Thursday, May 4, 2023

चरैवति... चरैवति

    महाराष्ट्र प्रदेश और देश के जनप्रिय साप्ताहिक, ‘राष्ट्र पत्रिका’ के सफलतापूर्वक 15वें वर्ष में प्रवेश करने पर हमें वैसी ही अनुभूति और खुशी हो रही है, जैसी हर किसी को अपने जन्मदिन पर होती है। किसी का भी जन्मदिन वो सुखद अवसर होता है, जो अतीत की यादों की खिड़कियां और दरवाजे खोल देता है। हम अपनी यात्रा में कितने सफल और असफल रहे, जाने-अनजाने में कैसी-कैसी भूलें तथा गलतियां हुईं इसका भी शोध और आकलन करने का अवसर होता है हर जन्मोत्सव। अपने प्रकाशन के प्रारंभ काल से ही लाखों सजग पाठकों के मन-मस्तिष्क में बस जाने में कामयाब रहे समाचार पत्र ‘राष्ट्र पत्रिका’ का तब भी यही उद्देश्य था और आज भी यही एकमात्र लक्ष्य है, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता। किसी भी खबर को प्रकाशित करने से पूर्व उसकी गहराई तक जाना हम अपना कर्तव्य समझते हैं। अपने पाठकों को अधूरे नहीं, पूरे सच से अवगत कराना हमारा मूलभूत दायित्व है। चुनौतियां कल भी थीं और आज भी हैं। अपनी बात को खुलकर कहने के लिए मैं शायर सुरजीत भोला दानिश हिंगणघाटी की गजल की इन पंक्तियों का सहारा ले रहा हूँ,

गुजरते लम्हों में सदियां तलाश करता हूँ

ये मेरी प्यास है, मैं नदियां तलाश करता हूँ।

यहां गिनाता है हर कोई खूबियां अपनी,

मैं अपने आप में कमियां तलाश करता हूँ।

भारतीय प्रेस का अपना एक अत्यंत बुलंद इतिहास है। इस देश में अखबारों, संपादकों, पत्रकारों का हर काल में सम्मान होता आया है, लेकिन आजकल हालात कुछ बदले-बदले से हैं। कहने वाले तो यह भी कहने से नहीं सकुचाते कि, वो गुजरे ज़माने की बात है, जब अखबारों को हाथोंहाथ लिया जाता था। उनकी सुर्खियां पाठकों को आकर्षित करती थीं और गहन चर्चा का विषय बना करती थीं। लोग यह भी कहते नहीं थकते थे कि जो अखबार में छपा है, वो एकदम सही है। शंका की कहीं कोई गुंजाइश हो ही नहीं सकती। अब कई अखबार, पत्रकार और संपादक कटघरे में हैं। उन पर उंगलियां उठाने वालों में गैर ही नहीं अपने भी शामिल हैं। 

हमारे पत्रकारिता के शीर्ष बलिदानी संपादकों और पत्रकारों ने यही तो बताया और समझाया है कि लक्ष्यहीन पत्रकारिता के कोई मायने नहीं हैं। हिंदी के पहले अखबार ‘उदन्त मार्तंड’ का ध्येय वाक्य था, ‘‘हिंदुस्तानियों के हित के हेत।’’ इस जीवंत, प्रभावी अखबार में प्रकाशित होने वाली खबरें अंगे्रजों को शूल की तरह चुभती थीं। निर्भीक और ज्ञानवान पत्रकार, संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी के कुशल संपादन में निकले अखबार ‘प्रताप’ का ध्येय वाक्य था, ‘‘जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है। वह नर नहीं नरपशु निरा है और मृतक समान है।’’ आततायी अंग्रेजों के पैरों तले की जमीन खिसकाने और सतत उनकी नींद उड़ाने वाले विद्यार्थीजी को बेखौफ होकर कलम चलाने के दंड स्वरूप पांच बार जेल की यात्रा करनी पड़ी, लेकिन फिर भी उनकी कलम की आग कभी भी ठंडी नहीं पड़ी। ‘प्रताप’ जनता का प्रिय अखबार होने के साथ-साथ आजादी के दिवानों का भी पसंदीदा अखबार था। अमर शहीद भगत सिंह और राष्ट्रपिता महात्मा गांधी, उनकी मशाल-सी लेखनी के जबरदस्त प्रशंसक थे। हिंदुस्तान के क्रांतिकारी यशस्वी कवि श्री माखनलाल चतुर्वेदी की कालजयी कविता, पुष्प की अभिलाषा, 

‘चाह नहीं, मैं सुरबाला के गहनों में गूँथा जाऊँ,

चाह नहीं, प्रेमी-माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ।

चाह नहीं, सम्राटों के शव पर हे हरि, डाला जाऊँ, 

चाह नहीं, देवों के सिर पर चढ़ूँ, भाग्य पर इठलाऊँ।

मुझे तोड़ लेना वनमाली उस पथ पर देना तुम फेंक

मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ जावें वीर अनेक।

सबसे पहले ‘प्रताप’ में ही प्रकाशित हुई थी। इस कविता ने लाखों युवाओं के दिल में देशभक्ति की मशाल जलाकर अंग्रेजों के खिलाफ सड़कों पर उतरने की प्रेरणा दी थी। 1907 में इलाहाबाद से प्रकाशित ‘स्वराज’ नामक अखबार का घोष वाक्य था, ‘‘हिंदुस्तान के हम हैं, हिंदुस्तान हमारा है।’’ इन शब्दों में अंग्रेजों के लिए सीधे-सीधे धमकी और चेतावनी थी कि तुम तुरंत हमारे देश को छोड़कर चलते बनो। इस पर तुम्हारा कोई हक नहीं। इसके जर्रे-जर्रे पर हम हिंदुस्तानियों का अधिकार है। क्रांति का बिगुल फूंकने वाला यह अखबार मात्र ढाई वर्ष तक प्रकाशित हो सका, लेकिन इसने भी भारत की जीवंत पत्रकारिता के इतिहास में अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में दर्ज करवा दिया। गौरतलब है कि अंग्रेजों की नींद उड़ा देने वाले ‘स्वराज’ में उसी विद्वान को संपादक के लायक समझा जाता था, जो अंग्रेजों की तकलीफदायक जेलों में खुशी-खुशी रहने और आजादी के लिए संघर्ष करने से कभी भी पीछे न हटे। ‘स्वराज’ के कुल आठ संपादक हुए। अपने अखबार में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का संदेश देने वाले इन सभी संपादकों को कुल मिलाकर 95 वर्ष की कठोर सज़ा अंग्रेजों ने दी। अंधे-बहरे जुल्मी अंग्रेजों के कानों तक अक्षरों के बारूदों के धमाकों को पहुंचाने के लिए और भी कई अखबार और पत्रकार, संपादक अपनी जान हथेली पर लेकर चला करते थे। जालिम अंग्रेज एक अखबार को बंद करवाते तो तीन-चार और अखबार फौरन छपने लगते। अपने देश की पत्रकारिता के गौरवशाली इतिहास से प्रभावित होकर ही ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन महाराष्ट्र की सांस्कृतिक नगरी नागपुर से प्रारंभ किया गया। हमें दूसरों से कोई लेना-देना नहीं। समाचार पत्र हमारे लिए तेल, साबुन, कुर्सी, मेज, जूता, चाकू, तलवार जैसा बेचने का सामान नहीं, बल्कि देशवासियों तक बेखौफ होकर खबरें और जनहित लेख, जानकारियां पहुंचाने का सशक्त माध्यम है। सिर्फ विरोध की पत्रकारिता करने के लिए ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन नहीं किया जाता। यदि सरकार अच्छे कार्य करती है तो खुलकर तारीफ तथा गलत राह पर चलने पर आलोचना करने से हम कतई नहीं घबराते। हिंदू-मुसलमान का राग अलापने की बजाय आपसी सद्भाव बढ़ाने का प्रारंभ से ही हमारा लक्ष्य और कर्तव्य रहा है। देश विरोधी ताकतों की अनदेखी करना और अपराधियों का महिमामंडन ‘राष्ट्र पत्रिका’ में किसी भी हाल में संभव नहीं। सनसनी फैलाने वाली खबरों से दूरी बनाये रखने के लिए हम कटिबद्ध हैं। हमें जितनी अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की चिंता है उतनी ही दूसरों की भी है। 

आज हम सब देशवासी अमृत महोत्सव मना रहे हैं। भारतवर्ष के शीर्ष पत्रकार, संपादक और चिंतक डॉ. संजय द्विवेदी के इस कथन से भला कौन सहमत नहीं होगा, ‘भारत के समक्ष अपनी एकता को बचाये रखने के लिए एक ही मंत्र है, सबसे पहले राष्ट्र। विरोधी ताकतें तोड़ने के सूत्र खोज रही हैं, लेकिन हमें हर हाल में समाज को जोड़ने के सूत्र खोजने होंगे।’ सत्य की पत्रकारिता का सफर कभी भी नहीं थमता। अभी तो हमने चलना प्रारंभ किया है। हमें बिना थके बहुत लम्बी यात्रा तय करनी है। इस ऊबड़-खाबड़ सफर में जब आप सब हमारे साथ हैं तो भय और चिंता कैसी? श्रमिक दिवस और ‘राष्ट्र पत्रिका’ की वर्षगांठ पर सभी पाठकों, संवाददाताओं, लेखकों, एजेंट बंधुओं, बुक स्टॉल संचालकों, विज्ञापन दाताओं एवं सभी शुभचिंतकों को बार-बार धन्यवाद, शुभकामनाएं और अपार बधाई।

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