Thursday, August 12, 2021

इनकी भी तो सोचें

    कोरोना की आपदा ने पढ़ने-लिखने वाले बच्चों को भी नहीं बख्शा। स्कूल-कॉलेज, कोचिंग क्लास सब बंद हो गये। ऐसे में ऑनलाइन पढ़ाई करने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं बचा। मुसीबत की बिजली गिरी गरीबों के बच्चों पर, जिनकी लैपटॉप और मोबाइल खरीदने की हैसियत ही नहीं। दूर-दूर तक इंटरनेट कनेक्शन नहीं। इन बच्चों की संख्या हजार दो हजार नहीं, बल्कि करोड़ों में है। इनके मां-बाप इतना कमा ही नहीं पाते कि हजारों रुपये की कीमत वाले लैपटॉप, मोबाइल खरीद सकें। जो बच्चे इस देश का भविष्य हैं, उनकी शिक्षा की फिक्र सरकार को भी नहीं है। सरकार के समक्ष और कई बड़ी-बड़ी समस्याएं हैं, जिनके समाधान की चिन्ता उसे चौबीस घंटे खाये रहती है। वैसे भी अपना हिन्दुस्तान दुनिया का इकलौता ऐसा देश है, जहां के नेता अपनी कुर्सी को बचाये रखने की लड़ाई में ही हमेशा उलझे रहते हैं। गरीबों की तो बस उन्हें चुनावों के मौसम में ही याद आती है। तब वोटों के लिए मुफ्त में मोबाइल, लैपटॉप भी बांट दिये जाते हैं। कोरोना ने बिना परीक्षा दिए विद्यार्थियों को पास होने का जो मौका दिया है, वह भी देश को भविष्य में भारी पड़ने वाला है। जिन छात्र-छात्राओं ने किताबों का चेहरा नहीं देखा, खेलकूद और इंटरनेट के मायावी जाल में उलझे रहे उन्हें भी पास होने की खुशी मिल गयी। तीस-चालीस प्रतिशत अंक पाने की काबिलियत रखने वाले दसवीं-ग्यारहवीं-बारहवीं के विद्यार्थी बड़ी आसानी से साठ-सत्तर प्रतिशत अंक पाने में सफल हो गये। ऑनलाइन पढ़ाई के इस दौर को हमेशा याद रखा जाएगा। घर में बैठे-बैठे नकलें मारी और मरवायी गयीं, जिससे किसी विद्यार्थी पर भी फेल होने का ठप्पा नहीं लग पाया। ऐसे छल, कपट और धोखे भरे शत-प्रतिशत नतीजे देश को कैसे इंजीनियर, डॉक्टर और अधिकारी देंगे सोच कर ही चिन्ता होने लगती है। वैसे भी अपने देश में आरक्षण के चलते बहुतेरे जीरो भी हीरो बनते चले आ रहे हैं। कोरोना ने इस तादाद को और बढ़ाने के स्पष्ट संकेत दे दिये हैं। हालांकि कोरोना की मजबूरी सब पर भारी रही, लेकिन जिस तरह से आरक्षण के बलबूते पर छलांगे लगाने वालों पर तीर चलाये जाते हैं, उसी तरह से कोरोना काल में पिछले एसेसमेंट के आधार पर पास कर दिये गये छात्रों को भी शंका की निगाह से देखा जायेगा। कोई भी देश अच्छी और सच्ची शिक्षा के बिना बेहतर भविष्य की राह पर नहीं चल सकता। सरकारों का प्रथम कर्तव्य यही है कि हर बच्चे को पढ़ने-लिखने और खेलकूद के भरपूर अवसर मिलें, लेकिन इस महान देश में तो शिक्षा को लेकर घोर नजरअंदाजी का बोलबाला है। साठ प्रतिशत से अधिक स्कूलों, विद्यालयों में खेलकूद के मैदान ही नहीं हैं। उस पर यह रोना भी रोया जाता है कि यहां के युवा तरसा-तरसा कर ओलिंपिक में मेडल लाते हैं। दूसरे देशों के युवाओं की तुलना में ये एकदम फिसड्डी हैं।
    यह सच ही तो है कि, धनवानों की नालायक औलादें डोनेशन और रिश्वत की बदौलत डॉक्टर, इंजीनियर आदि-आदि बनने में सफल हो जाती हैं। आरक्षण और धन के झुनझुने ने काबिलों को पीछे छोड़ने का सतत अपराध किया है। इसीलिए आजादी के इतने वर्षों के बाद भी देश वहां नहीं पहुंच पाया, जहां पर उसे होना चाहिए था। पिछले कई वर्षों ने देश में आर्थिक आधार पर आरक्षण देने की मांग की जा रही है, लेकिन सत्ता की कुर्सी के खिलाड़ियों के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। उन्हें तो देश के भविष्य की निरंतर होती दुर्गति को नजरअंदाज कर अपने सुखद भविष्य के सपनों को साकार करने में अपार संतुष्टि मिलती है। इंटरनेट, लैपटॉप और मोबाइल की चिन्ताजनक कमी से जूझने के मामले में बिहार पहले नंबर पर है, जहां पर 1 करोड़ 43 लाख छात्रों ने अभी तक अपने खुद के लैपटॉप और मोबाइल का चेहरा तक नहीं देखा है। इसी तरह से झारखंड में 35 लाख 32 हजार, कर्नाटक में 31 लाख 31 हजार, असम में 31 लाख 6 हजार छात्रों के पास डिजिटल डिवाइस नहीं हैं। उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र, अरुणाचल, गोवा आदि में भी हर बच्चे के हाथ में मोबाइल लैपटॉप हो ऐसा कतई नहीं है। स्कूलों के बेबस मास्टरों का भी दिमाग चक्कर खाता रहता है। वे जानते-समझते हैं कि जो मां-बाप गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई की जानलेवा मार से त्रस्त हैं, वे अपने बच्चों को मोबाइल और लैपटॉप कहां से लाकर दें। कोरोना की आपदा के खूनी पंजों से आहत अभिभावक नासमझ नहीं। वे जानते हैं कि पहले भी उनके बच्चों के ज्यादा अच्छे भविष्य के आसार नहीं थे, इस महामारी ने तो उन्हें और भी निराश कर दिया है। जो लोग साधन सम्पन्न हैं उन्हीं के बच्चों के लिए डॉक्टर, इंजीनियर, वैज्ञानिक, टेक्नोक्रेट, प्रशासक अर्थशास्त्री तथा नेता मंत्री-संत्री बनने के सभी दरवाजे खुले थे और खुले हैं। गरीबों, असहायों की औलादें तो क्लर्क, स्कूल मास्टर, चपरासी और सेवक बनने के लिए ही जन्मती हैं। उनके लिए इससे आगे सोचना मना है। लोग सरकार से जानना चाहते हैं कि उनकी तिजोरी का धन आखिर जाता कहां है? दरअसल, सरकारों ने अपने खर्चे बेतहाशा बढ़ा लिये हैं। सरकारी कर्मचारियों के वेतन में ही औसतन चालीस से पचास प्रतिशत धन खत्म हो जाता है। केरल में सरकारी कर्मचारियों के वेतन में 70 प्रतिशत आय खर्च हो जाती है और तमिलनाडु में 71 प्रतिशत। उस पर भी मोटी-मोटी तनख्वाहें झटकने वाले छोटे-बड़े नौकरशाह रिश्वतें खाने से बाज नहीं आते। अधिकांश राजनेताओं, प्रशासकों को वर्षों से भ्रष्टाचार की जो बीमारी लगी है, उसे खत्म करना फिलहाल तो असंभव दिखायी देता है। हर बार जब कोई नया शासक आता है तो अपने भाषणों में भ्रष्टाचार को नेस्तनाबूत करने की उम्मीदें जगाता है, लेकिन होता-जाता कुछ नहीं।
    सरकारों से ज्यादा उम्मीद रखना बेमानी है। ऐसे में सजग देशवासियों को ही सामने आना होगा। कोरोना काल में सभी ने देखा है कि अपने यहां के लोगों में सहायता और सेवा की भावना कूट-कूट कर भरी हुई है। यहां एक नहीं अनेक सोनू सूद हैं, जो वक्त पड़ने पर अपनी जान तक की बाजी लगाते हुए संकटग्रस्त लोगों की तकलीफें दूर कर सकते हैं। महाराष्ट्र के पुणे से सटे पिंपरी-चिचवड की एक वर्षीय मासूम वेदिका शिंदे को एक ऐसी दुर्लभ बीमारी ने अपने शिकंजे में दबोच लिया था, जिसके लिए दुनिया के सबसे महंगे इंजेक्शन की जरूरत थी, जिसकी कीमत है, सोलह करोड़ रुपये। बच्ची के गरीब मां-बाप के लिए इतना महंगा इंजेक्शन खरीद पाना असंभव था। उन्होंने अपनी मासूम बेटी की जान बचाने के लिए अखबारों, न्यूज चैनलों तथा सोशल मीडिया के जरिए वेदिका की बीमारी और महंगे इंजेक्शन की जानकारी देशवासियों तक पहुंचायी तो संवेदनशील दानवीरों ने कुछ ही दिनों में 16 करोड़ रुपयों की व्यवस्था कर दी। ये सच भी अत्यंत दुखदायी है कि दुनिया का महंगा इंजेक्शन लगाये जाने के बाद भी बच्ची चल बसी। यहां पर उन दानदाताओं की तो तारीफ तो करनी ही होगी, जिन्होंने एक अनजान बच्ची की जान बचाने के लिए दिल खोलकर आर्थिक सहायता देने में देरी नहीं की। हमारे देश में एक से एक समाजसेवक और दानवीर भरे पड़े हैं। वे यदि ठान लें तो गरीब छात्र-छात्राओं की मोबाइल और लैपटॉप की समस्या का भी चुटकी बजाते समाधान हो सकता है। सरकार को कुछ करना होता तो इस समस्या को जन्मने ही नहीं देती। देशभर की सामाजिक संस्थाओं, उद्योगपतियों, व्यापारियों और तमाम सक्षम लोगों के बिना किस भेदभाव के सहायता के लिए सामने आने से निश्चय ही सरकारों के मुंह पर तमाचा पड़ेगा। हो सकता है तब उनकी आंखें खुल जाएं और अपने प्राथमिक कर्तव्य को निभाने लगें।

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