Thursday, January 19, 2012
नोटतंत्र के शिकंजे में लोकतंत्र
कहने को तो देश के पांच प्रदेशों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं पर हर तरफ चर्चा सिर्फ और सिर्फ उत्तरप्रदेश और पंजाब की हो रही है। हर राजनीतिक पार्टी का लगभग सारा ध्यान इन दोनों प्रदेशों पर केंद्रित है। काला धन भी यहां खूब बरस रहा है। अभी तक लगभग सौ करोड रुपयों की जब्ती हो चुकी है जिन्हें चुनाव में खर्च किया जाना था। नोटों के बंडलों के साथ शराब से भरे ट्रक जिस तरह से लगातार पकड में आ रहे हैं उससे मुल्क की राजनीतिक पार्टियों और उनके सूरमाओं की कमीनगी का भी धडाधड पर्दाफाश हो रहा है। आम मतदाताओं को खरीदने के लिए नोट, शराब और कंबल बांटने की प्रतिस्पर्धा देखते बन रही है। एक तरफ राजनीतिक पार्टियां और प्रत्याशी जनता के ज़मीर की बोली लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ बडे-बडे औद्योगिक घरानों और माफिया सरगनाओं ने भी अपने-अपने दांव लगाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखने की ठान ली है। हर थैलीशाह की अपनी-अपनी पसंद की पार्टी है जिसे वह हर हाल में जीतते हुए देखना चाहता है। इस जीत के साथ उनकी कई उम्मीदें बंधी हुई हैं। चुनावों के समय थैलीशाहो का धन मतदाताओं पर बरसता है और उसके बाद जनता के खून-पसीने की कमायी थैलीशाहों की तिजोरियों में पहुंचा दी जाती है। इस देश के अधिकांश विधायक और सांसद यही काम करते हैं। दौलतमंदों के हाथों बिकने के बाद ही चुनाव लड पाते हैं, इसलिए उनकी वफादारी देश की जनता के प्रति कम और अपने दाताओं के प्रति ज्यादा रहती है।देश की जो तस्वीर आज हमारे सामने है उसे बनाया और बिगाडा भी हम और आप ने ही है। फिर भी एक दूसरे पर दोष मढते रहते हैं। हमेशा यही रोना रोया जाता है कि नेताओं की बिरादरी देश को बरबाद करने में लगी हैं। पर हम क्या कर रहे हैं? अगर देने वाला दोषी है तो लेने वाला भी माफी के काबिल नहीं हो जाता। आज की सचाई यही है कि यदि कोई साफ सुथरे ढंग से राजनीति करना चाहे तो उसकी चलने ही नहीं दी जाती। साफ-सुथरे व्यक्ति का चुनाव मैदान में जीतना तो दूर खडा रह पाना भी मुश्किल हो जाता है। नेताओं के हथकंडों की तो जमकर चर्चा होती है पर आम जनता में रच-बस चुके फरेब और लालच को नजर अंदाज कर दिया जाता है। यह जनता ईमानदारों की प्रशंसा के गीत तो गाती है पर उन्हें चुनाव में विजयश्री दिलवाने में कतराती है। ऐसे में जब बेईमान छा जाते हैं तो चीखना-चिल्लाना शुरू हो जाता है। चुनाव कोई भी हो पर उसमें धनबल, बाहुबल, जाति और धार्मिक समीकरण चुनावी जीत दिलवाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। अच्छे-खासे पढे-लिखे मतदाता भी जाति और धर्म के नाम पर वोट देते हैं। अपनी जाति और धर्म वाला लाख भ्रष्टाचारी और अनाचारी हो पर उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है। दूसरी जाति और धर्म के ईमानदार शख्स को हरवाने और नकारने में जरा भी देरी नहीं लगायी जाती। मुलायम सिंह यादव, लालूप्रसाद यादव, ओमप्रकाश चोटाला, रामविलास पासवान और मायावती जैसे हुक्मरान भले ही देश को लूट खाएं पर उनकी चुनावी जीत पर कोई आंच नहीं आती। इस कटु सच को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है कि दलितों, शोषितों और जाति के नाम पर राजनीति करने वाले सभी नेता देखते ही देखते अरबों-खरबों के मालिक कैसे बन जाते हैं और उन्हें अपना वोट देने वाले जहां के तहां क्यों खडे रह जाते हैं! ऐसे में व्यवस्था को बदलने के नारे लगाना बेमानी है। खुद को धोखा देना है। कई अन्ना हजारे आएंगे और चले जाएंगे। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी फलते-फूलते रहेंगे। इन्हें हर तरह का खाद-पानी देश की आम जनता ही देती है और इनके खिलाफ नारे लगाने में भी वही आगे रहती है! तमाम राजनीतिक पार्टियां और चुनाव लडने वाले नेता जानते हैं कि इस देश की गरीब जनता को किसी न किसी तरीके से अपने पक्ष में किया जा सकता है। उन्हें चुनाव में मात नहीं खानी है। इसलिए वे वही कर रहे हैं जो वर्षों से होता चला आ रहा है। चुनाव आयोग द्वारा पंजाब और उत्तरप्रदेश के विभिन्न स्थानों से करोडों रुपयों के काले धन की जब्ती कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। यह एक तरह से शेर के मुंह में हाथ डालकर उसका आहार बाहर निकालने का कारनामा है। हालांकि जो काला धन पकड में आया है वो तो नाममात्र का है। धनबलियों ने तो हजारों करोड रुपये चुनावों में लुटाने की तैयारी कर ली है। वे अपनी जीत के प्रति निश्चिंत हैं। उनका विश्वास तभी तहस-नहस हो सकता है जब मतदाता किसी भी तरह के प्रलोभन में न आएं। अगर ऐसा हो जाता है तो दुनिया की कोई भी ताकत हिंदुस्तान की किस्मत को बदलने और चमकने से नहीं रोक सकती। व्यवस्था को बदलने के लिए ऊपर से कोई फरिश्ता नहीं टपकने वाला। जो कुछ भी करना है, हमें यानी जनता को ही करना है। यह धारणा भी सरासर गलत है कि सिर्फ गरीब मतदाता ही बिकते हैं। गरीब जहां कंबल, साडी और नोट पाकर खुश हो जाते हैं वहीं तथाकथित पढे-लिखे लोग कम्प्यूटर, लैपटॉप और टेलिविजन का उपहार पाकर हंसते-खेलते अपना वोट किसी पर भी न्यौछावर कर देते हैं। चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव में एक प्रत्याशी की खर्च सीमा १६ लाख रुपये तय की है पर कई प्रत्याशी तो २५ से ३० करोड तक फूंक देते हैं। तय है कि काले धन का जमकर इस्तेमाल होता है। ऐसे में साफ-सुथरे लोकतंत्र की उम्मीद क्यों और कैसे? देश के प्रदेशो के चुनावों में काले धन और भ्रष्टाचार की गंगोत्री फूटते देख पडौसी देश पाकिस्तान भी अपनी औकात पर उतर आया है। उसने भी नकली नोटों का जखीरा भेजना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान में बैठे षड्यंत्रकारियों के हौसले इसलिए भी बुलंद हैं क्योंकि हिंदुस्तान के कुछ चेहरे अपनी मातृभूमि के प्रति वफादार नहीं हैं। खबरें तो यह भी हैं कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पाकिस्तान ने १६०० करोड की नकली करेंसी भेजनी की साजिश रची है। सरहद पार के शत्रु के कुछ शुभचिंतक निश्चय ही भारत की जमीन पर अठखेलियां कर रहे हैं। इसलिए उसे नाकामी से ज्यादा सफलता मिलती चली आ रही है। ऐसे में दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश भारतवर्ष तमाशा देखने को विवश है...।
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