Thursday, March 27, 2025

मन की किताब

जो हार नहीं मानते। हालातों से टकराते हैं। वही अंतत: मील का पत्थर बन राह दिखाते हैं। लोग उन्हीं के अटूट संघर्ष की मिसालें देकर हताश निराश और उदास लोगों का हौसला बढ़ाते हैं। किताबों के पन्नों में भी वही नज़र आते हैं। किताब को जब तक हाथ में लेकर खोला नहीं जाए तब तक उनमें समाहित ज्ञान से रूबरू नहीं हुआ जा सकता। किताबों ने न जाने कितने भटके लोगों को नई दिशा देते हुए मंजिल तक पहुंचाया है। असम के रहने वाले 33 वर्षीय डेका आर्थिक तंगी की वजह ज्यादा दिन तक स्कूल नहीं जा पाए। अनपढ़ होने के कारण ढंग की नौकरी नहीं मिली। जो नौकरी मिली उसमें कभी मन नहीं लगा। बेमन से नौकरी बजाते-बजाते डेका को पुस्तकें पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि वह उन्हीं में रम गया। तभी उसे अपनी भूल और कमी का भी पता चला। मन में यह विचार भी बार-बार आया कि यदि हिम्मत कर किसी तरह से पढ़-लिख जाता तो ऐसे मर-मर कर अभावों की आंधी में सूखे पत्तों की तरह इधर-उधर नहीं उड़ना-बिखरना पड़ता। विभिन्न विचारकों, विद्वानों के प्रेरक शब्दों ने उसकी नकारात्मक सोच को बहुत पीछे छोड़ दिया। उसने अपने भीतर दबे-छिपे ज्ञान और शक्ति से रूबरू होकर हमेशा-हमेशा के लिए किताबों से रिश्ता जोड़ने का निश्चय करते हुए अपनी बाइक को किताबों की दुकान बना दिया। बाइक पर किताबें लादकर वह आसपास तथा दूर-दराज के ग्रामों तक जाने लगा। उसे यह देखकर हैरानी हुई कि ग्रामवासी अपनी मनपसंद किताबों की मांग करने के साथ-साथ उसकी सुझायी किताबें खुशी-खुशी खरीदने लगे। शहरों में तो पाठकों को अपनी मनचाही पुस्तकें आसानी से मिल जाती हैं लेकिन ग्रामों में बड़ी मुश्किल होती है। डेका की मेहनत और कोशिश को रंग लाने में ज्यादा समय नहीं लगा। कुछ ही महीनों में पास और दूर के लगभग दस गांवों के लोग उसके नियमित ग्राहक बन गए। नयी-नयी किताबों के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा स्टेशनरी के भी आर्डर मिलने लगे। अपनी बाइक पर ही बुक एवं स्टेशनरी की दुकान चला रहे डेका की अब हर माह बड़ी आसानी से पचास हजार रुपये की कमायी हो रही है। मात्र पांच-छह साल में किताबों की बदौलत लाखों में खेल रहे डेका का युवाओं से बस कहना है कि नौकरी के पीछे मत भागो। अपनी मेहनत से देर-सबेर जो सफलता मिलेगी उसकी खुशी से तुम झूम उठोगे। मन सदैव यह सोच-सोच कर गदगद रहेगा कि हमने जो भी पाया अपनी मेहनत और लगन से पाया। 

असम-अरुणाचल की सीमा पर बसे भोगवारी गांव के बच्चे चाहकर भी स्कूल नहीं जा पाते थे। उनके घर का वातावरण अत्यंत निराशाजनक था। पुरुषों को पीने की लत ने लगभग नकारा बना दिया था। जो भी कमाते शराब पर उड़ा देते। घर में रोज-रोज होने वाले लड़ाई-झगड़े, गाली-गलौज ने बच्चों को भी हिंसक, आवारा और गालीबाज बना दिया था। पिता के हाथों जब-तब पिटना उनका नसीब बन कर रह गया था। इसी गांव में रहने वाली युवती अनिंदिता बच्चों की दुर्गति देख-देख कर हैरान-परेशान होती रहती थी, लेकिन इससे समस्या का हल नहीं होने वाला था। अनिंदिता ने बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए खुद की जमापूंजी से लाइब्रेरी की शुरुआत की। इस लाइब्रेरी में उसने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के लिए आवश्यक कॉपी, किताबों के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाएं तथा पुस्तकें रखनी प्रारंभ कर दीं। उसने बच्चों के मां-बाप को भी रोड साइड लाइब्रेरी में आने का निवेदन किया। मूलभूत आवश्यकताओं से जूझते माता-पिता भी शिक्षा और अध्ययन के महत्व और जरूरत से अंजान नहीं थे। अनिंदिता को शुरू-शुरू में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना प़ड़ा। खुद की पूंजी भी कुछ महीनों में खत्म हो गई। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। इलाके के धनवानों तथा समाजसेवी लोगों से उसका सेवाकार्य और संघर्ष छिपा नहीं था। अनिंदिता जब उसके पास सहयोग के लिए पहुंची तो उन्होंने उम्मीद से ज्यादा तन-मन-धन से उसका साथ देना प्रारंभ कर दिया। अब तो अनिंदिता के हौसले, संघर्ष की बदौलत भोगबारी गांव में बच्चों तथा बड़ों की जिन्दगी में बदलाव आ चुका है। नयी रोशनी ने सभी के चेहरे पर चमक ला दी है। रोड साइड लाइब्रेरी चौबीसों घण्टे खुली रहती है। गांव के 200 बच्चे नियमित पढ़ने आते हैं। जिन बच्चे-बच्चियों के घरों में रहने की सुविधा नहीं है वे यहीं खाते-पीते और सोते हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए अनिंदिता ने क्लॉथ हाउस भी शुरू किया है। यहां से सभी गांववासी अपनी आवश्यकता के अनुसार कपड़े ले सकते है। जिनकी हैसियत कीमत चुकाने की नहीं उन्हें बिलकुल नि:शुल्क वस्त्र प्रदान किये जाते हैं। अनिंदित की लाइब्रेरी से बच्चे ही नहीं वयस्क भी जुड़ते चले जा रहे हैं। 

मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में पुस्तकों को पढ़ने वाले कम हो गये हैं। विभिन्न विधाओं की पुस्तकें तो धड़ाधड़ छप रही हैं, लेकिन पाठकों की संख्या बढ़ने का नाम नहीं ले रही है। हर साहित्यकार की यही शिकायत है कि अधिकांश युवा तो पुस्तकों के निकट ही नहीं जाते। उन्हें मोबाइल से ही फुर्सत नहीं है। शहरों व ग्रामों में पहले वाचनालयों का जो चलन था, उनमें भी बहुत कमी देखी जा रही हैं। अधिकांश वाचनालय पाठकों का इंतजार करते रहते है। यह भी सच है कि वहां पर सभी की पसंद की कृतियों का नितांत अभाव रहता है।  देश के प्रदेश केरल को छोड़कर कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहां सार्वजनिक वाचनालयों की उल्लेखनीय उपस्थिति बनी हुई हो। लगभग 3.34 करोड़ की आबादी वाले केरल राज्य में किसी भी कस्बे या शहर में चले जाइए आपको सार्वजनिक पुस्तकालय अवश्य दिखाई देंगे। इन वाचनालयों में आपको हर उम्र के पाठक अपनी-अपनी पसंद की पुस्तकें तलाशते और पढ़ते नज़र आ जाएंगे। किताबों की भीनी-भीनी महक और शब्दों का जादू नये-नये पाठकों को वाचनालयों तक खींच लाता है। केरल में स्थित कन्नूर की आबादी लगभग तीस हजार है। यहां पर 34 वाचनालय हैं। यानी हर वर्ग किलोमीटर में लगभग एक वाचनालय! हर वाचनालय पढ़ने के शौकीनों से आबाद रहता है। अधिकांश में कम्प्यूटर व एकीकृत कैटलॉग की सुविधा के साथ-साथ प्रशिक्षित लाइब्रेरियन पदस्थ हैं, जो वहां आने वाले पाठकों का मार्गदर्शन करते हैं। कुछ युवक और युवतियां मूविंग लाइब्रेरी (चलती-फिरती) के जरिए सजग पाठकों के घरों तथा संस्थानों तक किताबें और पत्रिकाएं नियमित पहुंचाते हैं। सभी प्रदेशवासी वाचनालयों के प्रति आकर्षित हों इसके लिए सरकार तो नियमित फंड उपलब्ध कराती ही है। इसके साथ-साथ कुछ सार्वजनिक संस्थाए और सक्षम लोग भी इस जनहित कार्य में पीछे नहीं रहते। केरल में कुछ लाइब्रेरी ऐसी हैं जिन्हें आम लोगों ने आपस में राशि एकत्रित कर स्थापित किया है। लोगों का लाइब्रेरी से इस कदर लगाव है कि जब भी क्षेत्र में नया घर बनता है तो लाइब्रेरी के नाम से उसके पास कोई फलदार पेड़ लगाया जाता है। शिक्षा सामाजिक जुड़ाव और सुधार में भी ग्रंथालयों ने अहम भूमिका निभायी है। यहां पर पुस्तकालयों को पठन-पाठन एवं चिंतन-मनन की संस्कृति के विकास का बहुत बड़ा माध्यम माना जाता है। समय-समय पर हुए विभिन्न आंदोलनों को भी पुस्तकालयों से दिशा और ताकत मिलती रही है। साठ साल की हो चुकी फुर्तीली राधा लाइब्रेरी आंदोलन की एक जानी-पहचानी हस्ती हैं। राधा बीते कई वर्षों से राजनीति में भी सक्रिय हैं। इस उम्र में भी वे महिलाओं और बुजुर्गों को उनके घरों तक किताबें पहुंचाती हैं। वह कहती हैं जब मैं अपने हाथ में लाइब्रेरी का रजिस्टर और कंधों पर किताबों भरा बैग लेकर चलती हूं तो मेरा तन-मन खुशी से झूमने लगता है। यदि मेरा बचपन से साहित्य से लगाव नहीं होता तो मैं मनचाही सफलता से दूर रहती। मेरा तो यही मानना है कि किताबें हालातों को बदलने का हथियार हैं। जब किसी को भी किताब खरीदते देखती हूं तो मैं नतमस्तक हो जाती हूं।  किसी वाचनालय में प्रवेश करने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारना मैं कभी नहीं भूलती। पुस्तकालय मेरे लिए किसी देवालय से कम नहीं। यही किताबें ही हैं जो हमें हमारी अज्ञानता और हैसियत से रूबरू कराती हैं...।

Thursday, March 20, 2025

इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...

चित्र-1 : बबीता। उम्र 50 वर्ष। दायां हाथ और पैर निष्क्रिय हैं। हिलाने-डुलाने में तकलीफ होती है। बचपन में ही पोलियोग्रस्त हो गईं थीं। ऐसे पीड़ादायी रोग और परेशानी में भी उनका मनोबल नहीं टूटा। अटूट हिम्मत और व्हीलचेयर ही उनका सहारा है। बी.कॉम करते-करते मन में शारीरिक रूप से कमजोर, असहाय लोगों की सहायता, सुरक्षा और देखभाल करने की ऐसी इच्छा बलवति हुई कि, जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सच्ची और सार्थक चाह होने पर राह खुद-ब-खुद कदम चूमने लगती है। अपंग बबीता को जैसे ही ‘अपना घर’ नामक आश्रम में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिली तो उन्हें लगा परम पिता परमेश्वर ने उनकी सुन ली है। मात्र एक साल बीतते-बीतते बबीता को 100 बीघा में फैले आश्रम की देखरेख के साथ-साथ मानसिक रूप से विक्षिप्त, शारीरिक तौर पर असक्षम लोगों की सेवा करने का दायित्व सौंप दिया गया। परोपकारी सोच में रची-बसी बबीता ने आश्रम की व्यवस्था ऐसी संभाली कि देखने वाले हैरान रह गए। बबीता बड़ी कुशलता के साथ असक्षम लोगों के रेस्क्यू, रजिस्ट्रेशन, आवास, भोजन, चिकित्सा, स्वच्छता, पुनर्वास, प्रशिक्षण, अध्यापन और अन्य व्यवस्थाएं ऐसी कर्मठता के साथ करती हैं, जैसे वह इसी के लिए बनी हों। उनका साथ देने के लिए 480 कर्मचारी चौबीस घंटे चाक चौबंद रहते हैं। वे सभी बबीता दीदी के तहेदिल से शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने उनके मन-मस्तिष्क में विक्षिप्त और असहायों की सेवा करने के प्रेरणा दीप जलाए हैं। बच्चों और बड़ों की प्यारी बबीता दीदी सुबह 4 बजे तक उठ जाती हैं। उसके बाद ऑटोमेटिक व्हीलचेयर पर विशाल आश्रम के चप्पे-चप्पे में घूमते हुए सभी का हालचाल जानने, सहायता उपलब्ध करवाने में कब रात हो जाती है उन्हें पता ही नहीं चलता। उनके जागने का समय तो निर्धारित है, लेकिन सोने का कोई वक्त तय नहीं है। चौबीस घंटे जोश और उमंग के झूले में झूलती, जरूरतमंदों के फोन अटेंड करती बबीता दीदी के जीवन का बस यही मूलमंत्र है, भले ही आप शारीरिक तौर पर कमजोर और लस्त-पस्त हैं, लेकिन अपने दिमाग को कभी भी अपाहिज मत मानो। उसे हमेशा सक्रिय रखो। अच्छे विचारों से सदैव रिश्ता बनाये रखो। सकारात्मक सोच आपका उत्साह बढ़ायेगी। चुस्ती-फूर्ती भी बनी रहेगी। आश्रम में रहने वाले सभी लोग हमारे लिए प्रभु का रूप हैं। हमें उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिला है। उनकी देखरेख करना हमारा एकमात्र कर्तव्य है। देश-विदेश में फैले 62 आश्रमों में रह रहे लगभग 15 हजार असहायों, विक्षिप्तों की देखरेख में लगी बबीता दीदी अक्सर एक प्रसिद्ध गीत की यह पंक्तियां गुनगुनाती देखी जाती हैं, ‘‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल...।’’

चित्र-2 : हमारे देश में कई पुरातन रीति रिवाज ऐसे हैं, जो मानव के विकास में बाधक बने हुए हैं। बाल विवाह की परंपरा उन्हीं में से एक है। जिसके खिलाफ अभियान तो बहुत से चलाए गए, लेकिन पूरी तरह से उसका खात्मा नहीं हो पाया। देश के कुछ प्रदेशों में नाबालिग, मासूम, नासमझ बच्चियों की शादी करने का चलन कहीं चोरी-छिपे तो कहीं खुले आम आज भी देखा जा सकता है। जिन बेटियों का बाल विवाह होता है उनका भविष्य भी कहीं न कहीं अंधकारमय हो जाता है। यह अत्यंत सुखद और अच्छी बात है कि अब इस चिंताजनक परिपाटी के खिलाफ बेटियां खुद कमर कस रही हैं। इस प्रथा के खिलाफ उनके विरोध के स्वर गूंजने लगे हैं। वे वो मनचाहा कार्य करने लगी हैं, जिन्हें करने से उन्हें रोका जाता था और उनके सपनों की हत्या कर दी जाती थी। राजस्थान में स्थित अजमेर जिले के 13 ग्रामों में हर दूसरे घर की बेटी आज फुटबॉल खेलती है। यहां 550 लड़कियां फुटबॉलर हैं। इनमें से अधिकांश लड़कियां वो हैं जिनके मां-बाप बचपन में ही उनकी शादी करवाने पर तुले थे, लेकिन वे बाल विवाह के खिलाफ डटकर खड़ी हो गईं। अंतत: मां-बाप को भी झुकना पड़ा। कुछ लड़कियों की तो सगाई भी हो चुकी थी, लेकिन उन्होंने फुटबॉल खेलने की चाह में सगाई ही तोड़ दी। लड़कियों को फुटबॉल खेलने से रोकने के लिए गांव के कुछ बड़े-बुजुर्गों तथा खुद को कुछ ज्यादा ही समझदार मानने वाले शिक्षित लोगों ने अपने ज्ञान का पिटारा खोलते हुए कहा कि, फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों का इससे दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं। यहां तक कि सरकारी स्कूल में भी बच्चियों के फुटबॉल खेलने पर पाबंदी लगा दी गई। पुरुषों की मानसिकता बदलने के लिए लड़कियों ने दिन-रात मेहनत की और स्टेट और नेशनल खिलाड़ी बन उपदेशकों की बोलती बंद कर दी। फुटबॉल की जुनूनी बेटियों के जीवन में ऐसे भी क्षण आए जब उन्होंने बचपन की शादी के बंधन में मिले पति की बजाय फुटबॉल को चुना। अब तो इन गांवों की कुछ बेटियां डी-लाइसेंस हासिल कर सफल कोच बन गई हैं और कई लड़कियां नेशनल टूर्नामेंट में शामिल होकर इस संदेश की पताका लहारा चुकी है कि लड़कियों को कम मत समझो। उनका रास्ता मत रोको। वो जो भी चाहें, उन्हें खुलकर करने दो। लड़कियां कभी भी लड़कों से कमतर साबित नहीं होंगी। हर नई शुरुआत के पीछे कोई न कोई प्रेरणा स्त्रोत और कारण अवश्य होता है। अजमेर जिले के 13 ग्रामों में बदलाव लाने का श्रेय जाता है समाजसेविका इंदिरा पंचौली को। राजस्थान में कई इलाकों में अभी भी बीमारी की तरह जड़े जमाए बाल विवाह पर विराम लगाने के उद्देश्य से जब वे अध्ययन के लिए बंगाल गईं थी, तब उन्होंने देखा कि गांव की बच्चियां स्कूल से छूटने के बाद पुलिस थानों में स्थित मैदानों में फुटबॉल खेल रही हैं। पंचौली मैडम के मन में आया कि अपने जिले अजमेर में यदि बच्चियों में फुटबॉल खेलने की इच्छा जगायी जाए तो धीरे-धीरे बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। इसके लिए उन्होंने प्रारंभ में गांवों में खेल उत्सव का आयोजन किया। जिसमें जोर-शोर से ऐलान करवाया गया कि, जो बेटियां फुटबॉल खेलने की इच्छुक हैं वें तुरंत हमसे आकर मिलें। उम्मीद से ज्यादा लड़कियों के फुटबॉल खेलने की इच्छा प्रकट करने पर उनके मनोबल में और जान फूंक दी, लेकिन जब अभ्यास और प्रतियोगिता के लिए बाहर जाने की बात आई तो उनके घरवालों ने यह कहकर अड़ंगा डालना प्रारंभ कर दिया कि फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों के हाथ-पांव टूट गए तो वे अपंग हो जाएंगी और उनसे शादी कौन करेगा? लड़कियों के घर से बाहर जाने पर उनके बारे में लोग उलटी-सीधी बातें करेंगे। लेकिन लड़कियां फुटबॉल खेलने की जिद से टस से मस नहीं हुईं। बात पुलिस प्रशासन तक भी जा पहुंची। उन्होंने भी मां-बाप को समझाया। तब कहीं जाकर वे माने और बेटियां बेखौफ होकर फुटबॉल खेलते हुए एक से एक कीर्तिमान रचने लगीं। उनके नाम की पताका दूर-दूर तक फहराने लगी। जो मां-बाप बेटियों को घर में कैद रखने और बाल विवाह करने के प्रबल पक्षधर थे वे भी बाल विवाह को हमेशा-हमेशा के लिए भूलकर बेटियों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रोत्साहित करने लगे हैं।

चित्र-3 :  उदयपुर में रहती हैं, सरला गुप्ता। महिला हैं, लेकिन पुरुषों से कहीं भी कम नहीं। शादी-मुंडन से लेकर अंतिम संस्कार तक के दायित्व वर्षों से कुशलतापूर्वक निभाती चली आ रही हैं। यह महिला पंडित अभी तक 50 से अधिक शादी-ब्याह के साथ-साथ 70-75 दाह संस्कार संपन्न करवा चुकी हैं। उन्हें इन संस्कार कार्यों से जो धनराशि दक्षिणा के तौर पर मिलती है उसे जरूरतमंद लड़कियों की पढ़ाई के लिए सहर्ष दान कर देती है। पति के रिटायरमेंट के बाद सरला ने समाजसेवा के इस नये मार्ग को चुना। जब उन्होंने अपने जीवनसाथी को पुरोहिताई करने की इच्छा जताई तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को हर तरह से प्रोत्साहित किया। शुरू-शुरू में उन्हीं के समाज के कुछ लोग पीठ पीछे उनकी खिल्ली उड़ाते हुए तरह-तरह की बाते करते थे। कुछ लोग तो उन्हें अपमानित करते हुए यह भी कह देते कि जबरन पंडितों के पेशे से जुड़कर उन्हीं के पेट पर लात मार रही हो। तुम्हें बहुत पाप लगेगा। ईश्वर भी माफ नहीं करेंगे, जिन्होंने सभी के कर्म-धर्म निर्धारित कर रखे हैं। नारी हो, कुछ तो शर्म करो! वही काम करो जो औरतों को शोभा देते हैं। जिन कार्यों को सदियों से पंडित-पुरोहित करते आये हैं उन्हें अपनाकर आखिर वह क्या साबित करना चाहती हो? नाम कमाने के पागलपन में अपने मूल संस्कारों को तिलांजलि देने पर तुली हो। इसका प्रतिफल कदापि अच्छा नहीं होगा, लेकिन अपनी मनपसंद नई राह पर कदम बढ़ा चुकी सरला ने किसी की परवाह नहीं की। अब तो वह जिस घर में जाती हैं, वहां की महिलाएं भी उनसे प्रेरित होकर उनके साथ खड़ी नजर आती हैं। ज्ञातव्य है कि भारत में मात्र तीन महिलाएं हैं जो अंतिम संस्कार करवाती हैं...।

Saturday, March 15, 2025

कौन किसके लायक?

चित्र 1 : पति, पत्नी के रिश्तों में तनाव, लड़ाई झगड़ा, मनमुटाव कोई नई बात नहीं। सदियों से ऐसा होता आया है, लेकिन पिछले आठ-दस वर्षों से अपने देश में इस पवित्र रिश्ते में जो विष घुलता चला जा रहा है, वह ज़हरीली खबर बन लगभग प्रतिदिन हमारे सामने आ रहा है। कोई भी ऐसा दिन नहीं बीतता जिस दिन पत्नी, प्रेमिका तथा पति की हत्या, आत्महत्या की खबर पढ़ने-सुनने में न आती हो। हर नगर, महानगर और अब तो ग्रामों में भी अपने पति से नाखुश, निराश नारियां खुदकुशी का दामन थामने लगी हैं। कभी-कभार जब किसी पुरुष के फांसी के फंदे पर झूल जाने का पता चलता है तो लोगों का बड़ी तेजी से माथा ठनक जाता है। यह कैसा बदलाव है? पुरुषों की तो ऐसी छवि नहीं थी! एक दूसरे की प्रताड़ना, यातना और जानी दुश्मनी से आहत होकर यदि इसी तरह से हत्याएं और आत्महत्याएं होती रहीं तो सोचिए पति, पत्नी के जन्म-जन्मांतर के रिश्ते का कोई अर्थ बचेगा?

आंधी-तूफान की रफ्तार से महानगर की शक्ल अख्तियार करते नागपुर में बीते हफ्ते अपनी शादी के मात्र 14 माह के बीतते-बीतते प्रियंका ने अपने पति की प्रताड़ना से तंग आकर फांसी लगा ली। भावुक और संवेदनशील प्रियंका ने अपने सुसाइड नोट में लिखा, ‘‘मैं तुम्हारे लायक नहीं। मैं तुम्हारी पसंद भी नहीं। मैं तुम्हारी और मम्मी (सास) की ख्वाहिश को पूरा करने में असमर्थ हूं। मेरे मरने के बाद तुम खुशी-खुशी दूसरी शादी करने में देरी न करना। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि तुम्हे ऐसी बीवी मिले जो तुम्हारी हर तमन्ना के तराजू पर खरी उतरे।’’ प्रियंका के पिता परलोक सिधार चुके हैं। उसकी मां मेहनत मजदूरी करती है। उसने बड़ी बेहतर उम्मीदों के साथ अपनी बेटी को पढ़ाया लिखाया। पॉलिटेक्निक में डिप्लोमा धारक प्रियंका की तीन बहनें और भी हैं। 3 जनवरी 2024 को प्रियंका ने शैलेष नामक युवक के साथ जब सात फेरे लिये थे तब उसके मन-मस्तिष्क में खुशियों का समंदर हिलोरें मार रहा था। अपने सुखद भावी जीवन को लेकर वह पूरी तरह से आश्वस्त थी। शादी के बंधन में बंधने से पहले परिजनों ने भी उसे बताया था कि शैलेष ठेकेदारी के काम से अच्छी-खासी कमायी कर लेता है। वह उसे हर तरह से प्रसन्न और संतुष्ट रखेगा, लेकिन शादी के चंद हफ्तों के बाद ही प्रियंका जान गई कि उसका पति तो कोई काम धंधा ही नहीं करता। बस निठल्ला घर में पड़ा रहता है। शराब पीने का भी उसे जबर्दस्त लत लगी हुई है। प्रियंका जब उससे कुछ काम-धाम करने को कहती तो वह उससे कहता कि वह एक बड़ी राष्ट्रीय पार्टी का कार्यकर्ता है। शीघ्र ही वो वक्त आयेगा जब वह करोड़पति बन उसकी झोली खुशियों से भर देगा। वैसे भी दूसरे किसी धंधे में नेतागिरी से बढ़कर मालामाल होने की गुंजाइश ही कहां बची है। उसने प्रियंका का मंगलसूत्र, सोने की चेन और अंगूठी को भी बेचकर शराब पर उड़ा दिया। वह बार-बार प्रियंका को अपनी मां से रुपए मांग कर लाने का दबाव बनाता, लेकिन जब प्रियंका ने थक-हार कर असहाय मां को तंग करने से मना कर दिया तो वह पूरी तरह शैतान बन गया। शादी की पहली सालगिरह पर प्रियंका को उसके चाचा ने दस हजार रुपये उपहार स्वरूप दिए तो उन्हें भी शैलेष ने जबरन छीन लिया और शराब गटक ली। प्रियंका को लाडली बहन योजना की जो राशि मिलती थी उसे भी वह अपने नशे-पानी में उड़ा देता था। इसी दौरान विरोध करने पर शैलेष ने उसे गला घोटकर मारने की भी कोशिश की। प्रियंका रोज-रोज की चिकचिक और प्रताड़ना से इस कदर तंग आ गई कि अंतत: वह खुदकुशी कर ऐसी खबर बनकर रह गई, जिसे पढ़कर-सुनकर लोग तुरंत भुला देते हैं...।

चित्र-2 : मानव शर्मा ने अपनी पत्नी के चरित्रहीन होने की वजह से फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। 23 फरवरी को मानव पत्नी के साथ मुंबई से आगरा आया था। यहीं पर उसकी पत्नी का मायका है। 24 फरवरी को वह फांसी के फंदे पर झूल गया। मौत को गले से लगाने से पहले उसने अपनी पत्नी निकेता को भी सूचित किया कि वह मरने जा रहा है। निकेता ने हमेशा की तरह इसे ज्यादा गंभीरता से नहीं लिया। लेकिन हां, उसने अपनी ननद यानी मानव की बहन को मोबाइल कर बता दिया कि उसका भाई फांसी पर झूलने जा रहा है। वह चाहे तो समय रहते उसे बचा ले, लेकिन ननद ने अपनी भाभी को दिलासा देते हुए कहा कि वह ज्यादा परेशान न हो। वह खुदकुशी नहीं कर सकता। ऐसी धमकी-चमकी तो वह कई बार पहले भी दे चुका है। तुम इत्मीनान से सो जाओ...। आईटी कंपनी टीसीएस में रिक्रूटमेंट मैनेजर मानव ने धमकी को साकार करते हुए अंतत: आत्महत्या कर ली। अपनी जान देने से पहले उसने पूरे होशोहवास के साथ लाइव वीडियो भी बनाया, जिसमें उसने पत्नी के द्वारा उसके ‘शारीरिक अंग’ की कमतरी को लेकर हमेशा की जाने वाली तानाकशी को पूरी तरह से जिम्मेदार ठहराते हुए कानून और देश के हुक्मरानों को चेतावनी के अंदाज में कहा, ‘‘द लॉ नीड्स टु प्रोटेक्ट मैन... अदरवाइज देयर विल बी ए टाइम, दैट देयर विल बी नो मेन। कोई आदमी बचेगा ही नहीं, जिसके ऊपर तुम इल्जाम लगा सको। मैं तो खैर जा रहा हूं, लेकिन मैं फिर भी कह रहा हूं कि मर्दों की भी फिक्र करो। प्लीज उनके बारे में सोचो। मैं यह कहते-कहते थक चुका हूं कि, अरे, मर्दों के बारे में कोई तो बात करे। बेचारे बहुत अकेले हैं। ...पापा सॉरी। मम्मी सॉरी। अक्कू सॉरी। बट गाइज, प्लीज अंडरस्टैंड। देखो, जैसे ही मैं चला जाऊंगा। सब कुछ ठीक हो जाएगा। मैंने पहले भी कई बार खुदकुशी की कोशिश की है। इसके गवाह हैं मेरे जिस्म पर लगे कट के निशान। मुझे पता चला कि मेरी वाइफ का बाहर चक्कर चल रहा है, लेकिन मैं उससे पूछताछ नहीं कर सकता। एकाध बार मैंने उसे समझाने की कोशिश की तो उसने बखेड़ा खड़ा कर दिया था। कानून भी औरतों के साथ खड़ा है। कैसा है तुम्हारा लॉ एंड ऑर्डर! ढंग से इंसाफ करो यार। हां एक बात और... मेरे चल देने के बाद मेरे मां-बाप को बिल्कुल टच मत करना...।

चित्र-3 : देश की एक राष्ट्रीय पार्टी की महिला शाखा की अध्यक्ष रोहिणी खडसे ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के अवसर पर भारत की राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मु को पत्र लिखकर मांग की है कि नारियों के खिलाफ हो रहे अत्याचारों, अपराधों और घरेलू हिंसा को देखते हुए महिलाओं को एक हत्या करने पर सजा में छूट दी जाए। देश की महिलाएं दमनकारी और दुष्कर्म वाली मानसिकता और निष्क्रिय कानून व्यवस्था की प्रवृत्ति का खात्मा करना चाहती हैं। रोहिणी ने हाल ही में मुंबई में एक बारह वर्षीय लड़की पर किये गए सामूहिक बलात्कार की घटना का हवाला देते हुए महिलाओं के खिलाफ निरंतर बढ़ते अपराधों पर रोष और चिन्ता व्यक्त की है। अपने निवेदन पत्र में उन्होंने एक सर्वेक्षण रिपोर्ट का भी हवाला दिया है, जिसमें बताया और चेताया गया है कि महिलाओं के लिए भारत सबसे असुरक्षित देश बन चुका है।

चित्र-4 : पुणे की रहने वाली एक महिला ने अपने पति की हिंसक प्रवृत्ति से त्रस्त होकर पुणे की जिला अदालत की शरण ली। वह रोज-रोज की गालीगलौज और दुर्व्यवहार से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति पाना चाहती थी। तलाक के इस मामले के मध्यस्थता केंद्र में पहुंचने पर जज साहब ने महिला पर तंज कसते हुए कहा कि, आप न तो बिंदी लगाती हैं, न ही मंगलसूत्र पहनती हैं और न ही पति को रिझाने के लिए बन ठन कर रहती हैं तो फिर ऐसे में आपके पति आप में चिलचस्पी क्यों दिखाएंगे? जज के इस नुकीले सवाल से वहां पर मौजूद लोग हतप्रभ रह गए। जज महोदय ने अपने महाज्ञान का पिटारा खोलते हुए यह भी कहा कि, जो महिलाएं अच्छी नौकरी पर हैं, मोटी तनख्वाह पाती हैं वे हमेशा ऐसा पति चाहती हैं जो उनसे ज्यादा कमाता हो, लेकिन दूसरी तरफ अच्छा कमाने वाला पुरुष पसंद आने पर अपने घर में बर्तन धोने वाली नौकरानी से भी शादी करने में संकोच नहीं करता। विद्वान जज साहब के प्रवचन से आहत महिला वहीं खड़ी-खड़ी रोने लगी...।

Thursday, March 6, 2025

हवस के शिकारी

चित्र-1 : महाराष्ट्र की उपराजधानी, संतरा नगरी के रंग बहुत तेजी से बदल रहे हैं। मायानगरी मुंबई की तर्ज पर यहां पर भी पब-लाउंज तथा विभिन्न होटलों, फार्म हाउस में रात को शुरू होने वाली भरपूर मस्ती की पार्टियां तड़के तक चलती रहती हैं। नशे के इन कुख्यात ठिकानों पर युवकों के साथ-साथ महिलाओं तथा युवतियों की बेखौफ भीड़ एक बारगी तो दंग ही कर देती है। नव धनाढ्य रईसों के बिगड़े लड़के-लड़कियों के इस मदमस्त जमावड़े को एमडी-गांजा तथा अन्य नशे के सामान मुहैया कराने के लिए ड्रग तस्कर वहीं के वहीं तंबू गाड़कर सेवा के लिए तत्पर रहते हैं। दो-तीन पब-लाउंज तो ऐसे हैं जिनके मालिक दमदार नेता हैं, या उनके बेटे-बेटी की भागीदारी है, जिन्हें आगे जाकर राजनीति करनी है और प्रदेश और देश की बागडोर संभाल कर अपने भ्रष्टाचारी बाप की तरह चांदी काटनी है। इन ऊंचे चेहरों के नशीले धंधों-फंदों पर पुलिस कार्रवाई करने से घबराती-कतराती है। दूसरे पब-लाउंज, फार्म हाऊस, हुक्का पालॅर शराबखाने आदि में खाकी वर्दी वाले कभी-कभी धड़धड़ाते हुए पहुंच कर कानूनी डंडा चलाने का दावा करते हैं, लेकिन नेताओं के अड्डों के दरवाजे के इर्द-गिर्द मंडरा कर लौट जाते हैं। महाराष्ट्र व विदर्भ के कई नेता एक साथ स्कूल, कॉलेज, अस्पताल, बीयर बार, शराब दुकानें तथा पब-लाउंज चलाने की महारत रखते हैं। धन के लिए लोगों को बीमार भी करते हैं और दवा-दारू का इंतजाम भी बड़ी शान के साथ करते हुए समाजसेवा का डंका पीटते नज़र आते हैं। देश को खोखला करने में अग्रणी ये समाजसेवक अपराधियों से भी करीबी रखने में सिद्धहस्त हैं। 

संतरों के शहर में पड़ोसी शहरों के लड़के-लड़कियां काफी बड़ी संख्या में पढ़ने तथा नौकरी के लिए आते हैं। स्थानीय के साथ-साथ उन बाहरी कॉलेज छात्र-छात्राओं पर ड्रग तस्करों की नजरें सतत टिकी रहती हैं जिन्हें उनकी कमजोरियों के कारण अपने चंगुल में फंसाने में उन्हें आसानी होती है। युवाओं तथा नाबालिगों (हां, यह सच है) को पक्का नशेड़ी बनाने के लिए शुरू-शुरू में तो मुफ्त में गांजा और चरस, एमडी जैसे नशे थमाये जाते है। कुछ दिनों, हफ्तों के बाद इनकी लत लगने पर कीमत वसूली जाती है। जो घर-परिवार से संपन्न है। वे तो नशों का भुगतान कर देते हैं, लेकिन जिनकी हैसियत नहीं, लेकिन नशे के बिना रह नहीं पाते उन्हें मौत के सामानों को बेचने के लिए नये-नये ग्राहक तलाशने के काम पर लगा दिया जाता है। 

शहर की कई युवतियां ड्रग्स की डिलीवरी के काम में लगी हुई हैं। धनाढ्य घरानों की महिलाएं और युवतियां इनकी नियमित ग्राहक हैं। शहर की पॉश पार्टियों में भी ड्रग्स की डिलीवरी करने वाली नशेडी लड़कियों का हश्र भी किसी से छिपा नहीं। नशे ने इन्हें देह के धंधे में धकेल दिया है। खुद के ऊपर कालगर्ल का ठपा लगवा कर यह अपने वर्तमान से तो खुश हैं, लेकिन इनके डरावने कल का ऊपर वाला ही मालिक है।

चित्र-2 : पुणे शहर को महाराष्ट्र का सांस्कृतिक शहर भी कहा जाता है। यहां पर देश के विभिन्न प्रदेशों से लड़के-लड़कियां विभिन्न डिग्रियां लेने के लिए आते हैं। पुणे, लाखों युवाओं को नौकरियां देने में भी भेदभाव नहीं करता। सभी को खुशी-खुशी अपने में समाहित कर प्रसन्न कर देता है। इसी सांस्कृतिक शहर के बसस्टैंड पर खड़ी एक बस में 20 वर्षीय युवती नशेड़ी युवक की हवस का शिकार होकर अखबारों तथा न्यूज चैनलों की गर्मागर्म खबर बन गई। वासना के दलदल में डूबे शैतान ने अपनी मीठी-मीठी बातों के जाल में फंसाकर आधे घंटे से ज्यादा समय तक युवती को अपने कब्जे में रखते हुए दो बार बलात्कार का शिकार बनाया। युवती चीखती-चिल्लाती रही, लेकिन उसकी फरियाद वहीं सिमट कर दम तोड़ती रही। बस स्टैंड के बाहर पुलिस की तैनाती थी, लेकिन अंदर सन्नाटा था। बलात्कारी को पकड़ने के लिए पुलिस को 72 घंटे तक मशक्कत करनी पड़ी। वह पुणे के निकट स्थित एक गांव में जाकर छिप गया था। वहां के गन्ने के खेतों में वह दो दिनों तक छिपा-दुबका रहा। जब भूख और प्यास ने उसे परेशान किया तो वह अंधेरी रात में लस्त-पस्त हालत में अपने रिश्तेदारों के यहां भोजन-पानी के लिए जा पहुंचा। उसने उन्हें अपने गुनाह के बारे में भी बताया और यह भी कहा कि वह पुलिस से बचने के लिए भागता फिर रहा है। अब वह आत्म समर्पण कर आराम करना चाहता है। पानी की बोतल लेकर वह वापस गन्ने के खेत में जाकर सो गया। ग्रामीणों की सतर्कता और मदद से अंतत: उसे दबोच लिया गया। 

चित्र-3 : एक बीस वर्षीय युवती जो कि कॉलेज की छात्रा है उसे उसी की सहेली के रिश्तेदार युवक ने ढाबे पर पार्टी में शामिल होने के लिए बड़ी आसानी से मना लिया। दोनों ने ढाबे पर शराब और बीयर गटकी। युवती ने पहली बार नशा किया था। युवक उसे दुपहिया वाहन पर बैठाकर करीब के एक होटल में ले गया। उसने पहले से ही कमरा बुक करवा रखा था। कमरे में दाखिल होते ही वह छात्रा को जिस्मानी संबंध बनाने के लिए उकसाने लगा। छात्रा का माथा ठनका। युवक की वासना का शिकार होने से बचने के लिए वह उसे थोड़ा सब्र करने का लालीपॉप देकर बॉथरूम में चली गई। वहां से उसने बड़े धैर्य के साथ अपने किसी रिश्तेदार को घटना की संपूर्ण जानकारी देते हुए लोकेशन भी भेज दिया। उसका सजग रिश्तेदार कुछ ही मिनटों में वहां पहुंच गया और अनहोनी टल गई। युवक को जेल की सलाखों के पीछे पहुंचा दिया गया है।

चित्र-4 : मंदिरों में लोग पूजा-पाठ के लिए जाते हैं। ईश्वर के प्रति अटूट आस्था उन्हें देवालयों में खींच कर ले जाती है। हर आस्थावान की यही सोच होती है कि जहां प्रभु बसते हैं, वहां उनकी सुरक्षा पर कभी कोई आंच नहीं आ सकती। उत्तरप्रदेश के शहर बदायूं में तीन बच्चों की मां रोजाना की तरह मंदिर में पूजा करने गई थी। उसे अकेले देख मंदिर के पुजारी की नीयत डोल गई। पुजारी के साथ-साथ उसके चेले और ड्राइवर ने पचास वर्षीय असहाय महिला की अस्मत लूटने के बाद उसके प्राइवेट पार्ट में रॉड डालकर तड़पा-तड़पा कर मार डाला। नृशंस बलात्कार और हत्या करने के पश्चात हवस के पुजारी ने अपने चेले और ड्राइवर की मदद से खून से लथपथ शव को जीप में डाला और उसके घर के बाहर फेंक कर फरार हो गया...।

Tuesday, March 4, 2025

अपमान की हथकड़ी

    वे गये थे खुशी-खुशी अपार धन कमाने। उनके मां-बाप को भी अत्यंत भरोसा था तभी तो उन्होंने अपनी जमीनें, घर, खेत और गहनेे बेचकर या गिरवी रख उन्हें अमेरिका जाने की इजाजत दी थी। लेकिन जब उनके बच्चे आतंकियों की तरह हथकड़ियों और बेड़ियों में जकड़कर वापस भारत की धरा पर लाये गए तो उनके होश फाख्ता हो गये। पैरों तले की जमीन ही जैसे गायब हो गई। उन्होंने घबराकर माथा ही पीट लिया। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प के दोबारा राष्ट्रपति पद की शपथ लेने के तुरंत बाद जब 104 अवैध अप्रवासियों को लेकर अमेरिकी सेना का विशेष विमान अमृतसर हवाई अड्डे पर उतरा तो पूरे देश में खलबली मच गई। भारतीयों को अमेरिका से ऐसे शर्मनाक बर्ताव की उम्मीद नहीं थी। यह तो शुरुआत थी। अमेरिका में अवैध तरीके से पहुंचे भारतीयों की जो तीसरी खेप अमृतसर पहुंची, उसमें 112 लोग शामिल थे। अवैध तरीके से अमेरिका गये भारतीयों का समर्थन यह कलम कतई नहीं करती, लेकिन हथकड़ियों, बेड़ियों में जकड़ने और सिखों की पगड़ी उतरवा कर उनका घोर अपमान करने के क्या मायने हैं? अमेरिका से भारत भेजे गए लोगों की दास्तानें जहां दिल को दहला कर रख देती हैं... वहीं, बार-बार चिंतन-मनन करने को उकसाती हैं कि अनेकों भारतीयों पर अवैध तरीके से विदेश जाने की यह कैसी सनक सवार है? 

    पंजाब के शहर लुधियाना में रहने वाले दलेर सिंह की किसी दिन इमिग्रेशन एजेंट सतनाम से मुलाकात हो गई। उसने दलेर को बताया कि अमेरिका में नोटों की बरसात हो रही है। उसे भी वह  अपनी जान-पहचान की ट्रांसपोर्ट कंपनी में काफी मोटी पगार वाली नौकरी दिलवा सकता है। सतनाम के फेंके जाल में फंसते ही दलेर सिंह ने अपना प्लॉट, घरवाली के जेवर और अन्य कीमती सामान 70 लाख रुपये में गिरवी रखे और उमंगों-तरंगों के साथ सारी रकम एजेंट को सौंप दी। 15 अगस्त, 2024 को अमेरिका जाने के लिए घर से निकले दलेर सिंह  को पहले दुबई और फिर ब्राजील में दो महीने तक यह भरोसा देकर रोके रखा गया कि, अमेरिका में अभी चुनावों का समय है। जिस वजह से वीजा रुका हुआ है। चुनाव निपटते ही उसका मनचाहा सपना पूरा होगा और वह मालामाल हो जाएगा। लेकिन जब दो महीने बीतने के बाद भी दलेर को गाड़ी आगे खिसकती नजर नहीं आयी तो उसने लगातार होती देरी को लेकर गुस्सा दिखाना प्रारंभ कर दिया तो एजेंट ने बड़ी मुश्किल से अमेरिका भेजने की तैयारी दिखाते हुए उसे एक गु्रप में शामिल कर दिया, जो पनामा के जंगलों के रास्ते से अमेरिका जा रहा था। पनामा के बीस किलोमीटर घने जंगल को चार दिनों तक पार करते-करते दलेर का दिल घबराने लगा और सिर चकराने लगा। रास्ते में जगह-जगह पर उन लोगों की लाशें और कंकाल बिखरे पड़े थे, जो अमेरिका जाने के लिए इन्हीं रास्तों से गुजरते-गुजरते जंगली जानवरों के शिकार हो गये थे या फिर बीमारी से थकहार कर मौत के मुंह में समा गए थे। किसी तरह से पनामा के जंगल पार करने के बाद वे सभी मैक्सिको पहुंचे और जब अमेरिका के तेजवाना बार्डर की ओर बढ़ ही रहे थे, तब सुबह-सुबह पेट्रोलिंग पुलिस के हत्थे चढ़ने पर ऐसी गिरफ्तारी हुई कि कई दिनों तक जेल की सलाखों के पीछे मर-मर कर दिन काटने पड़े।

    डंकी रूट यानी अवैध रास्ते से अमेरिका पहुंचे मनदीप की आपबीती भी दिल को दहलाकर रख देती है। हवाई जहाज से भारत लाते समय कई बार उनकी कनपटी पर बंदूक सटाकर गोली मारने की धमकी दी गई। मनदीप ने कई दिनों तक कमोड का पानी पीकर दिन गुजारे। उसके कपड़े, मोबाइल, कानों की बाली और सोने की चेन छीन ली गई। साठ लाख रुपये खर्च कर डंकी रूट के जरिये अमेरिका पहुंचे हरप्रीत को भी अमेरिका की पुलिस ने अपनी हिरासत में लेकर कू्ररतम यातनाएं देने में कोई कसर नहीं छोड़ी। जब अमेरिकी सैन्य कर्मियों ने जहाज पर चढ़ाया तो उसे पता नहीं था कि, उसे कहां ले जाया जा रहा है। उस जहाज पर 19 और लोग भी सवार थे, जिनमें महिलाएं समेत तीन बच्चे भी थे। पैरों में बेड़ियां व हाथों में हथकड़ियां और उस पर चालीस घंटे के बेहद थकाऊ सफर ने जिस नर्क से मिलवाया, उससे उसे अपनी गलती पर कहीं न कहीं बहुत गुस्सा भी आया और यह विचार भी जागा कि अच्छी-खासी खेतीबाड़ी और रोटी तो अपने देश में भी थी तो फिर ज्यादा धन कमाने के लालच में खुद को जानवरों की तरह क्यों भटकाया? अमेरिका से भारत लाये गये सिख युवाओं की विमान में चढ़ने से पहले पगड़ी उतरवाई गई। इससे भी सजग देशवासियों की भावनाएं अत्यंत आहत हुईं। अमेरिका जाने के चक्कर में अपना सबकुुछ लुटा चुके लोगों को अब अपना भविष्य अंधकारमय लग रहा है। अधिकांश ने अपनी जमीनें, जेवर आदि बेच डाले हैं या गिरवी रख दिए हैं। यानी अब वे खाली हाथ हैं। कोई भी कामधंधा करने के लिए पैसों की जरूरत होती है। अब यदि कुछ करेंगे नहीं तो लाखों रुपये का कर्जा कैसे चुकायेंगे? अपने बेहतर भविष्य के लिए यदि वे वैध तरीके से अमेरिका जाते तो उनकी ऐसी शर्मनाक दुर्गति नहीं होती। वैसे तो अपने देश के सभी प्रदेशों के लोगों पर विदेश में जाकर बसने और धन कमाने की धुन सवार है, लेकिन पंजाब के लोग इसमें सबसे आगे हैं। वहां तो अमेरिका, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और कनाडा जैसे देशों में जाने की लहर सी चल पड़ी है। डॉलर की चमक ने उनकी आंखों को चुंधिया दिया है। उन्हें रुपयों के नहीं डॉलर के सपने आते हैं, इसलिए यदि उन्हें वीजा नहीं मिलता तो डंकी रूट से विदेश में घुसने का अपराध करने से नहीं कतराते तथा अवैध तरीके से विदेश भेजने वाले एजेंटों की साजिश का शिकार होने का बार-बार जोखिम उठाकर अपनी तथा देश की बेकद्री करने से भी बाज नहीं आते...। शातिर एजेंटो को 25 लाख रुपये से लेकर एक-एक करोड़ देने वाले अक्ल के कई अंधे बड़ी आसानी से मिल जाते हैं। ठगी करना तो उनका जन्मजात पेशा है। उन्हें दोष देना व्यर्थ है। सोचना तो उन लोगों को चाहिए जो अपने देश में मेहनत करके धन कमाने की बजाय विदेशों में जाकर बेइज्जत होने को तत्पर रहते हैं। अधिक से अधिक धन बटोरने के लालच में अपनी संस्कृति और विरासत को भूल गये हैं। गलत काम के अच्छे परिणाम तो आने से रहे। जिन्दगी कोई जुआ तो नहीं कि कहीं भी दांव लगाया और खुद की तथा मां-बाप की जीवन भर की खून-पसीने की कमाई लुटा दी...और बाद में बुरी तरह से अपमानित हो माथा पकड़ कर बैठ गए...।

भ्रम और अंध विश्वास

    वर्तमान में जहां विज्ञान ने अंध विश्वास, अंधश्रद्धा के लिए कोई जगह नहीं छोड़ी। वहां भूत-प्रेत आत्मा, जादू-टोने और बेहूदा सपनों को गंभीरता से लेने वालों की जमात के बारे में क्या कहा जाए? समाज में व्याप्त अंधविश्वास को समाप्त करने की कोशिशों को पूरी तरह से कामयाबी क्यों नहीं मिल पा रही है? उत्तरप्रदेश के शहर जौनपुर में रहने वाला चिंताहरण नामक उम्रदराज शख्स बीते छत्तीस वर्षों से औरत बनकर रह रहा है। चिंताहरण प्रतिदिन दुल्हन की तरह श्रृंगार कर घर से निकलता है। पहले लोग उस पर हंसा करते थे, व्यंग्यबाण भी छोड़ा करते थे, लेकिन अब जौनपुर और आसपास के स्त्री, पुरुष, बच्चों और वृद्धों को उम्रदराज चिंताहरण को लाल साड़ी, बड़ी-सी नथ और झुमके पहने देख कतई भी अटपटा नहीं लगता। चिंताहरण मानता है कि यह अनोखा स्त्री-भेष उसका सुरक्षा कवच है, जिससे उसे तथा उसके परिवार को हिफाजत मिली हुई है। उसके किसी भी करीबी का बाल भी बांका नहीं हो सकता। उसका कहना है कि बीते छत्तीस सालों में मेरे परिवार के 14 सदस्य एक-एक कर इस दुनिया से विदा हो गये। ऐसे में मुझे बाकी बचे अपने बच्चों, अपने परिजनों और खुद के खत्म होने का भय सताने लगा था। मेरी रातों की नींद ही उड़ गई थी। कभी-कभार जब नाममात्र की नींद आती भी थी, तो सपने में दूसरी पत्नी रोती-बिलखती दिखायी देती, जिससे मैंने बेवफाई की थी। इस गम ने ही उसे आत्महत्या करने को विवश कर दिया था। एक दिन सपने में मैंने पत्नी से माफी मांगी और मेरे परिवार को बख्श देने का निवेदन किया। तब उसने मुझसे यह भेष धारण कर बाकी की जिन्दगी गुजारने को कहा तो मैंने प्रतिदिन दुल्हन की तरह सजना-संवरना प्रारंभ कर दिया। पहले लोग मुझ पर हंसा करते थे, लेकिन जब उन्हें मेरी विवशता का भान हुआ तो हमदर्दी जताने लगे। अब मेरी तथा बच्चों की जिन्दगी बड़े मजे से कट रही है। 

    सब्जी का कारोबार करने वाली दो सगी बहनें रांची के निकट स्थित एक गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार में सब्जी खरीदने के लिए गईं थीं। शाम को जब वे लौट रही थीं तो रास्ते में इनका ऑटो खराब हो गया। जहां ऑटो बिगड़ा था वहां से कुछ ही दूरी पर उनके परिचित रहते थे। रात दोनों वहीं रुक गईं। सुबह-सुबह हाथ में सब्जी के थैले पकड़े शहर की तरफ बढ़ रही थीं तभी किसी ने अफवाह उड़ायी कि जादू-टोना और बच्चे चोरी करने वाली दो अनजान महिलाएं गांव में घूम रही हैं। बस फिर क्या था। कुछ ही मिनटों में दर्जनों ग्रामीण उन्हें घेर कर अंधाधुंध मारने लगे। इतने में भी उनका मन नहीं भरा। दोनों को पेड़ से बांधकर तब तक पिटायी की गई जब तक वे अधमरी नहीं हो गईं। भीड़ में शामिल कुछ लोगों ने मौका पाते ही दोनों के बाल भी काट दिए। यह अच्छा हुआ कि सूचना पाते ही पुलिस मौके पर पहुंच गई। वर्ना भीड़ तो दोनों को खत्म कर देने पर उतारू थी। देश में जहां-तहां जनता का ये आतंकी चेहरा डराने लगा है। उन्मादी भीड़ किसी पर भी हमला कर देती है। पुलिस की भी नहीं सुनी जाती। उलटा उसे भी मारा पीटा जाता है। मुजफ्फरपुर के माड़ीपुर चित्रगुप्त नगर में बच्चा चोरी के शक में भीड़ ने दो महिलाओं को पकड़ा और जमकर पीटा। पुलिस के पहुंचने से पहले दोनों बुरी तरह से जख्मी हो चुकी थीं। सड़क भी खून से लाल हो गई थी। इस घटना से दो दिन पूर्व भी कुछ लोगों ने एक विक्षिप्त उम्रदराज महिला को बच्चा चोरी के आरोप में सड़क पर डंडों और लातों से पीटकर अपंग बना दिया। 

    ओडिशा में गंजाब के जिलाधिकारी विजय अमृत कुलंगे ने जादू-टोना और अंधविश्वास से जुड़ी प्रथाओं से उबारने और लोगों को जागरूक करने के लिए यह ऐलान करना पड़ा कि जो व्यक्ति जादू-टोना भूतों के अस्तित्व को साबित कर देगा उसे बड़े आदर-सम्मान के साथ 50 हजार रुपये का इनाम दिया जायेगा। जिलाधिकारी को गंजाब जिले में जादू-टोने के नाम पर हुई हिंसा के बाद यह कदम उठाया। कुछ सप्ताह पूर्व ग्रामीणों ने जादू-टोने के शक में छह लोगों के दांत तोड़ दिए थे। उन्हें जबरदस्ती अपशिष्ट पदार्थ खिलाया गया था। डंडे, लाठियों और हाकियों से तब तक पीटा गया था, जब तक वे बेहोश नहीं हो गये थे। पीटने वाले ग्रामीण बस एक ही रट लगाये थे कि उनके द्वारा किये जाने वाले जादू-टोना के कारण ही उनके रिश्तेदार बीमार होते रहते हैं। यह भी काबिलेगौर है कि यह पिटायीबाज जादू-टोने से बीमार होने वाले अपने प्रियजनों को इलाज के लिए तंत्र-मंत्र और झाड़फूंक करने वाले बाबाओं के पास ले जाते हैं। उन्हें डॉक्टरों पर भरोसा नहीं है। जिलाधिकारी कुलंगे को हर सप्ताह आयोजित होने वाली जनसुनवाई में अंधविश्वास के जाल में फंसे लोगों की दलीलें और जादू-टोना संबंधी शिकायतों ने स्तब्ध कर दिया था। उन्होंने अंधविश्वासियों को बार-बार समझाया कि यह उनका भ्रम है कि जादू-टोना करने से कोई बीमार होता है। दरअसल, जादू-टोना और भूतों का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। आज के वैज्ञानिक युग में इनकी कल्पना करना भी बेवकूफी है। लेकिन फिर भी जब अंधविश्वासी नहीं माने तो उन्होंने यह घोषणा कर दी, ‘‘भूत को ढूंढ़कर लाओ, 50 हजार इनाम पाओ।’’ अधिकारी इंतजार करते रह गए लेकिन कोई भी ऐसा इंसान सामने नहीं आया जो भूत को पकड़ कर लाता और इनाम पाता... फिर भी तंत्र-मंत्र और जादू-टोने को मानने वालों का कहीं कम, कहीं ज्यादा शर्मनाक अस्तित्व बरकरार तो है ही...!