Thursday, December 11, 2025

अंतिम निर्णय

मैं तो चिंतित हो जाता हूं। घबराहट होने लगती है। कई बार माथा पकड़ भी बैठ जाता हूं। आप भी बताएं कि ऐसी खबरों को पढ़कर आप पर क्या बीतती है? क्या ऐसा नहीं लगता कि नारी की आजादी, बदलाव, विकास और तरक्की के जो दावे किये जा रहे हैं, उनमें आधी-अधूरी सच्चाई है। सच तो कुछ और ही है..., जो कभी सामने आता है, कभी छुप जाता है तो कभी दबा दिया जाता है। कितने लोगों ने यह खबर पढ़ी?

छत्तीसगढ़ में स्थित बस्तर के एक छोटे से गांव बकावंड में एक डरपोक निर्दयी बाप ने अपनी बेटी को पूरे बीस साल तक अपने घर के अंधेरे दमघोटू कमरे में बंदी बनाकर रखा। बच्ची जब मात्र आठ साल की थी, तभी कायर बाप को लगा कि गांव के एक बदमाश युवक की गंदी निगाहें बच्ची पर हैं। उसने पुलिस स्टेशन जाकर शिकायत दर्ज कराने या युवक को फटकारने की हिम्मत करने की बजाय अपनी ही पुत्री की सुरक्षा के लिए यह खौफनाक रास्ता चुना। बच्ची की मां की बहुत पहले मौत हो गई थी। यह बाप मजदूरी कर किसी तरह से दो वक्त की रोटी का जुगाड़ कर पाता था। जिस बिना खिड़की वाले मिट्टी के कच्चे कमरे में लड़की बीस वर्षों तक कैद रही वहां पिता रोज दरवाजा खोलकर खाना रखता और फिर दरवाजा ऐसे बंद कर देता था कि लाख कोशिश के बाद बेटी के लिए बाहर निकलना तो दूर झांकना भी मुश्किल था। उसने बीस साल तक किसी बाहरी इंसान का चेहरा नहीं देखा। घोर आश्चर्य की बात है कि उसका नहाना, जागना, सोना और खाना-पीना बंद कमरे में इतने वर्षों तक होता रहा। पड़ोसियों को भी खबर नहीं लगी कि निकट के घर की दिवारों के पीछे एक मासूम बेटी कैद होकर खून के आंसू बहा रही है। लड़की के भाई-भाभी भी ज्यादा दूर नहीं रहते थे, लेकिन उन्होंने भी कभी उसकी सुध लेना जरूरी नहीं समझा। सतत अंधेरे में रहते-रहते लड़की की आंखों की रोशनी जाती रही। वह पूरी तरह से अंधी हो गई। सन्नाटे और अकेलेपन ने उसकी आवाज भी छीन ली। बच्ची से जवान हो चुकी यह बिटिया तो घुट-घुटकर अंतत: दम ही तोड़ देती यदि उसके दादा ने समाज कल्याण विभाग को इस जुल्म के बारे में जानकारी नहीं दी होती। लड़की का नाम लिसा है। लिसा को मेडिकल जांच के बाद आश्रय स्थल ‘घरौंदा’ में रखा गया है। यहां के साफ-सुथरे हवादार माहौल में पौष्टिक भोजन और नियमित स्वास्थ्य सेवाओं के साथ उसकी देखरेख की जा रही है। लिसा धीरे-धीरे मानसिक रूप से सामान्य तो हो रही है, लेकिन किसी भी अनजान इंसान को देखकर कांपने और डरने लगती है। उसकी देखरेख में जी-जान से लगी सिस्टर टेसी फ्लावर चाहती हैं कि लिसा न सिर्फ सेहतमंद हो, बल्कि जीवन को फिर से समझे और बेखौफ होकर खुशी-खुशी जीना प्रारंभ करे। लिसा का बाप अपनी बेवकूफी पर शर्मिंदा है। उसने अस्पताल के डॉक्टरों से निवेदन किया है कि अब मैं वृद्ध हो गया हूं। आप ही इसकी देखरेख करें।

तीन महीने पहले दिल्ली में था। एक दूर के रिश्तेदार के यहां ठहरा हुआ था। उनका नाम है अशोक सेठी। सेठी जी की सोनीपत के पास शू फैक्ट्री है। हर तरह के शूज के निर्माता, इन महाशय की विवाहित बेटी कुछ दिनों से अपने मायके में आकर रह रही थी। कविता नाम की इस बिटिया की शादी दो साल पहले ही उत्तम नगर के रईस खानदान में हुई थी। उसका पति अनूप चड्ढा सरकारी ठेकेदारी के साथ-साथ जमीनों की खरीदी-बिक्री का बड़ा खिलाड़ी है। धन-दौलत के मामले में अपने ससुर को टक्कर देने वाले अनूप ने कुछ दिन तो कविता से अच्छा व्यवहार किया, फिर कालांतर में जब वह रोज-रोज शराब के नशे में धुत होकर आधी-आधी रात को घर आने लगा तो कविता का माथा ठनका। कविता को शराब पीने वालों से शुरू से ही नफरत थी। जब रिश्ते की बात चली थी तब उसे आश्वस्त किया गया था कि अनूप में कोई ऐब नहीं है। शराब और लड़की बाजी में लिप्त होने की बीमारी से दूर-दूर तक उसका कोई वास्ता नहीं है। वह तो सिर्फ अपने कारोबार में डूबा रहता है, लेकिन शादी के चंद रोज के बाद ही कविता को पड़ोसियों से पता चल गया कि उसका दो-दो औरतों से चक्कर चल रहा है। वेश्याओं के यहां जाकर रातें बिताने के चर्चे तो उसके तब होने लगे थे जब वह कॉलेज में पढ़ रहा था। शराब के साथ-साथ गांजा और एमडी भी वह तभी लेने लगा था। उसके करोड़पति खानदान में कोई भी शरीफ आदमी अपनी लड़की ब्याहने को तैयार नहीं था। कविता के पिता को अंधेरे में रखकर चट मंगनी-पट ब्याह का बड़ी तेजी से ऐसा चक्कर चलाया गया, जिससे उन्हें लड़के के बारे में ज्यादा खोज-खबर लेने का मौका ही नहीं मिल पाया। जिसने जो बताया उसे ही सच मानकर कविता की अनूप से शादी कर दी गई। इस शादी में कम अज़ कम पांच करोड़ रुपये की आहूति दी गई। लाखों की कार, सोना-चांदी, कपड़े एवं अन्य महंगे-महंगे उपहार देकर सेठी अपनी इकलौती बेटी का गंगा नहाने के अंदाज में कन्यादान कर कुछ हफ्तों के लिए विदेश यात्रा पर निकल लिए। शुरुआत में तो कविता यह सोचकर अपने पति की प्रताड़ना सहती रही कि वह उसे धीरे-धीरे सही राह में लाने में कामयाब हो जाएगी, लेकिन हफ्ते, महीने गुजर जाने के बाद भी रात को उसका नशे में लड़खड़ाते आना और गालीगलौच करना कायम रहा। कविता की बर्दाश्त करने की ताकत तब खत्म हो गई जब उसे अंधाधुंध मारा-पीटा जाने लगा। बार-बार घर से लाखों रुपये लाने की मांग भी की जाने लगी। दो-तीन बार उसकी मांग की पूर्ति भी की गई, लेकिन लालच का सिलसिला बना रहा। रोती-बिलखती कविता जब भी अपने मायके पहुंची तो मां-बाप ने उसे इस दिलासे के साथ सुसराल वापस जाने को विवश कर दिया कि तुम कुछ तो सब्र करो, जब बच्चा हो जाएगा तो पति खुद-ब-खुद सुधर जाएगा। कविता न चाहते हुए भी लौट तो गई, लेकिन अनूप का नजरिया नहीं बदला। उसने कविता को कोल्ड ड्रिंक में जहर मिलाकर मारने की भी कोशिश की। उसका मुंह बंद रखने के लिए खौलता हुआ पानी भी फेंका। एक रात तो जब वह अपनी पुरानी प्रेमिका को घर ले आया तो कविता के रहे सहे सब्र का पैमाना चूर-चूर हो गया। उसने फौरन अपना कुछ जरूरी सामान अटैची में भरा और पिता की शरण में चली आई। 

कविता ने जब अपना दुखड़ा मुझे सुनाया तो मैंने अशोक से कहा कि जब बेटी सुसराल में रहना ही नहीं चाहती तो बार-बार वापस जाने का फरमान सुनाकर उसे किस अपराध की सजा दे रहे हो? उसका तो कोई दोष नहीं। अब जब गलत लोगों से पाला पड़ गया है तो बेटी के हित में कोई रास्ता तो निकालना तुम्हारा फर्ज है। प्रत्युत्तर में अशोक ने यह कहकर मुझे आहत कर दिया, ‘‘तुम्हें मालूम तो है कि मैंने शादी में अपने खून-पसीने से कमाये करोड़ों रुपए खर्च किए थे। यह लड़की एडजस्ट करना ही नहीं जानती। बार-बार जिस तरह से मुंह उठाये चली आती है, उससे मेरे मान-सम्मान को ठेस लगती है। आसपास रहने वाले कई तरह की बातें करते हैं। उन्हें इसमें ही कुछ न कुछ खोट और कमी लगती हैं। मैं तो तलाक के पक्ष में भी नहीं हूं।’’

‘‘मैं तुम्हारी सोच से बिल्कुल सहमत नहीं। तुम्हें पता है कि बाप अपनी बेटी के लिए क्या-क्या नहीं करते? कुछ महीने ही हुए हैं। एक विवेकशील पिता को जब उसकी बेटी ने अश्रुपूरित आंखों से बताया कि उसका पति राक्षस से भी गया बीता है। वह ससुराल के अपमानजनक वातावरण से मुक्ति चाहती है। मुझे डर है कि, कहीं वह मेरी हत्या न कर दे या फिर मैं ही खुदकुशी करने पर विवश हो जाऊं। पिता ने बिना कोई उपदेश दिये बेटी को नर्क से वापस लाने का फैसला कर लिया। उसने अपने कुछ शुभचिंतकों को एकत्रित किया और बैंड-बाजे के साथ अपनी लाडली बिटियां को लेने जा पहुंचा। ससुराल वाले स्तब्ध रह गए। उन्हें बताया गया कि हम अपनी बेटी को लेने आये हैं। हमे उनसे कोई रिश्ता नहीं रखना है। लड़केवालों ने बिना कोई नाटक किए दहेज में मिले तमाम सामान को वापस देते हुए शर्मिंदगी से अपना सिर झुका लिया। बेटी आज अपने पिता के घर में नई शुरुआत करते हुए खुश और संतुष्ट है। मैं चाहता हूं कि अपनी बेटी के लिए तुम भी दस-बीस लोगों को बारात की शक्ल में लड़के वालों के यहां धड़धड़ाते हुए जा पहुंचो और बेटी को सम्मान के साथ वापस ले आओ, बिल्कुल वैसे ही जैसे वे नाचते-कूदते हुए वे बेटी को ब्याह कर ले गए थे। ऐसे लोगों को ऐसे ही तमाचा जड़ा जाना जरूरी है।’’

मैं सोच रहा था अशोक सेठी मेरे सुझाव को सिर आंखों पर लेते हुए सकारात्मक फैसला लेने में देरी नहीं करेगा, लेकिन उसने तो मेरी ही ऐसी-तैसी करके रख दी और मुझे अपमानित कर अपने घर से बाहर कर दिया। सेठी की पत्नी और बेटे ने भी मुझे तीखे शब्दों के वार से अपमानित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दिल्ली से नागपुर आने के बाद मैं अपने कामकाज में व्यस्त हो गया। कुछ दिनों के बाद किसी मित्र ने मोबाइल कर अत्यंत दुखद खबर दी, ‘‘कविता ने ज़हर खाकर अपने पिता के घर में आत्महत्या कर ली है। वह किसी भी हालत में ससुराल नहीं जाना चाहती थी, लेकिन माता-पिता और भाई उस पर दबाव डाल रहे थे कि उसे पिता के घर से जाना ही होगा। अपने मायके में रहकर कब तक हमारी बदनामी का कारण बनी रहोगी?’’

 बदनामी और मान-सम्मान दोनों ही कहीं न कहीं उस अभिमान से जुड़े हैं, जिसकी वजह से अभी तक न जाने कितनी बहन, बेटियों और बहुओं की जान जा चुकी है। ऊंच-नीच, अमीर गरीब की स्वार्थी और घटिया सोच का कभी अंत होगा भी या नहीं? इक्कीस साल की आंचल और बीस साल के सक्षम ने एक दूसरे से सच्चा प्रेम ही तो किया था। दोनों निश्छल प्रेमी अलग-अलग जाती के थे। सदियों से चला आ रहा यही अंतर, भेदभाव उनका दुश्मन बन गया। लड़की के परिजन हर तरह से बलवान थे। उन्होंने प्रेमी सक्षम को अपने बेटी से मिलने से बहुत रोका-टोका, लेकिन न तो वो माना और प्रेमिका भी अडिग बनी रही। दोनों लगभग तीन वर्ष से प्रेम के पवित्र रिश्ते की मजबूत डोर से बंधे हुए थे। नांदेड़ शहर में जन्मा और पला बढ़ा सक्षम ताटे बौद्ध समाज का युवक था तो आंचल का पदमशाली (बुनकर) समाज से नाता था। यह कम्यूनिटी स्पेशल बैकवर्ड क्लास में आती है। अहंकारी आंचल के परिवार को दोनों का एक होना कतई मंजूर नहीं था। उन्होंने सक्षम की बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी। कहानी यहीं खत्म नहीं हुई। सक्षम की गोली मार कर हत्या की गई थी। कविता को जैसे ही अपनेे प्रेमी की नृशंस हत्या के बारे में पता चला तो वह रात को ही अपने पिता का घर छोड़ सक्षम के घर जा पहुंची और उसने हमेशा-हमेशा के लिए वहीं रहने का ऐलान कर दिया। जब सक्षम के अंतिम संस्कार की तैयारी चल रही थी तब आंचल ने जो फैसला किया उससे हर कोई स्तब्ध रह गया। समर्पित प्रेमिका ने अपने प्रेमी को अंतिम विदाई देने से पहले दुल्हे की तरह सजा कर शादी की रस्में निभाते हुए उसके शरीर पर हल्दी-कुमकुम लगाई और उसके हाथ से वही हल्दी-कुमकुम अपने शरीर पर लगाया तथा शव के हाथ में सिंदूर देकर उसे अपने माथे पर लगा दिया और मांग में भी भर दिया। जब अंतिम संस्कार की पूर्ण तैयारी हो गई और परिजन अर्थी को कंधा देने के लिए उठाने लगे तो आंचल ने सबको रोक कर अर्थी के साथ रोते-बिलखते हुए सात फेरे लेते हुए  कहा यह उसका सच्चा विवाह है। मरते दम तक मैं किसी और के बारे में नहीं सोचूंगी। मेरा परिवार चाहता था कि हम अलग हो जाएं, लेकिन मैंने तो सक्षम से शादी कर ली। अंतिम यात्रा से पहले उसके नारियल फोड़ते ही आसपास मौजूद पड़ोसी और सभी परिवार वाले फूट-फूटकर रो पड़े। कविता ने अपने हत्यारे पिता और भाइयों को फांसी के फंदे पर लटकाने की मांग की है।

Thursday, December 4, 2025

ज़िस्म की कीमत

आपने कभी सोचा, गौर किया कि तरह-तरह के नशों की आदत इंसान को किस दलदल में फंसाती है? उसकी प्रतिष्ठा, पूछ परख और जिस्म की हस्ती मिटती चली जाती है? किसी भी नशेड़ी के नशे की शुरुआत सिगरेट, बीड़ी से होती है और फिर उसके कदम पतन की राह में आगे और आगे बढ़ते चले जाते हैं। अखंड शराबी को यदि शराब न मिले तो उसका तन-मन तड़पने लगता है। वह नशे के नये-नये साधन तलाशने लगता है। नशे के ज़हर से भरे मीठे दंश से होनेवाली असंख्य तबाहियां इन आंखों ने देखी हैं। खेतों-खलिहानों वाले पंजाब को ‘उड़ते पंजाब’ के नाम से दागदार होते देखा है। जहां शराबबंदी है, वहां चोरी-छिपे ही नहीं खुलेआम मैंने शराब बिकती-मिलती देखी है। सरकारें भी जानती-समझती हैं फिर भी क्यों अंधी, बहरी बनी हैं, इसका जवाब मुझे तो अभी तक नहीं मिला। सबसे बड़ा उदाहरण बिहार का है, जहां कहने को तो करीब दस साल से शराबबंदी है, लेकिन पीने वाले कभी बिना पिये नहीं सोते। चाहे कुछ भी हो जाए नशा तो करना ही है। इसके लिए बिहार के युवाओं ने शराब का विकल्प तलाशते हुए गांजा, स्मैक, चरस और ब्राउनशुगर से दोस्ती करनी प्रारंभ कर दी है। इतना ही नहीं इस प्रदेश में कफ सिरप की मांग बहुत बढ़ गई है, जिन्हें शराब नहीं मिलती वे सिरप पी रहे हैं। 

अवैध शराब के जाने-पहचाने खिलाड़ियों की तरह सिरप के निर्माता, विक्रेता और तस्कर खूब मालामाल हो रहे हैं। जिनकी औलादें नशे के चंगुल में फंस रही हैं और फंसी हैं उन मां-बाप की नींदे हराम हो रही हैं। शहर ही नहीं गांवों के नौजवान ड्रग्स के दिवाने हो रहे हैं। गरीब, अमीर पालक सभी चिंतित और परेशान हैं। डॉक्टर, प्रोफेसर, अधिकारी, व्यापारी अपनी संतानों को घातक नशों के दलदल से बाहर निकालने के लिए नशा मुक्ति केंद्रों के चक्कर काट रहे हैं। एक नशा मुक्ति केंद्र संचालक का कहना है कि, मुक्ति केंद्र में लाये जाने वाले अधिकांश बीस से पच्चीस वर्ष के युवा हैं। इनमें कई स्मैक के आदी हो गये हैं। वैसे अकेले बिहार को नशे के ऐसे दुर्दिन नहीं देखने पढ़ रहे हैं। महाराष्ट्र के युवा भी बड़ी तेजी से ड्रग्स की संगत में अपने भविष्य का सत्यानाश कर रहे हैं। इस प्रदेश की उपराजधानी नागपुर को संस्कारों का शहर कहा जाता है, लेकिन नशा युवाओं के पतन का कारण बन रहा है। यहां बच्चों की बर्बादी के कितने-कितने इंतजाम हो चुके हैं और हो रहे हैं। अब तो गिनना और बताना भी मुश्किल होता जा रहा है। संतरों की नगरी में नशे की पुड़िया ने किताब-कापियों की जगह ले ली है। कुछ नकाबपोश दवा दुकानदार ड्रग माफिया बन चुके हैं। शहर के कई इलाकों में सूखा नशा यानी गांजा और एमडी की लत लगाकर युवाओं के भविष्य के साथ जिस तरह से खिलवाड़ हो रहा है, उससे सजग नागरिक भी चिंतित हैं। खबरें चीख-चीख कर दावा कर रही हैं कि नागपुर में रोजाना चार से पांच किलो एमडी ड्रग और 200 किलो से ज्यादा गांजा सहजता से बिक रहा है। 

महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर वो शहर है, जहां बाहर से आनेवाले नशेड़ियों को शराब की दुकानों तथा बीयर बारों की तलाश में बिल्कुल माथा-पच्ची नहीं करनी पड़ती। लगभग हर चौक-चौराहे और गली कूचे में भी नशे में डूबने के लिए मयखाने आबाद हैं। कई देशी शराब की दुकानों के तो जैसे दरवाजे ही कभी बंद नहीं होते। गगनचुंबी इमारतों का निर्माण करने वाले मजदूर, रिक्शा चालक, ठेलेवाले कभी भी यहां दारू पीते देखे जा सकते हैं। इन सदाबहार पियक्कड़ों के लिए बहुत से नशे के सरकारी ठिकानों पर उबला अंडा, आमलेट, नमकीन तथा नमक जैसे चखनों का भरपूर इंतजाम है। मैंने खास तौर पर यह भी गौर किया है कि, पिछले पांच-सात सालों में शहर में दवाई की दुकानों में भी जबरदस्त इजाफा हुआ है। पहले मेडिकल स्टोर्स की तलाश करनी पड़ती थी, लेकिन अब तो जहां नजर डालो वहां किसी भव्य शोरुम की तरह मेडिकल स्टोर्स खुले नज़र आते हैं और अपने यहां लोगों का तांता लगवाने के लिए अधिक से अधिक छूट का प्रलोभन भी देने लगे हैं। युवाओं की जिन्दगी को तबाही के कगार पर पहुंचा रहे ड्रग माफियाओं को कुछ पुलिस वालों का संरक्षण मिलता चला आ रहा है, तो दूसरी तरफ नशे के सौदागरों को नेस्तनाबूत करने के पुलिसिया अभियान की खबरें भी पढ़ने में आ रही हैं। शहर में नशे के काले कारोबार का समूल खात्मा करने के लिए नागपुर पुलिस ने एड़ी-चोटी की ताकत लगा दी है। ‘ऑपरेशन थंडर’ के तहत सीपी रवींद्रकुमार सिंगल ड्रग तस्करी और बिक्री करने वाले नेटवर्क का भंडाफोड़ कर कमर तोड़ने में लगे हैं। ‘ऑपरेशन थंडर’ केवल एक अपराध विरोधी अभियान नहीं है, बल्कि यह एक सामाजिक मुहिम है, जिसके तहत पुलिस शहर के स्कूलों, कॉलेजों, झुग्गी बस्तियों और शहरी इलाकों में जागरुकता अभियान चला रही है। आम लोगों को भी सतर्क किया जा रहा है। लोगों में जागृति लाने और नशे के सौदागरों की पकड़ा-धकड़ी के ऐसे अभियान पहले भी देखे गये हैं लेकिन पुलिस के उच्च अधिकारी के स्थानांतरण होते ही दम तोड़ देते हैं।

बीते हफ्ते कुछ उन युवकों से मिलना हुआ, जो एमडी की दलदल में बुरी तरह से फंस चुके हैं। उन्होंने बताया कि, पुराने एमडी के नशेड़ी दोस्तों ने उन्हें शुरू-शुरू में कहा कि, एक बार ट्राय करके देखो। ऐसा आनंद आयेगा जो जीवनभर याद रहेगा। दुनिया किसी जन्नत जैसी लगेगी। तब की शुरुआत धीरे-धीरे लत में बदलती चली गई। तीन साल हो गये हैं। एमडी की पुड़िया और गांजा के कश ने जिन्दगी को तबाह करके रख दिया है। वापसी का कोई रास्ता नज़र ही नहीं आता। परिवार का भरोसा, पढ़ाई और मान-सम्मान लुट गया है। कई बार आत्महत्या करने का भी मन होता है। सबसे ज्यादा बुरा तो उन लड़कियों के साथ हो रहा है, जो पढ़ाई के लिए बाहरगांव से नागपुर आई हैं। ड्रग माफिया का जाल स्कूल और कॉलेजों की दहलीज तक फैल चुका है। स्कूली और कॉलेज की लड़कियों को पहले तो एमडी के तस्कर दोस्त और हितैषी बन मुफ्त में नशे की पुड़ियां थमाते हैं, फिर जब धीरे-धीरे उन्हें इसकी लत लग जाती है तो उनसे पैसों की मांग की जाती है। एमडी और सूखे नशे के लपेटे में गिरफ्तार लड़कियों की जेब जब खाली हो जाती है तो  शिकारी उनकी देह के साथ मौजमस्ती करने के लिए तरह-तरह के जाल फेंकने लगते हैं। अपनी अस्मत लुटाने के बाद भी अधिकांश लड़कियां खामोश रहती हैं। इस घातक खतरनाक कुचक्र में फंसी लड़कियों की शर्मगाथा सुनकर किसी भी संवेदनशील इंसान का माथा घूम सकता है।  रजनी (काल्पनिक नाम) की आपबीती उसी के शब्दों में, 

‘‘मैं अभी बाइस वर्ष की हूं। छत्तीसगढ़ के शहर कोरबा में मेरे माता-पिता रहते हैं। मां गृहिणी हैं, पिता कपड़े के व्यापारी हैं। उन्होंने अत्यंत उत्साह के साथ एयर होस्टेस की ट्रेनिंग के लिए चार वर्ष पूर्व मुझे नागपुर भेजा था। मैं भी शुरू से पढ़ाई में खासी होशियार थी। एयर होस्टेस बनना मेरा बचपन का सपना था। नागपुर में मैं अपनी सहेली के साथ फ्लैट किराये पर लेकर रह रही थी। नागपुर में आने के बाद ही मेरी उससे जान-पहचान हुई थी। पिता खर्चे के लिए हर महीने बीस हजार रुपए भेजा करते थे। शुरू-शुरू में तो इतने रुपयों से मेरा ठीक-ठाक गुजारा हो जाता था, लेकिन गड़बड़ तब होनी शुरू हुई, जब मैं सहेली की देखा-देखी पहले बीयर फिर शराब पीने लगी। इसी दौरान उसने किसी दिन मुझे गांजे का कश लगाने को उकसाया तो मेरा मन भी ललचाया। यह मेरे सूखे नशे की पहली सीढ़ी थी, जिस पर पैर धरते ही मैं अपनी जमीन भूलकर आकाश में उड़ने लगी। एक रात मेरी सहेली, उसका ब्वॉयफ्रेंड, एक अनजान युवक और मैं कार से वर्धा रोड पर स्थित एक क्लब में जा पहुंचे। मकसद तो पीना-पिलाना और गांजा के कश लगाना था। वहां हम चारों ने नशे में झूमते हुए खूब डांस किया। वहीं पर मैंने एमडी ड्रग भी आजमा ली। शराब के साथ इन तमाम नशों के ओवर डोज ने मेरी हालत बिगाड़ दी और धड़ाधड़ उल्टियां होने लगीं। रात के दो-ढाई बजे हम लड़खड़ाते हुए क्लब से निकलकर कार पर सवार हो गए। उल्टियों के कारण मैं लस्त-पस्त हो चुकी थी। मेरा मस्तिष्क घूम रहा था। कार ने अभी कुछ पल का सफर तय किया ही था कि मेरी सहेली और उसका दोस्त जो कार चला रहा था, कुछ खाने के लिए कार से नीचे उतर गए। उनके जाते ही अजनबी युवक ने मेरे साथ बलात्कार करना प्रारंभ कर दिया और मैं बेबस सी पड़ी रही। दूसरे दिन मैंने सहेली को बताया तो वह मुस्कुरा कर रह गई। मुझे उसकी मिलीभगत भी समझ में आ गई। शाम को युवक का फोन आया, मिलने आ रहा हूं। आनाकानी करोगी, तो कहीं की नहीं रहोगी। सेक्स के दौरान खींची गई तस्वीरें और वीडियो देखना चाहोगी तो दिखा दूंगा। पुलिस स्टेशन जाना चाहती थी, लेकिन सहेली ने भारी बदनामी का भय दिखाकर रोक दिया। सात-आठ महीने तक वह मेरे ज़िस्म से खेलता रहा। 

एयर होस्टेस बनने की चाहत ने दम तोड़ दिया। माता-पिता को भी मेरी बदचलनी की खबर मिल गई। उन्होंने हमेशा-हमेशा के लिए नाता तोड़ लिया है। अब तो रात-बेरात कोई भी मोबाइल कर पूछता है, तुम्हारा रेट क्या है जानम? जब कभी किसी सड़क चौराहे से गुजर रही होती हूं तो पुरुषों की घूरती निगाहों को देखकर सोचती रहती हूं कि सबको मेरे बारे में पता चल गया है। सभी मेरी एक रात या कुछ घंटों की कीमत जानने को आतुर हैं। शहर के उन तमाम होटलों, स्पा, ब्यूटी पार्लर, फार्म हाउस, फ्लैटों के चप्पे-चप्पे को नाप चुकी हूं, जहां देह का व्यापार होता है। इन अय्याशी के ठिकानों की सभी को खबर है। पुलिस की छापामारी का शिकार होकर कुछ रातें थानों की जेल में भी काट चुकी हूं। जब भी आंख बंद कर सोचती हूं तो खुद से नफरत होने लगती है। ज़हर खाने की प्रबल इच्छा पर किसी तरह नियंत्रण रख जी रही हूं। मैं हर लड़की को यही कहना चाहती हूं कि मेरी तबाही से सबक लें। मायावी शहर में बहुत संभलकर रहें। गलत संगत और नशे के आसपास भी न जाएं। इनकी दोस्ती जिस तरह से भटकाती है और अंतत: नर्क दिखाती है,  उसे मैं रोज मर-मर कर देख और भोग रही हूं, लेकिन मैं नहीं चाहती कि किसी और लड़की का इससे सामना हो।

Thursday, November 27, 2025

तमाशा-तमाचा

‘‘आप लोगों को शर्म आनी चाहिए, आपके घर में मां-बाप हैं, आपके बच्चे हैं, शर्म नहीं आती?’’ 

अथाह गुस्से में कहे गये यह शब्द फिल्म अभिनेता सनी देओल के थे। उनकी यह फटकार, भड़ास और लताड़ तेजाब की तरह बरसी थी उन पैपराजी पर जो सुबह-सुबह तस्वीरें खींचने के लिए उनके बंगले के बाहर भीड़ की शक्ल में आकर डट गये थे। ‘गदर’ फिल्म के नायक का यह गुस्सा काफी हद तक वाजिब था। सैकड़ों फिल्मों के कसरती नायक, उनके पिता धर्मेंद्र को लगातार 11 दिनों तक मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती रहने के पश्चात यह सोचकर घर लाया गया था कि घरवालों को सुकून से उनके साथ रहने और सेवा करने का अवसर मिलेगा। ऊपर वाले ने जितने दिन की मोहलत दी है वो तो कम अ़ज कम ठीक-ठाक कटेंगे। करोड़ों देशवासियों के चहेते ‘शोले’ के हीरो को शांति मिलेगी। पूरा परिवार उनकी सेवा और देखरेख में लगा हुआ था। ऐसे में कोई भी नहीं चाहता था कि घर के आसपास भीड़भाड़ और शोर-शराबा हो, लेकिन पैपराजी कहा मानने वाले थे। जैसे ही 89 वर्षीय बीमार अभिनेता को अस्पताल से घर लाया गया, हंगामा और शोर-शराबा करती बेतहाशा भीड़ घर के बाहर आ जुटी। इस हुजूम को देखते ही सनी गुस्से से लाल-बेहाल हो गए।

मायानगरी मुंबई में पिछले पांच-सात सालों से ‘पैपराजी’ की सेलिब्रिटीज की निजता में डकैती और उनके इर्द-गिर्द सतत उछल-कूद की खबरों ने देशवासियों को भी हैरान कर रखा है। दरअसल, बॉलीवुड ही नहीं, महानगरों में जहां-तहां पैपराजी की जमात कुकरमुत्ते की तरह उगी देखी जाने लगी है। यह वो अनियंत्रित अति उत्साहित फोटोग्राफर हैं, जो सेलिब्रिटीज की तस्वीरें खींचने और वीडियो बनाने के लिए दिन-रात पगलाये रहते हैं। किसी  की मजबूरी, दुख तकलीफ और समय से इनका कोई लेना-देना नहीं है। किसी भी इंवेट, होटल, घर से बाहर जैसे ही किन्ही अभिनेताओं, अभिनेत्रियों, संगीतकारों, उद्योगपतियों तथा राजनेताओं जैसी मशहूर हस्तियों और यहां तक कि उनके मासूम बच्चों को देखते ही ये बिना किसी अनुमति के अधिकारपूर्वक फोटो खींचने तथा वीडियो बनाने लगते हैं। सेलिब्रिटीज के हर मूवमेंट पर नज़र रखने वाले पैपराजी छाती तान कर श्मशानघाट और कब्रिस्तान तक भी धड़धड़ाते हुए पहुंच जाते हैं और वहां पर पूछा-पाछी और तस्वीरें खींच-खींच कर मृतक के परिवार को परेशान करके रख देते हैं।

दरअसल, इनका लक्ष्य ऐसी तस्वीरें कैप्चर करना होता हैं, जो सनसनीखेज और मनोरंजक हों, ताकि वे उन तस्वीरों को न्यूज एजेंसियों, सोशल मीडिया, अखबारों तथा विभिन्न पत्रिकाओं को बेचकर कमाई कर सकें। यह भी सच हैं कि पैपराजी का काम अत्यंत जोखिमभरा होता है। सेलिब्रिटीज का लगातार पीछा करने वाली भागदौड़ में इन्हें बहुत सावधान रहना पड़ता है। मशहूर हस्तियों की निजता में दखल देने के कारण यह बार-बार अपमानित भी होते रहते हैं। पैपराजी दरअसल, इतालवी भाषा का शब्द है और इसका सही उच्चारण पापाराजी है, लेकिन समय के साथ अपभ्रंश होते हुए यह पैपराजी हो गया। इस पेशे से जुड़े लोगों की जिद और जुनून ने तब पूरे विश्व के मीडिया में सुर्खियां बटोरी थीं, जब प्रिसेंस ऑफ वेल्स डायना की मौत हुई थी। इस भयावह दिल दहलाने वाली दुर्घटना के लिए पैपराजी को जिम्मेदार ठहराते हुए कहा गया था कि राजकुमारी डायना और उनके प्रेमी की किसी भी हालत में तस्वीरें लेने के लिए यदि यह लोग शिकारी की तरह उनका पीछा नहीं करते तो प्रेमी-प्रेमिका को अंधाधुंध कार नहीं दौड़ानी पड़ती और जानलेवा हादसा भी नहीं होता। नामी-गिरामी हस्तियों तथा अपने-अपने क्षेत्र में उभरते चेहरों को शुरू-शुरू में तो प्रसिद्धि पाने के लिए पैपराजी का तस्वीरेें खींचना और वीडियो बनाना बहुत भाता है, लेकिन जब वे अपनी सीमाएं लांघते हुए उनके बेडरूम तक पहुंचने की कोशिश करते हैं, तो उन्हें मुक्के और गालियां भी झेलनी पड़ती हैं। फैशन डिजाइनर मनीष मल्होत्रा के पिता की श्रद्धांजलि सभा में पहुंची उम्रदराज फिल्म अभिनेत्री जया बच्चन का एक वीडियो बार-बार वायरल होता रहता है, जिसमें वे फोटोग्राफर्स पर भड़कते हुए कहती नजर आती हैं, ‘‘आप लोगों को कोई लिहाज शर्म नहीं है न?’’ बॉलीवुड में तेजी से उभरी एक अभिनेत्री का कहना है कि, जब तक मैं ज्यादा लोकप्रिय नहीं हुई थी, तब तक कहीं भी बड़े आराम से आती-जाती थी, लेकिन अब तो किसी रेस्टॉरेंट, कैफे, पब, होटल, गार्डन आदि में जाना हराम हो गया है। मेरे पहुंचने से पहले पैपराजी पहुंच जाते हैं और बंदूक की तरह कैमरे तान देते हैं। अब यदि बेहयायी की बात करें तो अकेले सोशल मीडिया और रोजी-रोटी के लिए एड़िया रगड़ते पैपराजी ही हद दर्जे के बेशर्म नहीं हैं।

देश के स्थापित न्यूज चैनल भी सबसे पहले लोगों तक न्यूज पहुंचाने के चक्कर में कैसी-कैसी बदतमीजियां और बेवकूफियां करते हैं, अब सभी जान गये हैं। हिट पर हिट फिल्में देनेवाले शांत और शालीन गरम-धरम सदाबहार अभिनेता की मौत की झूठी खबर बार-बार दिखाकर ‘आज तक’ जैसे विख्यात न्यूज चैनल की प्रख्यात एंकर अंजना ओम कश्यप ने गैरजिम्मेदार होने का सबूत पेश करते हुए अपनी जो खिल्ली उड़वायी उससे यह भी साबित हो गया कि टीआरपी और नंबर वन बने रहने के लिए भारत का इलेक्ट्रानिक मीडिया कितना गिर चुका है। जिंदादिल नायक धर्मेंद्र से पूर्व जाने-माने कॉमेडियन असरानी की झूठी मौत की खबर फैलाकर सोशल मीडिया को भी काफी बदनामी झेलनी पड़ी, लेकिन यह भी तो सच है कि, न्यूज चैनलों और सोशल मीडिया में जमीन-आसमान का फर्क है। सोशल मीडिया तो झूठ और अफवाहों का पुलिंदा है, जो पूरी तरह से बेलगाम है। उस पर किसी का कोई अंकुश नहीं है, लेकिन हर न्यूज चैनल से यह उम्मीद की जाती है कि वह बिना पुष्टि के कोई खबर दर्शकों तक न पहुंचाए, लेकिन अब उम्मीद और भरोसे के परखच्चे उड़ चुके हैं। स्वयं को सर्वश्रेष्ठ दिखाने की इनकी वहशी भूख का कहां जाकर अंत होगा, कुछ भी समझ में नहीं आ रहा है। अस्पताल से अपने घर में लाये जाने के कुछ दिन बाद जब निहायत ही जमीनी अभिनेता की वास्तव में मौत हुई तो घर परिवार वालों ने बिना किसी शोर-शराबे के उनका अंतिम संस्कार कर दिया। अपनी साख पर बट्टा लगवा चुके मीडिया को भी उनके चल बसने की खबर देरी से मिली। दमदार करिश्माई अभिनेता के जिन्दा रहते उनकी मौत की खबरें फैलाने वाले हतप्रभ रह गए। अपने जन्मदाता की मौत की झूठी खबरों से आहत परेशान सनी देओल तथा परिवार ने सब पर प्यार लुटाने वाले पिता के सचमुच हुई मौत की दुखद खबर से मीडिया को फौरन इसलिए अवगत नहीं कराया, क्योंकि उनके मन में उसके प्रति अथाह गुस्सा था। साथ ही वे नहीं चाहते थे अभिनेता की अंतिम विदाई के वक्त उमड़ने वाली भीड़ से किसी को कोई परेशानी हो। लगभग सात दशक तक फिल्मी आकाश में जगमगाने वाला सितारा चुपचाप विदा हो गया। यह दु:ख उनके उन लाखों प्रशंसकों के दिलों में सदैव बना रहेगा। इसके लिए वो लोग भी दोषी हैं, जिन्होंने असंख्य भारतीयों के प्रिय सितारे की जीते जी मौत की खबरें चलाकर देओल परिवार ही नहीं समस्त सजग देशवासियों को आहत किया। मुझे वो पल याद आ रहे हैं, जब लगभग बीस वर्ष पूर्व मैं फिल्म सिटी में किसी फिल्मी पत्रिका के लिए उनका साक्षात्कार ले रहा था, तब एकाएक उन्होंने मुझसे पूछा था कि, मेरी ऐसी कौन-सी खासियत है, जो तुम्हें वाकई प्रभावित करती है? मेरा जवाब था, पर्दे पर जब आप खलनायक की धुनाई करते हैं तो अधिकांश दूसरों अभिनेताओं की तरह नकली नहीं लगते। आपका मजबूत जिस्म खुद-ब-खुद बोलता नज़र आता है। मेरा जवाब सुनकर शायरी, नज़्मों और कविताओं के शौकीन भावुक नायक ने मुस्कुरा कर जिस तरह से मेरी पीठ थपथपायी थी, मैं शायद ही कभी भूल पाऊं...। सपने तो सभी देखते हैं लेकिन उन्हें कितने लोग वास्तव में साकार कर पाते हैं? आलस्य, बहानेबाजी, टालमटोल और खुद पर भरोसे का अभाव उन्हें आगे बढ़ने ही नहीं देता। जहां के तहां अटके रह जाते हैं। विशाल हृदय और सादगी से परिपूर्ण धर्मेंद्र जब पंद्रह-सोलह वर्ष के थे, तब सड़कों, चौराहों तथा फिल्म थियेटर पर फिल्मी सितारों के पोस्टर देखते-देखते उनके मन में बार-बार विचार आता कि वो दिन कब आयेगा जब इन पोस्टरों पर उनका चेहरा होगा और भीड़ उनके पीछे दौड़ेगी। अपनी चाहत, अपने सपने को साकार करने के लिए कुछ वर्ष बाद पंजाब की मिट्टी की सौंधी खुशबू के साथ मुंबई जा पहुंचे और वहां पर दिन-रात संंघर्ष करते हुए फिल्मी दुनिया में अपनी जो पताका फहराई किसी विशाल प्रेरक किताब जैसी ही है। इसे सभी को पढ़ना और अपने सपनों को कुशल कुम्हार की तरह गढ़ने और रंगने में खुद को झोक देना चाहिए। जिस्मानी तौर पर भले ही धरमजी हम सबके बीच नहीं है लेकिन उनकी गर्मजोशी, आकर्षण और उनकी यादगार फिल्में हमारे साथ हैं।

Thursday, November 20, 2025

कहां से कहां तक

बीते हफ्ते अमेरिका के दो शादीशुदा जोड़ों का वीडियो देखने में आया। चारों एक ही घर में मिल-जुलकर रहते हैं। खाते-पीते और खुलकर रोमांस करते हैं। उनके हंसते-खेलते चार सेहतमंद बच्चे हैं। एक दूसरे के पति के साथ हमबिस्तर होने वाली महिलाओं को पता ही नहीं है कि वे किससे गर्भवती हुईं और बच्चों का पिता कौन है। उन्होंने कभी इस विषय पर गंभीरता से दिमाग नहीं खपाया। अंधी वासना के झूले में झूलते पुरुषों ने भी बिल्कुल ध्यान नहीं दिया। उनके लिए तो बस दिन-रात सेक्स और मौज-मजा ही सबकुछ है। परिवार, समाज और मानवीय मूल्यों को सीधी चुनौती देते ऐसे और भी कुछ लोग अमेरिका तथा अन्य देशों में हो सकते हैं। चार पैरेटंस और चार बच्चों वाली इस अजूबी फैमिली का वीडियो देखने के बाद कई लोगों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएं व्यक्त की हैं। किसी ने कमेंट किया कि दरअसल, यह परिवार नहीं, बल्कि एक अजीबोगरीब प्रयोगशाला है, तो किसी ने लिखा कि बेचारे बच्चे! जब उन्हें पता ही नहीं कि उनका असली बाप कौन है तो बड़े होकर पूछने वालों को क्या जवाब देंगे? शर्म के मारे इधर-उधर मुंह छिपाते फिरेंगे। किस्सों तथा कहानियों का ऐसे ही जन्म होता है। यह अजब-गजब कारनामें लेखकों के प्रेरणा स्त्रोत होते हैं। रोमांचक और मनोरंजक फिल्में और किताबें इन्हीं से ही प्रेरित होकर बनायी और लिखी जाती हैं। भारतवर्ष के विशाल प्रदेश उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले मेंदो सगी बहनों ने चुपचाप बड़ी शांति से आपस में अपने पति ही बदल लिए...

दस वर्ष पूर्व उत्तरप्रदेश के ललितपुर जिले के अंतर्गत आने वाले ग्राम पाली के निवासी एक समझदार पिता ने बड़ी धूमधाम से अपनी दो बेटियों की शादी अलग-अलग ग्रामों के दो युवकों से की थी। दोनों बहनें अपने-अपने पतियों के संग सामान्य जीवन जी रही थीं। समय के बीतने के साथ-साथ उनके बाल-बच्चे भी हो गये। दोनों बहनों का एक दूसरे के घर आना-जाना भी बना रहा। इसी दौरान छोटी बहन अपने जीजा के प्रति आकर्षित हो गई। जीजाश्री का भी मन खूबसूरत साली के गोरे कसे बदन पर डांवाडोल हो गया और दोनों में जिस्मानी संंबंध बन गए। एक दिन ऐसा भी आया जब साली और जीजा ने परिवार और समाज की चिंता और परवाह न करते हुए शादी कर ली। बड़ी बहन को बहुत सदमा लगा। फिर भी उसने धैर्य का दामन नहीं छोड़ा। मन ही मन वह कोई हल निकालने की उधेड़बुन में लगी रही। बिल्कुल फिल्मी-सी लगने वाली इस रोचक-अजूबी कथा में झटकेदार नया मोड़ तब आया जब बड़ी बहन ने छोटी बहन के पति को मिल-बैठकर समझाया और सबकुछ भूलभाल कर नये सिरे से जीवन की शुरुआत करने के लिए मनाते हुए उससे शादी कर ली। यह भी कहा जा सकता है कि दोनों बहनों ने खुशी-खुशी आपसी रजामंदी से पतियों की अदला-बदली कर ली। इसके साथ ही बड़ी बहन ने अपने तीनों बच्चे छोटी बहन को देते हुए उसके दोनों बच्चों को अपने पास रख लिया। दोनों का एक-दूसरे के घर फिर से आना-जाना भी शुरू हो गया। घोर आश्चर्य की बात तो यह है कि उनके इस हैरतअंगेज कारनामे का पता उनके माता-पिता को तब चला, जब छोटी बहन अपने जीजा यानी अपने नये पति के साथ मायके पहुंची। पिता को जैसे ही इस अजूबी मर्यादाहीन अदला-बदली के बारे में बेटी ने बताया तो उन्होंने फटकारते हुए फौरन घर से बाहर कर दिया। बड़ी बेटी के लिए भी माता-पिता ने अपने घर के दरवाजे हमेशा-हमेशा के लिए बंद कर दिए। एक-दूसरे के पतियों के साथ रह रहीं दोनों बहनों के कृत्य से रिश्तेदार भी नाखुश हैं। अधिकांश ग्रामवासियों ने उनसे दूरी बना ली है। वे अपनी बहू-बेटियों को उनके निकट जाने से रोकते हुए एक नई बहस, भय और चिन्ता में उलझे हैं...।

कुछ लोग भोग विलास के ऐसे गुलाम हैं कि उन्हें विवाह की परिभाषा का ही पता नहीं है। देश के बड़े-बड़े महानगरों में तथाकथित आधुनिक सोच वाले विवाहित जोड़े आपसी सहमति से कुछ घंटों के लिए जीवनसाथियों की अदला-बदली कर शारीरिक संबंध बनाकर आनंदित होते हैं। अंधी वासना की तृप्ति के इस खेल में अधिकांश महिलाएं आसानी से तैयार नहीं होतीं। पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते की पवित्रता और मर्यादा उन्हें दूसरे पुरुष के समक्ष वस्त्रहीन तथा लज्जाहीन होने से बार-बार रोकती-टोकती है। वे जानती-समझती हैं कि, शादी बंधन नहीं बोध है। एक दूसरे को जानने समझने का सुखद मंच है। भारतीय संस्कृति में विवाह केवल स्त्री-पुरुष का नहीं, दो परिवारों, दो संस्कृतियों और दो आत्माओं का अलौकिक और पवित्र मिलन है। जहां पति-पत्नी केवल एक दूसरे का साथ नहीं निभाते, बल्कि धर्म, कर्म, अर्थ और मोक्ष की अनंत यात्रा के सहचर बन एक दूसरे के लिए जीते-मरते हैं। यह अपना देश भारत ही है, जहां अपने पति के लंबे जीवन और स्वस्थ बने रहने के लिए निर्जला व्रत रखने की परंपरा सदियों से चली आ रही है। सुहागन स्त्रियों के साथ-साथ कुंआरी लड़कियां भी मनचाहा पति पाने के लिए करवा चौथ का व्रत रखती हैं। यह भी अत्यंत सुखद हकीकत है कि अब तो कई पुरुष भी निर्जला व्रत रख पत्नी का साथ देने लगे हैं। एक दूसरे की खुशहाली के लिए प्रेम और समर्पण का यह भाव वाकई वंदनीय है। बताया जाता है कि, हजारों वर्ष पहले जब दुनिया में शादी-ब्याह करने का चलन नहीं था तब स्त्री-पुरुष चलते-फिरते जिस्मानी संबंध बनाते थे और फिर भूल जाते थे। बच्चों के जन्मने पर पूरा गांव उन्हें पालता-पोसता था। मां को भी पता नहीं चलता था कि उसके गर्भ में किसका बच्चा है। लगभग दस हजार वर्ष पहले तक यही स्थिति थी। तब पेड़-पौधों के पत्तों, टहनियों तथा जानवरों का शिकार कर सभी मानव अपने पेट की भूख को शांत करते थे, लेकिन धीरे-धीरे एक दौर ऐसा आया जब खेती-बाड़ी की जाने लगी। कृषि क्रांति ने इंसानों की सोच, खान-पान और रहन-सहन को बदल दिया। खून-पसीना बहाकर उपजाये गए अनाज और जमीन पर मौत के बाद किसका अधिकार होगा, ये सवाल जब बलवती हुआ तो शादी-ब्याह की शुरुआत हुई। अग्नि के समक्ष सात फेरे लेकर हमेशा के लिए एक दूसरे के होने और मां-बाप बनने के सुख और संतुष्टि ने कई चिंताओं तथा समस्याओं का समाधान भी कर दिया। बच्चों को पिता का नाम देने से यह भी निश्चित हो गया कि वही उनके वारिस हैं। 

आजकल कई महिलाएं शादी करने से कतराती और घबराती हैं। उन्हें शादी ऐसा बंधन लगती है, जहां पति का ही दबाव तंत्र चलता है। पुरुष मालिक तो पत्नी गुलाम की तरह जीने को विवश कर दी जाती है। जो महिलाएं अपने पैरों पर खड़ी होकर कमाने-खाने लगती हैं उनकी सोच भी बदल जाती है। अपने आसपास रह रहे पति, पत्नी में होने वाले झगड़ों और तलाक में बढ़ते मामलों ने सिर्फ महिलाओं को ही नहीं पुरुषों को भी भयभीत कर दिया है। कुछ वर्ष पहले तक पति तथा घर-परिवार के जुल्मों से तंग महिलाओं की खुदकुशी की खबरें सुनने-पढ़ने में आती थीं, लेकिन अब तो पत्नियों की गुंडागर्दी के शिकार पति भी आत्महत्या करते देखे जा रहे हैं। सच तो यह है कि हर बात के दो पहलू हैं। अपवाद भी सर्वत्र हैं। शादी-ब्याह के साथ जिम्मेदारियां भी जुड़ी हुई हैं।

जरूरत से ज्यादा दखलअंदाजी, टोका-टाकी आज के दौर में किसी को भी पसंद नहीं। उस पर जब महिला अच्छा खासा कमा रही हो तो वह यह भी चाहेगी उसकी कमायी पर उसका भी हक हो। वह उसे अपनी पसंद से खर्च करने के लिए स्वतंत्र हो। वह अपने किसी दोस्त या परिचित से जब भी और जहां भी मिलना चाहे कोई उस पर अंकुश न लगाए। दरअसल, जहां मिलजुलकर जिम्मेदारियां नहीं उठायी जातीं, समझौता करने की बजाय शंका, क्रोध, अविश्वास, अहंकार बलवति रहता है, वहां क्लेश और दूरियां खुद-ब-खुद दौड़ी चली आती हैं।

Thursday, November 13, 2025

खुद के कातिल

 सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के सार्थक अभिनय और अथाह परिश्रम से बनी, 2022 में रिलीज हुई फिल्म ‘झुंड’ का नाम कई देशवासियों ने नहीं सुना होगा। यह फिल्म स्लम सॉकर के संस्थापक विजय बारसे के जीवन पर आधारित है। इसमें अमिताभ बच्चन ने एक ऐसे रिटायर्ड स्पोर्टस कोच की भूमिका अत्यंत प्रभावी ढंग से निभाई है, जो झुग्गी-झोपड़ी के बच्चों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित करता है तथा उनमें खेल के प्रति उत्साह जगा कर बुराइयों से दूर रहने की सीख देता है। फिल्म ‘झुंड’ की अधिकांश शूटिंग भी महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में हुई थी। स्लम सॉकर एक गैर सरकारी संगठन है, जो गरीब असहाय बच्चों और युवाओं को कर्मठ और संस्कारवान बनाने के लिए वर्षों से कार्यरत है। यह संगठन खेल के साथ-साथ किताबी और व्यवहारिक ज्ञान और स्वास्थ्य से संबंधित कार्यशालाओं का आयोजन कर लोगों के जीवन को बेहतर बनाने तथा सामाजिक भेदभाव को दूर करने के लिए प्रेरित करता है। स्लम यानी झुग्गी बस्ती की असुविधाओं के बीच जीवनयापन कर रहे परिवारों के बच्चों को इधर-उधर के घातक भटकाव से बचाने और उनका भविष्य उज्ज्वल बनाने के स्लम सॉकर के नि:स्वार्थ प्रयास से प्रभावित होकर फिल्मी बादशाह अमिताभ बच्चन ने बहुत ही कम जाने पहचाने फिल्म निर्माता-निर्देशक नागराज मंजुले द्वारा निर्देशित फिल्म ‘झुंड’ में मुख्य भूमिका निभायी। बिल्कुल वैसे ही जैसे विजय बारसे ने बेरोजगारी और बदहाली में जीते मलीन बस्ती के बच्चों की फुटबॉल टीम बनाकर उन्हें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई थी। 

इस नितांत सच्ची प्रेरक हकीकत पर आधारित फिल्म ‘झुंड’ में जान डालने के लिए फिल्म निर्माता नागराज मंजुले ने गगनचुंबी अट्टालिकाओं के पास और दूर बदबूदार कचरे के ढेर में सांस लेती झोपड़पट्टियों को नजदीक से देखने के लिए महीनों चक्कर काटे। इसी दौरान जब वे अपने गले में कैमरा लटकाये रेल की पटरियों के करीब से गुजर रहे थे तो उन्होंने देखा कि कुछ बच्चे मालगाड़ी से कोयला चुरा रहे हैं। उन पर तुरंत अपना कैमरा केंद्रित कर वे धड़ाधड़ तस्वीरें लेने लगे। प्रियांशु नामक युवा भी इन कोयला चोरों में शामिल था। मंजुले ने उससे बातचीत की तो पता चला कि वह फुटबॉल का अच्छा खिलाड़ी है। फुटबॉल खेलने के लिए उसने अपनी टीम भी बना रखी है। उन्होंने प्रियांशु और उसके साथियों से ‘झुंड’ में काम करने की बात की तो वे फौरन राजी हो गए। इस अनूठी फिल्म में अधिकांश स्थानीय चेहरों के काम करने के कारण नागपुर ही नहीं संपूर्ण विदर्भ और महाराष्ट्र में उत्सुक्ता के साथ-साथ खुशी देखी गई थी। झुग्गी बस्ती के निवासियों के मन में यह आशा जागी थी कि उनके बच्चों के अब जरूर अच्छे दिन आएंगे। अमिताभ बच्चन जैसे विख्यात अभिनेता के साथ काम करने का उन्हे फायदा मिलेगा। मायानगरी मुंबई उन्हें हाथों-हाथ लेगी। 

विदर्भ और खासतौर नागपुर जिले में प्रतिभाओं की कमी नहीं है, लेकिन उन्हें मुंबई जाकर संघर्ष करने के बाद ही कभी-कभार पहचान मिल पाती है। मुंबई की ‘फिल्म सिटी’ की तरह संतरानगरी में भी फिल्मों के निर्माण के लिए ‘फिल्मसिटी’ जैसा प्रोजेक्ट साकार करने की खबरें कलाकारों को गुदगुदाती रहती हैं। संपूर्ण विदर्भ की प्राकृतिक सुंदरता देश के बड़े-बड़े फिल्मी निर्माताओं को आकर्षित करती आयी है। कई फिल्मों की शूटिंग भी यहां हो चुकी है। नागराज मंजुले ने मलीन बस्ती के लड़कों से अभिनय करवाकर उन्हें यह अहसास तो करवा ही दिया कि उनके अंदर भी कलाकार छिपा है। वे यदि सतत अपने अभिनय को निखारें और संघर्ष करेें तो वे भी फिल्मों में काम कर अमिताभ बच्चन की तरह करोड़ों लोगों के चहेते बन सकते हैं। 

दशहरा-दीपावली से कुछ दिन पहले विभिन्न दैनिक अखबारों के प्रथम पेज पर छपी इस खबर ने सभी को हतप्रभ कर दिया, ‘‘झुंड’ के कलाकार प्रियांशु की नृशंस हत्या’ अमिताभ बच्चन की फिल्म ‘झुंड’ में फुटबॉल खिलाड़ी का किरदार निभाकर लोकप्रियता और तारीफें बटोरने वाले कलाकार प्रियांशु को उसी के दोस्त ने घातक हथियार से मौत के घाट उतार दिया। प्रियांशु और ध्रुव गहरे दोस्त थे। दोनों का एक-दूसरे के घर आना-जाना था। आधी-आधी रात तक दोनों आवारागर्दी करते देखे जाते थे। दोनों पर सेंधमारी, लूटमारी और चोरी-चकारी जैसे कई आपराधिक मामले दर्ज हैं। रात को जब दोनों बैठकर शराब पी रहे थे तो उसी दौरान उनमें किसी बात को लेकर विवाद हो गया। दोनों ने एक दूसरे को देख लेने की धमकी दी। इसके बाद नशे में धुत धु्रव ने अपनी सुध-बुध खो चुके प्रियांशु के शरीर को चाकू से गोद डाला। इतना ही नहीं जिंदा होने के शक में उसने बड़ा-सा पत्थर उठाया और अपने दोस्त के सिर को बुरी तरह से कुचल कर घर जाकर आराम से सो गया।’’

मन में तरह-तरह के विचार लाने और चौकाने वाली यह खबर कई दिनों तक मेरा भी पीछा करती रही। रह-रहकर ‘झुंड’ में देखा प्रियांशु का चेहरा मेरी आंखों के सामने घूमता रहा। जिसे अपनी किस्मत बदलने का अपार अवसर मिला था और भाग्य से मिले इस अवसर का फायदा उठाकर आगे बढ़ना था, ...और बार-बार पर्दे पर चमकना था, वह कुत्ते की मौत मारा गया! उसके मरने पर किसी ने कोई सहानुभूति और गम के दो शब्द तक नहीं कहे। सभी का बस यही कहना था कि गलत संगत और नशा करने वालों का अंतत: यही हश्र होता है। यह भी सच है कि प्रियांशु फुटबॉल का दिवाना था। उसने अपनी फुटबॉल की टीम भी बना रखी थी। उसकी टीम को ‘झुंड’ के लिए चुना गया था। खेल के प्रति उसके पागलपन को देखते हुए कई लोगों को उम्मीद थी कि वह अच्छा खिलाड़ी बनेगा, लेकिन अपने घर-परिवार तथा आसपास के लोगों की सोच के तराजू पर खरा उतरने की उसने कोशिश ही नहीं की। फिल्म में काम कर उसने जो प्रसिद्धि बटोरी, उसका भी ट्रेनों में यात्रियों के विभिन्न कीमती सामानों और धड़ाधड़ मोबाइलों की चोरी कर सत्यानाश कर दिया। किसी ने सच ही कहा है कि नशे और अय्याशी की लत इंसान की सबसे बड़ी शत्रु है। चरित्रहीनों को अंधा और बहरा बनने में देरी नहीं लगाती। तभी तो अपने ही पांव में कुल्हाड़ी मारते हुए वर्तमान और भविष्य का सदा-सदा के लिए कबाड़ा कर देते हैं। फिल्में देखने के कई शौकीनों ने अपनी एक गलती की वजह से तबाह हुए फिल्म अभिनेता शाइनी आहूजा का नाम कभी न कभी जरूर सुना होगा। सर्वश्रेष्ठ नवोदित अभिनेता का फिल्मफेयर अवॉर्ड हासिल करने वाले इस एक्टर की धूम मचा देनेवाली फिल्म ‘गैंगस्टर’ भी देखी होगी। शाइनी आहूजा ने इस फिल्म के अलावा ‘वो लम्हे’, ‘भूल भुलैया’, ‘लाइफ इन ए मेट्रो’ जैसी सफल फिल्मों में सशक्त अभिनय कर मायानगरी में बड़ी मेहनत से अपनी खास जगह बनाई थी। गोरे-चिट्टे हैंडसम, भूरी आंखों वाले शाइनी के निरंतर ऊंचाइयां छूते ग्राफ से अन्य अभिनेता घबराने लगे थे, लेकिन वह खुद को नियंत्रित नहीं रख पाया। साल 2011 में एक दिन की सुबह के सभी अखबारों तथा न्यूज चैनलों पर बस एक ही खबर थी, ‘‘फिल्म अभिनेता शाइनी आहूजा ने अपने घर की नौकरानी से किया बलात्कार’’ मुंबई की फास्ट ट्रैक कोर्ट में इस शर्मनाक दुराचार के मामले की सुनवाई हुई। उसे दोषी ठहराते हुए सात साल की सजा सुना दी गई। अभिनेता बार-बार हाथ जोड़कर कहता रहा कि उसने बलात्कार नहीं किया। दोनों की सहमति से ही शारीरिक संबंध बने। वह बेकसूर है, लेकिन उसकी फरियाद किसी ने भी नहीं सुनी। किसी भी कलाकार से कलाप्रेमी यह अपेक्षा रखते हैं उसका चरित्र निष्कलंक हो। अपराध से दूर-दूर तक उसका कोई नाता न हो। प्रियांशु का तो अभी ठिठकता पहला कदम ही था। यहां तो वर्षों से जड़े जमाये विख्यात से विख्यात कलाकार भी सूखे पत्तों की तरह रौंद दिए जाते हैं। शाहनी को फिल्मों में काम मिलना भी बंद हो गया। चमकता-उभरता सितारा गुमनामी के अंधेरे में गुम हो गया। वह जहां भी जाता लोग दुत्कार और तिरस्कार भरी निगाह से देखते। आखिरकार वह देश से भाग खड़ा हुआ। सुनने में आया है कि अब वह दिन-रात पश्चाताप की आग में जलते हुए फिलीपींस में छोटी-मोटी गारमेंट की फैक्ट्री चलाते हुए बस जैसे-तैसे दिन काट रहा है...।

Thursday, November 6, 2025

मासूम पौधा...छायादार पेड़!

नवरात्रि का पर्व निकट था। शहर के कलाकार देवी की मूर्तियां बनाने में तल्लीन थे। अत्यंत परिश्रम और भक्तिभाव से मूर्तिकार को देवी मां की मूर्ति गढ़ते देख मेरा वहां कुछ पल ठहरने को मन हो आया। इस कुशल और अनुभवी मूर्तिकार का शहर ही नहीं प्रदेश में भी बड़ा नाम है। अपनी कला में बेजोड़ मूर्तिकार का मानना है कि उसके लिए सबसे पवित्र-अनमोल और सुखद पल वो होते हैं, जब वह मां दुर्गा की आंखों में रंग भरता है। रात-दिन के अथक परिश्रम से बनायी और सजायी गई मिट्टी की प्रतिमाएं नास्तिकों में भी श्रद्धा और आस्था के भाव जगा देती हैं। बच्चे, किशोर, युवा और बुजुर्ग नवरात्रि के जगमगाते पंडालों की ओर बरबस खिंचे चले आते हैं और नतमस्तक हो जाते हैं। मूर्ति कला के प्रति जी-जान से समर्पित सिद्धहस्त कलाकार का बस चले तो वह मिट्टी में ही सांस फूंक दे, जान डाल दे, बिल्कुल वैसे ही जैसे ममत्व से परिपूर्ण कई माताएं विपरीत हालातों में भी अपनी संतानों के जीवन को खुशनुमा बनाने और उन्हें शीर्ष तक पहुंचाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करते हुए खुद जीना भूल जाती हैं। इसके साथ ही यह संदेश भी देती चली जाती हैं, जिद ही इंसान की जीत का महामंत्र है। दिल्ली के रानीखेड़ा में जन्मी आयुषी वसंत विहार की एसडीएम यानी सब डिविजनल मजिस्ट्रेट हैं। प्रशासन, कानून व्यवस्था और राजस्व में संबंधित दायित्वों को अच्छी तरह से संभाल रही हैं। सभी लोग उनकी कार्यशैली से अति संतुष्ट और प्रभावित हैं। गौरतलब है कि आईएएस अधिकारी भारत की प्रशासनिक व्यवस्था की रीढ़ माने जाते हैं। देश और समाज में उनकी उल्लेखनीय भूमिका होती है। कहने को तो देश में असंख्य आईएएस अधिकारी हैं, लेकिन यहां कलमकार आयुषी की कहानी इसलिए पेश कर रहा है, क्योंकि वह देख नहीं सकती। जब वह मात्र एक साल की थी, तब उसके माता-पिता को पता चला था कि उनकी मासूम लाडली बिटिया पूरी तरह से दृष्टिहीन यानी अंधी है। उसके लिए सूरज की रोशनी और अंधेरा एक समान है। लाल, हरे, नीले, काले, पीले, सफेद, जामुनी, कत्थे आदि सभी रंगों के उसके लिए एक से मायने हैं। दिल को आहत करने वाले इस कटु सच को जान-समझकर पहले तो माता-पिता काफी देर तक चुपचाप एक दूसरे को अश्रुपूरित आंखों से देखते रहे। दोनों को निराशा की आंधी ने बहुत चिंतित और परेशान किया। तरह-तरह के विचार मन-मस्तिष्क में आते-जाते रहे। ऐसे में हमारी इकलौती बिटिया के भविष्य का क्या होगा? बेटे तो जैसे-तैसे अंधेरे से लड़ लेते हैं, लेकिन बेटी की जीवन नैया कैसे पार होगी? 

आयुषी की मां आशारानी सीनियर नर्सिंग ऑफिसर थीं। उन्होंने सुख-दु:ख के हर चेहरे को करीब से देखा था। कई किताबें पढ़ी थीं। साधु-संतों के प्रवचन सुने थे। उन्होंने किसी तरह से खुद को संभाला। पति को भी इस विपरीत परिस्थिति का हिम्मत के साथ सामना करने के लिए प्रेरित किया। रिश्तेदारों तथा आसपास के लोगों की तरह-तरह की भयावह शंकाओं से परिपूर्ण बोलती को बंद करने के लिए डंके की चोट पर कहा कि हमारी बिटिया की आंखों में रोशनी नहीं है तो क्या हुआ? हम उसे ज्ञान का ऐसा उजाला देंगे कि सभी देखते रह जाएंगे। ममतामयी मां ने बेटी की भविष्य की राह में उजाला ही उजाला लाने के लिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए अच्छे से अच्छे स्कूल, कॉलेज से शिक्षित-दीक्षित किया कि लोग वाकई देखते ही रह गए। आयुषी ने भी मेहनत में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अटूट लगन, अथाह जुनून की बदौलत उसने 2021 में यूपीएससी में ऑल इंडिया में 48 रैंक हासिल कर दिखा दिया कि पौधे को यदि जागरूक माली, बेहतर खाद पानी, हवा मिले तो उसे दुनिया की कोई भी ताकत उसे मजबूत छायादार पेड़ बनने से नहीं रोक सकती। आईएएस बनने से पहले आयुषी ने दस साल तक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका के तौर पर काम किया। उसी दौरान ठान लिया कि चाहे कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े, लेकिन आईएएस बनकर दिखाना है। आयुषी के सपने को साकार करने वाली मां वर्षों तक बड़ी मुश्किल से आधी-अधूरी नींद ले पाईं। आयुषी बताती हैं कि मां पहले तो बोल-बोल कर, फिर रिकॉर्डर के जरिए यूपीएससी के कोर्स सुनाती थीं। वर्ष 2016, 17, 18 तक इन तीनों साल प्रिलिम्स निकाला, लेकिन मैंस क्लियर नहीं कर पा रही थी। लेकिन फिर भी हिम्मत नहीं हारी। हर कमी या गलती से सबक लिया। उस मिस्टेक को रिपीट नहीं होने दिया। किताबे डाउनलोड कीं। यूट्यूब पर वीडियो सुने। कुछ इस तरह यूपीएससी की तैयारी की। अपनी दिव्यांगता के लिए टेक्नोलॉजी का सहारा लिया। 2021 में यूपीएससी रिजल्ट में ऑल इंडिया रैंक 48 थी। 2022 में यूपीएससी ट्रेनिंग करने के बाद एजीएमयूटी कैडर के तहत पहली पोस्टिंग बतौर ट्रेनी गोवा में असिस्टेंट कलेक्टर हुईं।

आयुषी की मां की हार्दिक ख्वाहिश थी कि उनकी बेटी देश-दुनिया के विख्यात शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में प्रतिभागी बने। साहसी और जुनूनी बेटी ने मां के इस सपने को भी पूरा कर दिखाया है। आयुषी कवयित्री भी हैं। अपने अनुभवों और अहसासों को शब्दों में पिरोना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। वह अभी तक 50 से अधिक कविताएं लिख चुकी हैं। अनेकों किताबें पढ़ चुकी इस अनूठी, प्रेरक प्रशासनिक अधिकारी को मूवी भी साउंड सुनकर विजुलाइज करके देखना बहुत सुकून देता है। 

यदि नारी ठान ले तो उसके लिए कोई भी काम मुश्किल नहीं है। परिवार की रोजी-रोटी की गाड़ी चलाने के लिए हमारे इर्द-गिर्द कई महिलाएं पुरुषों की तरह खून-पसीना बहाती देखी जा सकती हैं। उन्हीं में शामिल हैं लक्ष्मी अगदारी, जो कोयला खदान में बड़ी सावधानी से जमीन से सौ मीटर नीचे जाकर बारूद लगाती हैं। यहीं से कोयला मिलता है। यहां पहुंचने और विस्फोटक लगाने में तीन घंटे से ज्यादा लगते हैं। विस्फोट के बाद कोयला टूटता है और उसे निकालने का काम शुरू होता है, खदान में हर पल घना अंधेरा छाया रहता है। दम घोटू घने अंधकार में एक बारगी पुरुष भी घबरा जाते हैं। पहले लक्ष्मी के पति कोयला खदान में काम करते थे। अचानक उनके चल बसने के बाद लक्ष्मी ने सफाईकर्मी या चपरासी का आसान काम करने की बजाय कोयला खदानों में विस्फोटक लगाने (ओपन माइन ब्लास्टिंग) के जोखिम वाले काम को चुना। उन्हें कुछ पुरुषों ने चेताया और समझाया भी कि महिलाओं के लिए यह काम कतई आसान नहीं, लेकिन लक्ष्मी ने इस खतरनाक कार्य को इसलिए प्राथमिकता दी कि दूसरी औरतें भी कोयला खदानों में काम करने के लिए आगे आएं। इसे करने में उन्हें किंचित भी भय न लगे। 

पुलिस वालों के प्रति अधिकांश लोग अच्छी राय नहीं रखते। उनकी परछाई से भी दूर रहने में भलाई समझते हैं। यह भी सच है क कुछ खाकी वर्दीधारियों ने पुलिस महकमे की आन-बान और शान को निरंतर बचाये और बनाए रखा है। यह बहुत अच्छी बात है कि अब महिलाएं भी पुलिस विभाग में बड़े दमखम के साथ अपनी चमक बिखेरते हुए, ईमानदारी, दृढ़ता और संवदेनशीलता के साथ अपने कर्तव्य को निभा रही हैं और खाकी वर्दी की गरिमा बढ़ा रही हैं। उन्हीं में से एक नाम है दिल्ली पुलिस की कांस्टेबल सोनिका यादव का, जिन्होंने अपने दृढ़ आत्मबल का सार्थक प्रदर्शन कर उन लोगों को अपना मुंह बंद रखने को विवश कर दिया, जो नारी को अभी भी कमजोर मानते हैं। खेलकूद में हमेशा आगे रहीं सोनिका को उसके माता-पिता ने बचपन में ही हर चुनौती का भयमुक्त होकर सामना करने का पाठ पढ़ा दिया था। बेटी ने भी उन्हें कभी निराश नहीं किया। नारी के प्रति समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों और सदियों से चली आ रही परंपराओं और धारणाओं को तोड़ते हुए नारी के भीतर छिपी ताकत का प्रतिनिधित्व करती सोनिका ने गर्भवती होने के बावजूद वेटलिफ्टिंग प्रतियोगिता में भाग लेकर न केवल पदक जीता, बल्कि यह संदेश भी दिया कि गर्भवती महिलाएं सिर्फ विश्राम और देखभाल के लिए नहीं होती हैं। सोनिका जब मां बनने वाली थीं, तभी उनसे कुछ लोगों ने बड़ी गंभीरता और सहानुभूति से कहा कि अब खेल से दूरी बना लो। घर में पूरी तरह से आराम करो, लेकिन सोनिका ने डॉक्टरों की निगरानी में राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता के लिए प्रशिक्षण जारी रखा। बहादुर सोनिका ने दूसरे देश की महिलाओं के बारे में खूब पढ़ा, जाना और ठाना था कि वे प्रेग्नेंसी के दौरान भी अपनी विभिन्न गतिविधियों को सतत जारी रखती हैं। यहां तक कि कड़ी से कड़ी कसरत और खेलने-कूदने से भी नहीं घबरातीं। यदि वे ऐसा कर सकती हैं तो वह क्यों नहीं? भारतीय नारियां न तो विदेशी नारियों से कहीं कम हैं और न ही कमजोर। प्रतियोगिता के दिन गर्भवती सोनिका को मंच पर उतरते देख लोग स्तब्ध रह गए थे। कहीं कोई चिंता और भय नहीं। सिर्फ और सिर्फ आत्मविश्वास से उनका चेहरा दमक रहा था। जैसे ही 145 किलोग्राम के वजन को बड़ी आसानी से उठाया तो पूरा हॉल प्रशंसा, शाबाशी और आदर से परिपूर्ण तालियों से गूंज उठा...।

Saturday, November 1, 2025

उत्सव की महक

रोशनी के महाउत्सव दीपावली का हम सभी को हमेशा इंतजार रहता है। वैसे भी हम भारतीय जगजाहिर उत्सव प्रेमी हैं। कोई भी त्योहार ऐसा नहीं है जिससे कोई न कोई उद्देश्य न जुड़ा हो। हमारे बुजुर्गों ने त्योहारों की परिपाटी की नींव यूं ही नहीं रखी। दीपोत्सव उमंग-तरंग, ऊर्जा के साथ-साथ नई सोच की प्रेरक धारा की जगमगाहट का जन्मदाता है। दरअसल स्वयं को जानने-पहचानने और खोजने का नाम ही दीपावली है। अधिकांश लोग इस पुरातन उत्सव को रस्में अदायगी की तरह मनाते हैं, लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो वास्तव में इस सुअवसर पर प्रकाश, सेवा और सहयोग का दीपक प्रज्वलित कर महाउत्सव को सार्थकता का जामा पहनाते हैं। वर्ष 2025 की दीपावली को ऐसे ही अनूठे भारतीयों ने और...और प्रेरणास्पद और यादगार बना दिया। महाराष्ट्र के अमरावती में इस वर्ष भी ‘वंदे मातरम’ समूह से जुड़े वकीलों, डॉक्टरों, इंजीनियरों तथा विभिन्न कारोबारियों ने मेलघाट के दो गांवों के हर घर में जाकर नये कपड़े, किताबें, साइकल और मिठाइयां वितरित कीं। लगभग 800 लोगों का यह समूह सोलह साल से हर दिवाली पर किसी ने किसी गांव का सर्वे करता है और असहायों तथा जरूरतमंदों के जीवन में मिठास घोलता है। बीमारों की दवाएं देने के साथ-साथ उनका इलाज भी किया जाता है। अब तक इन्होंने 27 लोगों की सर्जरी अपने खर्चे से कराकर उन्हें नयी जिन्दगी दी है। जिन किसानों ने आत्महत्या कर ली है उनके परिवारों के बच्चों की पढ़ाई का खर्च भी इनके द्वारा उठाया जाता है। यह भी गौरतलब है कि ऐसे परिवारों को रोजगार उपलब्ध कराने के लिए उद्योग लगाने की तैयारी भी की जा रही है। 

इस बार की दिवाली के मौके पर बेंगलुरू शहर में सैकड़ों परोपकारी लोगों ने ऐसे बीमारों के साथ दिवाली मनाई, जो कैंसर के अंतिम पड़ाव पर हैं। अभावों से जूझते दुखियारों की देखरेख और सेवा के लिए वालेंटियर बन करीब 200 युवाओं ने अनाथ बच्चों के साथ-साथ ट्रांसजेंडर, एसिड अटैक सवाईवर तथा दृष्टिबाधितों के साथ रंगारंग दिवाली मनाते हुए उसे नीरस जीवन में आत्मविश्वास के साथ-साथ अपार खुशियां भर दीं। अनाथ बच्चों ने स्टेज पर अपने भीतर छिपी कलाओं का खुलकर प्रदर्शन कर तालियां पायीं। वृद्धाश्रमों तथा गरीब बच्चों के बीच जाकर दीये जलाने वाले युवाओं की इस पहल का हर किसी ने वंदन...अभिनंदन किया।

मुंबई से लगे वसई में एक शख्स ने अपने जवान बेटे की आसामायिक मौत के बाद जो साहसी फैसला लिया उसकी तारीफ करने के लिए कलमकार के पास शब्द नहीं हैं। अपने माता-पिता की 24 वर्षीय इकलौती संतान सत्यम दिवाली के अवसर पर वापी में हुई भीषण सड़क दुर्घटना में इस कदर बुरी तरह से घायल हुआ कि सरकारी अस्पताल के डॉक्टरों ने अंतत: उसे ब्रेन डेड घोषित कर दिया। फिर भी सत्यम के माता-पिता की आस की डोर नहीं टूटी। उन्होंने तुरंत अपने लाडले बेटे को निजी अस्पताल में इलाज के लिए भर्ती कराया, लेकिन वहां पर कोई सुधार नहीं हुआ। आखिरकार उन्होंने अपने लाडले को दूसरों में देखने और बनाए रखने के लिए उसके अंगों को दान करने का हिम्मती फैसला लेते हुए उसे साकार भी कर दिया। सत्यम की किडनी, लिवर, टिश्यू और कार्निया के महादान से जिन्दगी और मौत से लड़ रहे कई अनजान लोगों को नया जीवन मिला है। उनके लिए सत्यम के माता-पिता पूज्य देवता से कम नहीं। यहां यह भी काबिलेगौर है कि दिवाली के त्योहार के कारण मुंबई में भीड़ भड़ाका होने की वजह से हर जगह ट्रैफिक जाम था। ऐसे में मुंबई ट्रैफिक पुलिस ने भी अपनी मुस्तैदी, इंसानियत और लाजवाब समन्यवय की आदर्श मिसाल पेश करते हुए घंटों की दूरी मिनटोंं में पूर्ण करते हुए लाइव लिवर को उस अस्पताल तक पहुंचाया जहां जरूरतमंद इंतजार कर रहे थे। इस पूरी फुर्तीली कवायद के दौरान एक पुलिस पायलट वाहन रास्ते को पूरी तरह से साफ रखने के लिए एंबुलेंस के आगे चल रहा था। 

बिहार के शहर गयाजी की स्कूल शिक्षक रीता रानी महज तीन फीट की हैं। रीता का कद भले ही छोटा है, लेकिन सोच बहुत ऊंची है। छात्र-छात्राओं को अपनी शैली में शिक्षित करती रीता छात्रों की अत्यंत प्रिय हैं। लोगों की सेवा में सदैव तत्पर रहने का गुण उन्हें ‘बिहार गौरव अवार्ड’ दिलवा चुका है। पितृपक्ष मेले के दौरान दिव्यांगों तथा वृद्धों के लिए व्हीलचेयर की अपने पैसों से व्यवस्था करने वाली रीता की मुस्कुराहट दिवाली के दीप की तरह हरदम जगमगाती रहती है। तमिलनाडु के मदुरे में रहते हैं, डॉक्टर, स्वामीनाथन चंद्रमौली। उनकी वैन में ऑक्सीजन, अल्ट्रासाउंड, ईसीजी जैसी तमाम सुविधाएं हैं। परोपकारी चंद्रमौली रोज सुबह अपनी वैन में बैठकर बुजुर्ग मरीजों के इलाज के लिए घर से निकल जाते हैं। बिना किसी प्रचार और शोर-शराबे के पच्चीस हजार से ज्यादा मरीजों का इलाज कर चुके ये अनूठे डॉक्टर साहब गरीबों, असहायों तथा जरूरतमंदों से फीस नहीं लेते। महाराष्ट्र के सोलापुर जिले के चिंचणी गांव में चाहे दिवाली हो या किसी का जन्मदिन और शादी-ब्याह, लेकिन पटाखे बिलकुल नहीं फोड़े जाते। लगभग दस वर्ष पूर्व इस गांव में पटाखों के धमाकों की तीव्र आवाजों से एक कुत्ता इस कदर भयभीत हो गया था कि वह गांव से भागकर जंगल में चला गया और गड्ढा खोदकर वहां हमेशा के लिए सो गया। इस हैरतअंगेज घटना के बाद सजग ग्राम वासियों ने आपस में मिल-बैठकर सोचा-विचारा कि पटाखों की आवाज से गांव के बुजुर्गों तथा रोगियों को बहुत अशांति का सामना करना पड़ता है तथा गाय-भैंस भी भय तथा सदमे का शिकार होे जाती हैं। इस वजह से दूध भी कम देती हैं। ऐसा विस्फोटक जश्न भी किस काम काम का जो किसी के लिए परेशानी का कारण बने। उसके बाद गांव में पटाखे फोड़ने पर जो विराम लगा वो अभी तक कायम है। दिवाली की छुट्टियों में गांव के बच्चे भी पटाखे जलाने की नहीं सोचते। वे खुशी-खुशी मिल-जुलकर किले बनाते हैं और कठपुतली का मनोरंजक खेल खेलते हैं।

छत्तीसगढ़ के अत्यंत मेल-मिलाप वाले सांस्कृतिक शहर बिलासपुर में दिवाली की रात जब 9 साल की काव्या का परिवार पूजा की तैयारी कर रहा था। तभी मासूम काव्या पटाखे जलाने के लिए दौड़ी तो एकाएक वहीं पर रखी घंटी पर मुंह के बल गिर पड़ी। घंटी का ऊपरी नुकीला सिरा जो कि लगभग चार-पांच सेंटीमीटर लंबा था, उसकी आंख से होते हुए दिमाग में धंस गया। डॉक्टरों की सलाह पर काव्या को इलाज के लिए रायपुर ले जाया गया। दिवाली होने के कारण अस्पताल के अधिकांश डॉक्टर छुट्टी पर थे। फिर भी जैसे ही डॉक्टरों को खबर लगी तो वे दौड़े-दौड़े चले आए। लगभग चार घंटों तक डॉक्टरों की सजग कुशल टीम ने सघन सर्जरी कर बच्ची की आंख की रोशनी लौटाने का चमत्कार कर दिखाया और उसके बाद ही अपने-अपने घर जाकर उन्होंने दीप जलाकर खुशी-खुशी दीपावली मनायी।