जो हार नहीं मानते। हालातों से टकराते हैं। वही अंतत: मील का पत्थर बन राह दिखाते हैं। लोग उन्हीं के अटूट संघर्ष की मिसालें देकर हताश निराश और उदास लोगों का हौसला बढ़ाते हैं। किताबों के पन्नों में भी वही नज़र आते हैं। किताब को जब तक हाथ में लेकर खोला नहीं जाए तब तक उनमें समाहित ज्ञान से रूबरू नहीं हुआ जा सकता। किताबों ने न जाने कितने भटके लोगों को नई दिशा देते हुए मंजिल तक पहुंचाया है। असम के रहने वाले 33 वर्षीय डेका आर्थिक तंगी की वजह ज्यादा दिन तक स्कूल नहीं जा पाए। अनपढ़ होने के कारण ढंग की नौकरी नहीं मिली। जो नौकरी मिली उसमें कभी मन नहीं लगा। बेमन से नौकरी बजाते-बजाते डेका को पुस्तकें पढ़ने का ऐसा चस्का लगा कि वह उन्हीं में रम गया। तभी उसे अपनी भूल और कमी का भी पता चला। मन में यह विचार भी बार-बार आया कि यदि हिम्मत कर किसी तरह से पढ़-लिख जाता तो ऐसे मर-मर कर अभावों की आंधी में सूखे पत्तों की तरह इधर-उधर नहीं उड़ना-बिखरना पड़ता। विभिन्न विचारकों, विद्वानों के प्रेरक शब्दों ने उसकी नकारात्मक सोच को बहुत पीछे छोड़ दिया। उसने अपने भीतर दबे-छिपे ज्ञान और शक्ति से रूबरू होकर हमेशा-हमेशा के लिए किताबों से रिश्ता जोड़ने का निश्चय करते हुए अपनी बाइक को किताबों की दुकान बना दिया। बाइक पर किताबें लादकर वह आसपास तथा दूर-दराज के ग्रामों तक जाने लगा। उसे यह देखकर हैरानी हुई कि ग्रामवासी अपनी मनपसंद किताबों की मांग करने के साथ-साथ उसकी सुझायी किताबें खुशी-खुशी खरीदने लगे। शहरों में तो पाठकों को अपनी मनचाही पुस्तकें आसानी से मिल जाती हैं लेकिन ग्रामों में बड़ी मुश्किल होती है। डेका की मेहनत और कोशिश को रंग लाने में ज्यादा समय नहीं लगा। कुछ ही महीनों में पास और दूर के लगभग दस गांवों के लोग उसके नियमित ग्राहक बन गए। नयी-नयी किताबों के साथ-साथ उसे धीरे-धीरे विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं तथा स्टेशनरी के भी आर्डर मिलने लगे। अपनी बाइक पर ही बुक एवं स्टेशनरी की दुकान चला रहे डेका की अब हर माह बड़ी आसानी से पचास हजार रुपये की कमायी हो रही है। मात्र पांच-छह साल में किताबों की बदौलत लाखों में खेल रहे डेका का युवाओं से बस कहना है कि नौकरी के पीछे मत भागो। अपनी मेहनत से देर-सबेर जो सफलता मिलेगी उसकी खुशी से तुम झूम उठोगे। मन सदैव यह सोच-सोच कर गदगद रहेगा कि हमने जो भी पाया अपनी मेहनत और लगन से पाया।
असम-अरुणाचल की सीमा पर बसे भोगवारी गांव के बच्चे चाहकर भी स्कूल नहीं जा पाते थे। उनके घर का वातावरण अत्यंत निराशाजनक था। पुरुषों को पीने की लत ने लगभग नकारा बना दिया था। जो भी कमाते शराब पर उड़ा देते। घर में रोज-रोज होने वाले लड़ाई-झगड़े, गाली-गलौज ने बच्चों को भी हिंसक, आवारा और गालीबाज बना दिया था। पिता के हाथों जब-तब पिटना उनका नसीब बन कर रह गया था। इसी गांव में रहने वाली युवती अनिंदिता बच्चों की दुर्गति देख-देख कर हैरान-परेशान होती रहती थी, लेकिन इससे समस्या का हल नहीं होने वाला था। अनिंदिता ने बच्चों के भविष्य को संवारने के लिए खुद की जमापूंजी से लाइब्रेरी की शुरुआत की। इस लाइब्रेरी में उसने बच्चों की प्राथमिक शिक्षा के लिए आवश्यक कॉपी, किताबों के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाएं तथा पुस्तकें रखनी प्रारंभ कर दीं। उसने बच्चों के मां-बाप को भी रोड साइड लाइब्रेरी में आने का निवेदन किया। मूलभूत आवश्यकताओं से जूझते माता-पिता भी शिक्षा और अध्ययन के महत्व और जरूरत से अंजान नहीं थे। अनिंदिता को शुरू-शुरू में कई तरह की दिक्कतों का सामना करना प़ड़ा। खुद की पूंजी भी कुछ महीनों में खत्म हो गई। लेकिन उसने हिम्मत नहीं हारी। इलाके के धनवानों तथा समाजसेवी लोगों से उसका सेवाकार्य और संघर्ष छिपा नहीं था। अनिंदिता जब उसके पास सहयोग के लिए पहुंची तो उन्होंने उम्मीद से ज्यादा तन-मन-धन से उसका साथ देना प्रारंभ कर दिया। अब तो अनिंदिता के हौसले, संघर्ष की बदौलत भोगबारी गांव में बच्चों तथा बड़ों की जिन्दगी में बदलाव आ चुका है। नयी रोशनी ने सभी के चेहरे पर चमक ला दी है। रोड साइड लाइब्रेरी चौबीसों घण्टे खुली रहती है। गांव के 200 बच्चे नियमित पढ़ने आते हैं। जिन बच्चे-बच्चियों के घरों में रहने की सुविधा नहीं है वे यहीं खाते-पीते और सोते हैं। जरूरतमंदों की मदद के लिए अनिंदिता ने क्लॉथ हाउस भी शुरू किया है। यहां से सभी गांववासी अपनी आवश्यकता के अनुसार कपड़े ले सकते है। जिनकी हैसियत कीमत चुकाने की नहीं उन्हें बिलकुल नि:शुल्क वस्त्र प्रदान किये जाते हैं। अनिंदित की लाइब्रेरी से बच्चे ही नहीं वयस्क भी जुड़ते चले जा रहे हैं।
मोबाइल, इंटरनेट और सोशल मीडिया के इस दौर में पुस्तकों को पढ़ने वाले कम हो गये हैं। विभिन्न विधाओं की पुस्तकें तो धड़ाधड़ छप रही हैं, लेकिन पाठकों की संख्या बढ़ने का नाम नहीं ले रही है। हर साहित्यकार की यही शिकायत है कि अधिकांश युवा तो पुस्तकों के निकट ही नहीं जाते। उन्हें मोबाइल से ही फुर्सत नहीं है। शहरों व ग्रामों में पहले वाचनालयों का जो चलन था, उनमें भी बहुत कमी देखी जा रही हैं। अधिकांश वाचनालय पाठकों का इंतजार करते रहते है। यह भी सच है कि वहां पर सभी की पसंद की कृतियों का नितांत अभाव रहता है। देश के प्रदेश केरल को छोड़कर कोई भी ऐसा प्रदेश नहीं है जहां सार्वजनिक वाचनालयों की उल्लेखनीय उपस्थिति बनी हुई हो। लगभग 3.34 करोड़ की आबादी वाले केरल राज्य में किसी भी कस्बे या शहर में चले जाइए आपको सार्वजनिक पुस्तकालय अवश्य दिखाई देंगे। इन वाचनालयों में आपको हर उम्र के पाठक अपनी-अपनी पसंद की पुस्तकें तलाशते और पढ़ते नज़र आ जाएंगे। किताबों की भीनी-भीनी महक और शब्दों का जादू नये-नये पाठकों को वाचनालयों तक खींच लाता है। केरल में स्थित कन्नूर की आबादी लगभग तीस हजार है। यहां पर 34 वाचनालय हैं। यानी हर वर्ग किलोमीटर में लगभग एक वाचनालय! हर वाचनालय पढ़ने के शौकीनों से आबाद रहता है। अधिकांश में कम्प्यूटर व एकीकृत कैटलॉग की सुविधा के साथ-साथ प्रशिक्षित लाइब्रेरियन पदस्थ हैं, जो वहां आने वाले पाठकों का मार्गदर्शन करते हैं। कुछ युवक और युवतियां मूविंग लाइब्रेरी (चलती-फिरती) के जरिए सजग पाठकों के घरों तथा संस्थानों तक किताबें और पत्रिकाएं नियमित पहुंचाते हैं। सभी प्रदेशवासी वाचनालयों के प्रति आकर्षित हों इसके लिए सरकार तो नियमित फंड उपलब्ध कराती ही है। इसके साथ-साथ कुछ सार्वजनिक संस्थाए और सक्षम लोग भी इस जनहित कार्य में पीछे नहीं रहते। केरल में कुछ लाइब्रेरी ऐसी हैं जिन्हें आम लोगों ने आपस में राशि एकत्रित कर स्थापित किया है। लोगों का लाइब्रेरी से इस कदर लगाव है कि जब भी क्षेत्र में नया घर बनता है तो लाइब्रेरी के नाम से उसके पास कोई फलदार पेड़ लगाया जाता है। शिक्षा सामाजिक जुड़ाव और सुधार में भी ग्रंथालयों ने अहम भूमिका निभायी है। यहां पर पुस्तकालयों को पठन-पाठन एवं चिंतन-मनन की संस्कृति के विकास का बहुत बड़ा माध्यम माना जाता है। समय-समय पर हुए विभिन्न आंदोलनों को भी पुस्तकालयों से दिशा और ताकत मिलती रही है। साठ साल की हो चुकी फुर्तीली राधा लाइब्रेरी आंदोलन की एक जानी-पहचानी हस्ती हैं। राधा बीते कई वर्षों से राजनीति में भी सक्रिय हैं। इस उम्र में भी वे महिलाओं और बुजुर्गों को उनके घरों तक किताबें पहुंचाती हैं। वह कहती हैं जब मैं अपने हाथ में लाइब्रेरी का रजिस्टर और कंधों पर किताबों भरा बैग लेकर चलती हूं तो मेरा तन-मन खुशी से झूमने लगता है। यदि मेरा बचपन से साहित्य से लगाव नहीं होता तो मैं मनचाही सफलता से दूर रहती। मेरा तो यही मानना है कि किताबें हालातों को बदलने का हथियार हैं। जब किसी को भी किताब खरीदते देखती हूं तो मैं नतमस्तक हो जाती हूं। किसी वाचनालय में प्रवेश करने से पहले अपने जूते-चप्पल बाहर उतारना मैं कभी नहीं भूलती। पुस्तकालय मेरे लिए किसी देवालय से कम नहीं। यही किताबें ही हैं जो हमें हमारी अज्ञानता और हैसियत से रूबरू कराती हैं...।