Thursday, April 26, 2012

प्लास्टिक के सपने

बच्चों को गेंद से बहुत लगाव होता है। गरीबों के बच्चे तो गेंद के साथ खेलते और दौडते हुए अपने आप बडे होते चले जाते हैं। तरह-तरह के महंगे खिलौने से खेलने वाले अमीरों के बच्चों की बात ही अलग होती है। न जाने कितने ऐसे रईस हैं जो अपने बच्चों के खिलौनों पर हजारों रुपये चुटकियों में लुटा देते हैं। बच्चों की जैसे-जैसे मांग बढती चली जाती हैं, वे और उदार होते चले जाते हैं। गरीबों के बच्चे तो अमीरों के दुलारों के महंगे-महंगे खिलौनों को दूर से ताक मन मसोस कर रह जाते हैं। सरकार का कहना है कि बच्चे देश का भविष्य हैं। पर सवाल यह है कि कौन से बच्चे?
तीसरी कक्षा में पढने वाली आठ साल की मासूम तेजस्विनी अपने माता-पिता की चहेती थी। खेलने के लिए उसके पास एक ही गेंद थी जो खेलते-खेलते फट गयी। कम उम्र की होने के बावजूद भी उसे अपने परिवार की आर्थिक स्थिति का पूरा ज्ञान था। वह जानती थी कि दूसरी गेंद उसे आसानी से नहीं मिल पायेगी। किसी पैसे वाले की संतान होती तो गेंद को फौरन कचरे के हवाले कर देती। पर तेजस्विनी तो गरीब की बेटी थी। जब सभी काम पर चले गये तो उसके मन में गेंद को सुधारने का विचार आया। बेचारी माचिस की तीली जलाकर फटी गेंद को चिपकाने की कोशिश में जुट गयी। इसी दौरान उसकी फ्रॉक जलती तीली की चपेट में आ गयी और वह इस कदर जल गयी कि उसे अस्पताल में ले जाने के बावजूद बचाया नहीं जा सका। बच्ची की मां पालनाघर में बच्चों को संभालने का काम करती थी। उस दिन भी वह दूसरों के बच्चों की सेवा में लगी थी। अपनी बच्ची की देखरेख करने का उसके पास वक्त नहीं था। पर उसे यह जरूर मालूम था कि उसकी बिटिया गेंद के फट जाने से काफी आहत है। तेजस्विनी को मौत के बाद उसके माता-पिता शहर छोडकर अपने गांव लौट गये हैं। वे शहर में कमाने-खाने आये थे पर शहर ने तो उनकी तमाम खुशियां ही छीन लीं। इस देश में दो वक्त की रोटी के लिए गरीब मां-बाप अपना खून-पसीना बहाते ही हैं, बच्चों को भी कम कुर्बानी नहीं देनी पडती। संतरानगरी से लगभग दस-बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है कोराडी गांव। कोराडी के जगदंबा मंदिर का बडा नाम है। दूर-दूर से श्रद्धालू यहां पर पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। मंदिर के आसपास हार-फूल की दूकानें हैं जो कई लोगों को रोजी-रोटी देती हैं। इसी रोजी-रोटी के चक्कर में एक १२ वर्षीय बालक को अपनी जान की आहूति देनी पडी। हुआ यूं कि बालक राहुल पेड पर चढकर पूजा के हार में पिरोयी जाने वाली पत्तियां तोड रहा था कि अचानक उसका संतुलन बिगड गया। वह बीस फुट नीचे जमीन पर आ गिरा। अस्पताल में उसने दम तोड दिया। मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं की पूजा-अर्चना के उपयोग में आनेवाली पत्तियों की बदौलत बच्चा दस-बीस रुपये कमा लेता था। खेलने-कूदने की उम्र में पेडों की ऊचाई नापना उसका रोजमर्रा का काम था। कहीं न कहीं उसे खुशी भी मिलती थी कि उसकी तोडी हुई पत्तियां देवी-देवताओं के चरणों में अर्पित होती हैं। इसी अर्पण की बदौलत कई उदास चेहरे खिल उठते हैं। राहुल अब इस दुनिया में नहीं है। उसी की तरह और भी कई नाबालिग बच्चे अपनी जान को जोखिम में डालकर अशोका के पेड की पत्तियां और फूल तोडकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाते हैं। अपने साथी की मौत के बाद दहशत में होने के बावजूद उनका पेडों पर चढना बदस्तूर जारी है। आखिर पापी पेट का सवाल है...।
दिल को दहलाकर रख देने वाले ये दोनों हादसे उस नागपुर में हुए हैं जहां के एक उद्योगपति ने हाल ही में लगभग पांच सौ करोड खर्च कर खुद का हवाई जहाज खरीदा है। शहर के पांच-सात और धनाढ्य भी अपना-अपना जहाज खरीदने की तैयारी में हैं। महानगर की शक्ल अख्तियार कर चुके इस शहर में अरबों-खरबों में खेलने वाले उद्योगपतियों और नेताओं की भरमार है। आकाश में उडने वालों के इस नारंगी शहर में अपराधों का ग्राफ निरंतर ऊचाइयां छू रहा है। पच्चीस-पचास रुपये के लिए हत्या तक हो जाना आम बात है। चंद लोगों की जिं‍दगी में आया जबर्दस्त बदलाव वाकई चौंकाता है। उनकी शान और शौकत ऐसी है कि राजा-महाराजा भी शर्मिंदा हो जाएं। नेताओं और उद्योगपतियों में फर्क कर पाना मुश्किल हो गया है। दाल-रोटी के चक्कर में अपने खून को पसीना करती वो भीड जो 'वोटर' कहलाती है जहां की तहां अटकी है। उसके लिए 'परिवर्तनङ्' नाम की कोई बात है ही नहीं। कवि, व्यंग्यकार श्री अक्षय जैन की कविता की यह पंक्तियां काबिले गौर हैं:

नहीं लिखा तकदीर में तेरे, एक वक्त का खाना जी
राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा... तुम्हीं भरो हर्जाना जी...

मेले में हमको ले जाना, करना नहीं बहाना जी
पैसे हों तो नई चप्पलें, हमको भी दिलवाना जी
राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा... तुम्हीं भरो हर्जाना जी...

रोजी, रोटी, बिजली, पानी, इनका नहीं ठिकाना जी
अपनी जेबें हरदम खाली, उनके पास खजाना जी
राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा... तुम्हीं भरो हर्जाना जी...

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