब्रेरी के नाम से उसके पास कोई फलदार पेड़ लगाया जाता है। शिक्षा सामाजिक जुड़ाव और सुधार में भी ग्रंथालयों ने अहम भूमिका निभायी है। यहां पर पुस्तकालयों को पठन-पाठन एवं चिंतन-मनन की संस्कृति के विकास का बहुत बड़ा माध्यम माना जाता है। समय-समय पर हुए विभिन्न आंदोलनों को भी पुस्तकालयों से दिशा और ताकत मिलती रही है। साठ साल की हो चुकी फुर्तीली राधा लाइब्रेरी आंदोलन की एक जानी-पहचानी हस्ती हैं। राधा बीते कई वर्षों से राजनीति में भी सक्रिय हैं। इस उम्र में भी वे महिलाओं और बुजुर्गों को उनके घरों तक किताबें पहुंचाती हैं। वह कहती हैं जब मैं अपने हाथ में लाइब्रेरी का रजिस्टर और कंधों पर किताबों भरा बैग लेकर चलती हूं तो मेरा तन-मन खुशी से झूमने लगता है। यदि मेरा बचपन से साहित्य से लगाव नहीं होता तो मैं मनचाही सफलता से दूर रहती। मेरा तो यही मानना है कि किताबें हालातों को बदलने का हथियार हैं। जब किसी को भी किताब खरीदते देखती हूं तो मैं नतमस्तक हो जाती हूं।  किसी वाचनालय में प्रवेश करने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारना मैं कभी नहीं भूलती। पुस्तकालय मेरे लिए किसी देवालय से कम नहीं। यही किताबें ही हैं जो हमें हमारी अज्ञानता और हैसियत से रूबरू कराती हैं...।

Thursday, March 20, 2025

इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...

चित्र-1 : बबीता। उम्र 50 वर्ष। दायां हाथ और पैर निष्क्रिय हैं। हिलाने-डुलाने में तकलीफ होती है। बचपन में ही पोलियोग्रस्त हो गईं थीं। ऐसे पीड़ादायी रोग और परेशानी में भी उनका मनोबल नहीं टूटा। अटूट हिम्मत और व्हीलचेयर ही उनका सहारा है। बी.कॉम करते-करते मन में शारीरिक रूप से कमजोर, असहाय लोगों की सहायता, सुरक्षा और देखभाल करने की ऐसी इच्छा बलवति हुई कि, जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सच्ची और सार्थक चाह होने पर राह खुद-ब-खुद कदम चूमने लगती है। अपंग बबीता को जैसे ही ‘अपना घर’ नामक आश्रम में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिली तो उन्हें लगा परम पिता परमेश्वर ने उनकी सुन ली है। मात्र एक साल बीतते-बीतते बबीता को 100 बीघा में फैले आश्रम की देखरेख के साथ-साथ मानसिक रूप से विक्षिप्त, शारीरिक तौर पर असक्षम लोगों की सेवा करने का दायित्व सौंप दिया गया। परोपकारी सोच में रची-बसी बबीता ने आश्रम की व्यवस्था ऐसी संभाली कि देखने वाले हैरान रह गए। बबीता बड़ी कुशलता के साथ असक्षम लोगों के रेस्क्यू, रजिस्ट्रेशन, आवास, भोजन, चिकित्सा, स्वच्छता, पुनर्वास, प्रशिक्षण, अध्यापन और अन्य व्यवस्थाएं ऐसी कर्मठता के साथ करती हैं, जैसे वह इसी के लिए बनी हों। उनका साथ देने के लिए 480 कर्मचारी चौबीस घंटे चाक चौबंद रहते हैं। वे सभी बबीता दीदी के तहेदिल से शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने उनके मन-मस्तिष्क में विक्षिप्त और असहायों की सेवा करने के प्रेरणा दीप जलाए हैं। बच्चों और बड़ों की प्यारी बबीता दीदी सुबह 4 बजे तक उठ जाती हैं। उसके बाद ऑटोमेटिक व्हीलचेयर पर विशाल आश्रम के चप्पे-चप्पे में घूमते हुए सभी का हालचाल जानने, सहायता उपलब्ध करवाने में कब रात हो जाती है उन्हें पता ही नहीं चलता। उनके जागने का समय तो निर्धारित है, लेकिन सोने का कोई वक्त तय नहीं है। चौबीस घंटे जोश और उमंग के झूले में झूलती, जरूरतमंदों के फोन अटेंड करती बबीता दीदी के जीवन का बस यही मूलमंत्र है, भले ही आप शारीरिक तौर पर कमजोर और लस्त-पस्त हैं, लेकिन अपने दिमाग को कभी भी अपाहिज मत मानो। उसे हमेशा सक्रिय रखो। अच्छे विचारों से सदैव रिश्ता बनाये रखो। सकारात्मक सोच आपका उत्साह बढ़ायेगी। चुस्ती-फूर्ती भी बनी रहेगी। आश्रम में रहने वाले सभी लोग हमारे लिए प्रभु का रूप हैं। हमें उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिला है। उनकी देखरेख करना हमारा एकमात्र कर्तव्य है। देश-विदेश में फैले 62 आश्रमों में रह रहे लगभग 15 हजार असहायों, विक्षिप्तों की देखरेख में लगी बबीता दीदी अक्सर एक प्रसिद्ध गीत की यह पंक्तियां गुनगुनाती देखी जाती हैं, ‘‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल...।’’

चित्र-2 : हमारे देश में कई पुरातन रीति रिवाज ऐसे हैं, जो मानव के विकास में बाधक बने हुए हैं। बाल विवाह की परंपरा उन्हीं में से एक है। जिसके खिलाफ अभियान तो बहुत से चलाए गए, लेकिन पूरी तरह से उसका खात्मा नहीं हो पाया। देश के कुछ प्रदेशों में नाबालिग, मासूम, नासमझ बच्चियों की शादी करने का चलन कहीं चोरी-छिपे तो कहीं खुले आम आज भी देखा जा सकता है। जिन बेटियों का बाल विवाह होता है उनका भविष्य भी कहीं न कहीं अंधकारमय हो जाता है। यह अत्यंत सुखद और अच्छी बात है कि अब इस चिंताजनक परिपाटी के खिलाफ बेटियां खुद कमर कस रही हैं। इस प्रथा के खिलाफ उनके विरोध के स्वर गूंजने लगे हैं। वे वो मनचाहा कार्य करने लगी हैं, जिन्हें करने से उन्हें रोका जाता था और उनके सपनों की हत्या कर दी जाती थी। राजस्थान में स्थित अजमेर जिले के 13 ग्रामों में हर दूसरे घर की बेटी आज फुटबॉल खेलती है। यहां 550 लड़कियां फुटबॉलर हैं। इनमें से अधिकांश लड़कियां वो हैं जिनके मां-बाप बचपन में ही उनकी शादी करवाने पर तुले थे, लेकिन वे बाल विवाह के खिलाफ डटकर खड़ी हो गईं। अंतत: मां-बाप को भी झुकना पड़ा। कुछ लड़कियों की तो सगाई भी हो चुकी थी, लेकिन उन्होंने फुटबॉल खेलने की चाह में सगाई ही तोड़ दी। लड़कियों को फुटबॉल खेलने से रोकने के लिए गांव के कुछ बड़े-बुजुर्गों तथा खुद को कुछ ज्यादा ही समझदार मानने वाले शिक्षित लोगों ने अपने ज्ञान का पिटारा खोलते हुए कहा कि, फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों का इससे दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं। यहां तक कि सरकारी स्कूल में भी बच्चियों के फुटबॉल खेलने पर पाबंदी लगा दी गई। पुरुषों की मानसिकता बदलने के लिए लड़कियों ने दिन-रात मेहनत की और स्टेट और नेशनल खिलाड़ी बन उपदेशकों की बोलती बंद कर दी। फुटबॉल की जुनूनी बेटियों के जीवन में ऐसे भी क्षण आए जब उन्होंने बचपन की शादी के बंधन में मिले पति की बजाय फुटबॉल को चुना। अब तो इन गांवों की कुछ बेटियां डी-लाइसेंस हासिल कर सफल कोच बन गई हैं और कई लड़कियां नेशनल टूर्नामेंट में शामिल होकर इस संदेश की पताका लहारा चुकी है कि लड़कियों को कम मत समझो। उनका रास्ता मत रोको। वो जो भी चाहें, उन्हें खुलकर करने दो। लड़कियां कभी भी लड़कों से कमतर साबित नहीं होंगी। हर नई शुरुआत के पीछे कोई न कोई प्रेरणा स्त्रोत और कारण अवश्य होता है। अजमेर जिले के 13 ग्रामों में बदलाव लाने का श्रेय जाता है समाजसेविका इंदिरा पंचौली को। राजस्थान में कई इलाकों में अभी भी बीमारी की तरह जड़े जमाए बाल विवाह पर विराम लगाने के उद्देश्य से जब वे अध्ययन के लिए बंगाल गईं थी, तब उन्होंने देखा कि गांव की बच्चियां स्कूल से छूटने के बाद पुलिस थानों में स्थित मैदानों में फुटबॉल खेल रही हैं। पंचौली मैडम के मन में आया कि अपने जिले अजमेर में यदि बच्चियों में फुटबॉल खेलने की इच्छा जगायी जाए तो धीरे-धीरे बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। इसके लिए उन्होंने प्रारंभ में गांवों में खेल उत्सव का आयोजन किया। जिसमें जोर-शोर से ऐलान करवाया गया कि, जो बेटियां फुटबॉल खेलने की इच्छुक हैं वें तुरंत हमसे आकर मिलें। उम्मीद से ज्यादा लड़कियों के फुटबॉल खेलने की इच्छा प्रकट करने पर उनके मनोबल में और जान फूंक दी, लेकिन जब अभ्यास और प्रतियोगिता के लिए बाहर जाने की बात आई तो उनके घरवालों ने यह कहकर अड़ंगा डालना प्रारंभ कर दिया कि फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों के हाथ-पांव टूट गए तो वे अपंग हो जाएंगी और उनसे शादी कौन करेगा? लड़कियों के घर से बाहर जाने पर उनके बारे में लोग उलटी-सीधी बातें करेंगे। लेकिन लड़कियां फुटबॉल खेलने की जिद से टस से मस नहीं हुईं। बात पुलिस प्रशासन तक भी जा पहुंची। उन्होंने भी मां-बाप को समझाया। तब कहीं जाकर वे माने और बेटियां बेखौफ होकर फुटबॉल खेलते हुए एक से एक कीर्तिमान रचने लगीं। उनके नाम की पताका दूर-दूर तक फहराने लगी। जो मां-बाप बेटियों को घर में कैद रखने और बाल विवाह करने के प्रबल पक्षधर थे वे भी बाल विवाह को हमेशा-हमेशा के लिए भूलकर बेटियों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रोत्साहित करने लगे हैं।

चित्र-3 :  उदयपुर में रहती हैं, सरला गुप्ता। महिला हैं, लेकिन पुरुषों से कहीं भी कम नहीं। शादी-मुंडन से लेकर अंतिम संस्कार तक के दायित्व वर्षों से कुशलतापूर्वक निभाती चली आ रही हैं। यह महिला पंडित अभी तक 50 से अधिक शादी-ब्याह के साथ-साथ 70-75 दाह संस्कार संपन्न करवा चुकी हैं। उन्हें इन संस्कार कार्यों से जो धनराशि दक्षिणा के तौर पर मिलती है उसे जरूरतमंद लड़कियों की पढ़ाई के लिए सहर्ष दान कर देती है। पति के रिटायरमेंट के बाद सरला ने समाजसेवा के इस नये मार्ग को चुना। जब उन्होंने अपने जीवनसाथी को पुरोहिताई करने की इच्छा जताई तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को हर तरह से प्रोत्साहित किया। शुरू-शुरू में उन्हीं के समाज के कुछ लोग पीठ पीछे उनकी खिल्ली उड़ाते हुए तरह-तरह की बाते करते थे। कुछ लोग तो उन्हें अपमानित करते हुए यह भी कह देते कि जबरन पंडितों के पेशे से जुड़कर उन्हीं के पेट पर लात मार रही हो। तुम्हें बहुत पाप लगेगा। ईश्वर भी माफ नहीं करेंगे, जिन्होंने सभी के कर्म-धर्म निर्धारित कर रखे हैं। नारी हो, कुछ तो शर्म करो! वही काम करो जो औरतों को शोभा देते हैं। जिन कार्यों को सदियों से पंडित-पुरोहित करते आये हैं उन्हें अपनाकर आखिर वह क्या साबित करना चाहती हो? नाम कमाने के पागलपन में अपने मूल संस्कारों को तिलांजलि देने पर तुली हो। इसका प्रतिफल कदापि अच्छा नहीं होगा, लेकिन अपनी मनपसंद नई राह पर कदम बढ़ा चुकी सरला ने किसी की परवाह नहीं की। अब तो वह जिस घर में जाती हैं, वहां की महिलाएं भी उनसे प्रेरित होकर उनके साथ खड़ी नजर आती हैं। ज्ञातव्य है कि भारत में मात्र तीन महिलाएं हैं जो अंतिम संस्कार करवाती हैं...।

Saturday, March 15, 2025

कौन किसके लायक?

चित्र 1 : पति, पत्नी के रिश्तों में तनाव, लड़ाई झगड़ा, मनमुटाव कोई नई बात नहीं। सदियों से ऐसा होता आया है, लेकिन पिछले आठ-दस वर्षों से अपने देश में इस पवित्र रिश्ते में जो विष घुलता चला जा रहा है, वह ज़हरीली खबर बन लगभग प्रतिदिन हमारे सामने आ रहा है। कोई भी ऐसा दिन नहीं बीतता जिस दिन पत्नी, प्रेमिका तथा पति की हत्या, आत्महत्या की खबर पढ़ने-सुनने में न आती हो। हर नगर, महानगर और अब तो ग्रामों में भी अपने पति से नाखुश, निराश नारियां खुदकुशी का दामन थामने लगी हैं। कभी-कभार जब किसी पुरुष के फांसी के फंदे पर झूल जाने का पता चलता है तो लोगों का बड़ी तेजी से माथा ठनक जाता है। यह कैसा बदलाव है? पुरुषों की तो ऐसी छवि नहीं थी! एक दूसरे की प्रताड़ना, यातना और जानी दुश्मनी से आहत होकर यदि इसी तरह से हत्याएं और आत्महत्याएं होती रहीं तो सोचिए पति, पत्नी के जन्म-जन्मांतर के रिश्ते का कोई अर्थ बचेगा?

आंधी-तूफान की रफ्तार से महानगर की शक्ल अख्तियार करते नागपुर में बीते हफ्ते अपनी शादी के मात्र 14 माह के बीतते-बीतते प्रियंका ने अपने पति की प्रताड़ना से तंग आकर फांसी लगा ली। भावुक और संवेदनशील प्रियंका ने अपने सुसाइड नोट में लिखा, ‘‘मैं तुम्हारे लायक नहीं। मैं तुम्हारी पसंद भी नहीं। मैं तुम्हारी और मम्मी (सास) की ख्वाहिश को पूरा करने में असमर्थ हूं। मेरे मरने के बाद तुम खुशी-खुशी दूसरी शादी करने में देरी न करना। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि तुम्हे ऐसी बीवी मिले जो तुम्हारी हर तमन्ना के तराजू पर खरी उतरे।’’ प्रियंका के पिता परलोक सिधार चुके हैं। उसकी मां मेहनत मजदूरी करती है। उसने बड़ी बेहतर उम्मीदों के साथ अपनी बेटी को पढ़ाया लिखाया। पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा धारक प्रियंका की तीन बहनें और भी हैं। 3 जनवरी 2024 को प्रियंका ने शैलेष नामक युवक के साथ जब सात फेरे लिये थे तब उसके मन-मस्तिष्क में खुशियों का समंदर हिलोरें मार रहा था। अपने सुखद भावी जीवन को लेकर वह पूरी तरह से आश्वस्त थी। शादी के बंधन में बंधने से पहले परिजनों ने भी उसे बताया था कि शैलेष ठेकेदारी के काम से अच्छी-खासी कमायी कर लेता है। वह उसे हर तरह से प्रसन्न और संतुष्ट रखेगा, लेकिन शादी के चंद हफ्तों के बाद ही प्रियंका जान गई कि उसका पति तो कोई काम धंधा ही नहीं करता। बस निठल्ला घर में पड़ा रहता है। शराब पीने का भी उसे जबर्दस्त लत लगी हुई है। प्रियंका जब उससे कुछ काम-धाम करने को कहती तो वह उससे कहता कि वह एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का कार्यकर्ता है। शीघ्र ही वो वक्त आयेगा जब वह करोड़पति बन उसकी झोली खुशियों से भर देगा। वैसे भी दूसरे किसी धंधे में नेतागिरी से बढ़कर मालामाल होने की गुंजाइश ही कहां बची है। उसने प्रियंका का मंगलसूत्र, सोने की चेन और अंगूठी को भी बेचकर शराब पर उड़ा दिया। वह बार-बार प्रियंका को अपनी मां से रुपए मांग कर लाने का दबाव बनाता, लेकिन जब प्रियंका ने थक-हार कर असहाय मां को तंग करने से मना कर दिया तो वह पूरी तरह शैतान बन गया। शादी की पहली सालगिरह पर प्रियंका को उसके चाचा ने दस हजार रुपये उपहार स्वरूप दिए तो उन्हें भी शैलेष ने जबरन छीन लिया और शराब गटक ली। प्रियंका को लाडली बहन योजना की जो राशि मिलती थी उसे भी वह अपने नशे-पानी में उड़ा देता था। इसी दौरान विरोध करने पर शैलेष ने उसे गला घोटकर मारने की भी कोशिश की। प्रियंका रोज-रोज की चिकचिक और प्रताड़ना से इस कदर तंग आ गई कि अंतत: वह खुदकुशी कर ऐसी खबर बनकर रह गई, जिसे पढ़कर-सुनकर लोग तुरंत भुला देते हैं...।

चित्र-2 : मानव शर्मा ने अपनी पत्नी के चरित्रहीन होने की वजह से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। 23 फरवरी को मानव पत्नी के साथ मुंबई से आगरा आया था। यहीं पर उसकी पत्नी का मायका है। 24 फरवरी को वह फांसी के फंदे पर झूल गया। मौत को गले से लगाने से पहले उसने अपनी पत्नी निकेता को भी सूचित किया कि वह मरने जा रहा है। निकेता ने हमेशा की तरह इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन हां, उसने अपनी ननद यानी मानव की बहन को मोबाइल कर बता दिया कि उसका भाई फांसी पर झूलने जा रहा है। वह चाहे तो समय रहते उसे बचा ले, लेकिन ननद ने अपनी भाभी को दिलासा देते हुए कहा कि वह ज्यादा परेशान न हो। वह खुदकुशी नहीं कर सकता। ऐसी धमकी-चमकी तो वह कई बार पहले भी दे चुका है। तुम इत्मीनान से सो जाओ...। आईटी कंपनी टीसीएस में रिक्रूटमेंट मैनेजर मानव ने धमकी को साकार करते हुए अंतत: आत्महत्या कर ली। अपनी जान देने से पहले उसने पूरे होशोहवास के साथ लाइव वीडियो भी बनाया, जिसमें उसने पत्नी के द्वारा उसके ‘शारीरिक अंग’ की कमतरी को लेकर हमेशा की जाने वाली तानाकशी को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराते हुए कानून और देश के हुक्मरानों को चेतावनी के अंदाज में कहा, ‘‘द लॉ नीड्स टु प्रोटेक्ट मैन... अदरवाइज देयर विल बी ए टाइम, दैट देयर विल बी नो मेन। कोई आदमी बचेगा ही नहीं, जिसके ऊपर तुम इल्जाम लगा सको। मैं तो खैर जा रहा हूं, लेकिन मैं फिर भी कह रहा हूं कि मर्दों की भी फिक्र करो। प्लीज उनके बारे में सोचो। मैं यह कहते-कहते थक चुका हूं कि, अरे, मर्दों के बारे में कोई तो बात करे। बेचारे बहुत अकेले हैं। ...पापा सॉरी। मम्मी सॉरी। अक्कू सॉरी। बट गाइज, प्लीज अंडरस्टैंड। देखो, जैसे ही मैं चला जाऊंगा। सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैंने पहले भी कई बार खुदकुशी की कोशिश की है। इसके गवाह हैं मेरे जिस्म पर लगे कट के निशान। मुझे पता चला कि मेरी वाइफ का बाहर चक्कर चल रहा है, लेकिन मैं उससे पूछताछ नहीं कर सकता। एकाध बार मैंने उसे समझाने की कोशिश की तो उसने बखेड़ा खड़ा कर दिया था। कानून भी औरतों के साथ खड़ा है। कैसा है तुम्हारा लॉ एंड ऑर्डर! ढंग से इंसाफ करो यार। हां एक बात और... मेरे चल देने के बाद मेरे मां-बाप को बिल्कुल टच मत करना...।

चित्र-3 : देश की एक राष्ट्रीय पार्टी की महिला शाखा की अध्यक्ष रोहिणी खडसे ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर भारत की राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु को पत्र लिखकर मांग की है कि नारियों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों, अपराधों और घरेलू हिंसा को देखते हुए महिलाओं को एक हत्या करने पर सजा में छूट दी जाए। देश की महिलाएं दमनकारी और दुष्कर्म वाली मानसिकता और निष्क्रिय कानून व्यवस्था की प्रवृत्ति का खात्मा करना चाहती हैं। रोहिणी ने हाल ही में मुंबई में एक बारह वर्षीय लड़की पर किये गए सामूहिक बलात्कार की घटना का हवाला देते हुए महिलाओं के खिलाफ निरंतर बढ़ते अपराधों पर रोष और चिन्ता व्यक्त की है। अपने निवेदन पत्र में उन्होंने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट का भी हवाला दिया है, जिसमें बताया और चेताया गया है कि महिलाओं के लिए भारत सबसे असुरक्षित देश बन चुका है।

चित्र-4 : पुणे की रहने वाली एक महिला ने अपने पति की हिंसक प्रवृत्ति से त्रस्त होकर पुणे की जिला अदालत की शरण ली। वह रोज-रोज की गालीगलौज और दुर्व्यवहार से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पाना चाहती थी। तलाक के इस मामले के मध्यस्थता केंद्र में पहुंचने पर जज साहब ने महिला पर तंज कसते हुए कहा कि, आप न तो बिंदी लगाती हैं, न ही मंगलसूत्र पहनती हैं और न ही पति को रिझाने के लिए बन ठन कर रहती हैं तो फिर ऐसे में आपके पति आप में चिलचस्पी क्यों दिखाएंगे? जज के इस नुकीले सवाल से वहां पर मौजूद लोग हतप्रभ रह गए। जज महोदय ने अपने महाज्ञान का पिटारा खोलते हुए यह भी कहा कि, जो महिलाएं अच्छी नौकरी पर हैं, मोटी तनख्वाह पाती हैं वे हमेशा ऐसा पति चाहती हैं जो उनसे ज्यादा कमाता हो, लेकिन दूसरी तरफ अच्छा कमाने वाला पुरुष पसंद आने पर अपने घर में बर्तन धोने वाली नौकरानी से भी शादी करने में संकोच नहीं करता। विद्वान जज साहब के प्रवचन से आहत महिला वहीं खड़ी-खड़ी रोने लगी...।