Thursday, April 10, 2025

अपना-अपना सफरनामा

चित्र-1 : उसने एमए किया था। मां-बाप को यकीन था कि बेटा शीघ्र अच्छी नौकरी हासिल करेगा। सभी तकलीफें दूर हो जाएंगी। उनकी तपस्या रंग लाएगी। उसे शिक्षित करने के लिए उन्होंने साहूकार से अच्छा-खासा लोन लिया था। कर्जे की वसूली के लिए उसने बार-बार घर में दस्तक देनी शुरू कर दी थी। उन्होंने जवान बेटे की किसी अच्छी गुणवान लड़की से शीघ्र शादी करने की पुख्ता योजना भी बना ली थी, लेकिन काफी प्रयास के बाद भी बेटे को मनचाही नौकरी नहीं मिल पायी। उसके चचेरे भाई को बीए पास करने के बाद ज्यादा हाथ पैर नहीं मारने पड़े थे। उसे शहर की विख्यात रेडिमेड कपड़े की दुकान पर हाथों-हाथों सेल्समैन की नौकरी मिलने से उसके परिजन खुशी से फूले नहीं समा रहे थे। फर्स्ट डिविजन से एमए करने वाले युवक को लगातार मानसिक तनाव में रहना पड़ रहा था। वह ऐसी-वैसी जगह पर नौकरी नहीं करना चाहता था। उसकी तो बस सरकारी नौकरी कर मज़े से दिन काटने की चाह थी। एक दिन की सुबह जब वह काफी देर तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकला तो मां-बाप ने दरवाजा खटखटाया, काफी हो-हल्ला भी मचाया, लेकिन दरवाजा नहीं खुला। आखिरकार पड़ोसियों के सहयोग से दरवाजे को तोड़ा गया। अंदर युवक का शव फांसी पर लटका मिला। बिस्तर पर जो सुसाइड नोट मिला, उसमें लिखा था, कई महीनों तक चप्पलें घिसने के बाद भी सरकारी नौकरी नहीं मिली। उस पर परिजनों के असफल और नकारा होने के तानों ने मेरा जीना दूभर कर दिया है। इसलिए मैंने मर जाना ही उचित समझा। युवक ने खुदकुशी करने के दौरान अपने मोबाइल में तीन घंटे का वीडियो भी बनाया, जिसमें उसकी अपनी ही हत्या करने की हकीकत रिकार्ड हो गई। अच्छे खासे हट्टे-कट्टे युवक की खुदकुशी से घर में कोहराम मच गया। माता-पिता रो-रोकर कर बेहाल हैं।

चित्र-2 : प्रशांत हरिदास, राजधानी दिल्ली का निवासी है। सरकारी, अर्ध सरकारी और प्राइवेट कार्यालयों के चक्कर काटते-काटते थक गया, लेकिन नौकरी नदारद। निराशा और हताशा ने जब लस्त-पस्त कर दिया उसने खुद के लिए एक शोक संदेश पोस्ट कर दिया। इसमें उसने अपनी तस्वीर पर ‘रेस्ट इन पीस’ लिखते हुए नौकरी की तलाश में मिली हताशा और निराशा का खुलकर वर्णन करते हुए स्पष्ट किया कि, भले ही उसकी नौकरी पाने की कोशिशें रंग नहीं लाईं, लेकिन फिर भी उसने किसी भी तरह से खुद को चोट पहुंचाने की कभी नहीं सोची। मैं खुद को उन लोगों में शामिल कर भगौड़ा और कायर नहीं कहलाना चाहता, जो विपरीत परिस्थिति से घबराकर खुदकुशी कर लेते हैं। अभी मेरी उम्र ही क्या है। मुझे कई वर्षों तक जीते हुए तरह-तरह के खाने का स्वाद चखना है। देश और दुनिया में घूमने फिरने की कई जगहें हैं, जहां की मुझे यात्राएं करनी हैं। करीब तीन साल तक बेरोजगार और अलग-थलग रहने के बाद जो अनुभव मेरे हिस्से में आये हैं, वो भी मेरे लिए बहुत कीमती हैं। इन्होंने ही मुझे बिगड़ी चीज़ों को दुरुस्त करने, नौकरी पाने की और...और कोशिशें करने और जीवन से प्यार करने की प्रेरक ऊर्जा और शक्ति दी हैं।’

चित्र-3 : राजस्थान के बांसवाड़ा में जन्मे बालक कृष्णा के जन्म से ही हाथ- पांव नहीं हैं। दिव्यांगता के बावजूद जन्म से ही कृष्णा की मुस्कान इतनी मनमोहक थी, जिसकी वजह से माता-पिता ने सभी गमों को भुलाते हुए उसका नाम कृष्णा रख दिया। डॉक्टरों ने कृष्णा के बचने की बहुत कम संभावना बतायी थी, लेकिन कृष्णा ने उनके अनुमान पर पानी फेर दिया। कृष्णा जैसे-जैसे बढ़ा होता गया, अपनी अपंगता के अटल सच को समझते हुए हिम्मती और आत्मविश्वासी बनता चला गया। उसके मनोबल को दिव्यांगता कहीं भी शिथिल नहीं कर सकी। चार साल का होने पर वह खुद ही नहा-धोकर घुटनों से चलते हुए स्कूल जाने लगा। अभी वह पांच साल का ही था कि मां का देहांत हो गया। घुटनों में चप्पल और कोहनियों के सहारे लिखने वाले होनहार छात्र कृष्णा की बड़ा होकर एक अच्छा शिक्षक बनने की तमन्ना है। वह जब कोहनियों से क्रिकेट खेलता है तो लोग तालियां बजाते नहीं थकते। कृष्णा के पिता मजदूरी करते हैं। उसके दादा उसे घर से दो किमी दूर स्थित स्कूल छोड़ने जाते हैं। दादा कभी-कभार चलते-चलते थक जाते हैं, लेकिन कृष्णा बिलकुल नहीं थकता-रूकता। स्कूल की छुट्टी होने पर वह पैदल-पैदल अकेला ही घर पहुंच जाता है। जिन शिक्षकों को शुरू-शुरू में लगता था कि वह भविष्य में कुछ नहीं कर पायेगा, अब वही क्लास के सबसे होनहार छात्र के बारे में यह कहते हैं कि, परम पिता परमेश्वर ने इसे कोई नया इतिहास रचने के लिए भेजा है। वह बीमार होने पर भी कभी स्कूल मिस नहीं करता। कहता है, स्कूल तो मेरा मंदिर है...।

चित्र-4 : संघर्ष के बिना मनचाही सफलता नहीं मिलती। कुछ लोगों का संघर्ष हतप्रभ कर देता है। आंखें नम हो जाती हैं। उनके कभी हार नहीं मानने के जज्बे को बार-बार सलाम करने को जी चाहता है। ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जो तमाम सुख-सुविधाओं के होने के बावजूद नाकामयाब होने पर तरह-तरह की शिकायतों और बहानों की झड़ी लगा देते हैं। वहीं भुखमरी, गरीबी और लाचारी के शिकार कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो अपने लक्ष्य को पाने के लिए कोई शोर-शराबा नहीं करते। उन्हीं में शामिल हैं आईएएस बी अब्दुल नासर। कम उम्र में पिता की मौत हो जाने की वजह से बी अब्दुल नासर को अनाथालय में रहना पड़ा। स्कूल की फीस भरने के लिए घर-घर अखबार बांटे, ट्यूशन पढ़ाई, होटल में खाना परोसा, फोन आपरेटर की नौकरी की और अनेकों अवरोधों का डट कर सामना किया, लेकिन फिर भी अपनी पढ़ाई पर अपना सारा ध्यान केंद्रित रखा। पोस्ट ग्रेजुएशन के बाद भी अब्दुल नासर ने केरल स्वास्थ्य विभाग में सरकारी नौकरी की। उसके पश्चात केरल की राज्य सिविल सेवा परीक्षा पास करके डिप्टी कलेक्टर बने। उन्हें सर्वश्रेष्ठ डिप्टी कलेक्टर के रूप में सम्मानित भी किया गया। उनकी शानदार परफॉर्मेंस और प्रशासनिक कुशलता को देखते हुए कलांतर में केरल सरकार ने उन्हें आईएएस अधिकारी के तौर पर प्रमोट किया। इसके बाद वह कोल्लम के जिला कलेक्टर और केरल सरकार के हाउसिंग कमिश्नर जैसे उच्च पदों पर विराजमान रहे। अनाथालय से आईएएस अफसर बनने तक के उनके सफरनामे से हजारों युवक-युवतियों को प्रेरणा मिल रही है और वे भी उन्हीं की तरह शिखर पर पहुंचने के लिए सतत संघर्ष करने को तैयार हैं...।

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