Thursday, April 12, 2012

उद्दंड नक्सली, नतमस्तक सरकार

देश के प्रदेश महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, आंध्रप्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिसा वर्षों से नक्सली हिं‍सा के चलते लहुलूहान होते चले आ रहे हैं। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं पर शासको ने नक्सली समस्या की जड तक जाने और उसका खात्मा करने की कभी कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। आज हालात यह हैं कि नक्सली बेकाबू हो चुके हैं। उनके हौसले इस कदर बढ गये हैं कि सरकार को दंडवत होना पड रहा है। हुक्मरानों को तो शर्म आने से रही पर देश और दुनिया जान गयी है कि कैसे-कैसे नकारा और नालायक नेताओं के हाथों इस देश की बागडोर जा चुकी है। इनकी कमीनगी का फल देश और देशवासियों को भुगतना पड रहा है। पता नहीं यह सिलसिला कब तक चलेगा? जब देश की इज्जत दांव पर लग चुकी हो और उसे शर्मसार होना पड रहा हो तब किसी तरक्की-वरक्की के क्या मायने!ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को खुद पर बडा नाज है। वे मानते हैं कि उन्होंने अपने शासन काल में प्रदेश का अभूतपूर्व विकास किया है। हो सकता है वे सच बोल रहे हों पर उन्हीं की नाक के नीचे फल-फूल रही नक्सलियों की हिम्मत और ताकत को क्या नाम दें? नक्सलियों ने अपने साथियों को रिहा करवाने के लिए जिस तरह से नवीन पटनायक को झुकाने का अभियान चला रखा है उससे पता चल जाता है कि उनकी नजर में सरकार की दो कौडी की भी कीमत नहीं है। अगवा किये गये बीजद के विधायक झिना हिकाका और इतालवी नागरिक पाओले बोसुक्को की रिहाई के नाटक को चलते हफ्ते भर से ज्यादा का समय बीत चुका है। नक्सलियो के द्वारा नयी-नयी शर्तें ऐसे रखी जा रही हैं जैसे वे साहूकार हों और सरकार चोर। अपनी ही शर्तों पर बंधकों की रिहाई करने पर अडे नक्सली जानते हैं कि ओडिसा सरकार पहले भी उनके हाथों बंधक बनाये गये लोगों की रिहाई के बदले उनके साथियों को आजाद कर चुकी है। नक्सली सरकार की कमजोरी को पहचान चुके हैं। पर सरकार ने अतीत से कोई भी सबक लेने की जरूरत नहीं समझी। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पर इटली के नागरिक और विधायक को बचाने का जबर्दस्त दबाव है, लेकिन क्या देश की मान-मर्यादा कोई मायने नहीं रखती? ओडिसा के मुख्यमंत्री ने जिस तरह से खूंखार नक्सलियों के समक्ष घुटने टेके हैं उससे ओडिसा पुलिस बल विभाग ने अपने सुर बदल लिए हैं। उनकी तरफ यह कहा जा रहा है कि यदि दोहरे बंधक संकट को समाप्त करने के प्रयास के तहत राज्य सरकार ने कट्टर माओवादियों को रिहा किया तो वो वह नक्सली विरोधी अभियान का बहिष्कार करेंगे। पुलिस वालों का गुस्सा किसी भी तरह से नाजायज नहीं है। आखिरकार नक्सलियों की गोलियों का शिकार पुलिस वाले ही तो होते हैं। कई बार यह भी देखा गया है कि नक्सली उन पर भारी पडते हैं इसकी वजह भी है। प्रशिक्षित नक्सलियों के हाथों में स्टेनगन होती है और बेचारे पुलिस वाले थ्रीनाट थ्री की पुरानी बंदूक से उनका सामना करते-करते ढेर भी हो जाते हैं। यानी कुर्बानी तो पुलिस को ही देनी पडती है। राजनेता तो भाषणबाजी और दंडवत होने के सिवाय और कुछ करते नहीं। २००८ से २०११ के दौरान नक्सली हिं‍सा में लगभग ३५०० लोगों की जान जा चुकी है। इनमें अधिकांश पुलिस वाले ही थे। इस देश के सत्ताधीश यह कतई कबूल नहीं करेंगे कि उनके भ्रष्ट शासन और निकम्मेपन के चलते नक्सली और नक्सलवाद जन्मा है। अगर गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, शोषण और अराजकता न होती तो यकीनन नक्सली भी नहीं होते। सत्ता के खिलाडि‍यों ने इन बीमारियों का खात्मा करने की कभी सीधी और सच्ची पहल की ही नहीं। पिछले कई वर्षों से नक्सलवाद देश को बुरी तरह से हिलाए हुए है। सरकारे चलाने वालों की अकर्मणयता और ढुलमुल नीति के चलते आज नक्सली इतने ताकतवर हो गये हैं कि सरकारों को झुकाने और अपनी शर्तें मनवाने लगे हैं। एक तरफ नक्सली गरीबो-बेरोजगारों को बरगला कर उनके हाथों में बंदूकें थमा देश पर हुकुमत करने का सपना तक देख रहे है और दूसरी तरफ सत्ताधीश जागने को तैयार नहीं हैं। यह इतने उद्दंड होते चले जा रहे हैं कि किसी का भी खून बहाने से परहेज नहीं करते। जिलाधीश और विधायक का आसानी से अपहरण कर लेते है। रेलें जाम कर देते हैं। रेल पटरियां उडा देते हैं। स्कूलों को फूंकने और पुलों को नेस्तानाबूत करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। हत्या, लूट, अपहरण, और फिरौती वसूलने वाले नक्सलियों पर रहम खाना या फिर उनकी मांगों के समक्ष नतमस्तक हो जाना यही दर्शाता है कि सरकारें नक्सलियों से हार मान चुकी हैं। क्या ऐसी सरकारों को शासन करने का कोई नैतिक अधिकार है?

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