Thursday, November 3, 2016

दलालों की दिलेरी

उत्तरप्रदेश में चले राजनीतिक तमाशे ने एक बार फिर से सत्ता के लालची नेताओं को बेनकाब कर दिया। यह सच भी पूरी तरह से उजागर हो गया कि सत्ता और राजनीति में चापलूसों और दलालों की कितनी अहमियत है। नेताजी को वाकई बधाई जो उन्होंने राजनीति में दलालों की जरूरत और नेताओं की मजबूरी का पर्दाफाश करते हुए कबूला कि बुरे वक्त में अमर सिंह ने उनकी बडी मदद की थी। अगर वह साथ नहीं देते तो उन्हें जेल जाना पडता। वह मेरे भाई जैसे हैं।
नेताजी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उन्होंने ऐसा कौन-सा अपराध किया था जो उन पर जेल जाने की नौबत आ गयी थी और उन्हें उनके तथाकथित छोटे भाई ने सलाखों के पीछे जाने से बचाया था। वैसे यह सर्वविदित है कि नेताजी और अमर सिंह पर वर्षों से आय से अधिक संपत्ति के मामले अदालतों में घिसट-घिसट कर चल रहे हैं। समाजवादी पार्टी के मुखिया ने सत्ता और राजनीति के दबदबे की बदौलत हजारों करोड की जो दौलत कमायी है उसकी इसलिए ज्यादा बात नहीं होती क्योंकि भारत के अधिकांश राजनेता भ्रष्टाचार के हमाम में इस कदर नंगे हैं कि वे एक दूसरे पर उंगली नहीं उठा सकते। 'तेरी भी चुप, मेरी भी चुप' के सिद्धांत पर चलने के सिवाय उनके पास और कोई चारा नहीं है। चापलूसों, दरबारियों और दलालों में यह खासियत तो होती ही है कि वे किसी को भी प्रभावित और चमत्कृत करने की कला में पारंगत होते हैं। उनमें जोडने और तोडने का गुण भी कूट-कूट कर भरा होता है। अमर सिंह को इस कला में महारत हासिल है। उन्होंने अपने और नेताजी के आर्थिक साम्राज्य को विस्तार देने के लिए कई कलाकारियां कीं। वे १९९६ में औपचारिक रूप से समाजवादी पार्टी में शामिल हुए। उसके बाद समाजवादी मुलायम सिंह का चेहरा-मोहरा बदलता चला गया। समाजवादी पार्टी विचारधारा विहीन पार्टी बनती चली गयी। आदर्श और सिद्धांतों का गला घोंटना शुरू कर दिया गया है। अमर सिंह ने यूपी में बहुजन समाज पार्टी में दल-बदल करवाते हुए समाजवादी पार्टी की सरकार बनवाने का जब चमत्कार कर दिखाया तभी नेताजी की निगाह में उनका कद और बढ गया। समाजवादी पार्टी के लिए धन जुटाने के लिए अमर सिंह ने देश के तमाम बडे-बडे उद्योगपतियों से मधुर संबंध बनाये और समाजवादी पार्टी के लिए मोटे चंदे बंटोरने के साथ खुद को भी मालामाल कर दिया। उन्होंने मुलायम को भी भ्रष्टाचार करने के नये-नये गुर सिखाए। देखते ही देखते दोनों ने ऐसी आर्थिक बुलंदी हासिल कर ली, कि बडे-बडे उद्योगपति उनके सामने बौने नजर आने लगे। उनके यहां अंधाधुंध बरसी लक्ष्मी का असली सच जब धीरे-धीरे बाहर आया तो उनके लूटतंत्र की खबरें मीडिया में सुर्खियां पाने लगीं।
मनमोहन सरकार के कार्यकाल में तो सीबीआई ने नेताजी पर आय से अधिक सम्पत्ति मामले में ऐसा शिकंजा कसा कि उनका बचना मुश्किल हो गया। सिर पर गिरफ्तारी की नंगी तलवार लटकने लगी। ऐसे संकट के काल में अमर सिंह ने दिमाग दौडाया। परमाणु समझौते पर केंद्र सरकार को सपा की सहमति दिलाकर नेताजी को सीबीआई जांच से राहत दिलवायी। समाजवादी पार्टी में मची कलह ने सत्ता के भूखे यादव परिवार की पोल खोल दी हैै। देशवासी इस सच से अवगत हो गये हैं कि नेताजी का समाजवाद पूरा का पूरा ढकोसला है। उसका मूल विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। राममनोहर लोहिया ने जिन उद्देश्यों के लिए समाजवाद की नींव रखी थी और जन-जन के उद्धार के जो सपने देखे थे, वे सब चूर-चूर हो चुके हैं। लोहिया तो ईमानदारी और सादगी की जीती-जागती मिसाल थे। लेकिन मुलायम तो भौतिक सुखों के गुलाम हो चुके हैं। उन्हें तरह-तरह के समझौते करने वाले मौकापरस्त नेता के रूप में जाना जाने लगा है। यह भी सच हैै कि उन्होंने सच्चे समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के सानिध्य में रहकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। लेकिन सत्ता और परिवार मोह ने उन्हें पथभ्रष्ट कर दिया। चापलूस, बाहुबली और भ्रष्टाचारी उन्हें भाने लगे। परिवारवाद के चक्कर ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोडा। आज हालात यह हैं कि जिस पार्टी की उन्होेंने स्थापना की वही उनके हाथ से छूटती नजर आ रही है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी वे उस अमर सिंह का साथ छोडने को तैयार नहीं हैं जिनका काम ही परिवारों को तोडना और आपस में लडाई-झगडे करवाना है।
मुलायम के दरबार में बाहुबलियों और तरह-तरह के अपराधियों को मान-सम्मान मिलता है। वे घोर विवादास्पद चेहरों को भी अपनी पार्टी में लेने में गुरेज नहीं करते। आज परिवार की लडाई के कारण उनकी जगहंसाई हो रही है। सिद्धांतों को दर किनार कर चुके नेताजी की लोकप्रियता का ग्राफ घटता जा रहा है और उनके बेटे अखिलेश यादव एक ईमानदार जननेता के रूप में पहचाने जाने लगे हैं। जनता यह समझ चुकी है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भ्रष्टों और बेईमानों को घास नहीं डालते, जबकि नेताजी का उनके बिना काम नहीं चलता। मुलायम सिंह को अपना आदर्श मानने वालों ने प्रदेश में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार करने के अनेकों कीर्तिमान रचे हैं जिनका मुलायम पुत्र अखिलेश विरोध करते चले आ रहे हैं। यह अखिलेश सिंह का ही दम है जो उन्होंने अपने पिता के प्रिय भाई को 'दलाल' कहने की हिम्मत दिखायी हैै। अमर सिंह मात्र एक व्यक्ति का नाम नहीं है। यह तो पाखंड, धूर्तता और स्वार्थ का प्रतीक है जो राजनीति को कलंकित करने के साथ-साथ देश को खोखला कर रहा है।
अमर सिंह को अपना आदर्श मानने वाले भी ढेरों हैं। यह भी कह सकते हैं कि देश में कई अमर सिंह पैदा हो चुके हैं। इनके कई प्रतिरूप हैं। कुछ मंत्रियों, सांसदों, विधायकों के कई पीए भी बखूबी  दलालों की भूमिका निभा रहे हैं। दलाली की अपार कमायी अच्छे-अच्छों को ललचाती है। सत्ता के दलाल छोटी-मोटी दलाली नहीं करते। करोडों-अरबों के वारे-न्यारे किये जाते हैं। अरबों के बोफोर्स सौदे में ६४ करोड की दलाली ने राजीव गांधी की खटिया खडी कर दी थी। ऐसी सौदेबाजी और दलाली आज भी खायी और पचायी जाती है और इसे अंजाम देते हैं अमर सिंह जैसे दलाल। केंद्र में मोदी सरकार के बनने पर जब शहर के एक सांसद को केंद्रीय मंत्री बनाया गया तो उनका पीए बनने के लिए कुछ तथाकथित समाजसेवकों, पत्रकारों और संपादकों में होड मच गयी। शहर के एक दैनिक अखबार के संपादक ने तो मंत्री जी का पीए बनने के लिए उनकी चरणवंदना ही शुरु कर दी। शहर की सफेद, काली, पीली वजनदार हस्तियों से अपनी भरपूर सिफारिश करवायी। लेकिन मंत्री जी ने घास नहीं डाली। दरअसल, उन्हें पता था कि यह संपादक पुलिस और अपराधियों के 'मध्यस्थता के धंधे' का पुराना खिलाडी है। घाट-घाट का पानी पी चुके मंत्री जी 'आ बैल मुझे मार' की कहावत से भी वाकिफ हैं। इसलिए अमर सिंह को अपना आदर्श मानने वाले संपादक की दाल नहीं गल पायी। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी है। ऐसे लोग लाख दुत्कारे जाने के बाद भी दुम हिलाते रहते हैं और 'मान-न-मान मैं तेरा मेहमान' की तर्ज पर कहीं भी पहुंच जाते हैं।

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