Thursday, October 20, 2022

कब मिटेंगे यह अंधेरे?

    इन खबरों को पढ़-सुनकर किसे गुस्सा नहीं आता होगा। मन भी दहल जाता होगा। मस्तिष्क में यह सवाल भी तीर चलाता होगा कि क्या यह वही दुनिया है, जहां हम रह रहे हैं? गुजरात के जुनागढ़ में एक पिता को अपनी बेटी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। इस अंधविश्वासी शैतान ने पुत्र प्राप्ति की लालसा में नवरात्र अष्टमी की रात बेटी की बलि चढ़ा दी। बिटिया मात्र 14 बरस की थी। उसे अपने पिता पर बहुत भरोसा था। वह तो उसे अपना भाग्य विधाता और भगवान मानती थी, लेकिन इसी भगवान को इस बात का मलाल था कि उसके यहां बेटा पैदा क्यों नहीं हुआ? यह बेटी किस काम की। यह तो पराया धन है। एक न एक दिन दूसरे के यहां विदा हो जाएगी। बेटे ही पिता की विरासत के वारिस होते हैं। उन्हीं से वंश चलता है। पहचान होती है।
जब इंसान के अंदर का मतलबी शैतान जाग जाता है, तो उसके लिए खून के रिश्ते अपनी अहमियत खोने लगते हैं। गांव के स्कूल में नौवीं कक्षा में पढ़ रही यह बिटिया जब बाप को खटकने लगी तो उसे उसमें कई दोष नज़र आने लगे। उसे यह सच याद नहीं रहा कि बेटियों को तो कलेजे से लगा कर रखा जाता है, लेकिन उसके दिल का घेरा तो बहुत संकीर्ण था। उस पर किसी तांत्रिक ने उसके कान भर दिये कि बेटी में तो ‘बुरी शक्ति का साया है’ जो उसे भी तबाह करके छोड़ेगा। कहीं का नहीं रहने देगा। हाथ में कटोरा पकड़वाकर ही दम लेगा। बस फिर क्या था। जन्मदाता राक्षस बन गया। दिन-रात बेटी को मारने-पीटने लगा। सात दिन तक उसे न खाना दिया गया और ना ही पीने को पानी। भूख-प्यास से अधमरी हो चुकी बच्ची की बलि चढ़ाने के बाद हैवान बाप फिर से उसके जिंदा होने के लिए चार दिन तक तांत्रिक क्रियाएं करता रहा। मर चुकी बच्ची आखिर कैसे जीवित होती? पांचवें दिन बेटी का अंतिम संस्कार कर दानव को लगा कि अब वह चैन की नींद सोयेगा, लेकिन पाप का घड़ा तो फूट कर ही रहता है। जब लोगों को पता चला तो उनका गुस्सा फूट पड़ा। उनका बस चलता तो वे उसका खात्मा ही कर देते, लेकिन पुलिस के रोकने और समझाने पर हत्यारे बाप की हत्या होते-होते रह गयी।
    केरल के पथनाम थिट्टा जिले के एलंधूर गांव में रहने वाले एक अधेड़ पति-पत्नी पर फिर से जवान होने का ऐसा भूत सवार हुआ कि वे उन तांत्रिकों की शरण में जा पहुंचे, जिनका दावा था कि वे बूढ़ों को जवान बना सकते हैं। गरीब को अमीर बनाना भी उन्हें बखूब आता है। इस उपलब्धि को पाने के लिए तांत्रिक ने उन्हें दो महिलाओं की बलि देकर भगवान को खुश करने की बात कही तो यौन सुख के भूखे पति-पत्नी सहर्ष तैयार ही नहीं हुए, बल्कि तांत्रिक के मार्गदर्शन में दो महिलाओं को अपने मायावी जाल में फंसाकर उनको मौत के घाट भी उतार दिया। इस हैवानियत को ‘बलि’ का नाम दिया गया। दोनों निर्दोष महिलाओं की नृशंस हत्या करने के बाद उन्होंने उनके शरीर से निकले रक्त को दिवारों पर छिड़का। एक महिला के शव के 56 टुकड़े किए और उन्हें पका कर खाया। दोनों दरिंदों ने महिलाओं के स्तन भी काटकर रख लिए।
    अपने महान भारत देश में न जाने कितनी कुरीतियां और पुरातन परंपराएं हैं। विचार धाराएं जो औरतों के शोषण और अपमान की शर्मनाक दास्तान का निर्लज्ज दस्तावेज हैं। इज्जत और धर्म के नाम पर नारियों को प्रताड़ित करने और उनका देह शोषण की वर्षों पुरानी देवदासी प्रथा को इस आधुनिक काल में भी बड़ी बेशर्मी से खाद-पानी दिया जा रहा है। देवदासी यानी देवों की कथित दासियां, गुलाम... जिनका पग-पग पर देह शोषण किया जाता है, बचपन और जवानी छीनकर बुढ़ापे में दर-दर भीख मांगने और दिवारों से सिर पटकने के लिए असहाय छोड़ दिया जाता है। नारी जाति का घोर अपमान करने वाले इस नीच कर्म में मां-बाप भी सहभागी होते हैं। रमाबाई जब मात्र दस साल की थी, तभी उसके माता-पिता उसे देवदासी बनाने के लिए मंदिर ले गए और उसे पुरोहित को भेंट स्वरूप सौंप दिया, जैसे वह कोई खरीदी और बेची जाने वाली कोई वस्तु हो। उम्रदराज पुरोहित उसे देवता से मिलवाने के नाम पर वर्षों तक उसकी देह से खेलता रहा। इस दौरान वह दो बेटियों और एक बेटे की मां बनी और देखते ही देखते उसकी उम्र भी ढल गई।
    होना तो यह चाहिए था कि नारी की पूजा करने वाले देश में यह जालिम प्रथा जन्म ही नहीं लेती। किन्हीं दुष्टों ने नारियों की भावनाओं को रोंदने, उनके जिस्म को भोगने के लिए हजारों साल पहले इसके बीज बोए और कालांतर में यह बीज पेड़ बन गये। उन्हें काटा ही नहीं गया! मंदिरों में नारी के देह शोषण की कल्पना करने से ही चिंता, दहशत और घबराहट होने लगती है, लेकिन आखिर यह सच तो है ही। नारी के देह शोषण की यह परंपरा आज भी जिन्दा है। उत्तर भारत में भी कहीं-कहीं यह अंगद के पांव की तरह टिकी हुई है। सरकारों ने इस कुप्रथा बनाम नर्कप्रथा पर बंदिश लगाने की बहुतेरी कोशिशें कीं, लेकिन धर्म की आड़ में चलने वाले इस अंधी वासना के कुचक्र पर धर्म के सौदागरों ने विराम नहीं लगने दिया। 1982 में कर्नाटक सरकार और 1988 में आंध्रप्रदेश सरकार नारियों के साथ खिलवाड़ करने वाली इस देवदासी प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर चुकी है। फिर भी एक अनुमान के अनुसार कर्नाटक में देवदासियों की संख्या सत्तर हजार, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में अस्सी हजार के पार है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि देवदासियों को ओडिसा में महारी यानी ‘महान नारी’ कहा जाता है। जो अपनी देह को काबू में रखना जानती हैं। महाराष्ट्र एवं अन्य प्रदेशों में उनके लिए अलग-अलग संबोधन हैं।
    विभिन्न उत्सवों और महोत्सवों के विशालतम देश में अंधविश्वास, नारी शोषण, व्याभिचार, बलात्कार, नृशंस हत्याएं और कट्टरवाद को देखकर मन मस्तिष्क में कई-कई प्रश्न खड़े होते हैं। क्या हमारे यहां त्योहार मात्र दिखावा और तमाशाबाजी हैं। दशहरा, दीपावली जैसे उत्सव मात्र मन बहलाने का जरिया हैं? इन त्योहारों पर सदियों से अपने घर-आंगन की सफाई करते और दीप जलाकर अंधेरे को भगाते देशवासी कुरीतियों, अपराधों के घने अंधेरे से अभी तक मुक्त क्यों नहीं हो पाए? उत्सवों की सार्थकता तो उनके अर्थ और मर्म को समझते हुए उनका अनुसरण करने में है। सदियों दर सदियां बीत गईं। हम इक्कसवीं सदी में भी पहुंच गये, लेकिन उन अंधेरों को पूरी तरह से दूर करने का साहस नहीं जुटा पाए, जो देश के माथे पर कलंक समान विद्यमान हैं।

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