Thursday, December 28, 2017

बोना और पाना

विचारक कहते हैं कि अधिकांश लोग जीवन पर्यंत सकारात्मक सोच से रिश्ता ही नहीं जोड पाते। वे खुद से ही अनभिज्ञ रहते हैं। उन्हें अपनी ताकत का पता ही नहीं चल पाता। इतिहास साक्षी है कि मनुष्य के संकल्प के सम्मुख अंतत: हर विपत्ति घुटने टेक देती है, लेकिन यह भी सच है कि कुछ लोग विपरीत हालातों के समक्ष खुद को बेहद बौना मान लेते हैं। ऐसे लोगों को किसी लोकलाज और मर्यादा का भान नहीं रहता। २०१७ के नवंबर महीने की २० तारीख को एक तेरह वर्षीय बच्चे को नई दिल्ली के अशोका होटल में एक विदेशी युवती के बैग को चुराने के आरोप में पकडा गया। बैग में १३०० यूएस डॉलर, चार लाख रुपये समेत १५ लाख का सामान था। बच्चे ने पूछताछ में बताया कि वह अपनी दादी की सीख और निर्देश पर होटलों में होने वाली शादियों व पार्टियों में चोरी करता था। ६२ वर्षीय दादी ने स्वीकार किया कि वह अपने पोते को होटलों में सूट-बूट पहना कर भेजती थी। अभी तक वह पोते से चोरी की कई वारदात करवा चुकी है। दादी के पास से लाखों रुपये बरामद किए गये। अपने पोते को चोरी करने का पाठ पढाने वाली दादी का कहना है कि गरीबी और बदहाली ने उसे ऐसा करने को विवश कर दिया। उसके पास और कोई चारा ही नहीं था। जो लोग सोच-समझकर ईमानदारी के साथ हाथ पैर हिलाये बिना धनवान बनने और अपनी तमाम समस्याओं से मुक्ति पाना चाहते है उनके पास इस किस्म के बहानों का भंडार होता है। जिन्हें सही डगर चुननी होती है, वे चुन ही लेते हैं। उन्हें कोई बहाना और लालच नहीं जकड पाता। सोचने और समझने की ललक से आंखें खुलती हैं। फिर भी कुछ लोग अंधेरे में रहना पसंद करते हैं। हत्यारे और काले कारोबारी दाऊद इब्राहिम के नाम से दुनिया वाकिफ है। इस कुख्यात माफिया सरगना ने गलत रास्तों के जरिए अरबों-खरबों की दौलत जमा कर ली है, लेकिन आज उसे इस बात की चिन्ता सता रही है कि उसकी संपत्ति का वारिस कौन होगा क्योंकि उसका एकमात्र बेटा धर्म की राह चुनकर मौलाना बन गया है। उसे दाऊद का काला कारोबार रास नहीं आया। वह ईमानदारी की राह पर चलने का पक्षधर है। अरबों-खरबों के धन का मालिक होने के बावजूद पिता के कभी भी चैन से न सो पाने के सच ने बेटे की आंखें खोल दीं। वह अंडरवर्ल्ड डॉन का घर छोड मस्जिद प्रबंधन द्वारा दिये गए घर में रहने चला गया है।
नीलम और मेघना आज राष्ट्रीय स्तर की रेसलर (कुश्ती की खिलाडी) हैं। दोनों बहनों को इस उल्लेखनीय उपलब्धि का हकदार बनाने में उनकी मां लक्ष्मी देवी के संघर्ष का ही एकमात्र योगदान है। १९९३ में जमीन विवाद में लक्ष्मी देवी के पति की दबंगों ने हत्या कर दी। उत्तरप्रदेश में ऐसी हत्याएं होना आम बात है। गुंडे-मवाली कानून को अपनी जेब में रखते हैं। पुलिस वालों से दोस्ती गांठकर तरह-तरह के अपराधों को अंजाम देने के साथ-साथ असहायों की संपत्ति पर कब्जा करने को लालायित रहते हैं। धनवान हत्यारों को जमानत पर जेल से बाहर आने में ज्यादा समय नहीं लगा। बेटियां छोटी थीं। लक्ष्मी देवी को बदमाशों ने इस कदर डराया-धमकाया कि उन्हें अपना गांव छोडकर बरनावा के पास संतनगर में शरण लेनी पडी। मां और बेटियों के पास तब एक फूटी कौडी भी नहीं थी। रहने का भी कोई इंतजाम नहीं था। एक खाली पडी सुनसान जगह पर उन्होंने प्लास्टिक की बोरियों और पॉलीथिन की मदद से झोपडी बनाई और रहना प्रारंभ किया। शैतानों ने यहां भी पीछा नहीं छोडा। धमकाने और डराने का सिलसिला बरकरार रखा। अपनी बेटियों की चिन्ता ने विधवा मां की नींद उडा दी थी। दिन-रात उनकी सुरक्षा को लेकर चिन्तित रहती। वह चौबीस घण्टे उनके साथ तो नहीं रह सकती थी। ऐसे में उसने उन्हें सक्षम बनाने के लिए पहलवान बनाने की ठानी। यही एक रास्ता था जो बेटियों को मानसिक और शारीरिक मजबूती प्रदान कर सकता था। दृढ निश्चयी मां ने पहले बडी बेटी नीलम को अखाडे भेजा। नीलम ने अखाडे में धोबी पछाड लगाना शुरू कर दिया। बडी बहन की देखा-देखी छोटी बहन मेघना भी अखाडे जाने लगी। गांव से बारह किसी दूर अखाडे में दोनों बहने छह घण्टे अभ्यास करने लगीं। उन्होंने अपने बाल कटवा लिए और लडकों की तरह रेसलिंग की ड्रेस में नजर आने लगीं तो पंचायत को यह बात नागवार गुजरी। नीलम और मेघना का आंख से आंख मिलाकर समाज का सामना करने से गांव के लोगों ने उनसे बातचीत तक बंद कर दी।
"यह दुनिया झुकने वालों को और दबाती है। हतोत्साहित करती है।" मां ने बेटियों को पहले से ही इस सच से अवगत करा दिया था। आखिरकार मां और बेटियों की हिम्मत, लगन और मेहनत रंग लायी। नीलम और मेघना आज राष्ट्रीय स्तर की कुश्ती खिलाडी हैं। नीलम ने छह बार स्टेट लेवल पर गोल्ड मेडल जीता है। राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में छह पदक जीतने वाली मेघना के भी हौसले बुलंद हैं। उसे पिछले वर्ष राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता में भाग लेने का मौका मिल चुका है। दोनों बहनों का आज भी संघर्ष जारी है। नीलम स्नातक कर रही हैं और मेघना स्नातक कर चुकी हैं। दोनों बहनों का कहना है कि अगर कुछ संसाधन मुहैया हो जाएं तो वे एक दिन देश के लिए जरूर खेलेंगी।
हमेशा संघर्षरत रहीं मां लक्ष्मी अब पूरी तरह से निश्चिंत हो चुकी हैं। उन्होंने बेटियों को जो बनाना चाहा उसमें सफल होने के बाद उनकी बस यही तमन्ना है कि बेटियों को कोई अच्छी-सी नौकरी मिल जाए तो भविष्य और सुरक्षित हो जाए। आज भी बेटियों के चेहरे पर वो तेज, दृढता और स्वाभिमान की चमक नजर आती है जो उनकी मां की पहचान रही है। गांव के जन-जन को भी आज इन बेटियों पर गर्व हैं। अपनी इस दुनिया में ऐसे लोगों की संख्या ज्यादा है जो यह मानते हैं कि पैसा ही सबकुछ है। जितना अधिक धन उतनी अधिक खुशियां। लेकिन यह सच नहीं है। अमेरिकी शोधकर्ताओं ने एक गहन अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि जैसे-जैसे व्यक्ति की कमायी बढती चली जाती है, वो स्वार्थी बनता चला जाता है। वहीं दूसरी तरफ कम कमायी वाले लोग ज्यादा खुश रहते हैं और दूसरों के साथ उनके संबंध प्रगाढ और मधुर होते हैं। खुशहाली का पैसों से कोई लेना-देना नहीं है। धन से आप दुनियाभर की चीजें खरीद सकते हैं, लेकिन अपनों के प्रति प्रेम और अपनी भावनाएं जो आपको खुश रख सकें उन्हें नहीं खरीदा जा सकता। अध्ययन में यह भी सामने आया कि कम कमायी वाले लोग अधिक सकारात्मक होते हैं। ईश्वर पर उनकी श्रद्धा अधिक होती है। वे स्वार्थी नहीं होते। दूसरों की भी चिंता करते हैं। यही सब बाते उन्हें वास्तविक खुशी प्रदान करती है। पंजाब के चंडीगढ में रहते हैं जगदीशलाल आहूजा। उनकी उम्र है ८३ वर्ष। वे पिछले कई वर्षों से गरीबों को खाना खिलाते चले आ रहे हैं। यही उनके जीवन का एकमात्र मकसद है। इसी में उन्हें अपार खुशी और संतुष्टि मिलती है। उनका बचपन बहुत ही संघर्षमय रहा। खेलकूद की उम्र में शहर की सडकों और गलियों में नमकीन, टॉफी, फल आदि बेचे। जब इक्कीस साल के थे तब पंद्रह रुपये की पूंजी से फल का व्यापार आरंभ किया। मेहनत रंग लायी और धंधा ऐसा चला कि कुछ ही वर्षों में करोडों में खेलने लगे। जिन्दगी बडे मजे से कटने लगी। अपने पुत्र के आठवें जन्मदिवस पर गरीब बच्चों को लंगर खिलाने का विचार आया। लंगर में करीब डेढ सौ बच्चों ने खाना खाया। जगदीशलाल को वो दिन भुलाये नहीं भूलता। बच्चों के चेहरे की चमक बता रही थी कि उन्हें पहली बार अच्छा खाना नसीब हुआ है। उस दृश्य को देखकर जगदीशलाल को अपना वो संघर्ष भरा बचपन याद आ गया, जब कई रातें भूखे पेट सोना पडता था। उन्होंने उसी पल निश्चय कर लिया कि बहुत हो गया धन कमाना, अब तो जरूरतमंदों की सेवा को ही अपने जीवन का एकमात्र मकसद बनाना है। उन्होंने अस्पताल के बाहर अपना लंगर कार्यक्रम शुरू कर दिया। हर दिन एक निश्चित समय पर अस्पताल के गेट के सामने खाना लेकर पहुंचने लगे। इस सेवाकार्य में अडचनें भी आयीं। यहां तक कि संपत्ति भी बेचनी पडी, लेकिन पिछले कई वर्षों से एक भी दिन ऐसा नहीं बीता जिस दिन उन्होंने गरीबों को खाना नहीं खिलाया हो। उनकी उम्र बढती चली जा रही है, लेकिन लंगर खिलाने की इच्छाशक्ति में जरा भी कमी नहीं आयी है। शहर के लोग बडे सम्मान के साथ उन्हें 'लंगर वाले बाबा' के नाम से पुकारते हैं।

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