Thursday, August 12, 2010
निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की ज़िद
'विज्ञापन की दुनिया' का यह अंक जो आपके हाथ में है इसके प्रकाशन के साथ ही इस राष्ट्रीय साप्ताहिक ने अपनी यात्रा के १४ वर्ष पूर्ण कर १५ वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। १५ अगस्त १९९६ के शुभ दिन इस सर्वधर्म समभाव के मूलमंत्र पर चलने वाले समाचार पत्र की यात्रा का शुभारंभ हुआ था। विज्ञापन की दुनिया का जब महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से प्रकाशन आरंभ हुआ था तब इसके नाम को लेकर भी तरह-तरह की बातें की जाती थीं और भाई लोग उपहास उडाते हुए यह कहने से भी नहीं चूकते थे कि भला यह भी कोई नाम है...! कइयों ने तो इसके अंधकारमय भविष्य की भविष्यवाणी भी कर दी थी। पर हमने अपने सजग पाठकों के साथ-साथ चलते हुए जिस लक्ष्य की ओर कदम बढाने और मंजिल तक पहुंचकर ही दम लेने की प्रतिज्ञा के साथ विज्ञापन की दुनिया की शुरुआत की थी उस पर आज भी कायम हैं। यात्रा अभी जारी है। हम यह मानते हैं कि पत्रकारिता वह जुनूनी पेशा है जिसका रास्ता और संघर्ष कभी खत्म नहीं होता। जब इस साप्ताहिक के प्रकाशन की रूपरेखा बनायी जा रही थी तब हमने यह भी तय कर लिया था कि जिस तरह से साहित्य समाज का दर्पण होता है। वैसे ही 'विज्ञापन की दुनिया' भी देश और दुनिया का आईना होगा। सच चाहे कितना भी कडवा क्यों न हो उसे हर हाल और हालत में उजागर किया जायेगा। हम यह भी जानते थे कि यह रास्ता उतना आसान नहीं है। सोचने और करने के बीच बहुत बडा फासला होता है पर हमने इसी सोच और फासले को मिटाने की ठानी थी और इस जिद को पूरा करने में हम कितने सफल हुए इसका जवाब जानने के लिए इतना ही जान लेना काफी है कि आज विज्ञापन की दुनिया के पाठकों की संख्या लाखों में है। देशभर के सजग पाठकों को इस साप्ताहिक अखबार का बडी बेसब्री से इंतजार रहता है क्योंकि उन्हें यकीन हो चुका है कि यही एकमात्र साप्ताहिक है जो सजगता, निर्भीकता और निष्पक्षता के साथ पत्रकारीय दायित्व को धर्म समझ कर निभाता है और मुखौटे नोचने से नहीं घबराता। बीते चौदह वर्ष के दौरान सफेदपोश अराजक तत्वों को जिस रफ्तार और निर्भीकता के साथ बेनकाब किया गया उससे बौखला कर अपराधियों के गठजोड से फलने-फूलने वाले नेताओं और भूमाफियायों ने इस अखबार को बंद करवाने के लिए न जाने कितने हथकंडे अपनाये। पर हम अपने मार्ग पर डटे रहे, डटे हैं और डटे रहेंगे। अखबार के माध्यम से मुनाफा कमाना हमारा कभी उद्देश्य नहीं रहा। न ही हमने कभी भी पूंजीपतियों और राजनेताओं के आश्रय की तलाश की। उत्साही पत्रकारों की टीम और समर्पित सहयोगियों की बदौलत ही विज्ञापन की दुनिया ने यह मुकाम हासिल किया है कि आम आदमी इसे अपना साथी समझता है। आज के दौर में मीडिया आम आदमी के सरोकार से निरंतर दूर होता चला जा रहा है पर हमारा यह मानना है कि कोई भी अखबार सिर्फ आमजन के दम पर ही चल सकता है। यही वजह है कि विज्ञापन की दुनिया में उन्हीं खबरों को प्रमुखता दी जाती है जिनका आम आदमी से जुडाव होता है। आम आदमी के जीवन के कई रंग-रूप होते हैं और विज्ञापन की दुनिया में उसी तस्वीर को पेश किया जाता है। इधर के कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि कुछ पत्रकारों पर भी ढेरों उंगलियां उठने लगी हैं। भ्रष्ट राजनेताओं और तरह-तरह के माफियाओं के साथ उनका नाम जोडा जाने लगा है। जिस तरह से कभी बिकाऊ नेताओं पर आरोपों की बौछार होती थी वैसे ही बौछार पत्रकारों और सम्पादकों पर होने लगी है। यह लोगों का आक्रोश ही है जो पत्रकारिता को 'वेश्या' कहने से भी नहीं कतराता। ऐसा तो हो नहीं सकता कि इस रोष के पीछे कोई ठोस वजह न हो। वजह है, बहुत बडी वजह है जिससे वो तमाम बुद्धिजीवी किस्म के सम्पादक भी वाकिफ हैं जो लाखों रुपये महीने की पगार लेकर पूजीपतियों के अखबारों में नौकरियां बजाते हैं और तब तक चुप्पी साधे रहते हैं जब तक उन पर कोई आंच नहीं आती। यही वो कलम के खिलाडी हैं जो विभिन्न मंचों पर मीडिया के बिक जाने और 'पेड न्यूज' का रोना रोते हुए घ्ािडयाली आंसू बहाते हैं। दरअसल आज इन मुखौटेबाजों से भी सावधान हो जाने का वक्त आ गया है। यह लोग भ्रष्ट और बिकाऊ नेताओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं। इन्हें अगर वास्तव में मीडिया की बरबादी और बदहाली की इतनी िचंता होती तो यह उन धनासेठों के यहां चाकरी करने से पहले हजार बार सोचते...। दरअसल इनमें ऐसा करने का दम ही नहीं है। यह तो सिर्फ दिखावे के शेर हैं, जो अपने मतलब के लिए दहाडते रहते हैं और पूजीपतियों के अखबारों के लिए ढाल बन उन्हें जनता और सरकार को उल्लू बनाने और लूटने के भरपूर अवसर मुहैय्या कराते रहते हैं। विज्ञापन की दुनिया ने मीडिया के बहुत बडे वर्ग में रच-बस चुके इस शातिराना खेल और इसके खिलािडयों को अनेकों बार बेनकाब किया है और इनकी शैतानियों के विषैले दंश को भी झेला है। हमें कई बार धमकियों भरी भाषा में यह समझाने की भी कोशिश की गयी कि हमें अपनी बिरादरी के लोगों के बारे में भूल कर भी कलम नहीं चलानी चाहिए। हर अखबारनवीस को दूसरे का साथ देना चाहिए। अधिकांश अखबार वाले इसी उसूल पर चलते हैं। जिनसे उनके प्रगाढ रिश्ते होते हैं, उन्हें हत्यारा और लूटेरा होने के बावजूद भी कलम की नोक से छूआ तक नहीं जाता।विज्ञापन की दुनिया को ऐसे नियम-कायदे कतई स्वीकार नहीं हैं, जिनकी आड में दोस्ती, रिश्तेदारी और धंधेबाजी निभायी जाए। माफियाओं, भ्रष्टाचारियों, फरेबियों, डाकूओं और चोर लूटेरों में अपने-पराये का भेदभाव हम पत्रकारिता के धर्म को भ्रष्ट और कलंकित करने के भागीदार नहीं बनना चाहते। न ही हम भीड में शामिल हो सकते हैं। सच की लडाई लडने के लिए हमें अकेले चलना आता है और अपनी राह बनाना भी जानते हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि देश के अधिकांश लोगों को आजादी के इतने वर्ष बीतने के बाद भी यह आजादी झूठी लगती है और देश को सच्चे दिल से प्यार करने वालों के दिलों में असंतोष और आक्रोश ने घर कर लिया है? दरअसल जब देश आजाद हुआ था तब लोगों के मन में यह विश्वास जागा था कि अब उनकी सभी समस्याओं का निदान हो जायेगा। पर आज के हालात देखकर यह कहने को विवश होना पडता है कि देश को स्वतंत्र कराने के लिए देशभक्तों ने जो कुर्बानियां दी थीं, उनका प्रतिफल आम जन को नहीं मिल पाया। चंद मुट्ठी भर चालाकों ने इतना कुछ समेट लिया कि देश खुद बेबस नजर आने लगा है। राज्यों की सीमा और भाषा को लेकर लडाई-झगडे शुरू हो चुके हैं। ऐसे नेताओं की भरमार होती चली जा रही है जो भारत देश की बात करने के बजाय प्रदेश की बात करते हैं और वे यह भी चाहते हैं कि लोग उनका अनुसरण करें। देश में ऐसी राजनीतिक पार्टियां उफान पर हैं, जिनके नेताओं ने देश को तोडने का षडयंत्र रचने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी है...। राज्य, प्रांत, भाषा, जाति, धर्म और संप्रदाय की राजनीति करने वालों ने एक दूसरे के बीच दूरियां बनाने और शत्रुता के बीज बोने का जो अनवरत अभियान चला रखा है उसे खुली आंखों से देखने के बाद भी कई मीडिया दिग्गज तटस्थ बने हुए हैं। जैसे उन्हें इससे कोई लेना-देना ही न हो। पर हमारी निगाह में यह बहुत बडा अपराध है। देश टूटने और जलने के भयावह खतरे से जूझ रहा हो और हम चुप्पी साधे रहें... यह गद्दारी न तो हम कर सकते हैं और न ही होने दे सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भले ही हमें कितने विरोधों और साजिशों का सामना करना पडे पर हम अपनी सोच और राह नहीं बदल सकते। हम जानते हैं... और हमें पूरा यकीन है कि देशभर के सजग पाठक और शुभचिंतक हमारे साथ हैं, और रहेंगे। फिर ऐसे में घबराना कैसा...! देश भर में फैले तमाम समर्पित पाठकों, शुभचिंतकों, संवाददाताओं, लेखकों एजेंट बंधुओं और तमाम सम्पादकीय सहयोगियों को स्वतंत्रता दिवस एवं विज्ञापन की दुनिया की वर्षगांठ की हार्दिक शुभकामनाएं...।
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badhai...iss safalataa ke liye. shubhkamana yahi hai ki yah akhabaar jaldi se ''dainik'' bhi ho jaye. size yahi rahe.koi fark nahi padega..
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