Thursday, March 28, 2013

वे भी तो शान से जीना चाहते थे!

ऐसी हायतौबा कभी नहीं देखी। सारे के सारे तथाकथित विद्वानों को एक ही ताल पर नाचते भी नहीं देखा। वाकई यह तो कमाल हो गया। फिल्म अभिनेता संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट ने सजा क्या सुनायी कि मीडिया की धडकने बेकाबू हो गयीं। एक पूर्व जज कानून और इंसाफ के मायने ही भूल गये! अभिनेता की फिल्मी गांधीगीरी की चकाचौंध ने और भी न जाने कितनों के दिमाग पर ताले जड दिये और आखों की जैसे रोशनी ही छीन ली। न्यूज चैनल वालों ने तो एकाएक उलटी गंगा बहानी शुरू कर दी। कौन नहीं जानता कि यही चैनल वाले किसी खतरनाक अपराधी को जेल भेजे जाने पर एक ही सुर में फुलझडिं‍यां और फटाके छोडने लगते हैं। उसके अगले-पिछले काले इतिहास के पन्ने खोलकर रख देते हैं। पर अभिनेता के मामले में कई चैनल वालों को मानो सांप सूंघ गया। बिगडैल अभिनेता की बुराइयों पर अच्छाइयों के लेप लगाने में जुट गये। उसके जितने भी पुराने साक्षात्कार थे, उन्हें धडाधड दिखाया जाने लगा। सभी को उसकी अच्छाइयां याद आने लगीं। इंडिया टी.वी. के रजत शर्मा ने तो चाटुकारिता को भी पानी-पानी कर दिया। संजय दत्त के बरसों पहले के साक्षात्कार 'आपकी अदालत' को बार-बार दिखाया। दर्शकों को उसकी भलमनसाहत के कई किस्से सुनाये और उसके लिए दुआएं मांगने की भी बार-बार अपील की। ऐसा लगा जैसे न्यूज चैनल वालों ने अभिनेता के तथाकथित आदर्श चरित्र के बखान की सुपारी ले ली हो। जिस खलनायक की मुंबई धमाकों के सरगना दाऊद इब्राहिम से करीबियां रहीं, जिसने दाऊद के साथी खतरनाक आतंकवादी अब्बू सलेम से उपहार में एके-५६ रायफल लेने की मर्दानगी दिखायी और यह पता होने के बावजूद कि मुंबई धमाकों की साजिश रची जा चुकी है उसने अपने मुंह पर ताला जडे रखा... ऐसे गैर जिम्मेदार शख्स को जी भरकर कोसने और लताडने की बजाय दया का पात्र बनाने का तयशुदा अभियान चलाया गया। देशवासियों को रटे-रटाये शब्दों में बताया गया कि संजू बाबा पूरी तरह से बदल गये हैं। अब वे ३४ साल के मस्तमौला शराबी, कबाबी और हवा में गोलियां दागने वाले संजय दत्त नहीं हैं। अब उनका कायाकल्प हो चुका है। उसके दो जुडवा बच्चे भी हैं। उसे बडी मुश्किल से एक खूबसूरत प्यार करने वाली बीवी मिली है। बेचारे ने प्यार-मोहब्बत और शादी पर शादी में भी कम गम नहीं झेले। बेचारे को छोटी उम्र में बडे-बडे नशों की लत लग गयी। उसी दौरान मां चल बसी। फिर पिता ने यह सोचकर शादी के बंधन में डाल दिया कि घरवाली नशेडी पति को रास्ते पर ले आएगी। एक बेटी ने जन्म लिया। इसी दौरान पत्नी को कैंसर हो गया और वह भी चल बसी। दूसरी शादी में भी बदनसीब को मुंह की खानी पडी। ऐसे अभागे पर तो ऊपर वाला भी दया दिखाता है। पर जज की कुर्सी पर बैठने वाले इंसान ने नायक के साथ बडी बेइंसाफी की है। वे ये भी भूल गये कि संजू बाबा बीस साल तक तनाव झेलते रहे। अदालतों के चक्कर, जेल पर जेल और बेल ने उसे कभी भी चैन से जीने नहीं दिया। उनके पिता सुनील दत्त और माता नर्गिस दत्त में देशसेवा और देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। उनकी छोटी बहन प्रिया दत्त भी कांग्रेस की सांसद हैं। ऐसे प्रतिष्ठित परिवार से वास्ता रखने वाला फरिश्ता खुद-ब-खुद करुणा और दया का हकदार हो जाता है। चैनलबाज वकीलों ने अपने चहेते के गुणगान में जमीन-आसमान एक करने में कोई कसर नहीं छोडी। दर्शकों को बार-बार याद दिलाया गया कि उनका संजू अब भला इंसान बन चुका है। वह दलितों, शोषितों और गरीबों का मसीहा है और साप्रदायिक सौहार्द्र की जीती जागती तस्वीर है। उसने अपनी छाती पर अपने पिता सुनील दत्त का नाम हिं‍दी में तो मां नर्गिस का नाम उर्दू में गुदवाया हुआ है। जिसे देखो वही संजू बाबा को रहम की भीख देने की अपील करते नजर आया। कुछ तो रोने-गाने और यह बताने लगे कि उसने अपनी फिल्मों के जरिये करोडों लोगों का मनोरंजन किया है। उसके अहसान को चुकाने का इससे अच्छा और कोई मौका नहीं हो सकता। देश के महान वक्ता, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज काटजू जैसे लोग इस कदर पसीज गये कि उन्होंने राज्यपाल महोदय को पत्र लिखा कि कल का बिगडैल बालक अब सुधर चुका है। उसमें अहिं‍सा के पुजारी महात्मा गांधी की आत्मा समा चुकी है और वह सच्चा गांधीवादी बन गया है। एक नेता ने फरमाया कि भारत के युवाओं को हिं‍सा, आतंकवाद और नक्सलवाद के दलदल से निकालने और उन्हें अहिं‍सा का पाठ पढाने में यह नया गांधी आदर्श भूमिका निभाने में सक्षम है। देशभर के बच्चे, बूढे, लडके-लडकियां और महिलाएं इन्हें अपना आदर्श मानती हैं। ऐसे में अगर इनकी सजा माफ नहीं की गयी तो देश गर्त में चला जायेगा।
किसी ने सच ही कहा है कि यह कलयुग है। यह हत्यारों, बलात्कारियों, भ्रष्टाचारियों, माफियाओं, देशद्रोहियों और स्वहित के लिए देश को चट कर जाने वालों का युग है। तभी तो बडे-बडे विद्वानों, पत्रकारों, संपादकों, उद्योगपतियों और अपने-अपने क्षेत्र के विचारकों की मत मारी गयी। सावन के अंधे की तरह उन्हें हरा ही हरा सूझता रहा। वे ये भी भूल गये कि इसी देश में लाखों कैदी वर्षों से जेल में सड रहे हैं। कइयों को तो अपने अपराध का भी पता नहीं है। ऐसे बदनसीब भी हैं जो जमानत का प्रबंध नहीं कर पाये और जेल ही उनका नसीब बन कर रह गया। खलनायक को माफी देने की दलीलें देने वालों को कोई यह भी तो बताये कि हिं‍दुस्तान की जेलों में बंद १६ लाख कैदियों में से सिर्फ लगभग चार लाख सजायाफ्ता हैं, बाकी तो अधर में झूल रहे हैं। उनके बारे में भी तो सोचो। इनमें से न जाने कितने कैदी सुधर चुके हैं। कितनों ने जेल में पढाई कर बी.ए. और एम.ए. किया। दरअसल मुंबई को असीम रक्त-रंजित पीडा और दर्द देने के सहभागी के दयावान हिमायतियो ने बडे ही शातिराना अंदाज से उन २५८ निर्दोष भारतीयों को नजरअंदाज कर दिया जिनके मुंबई धमाकों में देखते ही देखते परखच्चे उड गये थे। घायलों का आंकडा भी सात सौ से ऊपर था। इनमें से कितने अपंग हुए और कितने मर-खप गये इसका किसी के पास कोई हिसाब नहीं। यकीनन वे कोई गुंडे-बदमाश नही थे। उनमें भी जीने की ललक थी। उनके भी बीवी बच्चे थे। उन्हें भी तो अमन और चैन के साथ जीने का हक था। उनके इस जन्मसिद्ध अधिकार को छीनने में जिसने कहीं न कहीं भूमिका निभायी उसी पर दया और सहानुभूति जताने वालों में ज्यादातर वही लोग है जो हद दर्जे के 'धृतराष्ट्र' हो गये हैं और तर्कशीलता की सफेद चादर को बडे ही सफाई से लपेटकर कहीं फेंक चुके हैं।

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