Thursday, December 14, 2023

नतमस्तक

    उन्होंने अपने चेहरे पर जमी खौफ की परछाइयों पर नकाब डाल रखा था। वे किसी भी हालत में अपने अंदर के भय को उजागर नहीं करना चाहते थे। उन्हें अपने से ज्यादा अपने साथियों की चिंता थी। वे उनके हौंसले को किसी भी हालत में पस्त होते नहीं देखना चाहते थे। उत्तराखंड के उत्तराकाशी में निर्माणाधीन सुरंग का हिस्सा ढहने के कारण उन पर जानलेवा विपदा आ पड़ी थी। देश और दुनिया को भी खबर हो गई थी कि सुरंग में फंसे मजदूरों की जिन्दगी दांव पर लग चुकी है। वो दिवाली का दिन था। 12 नवंबर। सुबह साढ़े पांच बजे यह स्तब्ध और सन्न करने वाला हादसा हुआ था। सुरंग में फंसे सभी मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकालने के लिए बचाव दल तुरंत सक्रिय हो गये थे। देश और विदेश के न्यूज चैनलों ने भी पल-पल की खबर को कवर करना प्रारंभ कर दिया था। सभी को उम्मीद थी कि मजदूरों को सुरक्षित बाहर निकालने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। जब देश चांद पर जा पहुुंचा है, तब पहाड़ का सीना चीरना कौन-सी बड़ी बात है। कुछ ही घण्टों के बाद मजदूर अपने घर-परिवार के साथ बोल-बतिया रहे होंगे और अपनी आपबीती सुना रहे होंगे। अंधी सुरंग में कैद मजदूरों के बारे में तरह-तरह के कयास लगाये जा रहे थे। सुरंग से मलबा हटाते-हटाते जब पूरा दिन बीत गया, तो श्रमिकों के परिजनों की धड़कनें बेकाबू होने लगीं। दूसरे दिन राहत और बचाव कार्य में तूफानी तेजी लायी गई। उनसे बात कर आक्सीजन और पानी उपलब्ध कराया गया। 60 मीटर तक फैले मलबे को हटाने में कई दिक्कतें आने लगीं। इधर बचाव कर्मी नीचे से मलबा हटाते उधर ऊपर से मलबा गिरने लगता। दो दिन में बड़ी मुश्किल से पंद्रह से बीस मीटर तक मलबा हटाने में कामयाबी मिली। श्रमिकों के परिजनों के साथ-साथ संवेदनशील देशवासियों के माथे पर चिंता की लकीरें खिंचने लगीं। सभी के चेहरे बुझने लगे। मन-मस्तिष्क में तरह-तरह के सवाल भी कौंधते चले गए। भूखे-प्यासे श्रमिक किस हाल में होंगे। अंधेरे में जरूर उनका दम घुट रहा होगा। कोई चल तो नहीं बसा होगा? तीसरे दिन भी बचाव अभियान युद्ध स्तर पर जारी रहा। 

    बड़ी मुश्किल से 25 मीटर तक मलबा हटाया तो गया, लेकिन जितना हटाया गया उतना और गिर गया। इसी दौरान वॉकी-टॉकी के माध्यम से परिजनों से श्रमिकों की बातचीत करवाकर राहत और तसल्ली का अहसास दिलाने की कोशिश की गई। बचाव टीमों की सफलता-असफलता की खबरें सतत आती और डराती रहीं। श्रमिकों के घर-परिवार के लोग कभी खुशी, कभी गम की स्थिति के झूले में झूलते रहे। 11वें दिन पाइप के जरिए रोटी, सब्जी, खिचड़ी, दलिया, केले, संतरे श्रमिकों तक पहुंचाये गए। इसके साथ ही टीशर्ट, अंडरगारमेंट, टूथपेस्ट और ब्रश के साथ साबुन भी भेजा गया। तब कहीं जाकर उन्होंने मुंह हाथ धोया, दांत साफ किये और अपने-अपने हिसाब से खाना खाया। दिन पर दिन बीतते गये। असमंजस के साथ आशा के दीप भी जलते रहे। 17 दिनों के लंबे इंतजार के बाद जिस दिन सभी श्रमिक सुरक्षित बाहर लाये गए उस दिन अपनों तथा बेगानों ने दिवाली मनायी। सभी के श्रमिकों का सकुशल लौटना किसी दैवीय चमत्कार से कम नहीं था। मजदूर भी बेहद प्रफुल्लित थे। सभी ने कहा कि सुरंग में फंसे रहने के दौरान कई बार उन्हें लगा कि मौत उनसे ज्यादा दूर नहीं है। जब उन्हें पता चला कि अमेरिकी ऑगर मशीन ने हार मान ली है तो वे बुरी तरह से घबरा गये। अब क्या होगा? यह चमत्कार ही था कि तुरंत रैट माइनर्स ने अपनी करामात दिखायी और सभी की जान में जान आयी। रैट-होल माइनिंग खदानों में संकरे रास्तों से कोयला निकालने की एक काफी पुरानी तकनीक है। इसे गैरकानूनी माना जाता है, लेकिन इंसानी हाथों की इस अवैध तकनीक ने तो करोड़ों की बड़ी-बड़ी मशीनों को मात दे दी। रैट-होल का मतलब है- जमीन के अंदर संकरे रास्ते खोदना, जिसमें एक व्यक्ति जाकर कोयला निकाल सके। इसका नाम चूहों द्वारा संकरे बिल बनाने से मेल खाने के कारण रैट-होल माइनिंग पड़ा है। 

    दिल्ली की एक कंपनी में कार्यरत मुन्ना कुरैशी वो पहले शख्स थे, जिन्होंने सुरंग के अंदर प्रवेश कर आखिरी चट्टान हटायी। श्रमिकों का अभिवादन किया। अपनी खुशी व्यक्त करने के लिए कुरैशी के पास शब्द नहीं थे। आखिर के दो मीटर में खुदाई करने वाले एक अन्य रैट-होल माइनर फिरोज खुशी के आंसू लिए सुरंग से बाहर निकले। सुरंग में फंसे मजदूरों को बाहर निकालने के लिए हिंदू-मुस्लिमों ने मिलकर अपनी जान लगा दी। उन्होंने देशवासियों को भी बिना किसी भेदभाव के मिलजुलकर रहने का संदेश दे दिया। सुरंग के अंदर भी सभी श्रमिक भाईचारे के गीत गाते रहे। एक दूसरे का हौसला बढ़ाते हुए आपसी सद्भाव और भाईचारे की पताका फहराते रहे। कई दिनों के बाद खुली हवा में आये मंजीत के उम्रदराज पिता के आंसू थमने को तैयार नहीं थे, वे बेटे के गले से मिलते हुए बोले, ‘आखिरकार मेरा बेटा बाहर आ ही गया। हमारे लिए आज ही दिवाली है। पहाड़ ने मेरे बच्चे तथा अन्य मेहनतकशों को अपने आगोश से रिहाई दे दी है। मैं कपड़े लेकर आया हूं ताकि उसे साफ कपड़ों में देख सकूं।’ इस पिता की उसी दिन से जान अटकी थी, जिस दिन सुरंग हादसा हुआ था। पिता बहुत भयभीत थे। बीते वर्ष उसके बड़े बेटे की मुंबई में एक निर्माण कंपनी में हुई दुर्घटना में जान चली गई थी। सुबोध वर्मा भी उन 41 मजदूरों में से एक हैं। झारखंड के रहने वाले इस जिन्दादिल इंसान के शब्द थे, ‘हमें अंदर खास दिक्कत नहीं हुई। शुरू-शुरू के 24 घण्टे ही तकलीफ में गुजरे। ऑक्सीजन और पानी के अभाव से जूझना पड़ा। बाद में तो पाइप के जरिए हमें काजू, किशमिश और अन्य खाने की चीजें मिलने लगीं। हमें लेकर बाहर भले ही हमारे परिजन और देशवासी परेशान और फिक्रमंद थे, लेकिन अंदर हम एक-दूसरे का पूरा ख्याल रख रहे थे। अंताक्षरी तथा गीत-गजलें गाते हुए वक्त गुजार रहे थे।’ 51 वर्षीय गब्बर सिंह नेगी की बहादुरी और जिंदादिली की जितनी तारीफ की जाए, कम होगी। गब्बर सिंह अपने साथी श्रमिकों का निरंतर मनोबल बढ़ाते हुए कहते और समझाते रहे कि बिलकुल मत घबराओ। धैर्य रखो। हमें शीघ्र ही सुरक्षित बाहर निकाल लिया जाएगा। बाहर पूरा देश हमारा इंतजार कर रहा है। उसी दौरान उन्होंने अपने साथियों से यह वादा भी किया कि तुम सभी के बाहर निकलने के बाद ही मैं बाहर कदम रखूंगा। नेगी अपने वादे को नहीं भूले। अंत में जब वे बाहर निकले तो उनका चेहरा मुस्कराहट से चमक रहा था। सभी साथी उनके प्रति नतमस्तक थे।


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