Thursday, March 20, 2025

इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल...

चित्र-1 : बबीता। उम्र 50 वर्ष। दायां हाथ और पैर निष्क्रिय हैं। हिलाने-डुलाने में तकलीफ होती है। बचपन में ही पोलियोग्रस्त हो गईं थीं। ऐसे पीड़ादायी रोग और परेशानी में भी उनका मनोबल नहीं टूटा। अटूट हिम्मत और व्हीलचेयर ही उनका सहारा है। बी.कॉम करते-करते मन में शारीरिक रूप से कमजोर, असहाय लोगों की सहायता, सुरक्षा और देखभाल करने की ऐसी इच्छा बलवति हुई कि, जिसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। सच्ची और सार्थक चाह होने पर राह खुद-ब-खुद कदम चूमने लगती है। अपंग बबीता को जैसे ही ‘अपना घर’ नामक आश्रम में रिसेप्शनिस्ट की नौकरी मिली तो उन्हें लगा परम पिता परमेश्वर ने उनकी सुन ली है। मात्र एक साल बीतते-बीतते बबीता को 100 बीघा में फैले आश्रम की देखरेख के साथ-साथ मानसिक रूप से विक्षिप्त, शारीरिक तौर पर असक्षम लोगों की सेवा करने का दायित्व सौंप दिया गया। परोपकारी सोच में रची-बसी बबीता ने आश्रम की व्यवस्था ऐसी संभाली कि देखने वाले हैरान रह गए। बबीता बड़ी कुशलता के साथ असक्षम लोगों के रेस्क्यू, रजिस्ट्रेशन, आवास, भोजन, चिकित्सा, स्वच्छता, पुनर्वास, प्रशिक्षण, अध्यापन और अन्य व्यवस्थाएं ऐसी कर्मठता के साथ करती हैं, जैसे वह इसी के लिए बनी हों। उनका साथ देने के लिए 480 कर्मचारी चौबीस घंटे चाक चौबंद रहते हैं। वे सभी बबीता दीदी के तहेदिल से शुक्रगुजार हैं, जिन्होंने उनके मन-मस्तिष्क में विक्षिप्त और असहायों की सेवा करने के प्रेरणा दीप जलाए हैं। बच्चों और बड़ों की प्यारी बबीता दीदी सुबह 4 बजे तक उठ जाती हैं। उसके बाद ऑटोमेटिक व्हीलचेयर पर विशाल आश्रम के चप्पे-चप्पे में घूमते हुए सभी का हालचाल जानने, सहायता उपलब्ध करवाने में कब रात हो जाती है उन्हें पता ही नहीं चलता। उनके जागने का समय तो निर्धारित है, लेकिन सोने का कोई वक्त तय नहीं है। चौबीस घंटे जोश और उमंग के झूले में झूलती, जरूरतमंदों के फोन अटेंड करती बबीता दीदी के जीवन का बस यही मूलमंत्र है, भले ही आप शारीरिक तौर पर कमजोर और लस्त-पस्त हैं, लेकिन अपने दिमाग को कभी भी अपाहिज मत मानो। उसे हमेशा सक्रिय रखो। अच्छे विचारों से सदैव रिश्ता बनाये रखो। सकारात्मक सोच आपका उत्साह बढ़ायेगी। चुस्ती-फूर्ती भी बनी रहेगी। आश्रम में रहने वाले सभी लोग हमारे लिए प्रभु का रूप हैं। हमें उनकी सेवा करने का सौभाग्य मिला है। उनकी देखरेख करना हमारा एकमात्र कर्तव्य है। देश-विदेश में फैले 62 आश्रमों में रह रहे लगभग 15 हजार असहायों, विक्षिप्तों की देखरेख में लगी बबीता दीदी अक्सर एक प्रसिद्ध गीत की यह पंक्तियां गुनगुनाती देखी जाती हैं, ‘‘इक दिन बिक जाएगा माटी के मोल, जग में रह जाएंगे प्यारे तेरे बोल...।’’

चित्र-2 : हमारे देश में कई पुरातन रीति रिवाज ऐसे हैं, जो मानव के विकास में बाधक बने हुए हैं। बाल विवाह की परंपरा उन्हीं में से एक है। जिसके खिलाफ अभियान तो बहुत से चलाए गए, लेकिन पूरी तरह से उसका खात्मा नहीं हो पाया। देश के कुछ प्रदेशों में नाबालिग, मासूम, नासमझ बच्चियों की शादी करने का चलन कहीं चोरी-छिपे तो कहीं खुले आम आज भी देखा जा सकता है। जिन बेटियों का बाल विवाह होता है उनका भविष्य भी कहीं न कहीं अंधकारमय हो जाता है। यह अत्यंत सुखद और अच्छी बात है कि अब इस चिंताजनक परिपाटी के खिलाफ बेटियां खुद कमर कस रही हैं। इस प्रथा के खिलाफ उनके विरोध के स्वर गूंजने लगे हैं। वे वो मनचाहा कार्य करने लगी हैं, जिन्हें करने से उन्हें रोका जाता था और उनके सपनों की हत्या कर दी जाती थी। राजस्थान में स्थित अजमेर जिले के 13 ग्रामों में हर दूसरे घर की बेटी आज फुटबॉल खेलती है। यहां 550 लड़कियां फुटबॉलर हैं। इनमें से अधिकांश लड़कियां वो हैं जिनके मां-बाप बचपन में ही उनकी शादी करवाने पर तुले थे, लेकिन वे बाल विवाह के खिलाफ डटकर खड़ी हो गईं। अंतत: मां-बाप को भी झुकना पड़ा। कुछ लड़कियों की तो सगाई भी हो चुकी थी, लेकिन उन्होंने फुटबॉल खेलने की चाह में सगाई ही तोड़ दी। लड़कियों को फुटबॉल खेलने से रोकने के लिए गांव के कुछ बड़े-बुजुर्गों तथा खुद को कुछ ज्यादा ही समझदार मानने वाले शिक्षित लोगों ने अपने ज्ञान का पिटारा खोलते हुए कहा कि, फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों का इससे दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं। यहां तक कि सरकारी स्कूल में भी बच्चियों के फुटबॉल खेलने पर पाबंदी लगा दी गई। पुरुषों की मानसिकता बदलने के लिए लड़कियों ने दिन-रात मेहनत की और स्टेट और नेशनल खिलाड़ी बन उपदेशकों की बोलती बंद कर दी। फुटबॉल की जुनूनी बेटियों के जीवन में ऐसे भी क्षण आए जब उन्होंने बचपन की शादी के बंधन में मिले पति की बजाय फुटबॉल को चुना। अब तो इन गांवों की कुछ बेटियां डी-लाइसेंस हासिल कर सफल कोच बन गई हैं और कई लड़कियां नेशनल टूर्नामेंट में शामिल होकर इस संदेश की पताका लहारा चुकी है कि लड़कियों को कम मत समझो। उनका रास्ता मत रोको। वो जो भी चाहें, उन्हें खुलकर करने दो। लड़कियां कभी भी लड़कों से कमतर साबित नहीं होंगी। हर नई शुरुआत के पीछे कोई न कोई प्रेरणा स्त्रोत और कारण अवश्य होता है। अजमेर जिले के 13 ग्रामों में बदलाव लाने का श्रेय जाता है समाजसेविका इंदिरा पंचौली को। राजस्थान में कई इलाकों में अभी भी बीमारी की तरह जड़े जमाए बाल विवाह पर विराम लगाने के उद्देश्य से जब वे अध्ययन के लिए बंगाल गईं थी, तब उन्होंने देखा कि गांव की बच्चियां स्कूल से छूटने के बाद पुलिस थानों में स्थित मैदानों में फुटबॉल खेल रही हैं। पंचौली मैडम के मन में आया कि अपने जिले अजमेर में यदि बच्चियों में फुटबॉल खेलने की इच्छा जगायी जाए तो धीरे-धीरे बहुत बड़ा बदलाव आ सकता है। इसके लिए उन्होंने प्रारंभ में गांवों में खेल उत्सव का आयोजन किया। जिसमें जोर-शोर से ऐलान करवाया गया कि, जो बेटियां फुटबॉल खेलने की इच्छुक हैं वें तुरंत हमसे आकर मिलें। उम्मीद से ज्यादा लड़कियों के फुटबॉल खेलने की इच्छा प्रकट करने पर उनके मनोबल में और जान फूंक दी, लेकिन जब अभ्यास और प्रतियोगिता के लिए बाहर जाने की बात आई तो उनके घरवालों ने यह कहकर अड़ंगा डालना प्रारंभ कर दिया कि फुटबॉल तो लड़कों का खेल है। बेटियों के हाथ-पांव टूट गए तो वे अपंग हो जाएंगी और उनसे शादी कौन करेगा? लड़कियों के घर से बाहर जाने पर उनके बारे में लोग उलटी-सीधी बातें करेंगे। लेकिन लड़कियां फुटबॉल खेलने की जिद से टस से मस नहीं हुईं। बात पुलिस प्रशासन तक भी जा पहुंची। उन्होंने भी मां-बाप को समझाया। तब कहीं जाकर वे माने और बेटियां बेखौफ होकर फुटबॉल खेलते हुए एक से एक कीर्तिमान रचने लगीं। उनके नाम की पताका दूर-दूर तक फहराने लगी। जो मां-बाप बेटियों को घर में कैद रखने और बाल विवाह करने के प्रबल पक्षधर थे वे भी बाल विवाह को हमेशा-हमेशा के लिए भूलकर बेटियों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रोत्साहित करने लगे हैं।

चित्र-3 :  उदयपुर में रहती हैं, सरला गुप्ता। महिला हैं, लेकिन पुरुषों से कहीं भी कम नहीं। शादी-मुंडन से लेकर अंतिम संस्कार तक के दायित्व वर्षों से कुशलतापूर्वक निभाती चली आ रही हैं। यह महिला पंडित अभी तक 50 से अधिक शादी-ब्याह के साथ-साथ 70-75 दाह संस्कार संपन्न करवा चुकी हैं। उन्हें इन संस्कार कार्यों से जो धनराशि दक्षिणा के तौर पर मिलती है उसे जरूरतमंद लड़कियों की पढ़ाई के लिए सहर्ष दान कर देती है। पति के रिटायरमेंट के बाद सरला ने समाजसेवा के इस नये मार्ग को चुना। जब उन्होंने अपने जीवनसाथी को पुरोहिताई करने की इच्छा जताई तो उन्होंने अपनी धर्मपत्नी को हर तरह से प्रोत्साहित किया। शुरू-शुरू में उन्हीं के समाज के कुछ लोग पीठ पीछे उनकी खिल्ली उड़ाते हुए तरह-तरह की बाते करते थे। कुछ लोग तो उन्हें अपमानित करते हुए यह भी कह देते कि जबरन पंडितों के पेशे से जुड़कर उन्हीं के पेट पर लात मार रही हो। तुम्हें बहुत पाप लगेगा। ईश्वर भी माफ नहीं करेंगे, जिन्होंने सभी के कर्म-धर्म निर्धारित कर रखे हैं। नारी हो, कुछ तो शर्म करो! वही काम करो जो औरतों को शोभा देते हैं। जिन कार्यों को सदियों से पंडित-पुरोहित करते आये हैं उन्हें अपनाकर आखिर वह क्या साबित करना चाहती हो? नाम कमाने के पागलपन में अपने मूल संस्कारों को तिलांजलि देने पर तुली हो। इसका प्रतिफल कदापि अच्छा नहीं होगा, लेकिन अपनी मनपसंद नई राह पर कदम बढ़ा चुकी सरला ने किसी की परवाह नहीं की। अब तो वह जिस घर में जाती हैं, वहां की महिलाएं भी उनसे प्रेरित होकर उनके साथ खड़ी नजर आती हैं। ज्ञातव्य है कि भारत में मात्र तीन महिलाएं हैं जो अंतिम संस्कार करवाती हैं...।

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