Thursday, July 20, 2023

आप ही बताएं, कहां जाएं?

    हम सबके प्यारे भारत देश ने चांद की ओर कदम बढ़ा दिये हैं, लेकिन इधर धरती के हाल कोई ज्यादा अच्छे नहीं हैं। चंद अमीरों की चांदी है। गरीबों के बड़े बुरे हाल हैं। जीवन की मूलभूत जरूरतों के लिए उन्हें तरसना पड़ रहा है। अमीरों के पास बड़ी-बड़ी कोठियां और कारे हैं। करोड़ों भारतीयों के लिए आज भी रोटी, कपड़ा और मकान चंद्रमा हैं, जो उनके सपनों में आते हैं। हकीकत में कोसों-कोसों दूर हैं। गरीब परिवारों में जन्म लेने वाले बच्चों को न तो पौष्टिक आहार मिल पाता है और न ही शिक्षा-दीक्षा। आजादी के इतने वर्षों बाद भी करोड़ो माता-पिताओं के साथ-साथ उनके बेटे-बेटियों को भी खाली पेट रहना-सोना पड़ रहा है। शिक्षा से भी वंचित रहना पड़ रहा है। स्वास्थ्य सुविधाओं के घोर अभाव से जूझना और टूटना पड़ रहा है। देश में इस कदर असमानता, अराजकता और अव्यवस्था का आलम है कि एक तरफ लोगों को भूखमरी का शिकार होना पड़ रहा है, तो दूसरी तरफ अन्न की बर्बादी हो रही है। यह कहना सही नहीं है कि देश में अनाज की कमी है, इसलिए करोड़ों देशवासियों को भोजन नसीब नहीं हो पा रहा है। 

    हमारे मेहनतकश किसान हर तरह की फसलों की भरपूर पैदावार कर रहे हैं। यह सच अपनी जगह है कि उन्हें भी अपने परिश्रम का उचित प्रतिफल नहीं मिल पा रहा है। खेती घाटे का सौदा बन कर रह गई है। अमीरों की शादियों, राजनेताओं, मंत्रियों के यहां होने वाले विभिन्न आयोजनों तथा बड़े-बड़े होटलों की टेबलों पर जो खाना बिना खाये छोड़ दिया जाता है उसका कोई हिसाब नहीं। भोजन के अपमान और उसकी बर्बादी की शर्मनाक तस्वीर उस बेरहमी, मतलबपरस्ती और लापरवाही की तरफ इशारा करती है, जिसकी वजह से करोड़ों भारतीयों के साथ बेइंसाफी और भेदभाव हो रहा है। उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा। उनके कदम अपराध मार्ग की तरफ बरबस खिंचे चले जा रहे हैं। अभी हाल ही में गूंज फाउंडेशन के संस्थापक और रमन मैगसेसे पुरस्कार प्राप्त सामाजिक कार्यकर्ता अंश गुप्ता ने 1999 अपनी आखों देखी हकीकत का जिक्र किया। जिस्म को बर्फ कर देने वाली रात थी। सर्दी में दिल्ली वैसे भी बहुत ठंडी होती है। अच्छे-खासे गर्म कपड़ों के बिना मोटे-ताजे बलवान इंसानों लोगों की जान निकलने लगती है। घर में कंबल और रजाई में दुबक कर रहने का सुख लेना हर सक्षम दिल्लीवासी को अच्छा लगता है। ऐसे कंपकंपा देने वाले बर्फीले मौसम में अंशु गुप्ता जब बेघर लोगों को ठंड से बचाने की मुहिम में लगे थे तभी अचानक उनकी नज़र एक ऐसी युवती पर जा टिकी, जो एक लावारिस मृत शरीर से इसलिए चिपक कर सोई थी, क्योंकि उसके पास कोई गर्म कपड़ा नहीं था। तूफानी सर्दी में उसे मृत शरीर से गर्माहट मिल रही थी। राजधानी दिल्ली ही अकेली ऐसी महानगरी नहीं, जहां गरीबों और असहायों को भरी ठंड में पता नहीं कैसे-कैसे रातें काटनी पड़ती है। उन्हें मौसम के साथ-साथ पापी पेट से भी लड़ना पड़ता है, जो भोजन नहीं मिलने पर बगावत कर देता है। उसी रात अंशु गुप्ता ने असहायों, गरीबों और शोषितों की सहायता और सेवा करने के अपने इरादे को और मजबूती देने का दृढ़ संकल्प कर लिया। 

    ओडिशा के मयूरगंज जिले में गरीबी से त्रस्त एक महिला ने अपनी आठ महीने की मासूम बच्ची को आठ सौ रुपये में बेच दिया। इस गरीब मां की पहले भी एक बेटी है। दूसरी बेटी के जन्म लेते ही उसे बच्ची के पालन-पोषण की चिन्ता सताने लगी। वह पहली बेटी के खान-पान की जरूरतों को पूरा नहीं कर पा रही थी। ऐसे में उसने जो रास्ता निकाला यकीनन वो किसी भी जननी को शोभा नहीं देता, लेकिन गरीबी सब करवा लेती है। बीते हफ्ते बाजार से जब वह अकेली वापस लौटी तो गांव वालों ने उससे बच्ची के बारे में पूछा तो उसने कहा कि बच्ची की तो मौत हो गई है। कोई भी उसके जवाब से संतुष्ट नहीं था। तामिलनाडू में मजदूरी करने वाला उसका पति जब घर लौटा तो उसे भी पत्नी की बात पर यकीन नहीं हुआ। उसने फौरन थाने में शिकायत दर्ज करवाई तो यह हैरतअंगेज, घोर पीड़ादायी हकीकत सामने आयी। 

    महात्मा गांधी की कर्मभूमि वर्धा में एक परिवार ने पैसों के अभाव के कारण अपनी 37 वर्षीय पुत्री प्रवीणा के शव को घर में ही दफना दिया। 9 दिन बाद पुलिस को जब खबर लगी तो खुदाई कर शव को बाहर निकाला गया। प्रवीणा मानसिक रूप से बीमार थी। दो साल पहले बड़ी बहन की मौत के बाद लगे सदमे से उसकी हालत और बिगड़ गई थी। पहले भी उसका किसी से मिलना-जुलना बहुत कम होता था, लेकिन अब तो उसने घर से बाहर झांकना भी बंद कर दिया था। अचानक जब उसने प्राण त्यागे तो गरीब माता-पिता के समक्ष संकट खड़ा हो गया कि मृतक बेटी के अंतिम संस्कार के लिए पैसे कहां से लाएं? उन्होंने चुपचाप घर में ही बिना किसी को बताये कमरे में गड्ढा खोदा और शव को दफना दिया। देश के जन-जन तक स्वास्थ्य सेवाओं तथा आवागमन की सुविधाएं उपलब्ध कराने का दावा करने वाली देश और प्रदेश की सरकारों के लिए यह खबर किसी तमाचे से कम नहीं : पालघर जिले के आदिवासी बहुल विक्रमगढ़ तालुका के एक गांव की दो महीने की बीमार बच्ची की अस्पताल में देरी के पहुचने के कारण रास्ते में ही मौत हो गई। 150 लोगों की आबादी वाले इस गांव में कोई संपर्क सड़क नहीं। गरीब माता-पिता ने बच्ची को गोद में लेकर जैसे-तैसे लकड़ी के तख्तों का इस्तेमाल कर नदी तो पार कर ली, लेकिन डॉक्टरों तक पहुंचने से पहले अपनी लाड़ली को खो बैठे। यह बदनसीब गांव दो नदियों गर्गई और पिंजल के पास स्थित है। मानसून के दौरान महीनों इसका जिले की बाकी हिस्सों से संपर्क टूट जाता है। गांववासी पिछले कई वर्षों से नदी पर पुल बनाए जाने की गुहार लगाते चले आ रहे हैं, लेकिन शासन और प्रशासन बड़ी गहरी नींद में हैं...। ऐसे में आप ही बताएं, ये लोग कहां जाएं?

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