Thursday, August 19, 2010

बात और बंदूक

यह हिं‍दुस्तान है। यहां मुद्दों को सुलगाया जाता है। बेमतलब की बातों में देशवासियों को उलझाया जाता है। समस्याएं जब तक विषैली नहीं बन जातीं तब तक कोई इलाज नही तलाशा जाता। दरअसल यह देश देश नहीं एक प्रयोगशाला बन चुका है। हर कोई प्रयोग करने लगा है। जिन लोगों को देश चलाने का जिम्मा दिया गया है वे एक-दूसरे पर वार करने में लगे हैं। यह लोग समस्या को जड से खत्म करने के लिए देशहित में एकजुट होकर एक स्वर में बोलने से कतराते हैं। आज जब देश एक और बटवारे की आहट से सशंकित और भयभीत है तब भी शासकों के चेहरे पर कोई शिकन नजर नहीं आती। देश बाहरी हमले को सहता आया है और उसने दुश्मनों को मुंहतोड जवाब देकर एक ओर दुबक कर बैठने के लिए विवश भी कर दिया है। पर घर के हमलावरों से वह बेहद घबराया हुआ है। अपनों के साथ खून की होली खेलने के लिए जिस बर्बरता और निर्ममता की जरूरत होती है वह इसके संस्कारों में नहीं है। इसी का फायदा जी भरकर उठाया जा रहा है।इसमें दो मत नहीं हो सकते कि आज देश नक्सलियों के आतंक से इस कदर जूझ रहा है कि उसे कुछ सूझ नहीं रहा है। यह आतंक अगर कहीं बाहर से आया होता तो उसे मिटाने के लिए ज्यादा ताकत नहीं लगानी पडती। इस बार के स्वतंत्रता दिवस पर देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने बेकाबू होती नक्सली समस्या को लेकर गहन ‍चिं‍ता व्यक्त करते हुए नक्सलियों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल होने और हथियार छोडकर बातचीत की राह अपनाने की सलाह दी। नक्सलियों को इस तरह से समझाने के अनेकों प्रयास किये जा चुके हैं पर नक्सली नेता खून-खराबे से बाज ही नहीं आना चाहते। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर ही देश की रेलमंत्री ममता बनर्जी ने लालगढ की सार्वजनिक सभा में आंध्रप्रदेश में पुलिस मुठभेड में मारे गये नक्सली नेता आजाद के मामले की जांच की मांग कर डाली। ममता ने तो यहां तक कह डाला कि नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षाबलों द्वारा चलाये जा रहे अभियान पर भी विराम लगा दिया जाना चाहिए। ममता की यह मांग सोचने पर विवश करती है कि आखिर उनकी मंशा क्या है?ममता बनर्जी को एक संघर्षशील नेता का दर्जा मिला हुआ है। वह दूसरे राजनेताओं से निश्चय ही अलग हैं और उनकी सादगी भी सभी को लुभाती है। बंगाल में उन्हें जननेता के रूप में जो सम्मान मिलता चला आ रहा है वह हर किसी को नसीब नहीं होता। नक्सलवाद के बीज भी बंगाल से ही फूटे थे। इन बीजों को अगर खाद-पानी नहीं मिलता तो आज वे दरख्त नहीं बन पाते। ममता बनर्जी जैसे नेताओं ने अगर पहल की होती तो हालात इतने बेकाबू नहीं हो पाते। नक्सलवाद आज की पैदावार नहीं है। ममता भी कोई नयी-नवेली नेता नहीं हैं। इस रोग से वे तब से वाकिफ हैं जब से इसने पैर पसारने शुरू किये थे। अपने बलबूते पर राजनीतिक संघर्ष कर बहुत ऊपर तक पहुंचीं ममता को भी अब टिके रहने के लिए लालू, पासवान और मुलायम जैसे शातिरों के शातिरपने का सहारा लेना पड रहा है।सवाल यह उठता है कि सरकार नक्सलियों के प्रति नर्म रुख क्यों अपनाये? सरकार ने तो उन्हें कई मौके दिये पर वे ही हैं जो अपनी हरकतों और दगाबाजियों से बाज नहीं आते। उन्होंने देश के विभिन्न प्रदेशों में कितने जवानों का खून बहाया और कितनी निर्मम हत्याएं कीं, ममता भी जानती हैं। ममता ही क्यों वे भी जानते हैं जो नक्सलियों की हिमायत में झंडे लेकर जब-तब खडे हो जाते हैं। बीते कई वर्षों से नक्सली आतंक से निरंतर आहत और घायल होते चले आ रहे ‍हिं‍दुस्तान में ऐसे कई नेता, बुद्धिजीवी और मानवाधिकार संगठन के कार्यकर्ता हैं जिन्हें नक्सलियों के हाथों मारे गये जवान नहीं दिखते पर वो नक्सली जरूर दिख जाते हैं जिन पर सरकार हाथ डालने की पहल करती है। उन्हें सरकार हिं‍सक नजर आती है और नक्सली बेबस और बेकसूर! यह तथाकथित बेकसूर कितने बेकसूरों की बलि ले चुके हैं और लेने पर आमादा हैं इसकी चिं‍ता-फिक्र करने की कोई तैयारी नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखने वालों में कहीं नजर नहीं आती। इसकी असली सोच और नीयत भी पहेली बनी हुई है।स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश के कई स्थानों पर नक्सलियों ने काले झंडे फहराये। माओवादी नेता आजाद की मौत को हत्या करार देने वाली ममता ने नक्सलियों और सरकार के बीच मध्यस्थता करने की मंशा भी जतायी। माओवादी नेता किशनजी ने भी संघर्ष विराम के संकेत तो दिये हैं, पर क्या ऐसा होगा इसे लेकर पूर्व को तरह अब भी संदेह बरकरार है। यह समस्या मिल बैठकर हल कर ली जाए इससे बेहतर बात और कोई हो ही नहीं सकती। पर इतिहास गवाह है कि नक्सली नेता जो कहते हैं उस पर अमल नहीं करते। वे हमेशा भ्रम पैदा करते रहते हैं। जब हमारे प्रधानमंत्री ओर गृहमंत्री यह कहते हैं कि पहले नक्सली हत्याएं करना बंद करें फिर बातचीत की पहल की जा सकती है तो इसमें गलत क्या है? सभी जान-समझ चुके हैं कि नक्सलियों पर जब भी दबाव पडता है तो उनके नेताओं की तरफ से बातचीत के सुझाव आने लगते हैं लेकिन तब भी उनकी हिं‍सक गतिविधियां थमती नहीं हैं। नक्सलियों के शुभचिं‍तक अपने लाडले नक्सलियों को इस तथ्य से तो अवगत करा ही सकते हैं कि बात के साथ बंदूक और खून खराबे के सिद्धांत का देश के लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं हो सकता...।

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