Thursday, January 12, 2012

मतदाताओं का दिल और दिमाग

इस देश में ऐसा कौन सा राजनेता है जो यह नहीं चाहता कि उसके इस दुनिया से कूच करने के बाद भी लोग उसे हमेशा-हमेशा के लिए याद रखें। पर बहन मायावती इकलौती ऐसी नेत्री हैं जो अपने जीते जी यह सुख पा लेना चाहती हैं। महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमति इंदिरा गांधी, डा. भीमराव आंबेडकर जैसे महापुरुषों ने अपने जीवनकाल में देशसेवा और जनसेवा कर लोगों में ऐसी छाप छोडी कि निधन के बाद भी वे जन-जन के दिल और दिमाग में बसे रहे। उनके नाम को अमर रखने के लिए देश के असंख्य अस्पतालों, स्कूलों, कॉलेजों, उद्यानों आदि का नामकरण उनके नाम पर किया गया। यह परंपरा निरंतर चली आ रही है। यह परिपाटी यह भी दर्शाती है कि हम भारतवासी देश के सच्चे राष्ट्रभक्तों के प्रति कितने आस्थावान और समर्पित रहते हैं। दलितों और शोषितों की तथाकथित मसीहा मायावती की यह बेसब्री ही कही जायेगी कि जैसे ही उत्तरप्रदेश की सत्ता उनके हाथ में आयी, उन्होंने खुद की तथा पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तियां जगह-जगह स्थापित करने का अभियान-सा चला कर रख दिया। उनके इस अदभुत कारनामे को लेकर उंगलियां उठायी गयीं, सवाल दागे गये पर सत्ता के मद में चूर मायावती पर कोई फर्क नहीं पडा। सत्ता का नशा होता ही कुछ ऐसा है कि सत्ताधारी के होश उडा देता है। मायावती ने जिस तरह से खुद की मूर्तियां बनवायीं और लगवायीं उससे यह भी लगता है कि कहीं न कहीं उन्हें फिर से सत्ता पर काबिज न हो पाने का भय निरंतर सताता रहता है। इसी भय ने उन्हें अपने जीते जी यूपी में जगह-जगह अपनी मूर्तियां स्थापित करने को विवश किया है। हाथी की मूर्तियों को स्थापित करने का भी मात्र यही मकसद है कि मतदाताओं के दिमाग में बसपा का चुनाव चिन्ह टिका और बना रहे। मायावती की चालाकी को लेकर विरोधी राजनीतिक पार्टियां शुरू से शोर मचाती रही हैं। आखिरकार चुनाव आयोग को सचेत होना पडा और 'हाथी' तथा मायावती की मूर्तियों को पर्दे में ढकने का आदेश देना पडा। वैसे एक सच यह भी है कि पर्दे में ढकी कोई भी चीज़ लोगों के आकर्षण का कारण बनती है। मायावती की मूर्तियों और 'हाथी' को भी ढक तो दिया गया है पर लोगों की उत्सुकता और बेचैनी कहीं वो न कर गुजरे जो बसपा की विरोधी राजनीतिक पार्टियां और नेता कतई नहीं चाहते। अगर ऐसा हो गया तो न जाने कितनों की उम्मीदों पर पानी फिर जायेगा। इस सच से कौन वाकिफ नहीं है कि एक दूसरे को येन-केन-प्रकारेण पछाडना ही राजनीति कहलाता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस यूपी में सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर गुजरना चाहती है। उसने राहुल गांधी के मिशन को और तेज रफ्तार देने के लिए कई तरह के खेल तमाशे दिखाने की ठान ली है। जल्द ही प्रदेश की गलियों और चौराहों पर यह गीत गूंजने जा रहा है:
''जय हो, जय हो... उठो जागो,
बदलो उत्तरप्रदेश...
आ जा यूपी के विकास के
अभियान के लिए आजा,
आजा राहुल जी के
सेवा संग्राम के लिए
जय हो, जय हो...।
अब यह उत्तरप्रदेश की जनता के ऊपर है कि वह जागती है या फिर सोयी रहती है। पर कांग्रेस ने ठान लिया है कि वह इस गीत के जरिये मतदाताओं को यह बताकर ही दम लेगी कि उसने अब तक देश के लिए क्या किया है और राहुल गांधी ने उत्तरप्रदेश की जनता की खुशहाली के लिए कैसे-कैसे सपने पाल रखे हैं। इस गीत में उत्तरप्रदेश को बदलने का आह्वान करने के साथ, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का भी महिमामंडन करते हुए बताया गया है कि इंदिरा गांधी ही दलितों की सच्ची मददगार थीं। यह इंदिरा ही थीं जिन्होंने दलितो और किसानों को पट्टा दिलाया। बैंको का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें पूंजीपतियों से मुक्त कराया। राजीव गांधी के देश के कोने-कोने में कम्प्यूटर पहुंचाने और पंचायती राज में महिलाओं को आरक्षण दिलाने का ढिं‍ढोरा भी पीटा जाने वाला है। राहुल के मिशन को सफल बनाने के लिए कांग्रेस का हर बडा नेता जमीन-आसमान एक करने में लगा है। दरअसल कांग्रेस के युवराज राहुल मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं। देश के न जाने कितने चौक चौराहों, उद्यानों, अस्पतालों, सडकों का नामकरण उनके परनाना पंडित जवाहरलाल नेहरू, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी के नाम पर किया जा चुका है। कई सरकारी योजनाएं भी इनके नाम पर चलती हैं और बैठे-बिठाये कांग्रेस के चुनावी प्रचार का माध्यम बनी नजर आती हैं। पर फिर भी उत्तरप्रदेश में कांग्रेस चुनावी खेल में मात खाती चली आ रही है। दरअसल मतदाताओं के मन को पढ पाना कतई आसान नहीं रहा। वो जमाना लद चुका है जब मतदाता किन्हीं बडे नामों और प्रतिमाओं के सम्मोहन में कैद होकर यथार्थ को भूला दिया करते थे। वैसे भी किसी को बेवकूफ बनाने और उसके बनते चले जाने की भी कोई हद होती है। फिर यहां तो सभी हदें ही पार हो चुकी हैं।

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