Thursday, August 26, 2021

सिद्धि और मुक्ति

    यह कोई चलचित्र है, कहानी है या खबर है? पूरे बाइस साल बाद भटकते-भटकते उदय अपने गांव आया था। जब वह लापता हुआ था, तब आम इंसानों जैसा उसका हुलिया था। आज वह जोगी के भेस में था। तब से एकदम अलग जब दो बच्चों का पिता होने के बावजूद एक रात अचानक उसने अपना घर-बार त्याग दिया था। क्यों किया था उसने ऐसा? कोई भी नहीं जानता। पत्नी भी नहीं, जो उसे जी-जान से चाहती थी। सबकुछ ठीक चल रहा था। दोनों एक बेटे और बेटी के माता-पिता बन चुके थे। एक रात उदय के मन में कौन से विचार ने खलबली मचायी कि वह भगौड़े की तरह घर-बार को छोड़ चलता बना। तब बेटा तीन और बेटी मात्र एक साल की थी। उदय की पत्नी सविता और माता-पिता ने उसकी बहुतेरी खोजबीन की। उसके इंतजार में कई रातें जागकर काटीं, लेकिन वह नहीं लौटा। रांची के निकट स्थित सेमोरा गांव के लोगों के बीच वह कई महीनों तक चर्चा का विषय बना रहा। हर किसी के अपने-अपने शक और अनुमान थे। दूसरी औरत के चक्कर में गायब होने की अफवाहों का शोर जब उदय की पत्नी सविता के कानों तक पहुंचता तो उसकी आंखें छलछला आतीं। दोनों एक दूसरे को टूट कर प्यार करते थे। कभी कोई मनमुटाव नहीं हुआ। लड़ाई झगड़ा तो बहुत दूर की बात थी। दोनों अपने बेटी-बेटे के अच्छे भविष्य के सपने को साकार करने के लिए कितनी-कितनी योजनाएं बनाते नहीं थकते थे। सविता ने धीरे-धीरे लोगों की बातों की तरफ ध्यान देना बंद कर अपने बच्चों की अच्छी परवरिश में खुद को झोंक दिया। उसने दिन-रात परिश्रम करते हुए इतने पैसे कमाने शुरू कर दिये, जिससे दोनों बच्चों को किसी ठीक-ठाक स्कूल, कॉलेज में पढ़ा सके। बच्चों ने भी कर्मठ मां के परिश्रम को व्यर्थ नहीं जाने दिया। उन्हें तो अपने जन्मदाता का चेहरा तक याद नहीं था। मां ही उनकी पिता थी।
    जैसे-जैसे समय बीतता गया, लोग भी उदय को भूलते चले गये। अधिकांश रिश्तेदारों तक ने यही मान लिया कि वह अब इस दुनिया से विदा हो चुका है। अगर जिन्दा होता तो कहीं तो नजर आता! सविता ने अपने पति की चिता तो जलते नहीं देखी, लेकिन उसका चित्त जरूर राख हो गया। उस राख में दबी चिंगारियों की तपन उसके बदन को सतत जलाती रही, लेकिन फिर भी उसने कभी हार नहीं मानी। अपने सास-ससुर की भी पूरी देखभाल करती रही। समय ने घर के हर सदस्य को उस मुकाम पर लाकर खड़ा कर दिया था, जहां उदय का कोई नामो-निशान नहीं था। अपने काम में हरदम व्यस्त रहने वाली सविता बहुत कम इधर-उधर जाती थी, लेकिन एक दिन उसने अपने हाथ में सारंगी लिए एक जोगी को गोरखनाथ के भजन गाते... अपने घर के इर्द-गिर्द चक्कर काटते देखा। उसे वो चेहरा काफी जाना-पहचाना लगा। फिर भी पहले दिन तो उसने अपने दिमाग पर ज्यादा जोर नहीं दिया, लेकिन दो-तीन दिन तक बार-बार देखने के बाद उसके दिल-दिमाग ने ऐलान कर दिया कि भिक्षा मांगने वाला जोगी और कोई नहीं, उसका पति उदय ही है। एक ही झटके में वह उसके सामने जाकर खड़ी हो गयी। वह भी एकाएक उसे सामने खड़ा पा स्तब्ध रह गया, लेकिन फिर भी उसने खुद को संभाले रखा। सविता उसके पांव पकड़ बिलख-बिलख कर रोने लगी। पहले तो उदय जिद पर अड़ा रहा कि वह उसे बिलकुल नहीं जानता। वह तो जन्मजात संन्यासी है। उसका इस दुनिया में कहीं कभी भी कोई स्थायी ठिकाना नहीं रहा। दोनों की बातचीत सुनकर धीरे-धीरे आते-जाते लोगों की भीड़ लग गई। गांव वाले सविता के सम्मानजनक चरित्र और संघर्ष से वाकिफ थे। कभी भी उसे किसी से उलझते नहीं देखा गया था। बस अपने काम से काम रखने वाली सविता के पक्ष में पूरा गांव खड़ा हो गया। लाख अपना पक्ष रखने के बावजूद उदय की जब दाल नहीं गली तो उसने स्वीकारा कि वही उसका भगौड़ा पति है, लेकिन अब वह उसके साथ नहीं रह सकता। जोगी धर्म अब उसे गृहस्थ जीवन जीने की आज्ञा नहीं देता। वह तो अपनी पत्नी से भिक्षा लेने आया था, ताकि उसे सिद्धि मिल सके। पत्नी से भीख प्राप्त करने के बाद ही उसे पूरी तरह से सांसारिक जीवन से मुक्ति मिलेगी। एक तरफ सिद्धि पाने के लिए उदय ‘मुक्ति’ मांग रहा था, वहीं सविता उससे अपना पति धर्म निभाने की जिद पर अड़ी थी। समझदार हो चुके बच्चे भी अपने उस पिता का रास्ता रोककर खड़े हो गये, जिसे वे परलोकवासी मानते थे।
    जिस वक्त उदय को सभी अपने घर-परिवार में लौट आने के लिए मनाने में लगे थे, ठीक उसी वक्त संतरानगरी नागपुर में एक अस्सी वर्षीय वृद्ध माता-पिता को अपने बासठ वर्ष के बेटे को वृद्धाश्रम में छोड़ने को विवश होना पड़ रहा था। वृद्धाश्रम चलाने वाले भी इस अद्भुत नजारे को देखकर हैरान थे। अभी तक तो उन्होंने बेटों को ही अपने माता-पिता को वृद्धाश्रम में जबरन छोड़कर खुशी-खुशी ऐसे जाते देखा था, जैसे उनके सिर से बहुत बड़ा बोझ उतर गया हो, लेकिन यहां तो माता-पिता रो-रोकर बेहाल थे। अपने कलेजे के टुकड़े को वृद्धाश्रम में छोड़कर जाते समय उनके चेहरे पर तसल्ली का जो भाव था उसे पढ़ पाना किसी के लिए भी संभव नहीं था। वे अब पूरी तरह से आश्वस्त थे...। उनके बेटे की पत्नी ने सभी का जीना दुश्वार कर दिया था। शादी के कुछ दिनों के बाद लड़ने-झगड़ने लगी। सास-ससुर का सम्मान करना तो उसे कभी आया नहीं। पति को भी अपना गुलाम समझने लगी। सास-ससुर का हस्तक्षेप उसे शूल की तरह चुभता। उन्हें कुछ ही वर्ष में समझ आ गया कि बहू को उनका घर में साथ रहना नापसंद है। इसलिए उन्होंने अपने रहने की अलग व्यवस्था कर ली। बेटा कभी-कभार जब अपने मां-बाप से मिलने जाता तो वह घर में हंगामा खड़ा कर देती। दो बेटों की मां बनने के बाद भी उसमें कोई बदलाव नहीं आया। उलटे अब तो वह और भी खूंखार हो गई और पति पर हाथ उठाने लगी। मां की देखा-देखी बच्चे भी पिता को मारने-पीटने लगे। समाज में बदनामी के भय से सीधा सरल पति वर्षों तक पत्नी और बेटों की गुंडागर्दी सहता रहा। जब वह सरकारी नौकरी में था तब उसकी तनख्वाह के पूरे पैसे छीन लिए जाते। सेवानिवृत्ति के बाद मिलने वाली पेंशन पर भी पत्नी और बेटों का ही हक था। उसे तो बस भिखारी की तरह अपमानित होकर जैसे-तैसे दिन काटने पड़ रहे थे। एक दिन तो सबने मिलकर उसे लाठी-डंडों से पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। कपड़े खून से रंग गये। अब तो उम्रदराज माता-पिता को बेटे की हत्या का डर सताने लगा। अंतत:, जालिम पत्नी और बेटों से ‘मुक्ति’ दिलाने के लिए वे उसे वृद्ध आश्रम लेकर आ गये...।

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