चित्र - 1 : नेताजी दूसरी बार लोकसभा चुनाव में विजयी हुए। इस बार जीत का हार पहनने के लिए उन्हें ऐसे-ऐसे पापड़ बेलने पड़े, जिसकी उन्होंने कल्पना ही नहीं की थी। उन्हें धूल चटाने के लिए सभी विरोधी दल एकजुट हो गये थे। उनका एक ही मकसद था कि नेताजी किसी भी हालत में सांसद न बन पाएं, लेकिन पिछले चुनाव की तरह इस बार भी धनबल ने अंतत: अपना चमत्कार दिखा ही दिया। उनके हजारों कार्यकर्ताओं की भीड़ ने भी कम दम नहीं लगाया। नेताजी ने अपने सभी कार्यकर्ताओं को उनकी हैसियत के अनुसार थैलियां थमाने में भरपूर दरियादिली दिखायी। इन कार्यकर्ताओं में विधायक और पार्षद भी शामिल थे, जिन्हें आगामी महानगर पालिका और विधानसभा के चुनाव में टिकट देने का आश्वासन देकर अपने खूंटे से ऐसे बांधा गया था, जैसे बैल और बकरी के सामने चारा डालकर उन्हें इधर-उधर न ताकने के लिए मजबूर कर दिया जाता है। नेताजी की चुनावी जीत का जश्न चार दिन पहले मनाया जा चुका था। आज उनके केंद्रीय मंत्री बनने पर गुलदस्तों और मिठाई के डिब्बों के साथ कार्यकर्ताओं और तरह-तरह के लोगों का हुजूम कोठी को खचाखच कर चुका था। कुछ अतिउत्साही कार्यकर्ता कोठी की बाउंड्रीवॉल पर चढ़कर नेताजी के नाम का जयकारा लगा रहे थे। नेताजी के सुरक्षाकर्मी भीड़ को नियंत्रित और संयमित होने का अनुरोध कर रहे थे, लेकिन जीत का जोश उन्हें बेकाबू और बेचैन किये था। भीड़ को बार-बार यह भी बताया जा रहा था कि नेता जी आज सुबह ही मंत्री पद की शपथ लेकर दिल्ली से लौटे हैं। उन्हें तैयार होकर आने में कम अज़ कम दो घण्टे लग सकते हैं। जोश में मस्तायी भीड़ के लिए दो घण्टे दो मिनट समान थे। उसे इन्तजार करने और नारे लगाने की जन्मजात आदत थी। जैसे-जैसे समय बीत रहा था, भीड़ को संभालना मुश्किल होता चला जा रहा था। शहर के जाने-माने-उद्योगपति, व्यापारी, ठेकेदार और अखबारों और न्यूज चैनलों के वो संपादक और मालिक, जिन्होंने नेता जी के आरती गान की सभी सीमाओं को लांघ कर पत्रकारिता और चापलूसी के अंतर की निर्ममता से हत्या कर दी थी, गुलदस्तों और हारों के साथ पहुंच चुके थे। कुछ तो पांच सौ और दो हजार के नोटों के हार भी लाये थे। उन्हें नेताजी के निजी कमरे में शोभायमान कर दिया गया था। उनके लिए किशमिश, काजू-बादाम के साथ-साथ तरह-तरह के पेय पदार्थों की भी व्यवस्था थी।
नेताजी की एक झलक पाने को लालायित भीड़ का साम्राज्य कोठी के सामने की मुख्य सड़क पर भी अपना कब्जा जमाने लगा था। इस भीड़ में पसीने से तरबतर रघु भी खड़ा था। उसके हाथ में एक बड़ा गुलदस्ता था। चार दिन पहले नेताजी के जीतने की खुशी में मनाये गये जश्न की भीड़ में भी रघु शमिल हुआ था, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी उसका नेताजी के निकट जाना संभव नहीं हो पाया था। रिक्शा चालक रघु उस दिन तो खुशी से फूला नहीं समाया था, जब उसकी जर्जर झोपड़ी में नेताजी के चरण पड़े थे। उनके साथ क्षेत्र के पार्षद तथा कई और पार्टी कार्यकर्ता थे, जिन्हें रघु अच्छी तरह से पहचानता था। पार्षद ने रघु की तारीफ करते हुए नेताजी को बताया था कि यह बंदा बड़े काम का है। झोपड़पट्टी के सभी लोग इसी के इशारे पर चलते हैं। यह जिसे वोट देने को कहेगा उसी को उनके वोट मिलेंगे। नेताजी के चेहरे पर चमक आ गई थी। उन्होंने झट से रघु से हाथ मिलाया था। पीठ भी थपथपायी थी। उनके साथ आये एक कार्यकर्ता ने चुपके से पांच-पांच सौ के दस नोट उसकी तरफ बढ़ाये थे, जिन्हें रघु ने यह कहते हुए लेने से इन्कार कर दिया था कि मैंने कभी भी अपना वोट नहीं बेचा। वोट बेचने वालों से मैं नफरत करता हूं। नेताजी उसका चेहरा देखते रह गये थे। उन्होंने जाते-जाते कहा था कि तुम्हारे जैसे ईमानदार वोटरों की बदौलत ही मैंने पिछला चुनाव जीता था। इस बार भी कोई माई का लाल मुझे हरा नहीं सकता। पिछली बार की तरह इस बार भी मेरा मंत्री बनना तय है। चुनाव का परिणाम आने के पश्चात तुम मुझसे जरूर मिलना। तुम सभी झोपड़पट्टी के निवासियों के लिए शीघ्र ही पक्के घरों की व्यवस्था करवा दूंगा।
गर्मी की तपन बढ़ती जा रही थी। रघु का दम घुटने लगा था। उसके कपड़े पसीने से गीले होकर उसके बदन से चिपक गये थे। एकाएक रघु पर उसी की झोपड़पट्टी में रहने वाले विद्रोही नामक पत्रकार की नजर पड़ी तो उसने रघु पर सवाल दागा कि क्या तुम भी नेताजी को उनका वादा याद दिलाने आये हो? रघु हैरान होकर पत्रकार को देखता रह गया। फिर पत्रकार ने बताया कि वोट हथियाने के लिए मतदाताओं से तरह-तरह के वादे करना और मनमोहक प्रलोभनों के जाल फेंकना तो नेताजी का पुराना पेशा है। वोटरों को बेवकूफ बनाने की इसी कला की बदौलत ही तो आज वे सत्ता की बुलंदियों पर हैं। इस भीड़ में तुम जैसे हजारों लोग शामिल हैं, जो नेताजी से मिलने की आस में पहुंचे हैं। चुनाव जीतने के बाद नेताजी को अपने खास लोगों के काम करवाने और उन्हें मालामाल करने से कभी फुर्सत नहीं मिलती। ऐसे में वे तुम जैसे आम लोगों से क्या खाक मिलेंगे! रघु पत्रकार का चेहरा देख रहा था और पत्रकार खिलखिला रहा था। उनकी बातचीत चल ही रही थी कि वहां पर पुलिस वाले भीड़ को खदेड़ने लगे। नेताजी अपने खास लोगों से मेल-मुलाकात करने के बाद सुरक्षाकर्मियों के घेरे में कोठी से निकले और अपनी चमचमाती कार में बैठकर फुर्र हो गये। रघु को बड़ा गुस्सा आया। उसने गुलदस्ते को तोड़ा-मरोड़ा और वहीं सड़क पर फेंक दिया। यह देश के नब्बे प्रतिशत से अधिक नगरों, महानगरों और वहां के जनप्रतिनिधियों की कड़वी हकीकत है इसलिए किसी एक शहर और नेता का नाम लिखना बेमानी है।
चित्र - 2 : अपने देश में विधायक और सांसद का चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रुपए खर्च करने पड़ते हैं। अथाह धन लुटाने के बाद भी जीत हासिल हो, ऐसा कोई दावा नहीं किया जा सकता। रघु ने कई जमीनी नेताओं को विधायक और सांसद बनते देखा है। चुनाव जीतने के पश्चात जमीन की बजाय आकाश में उड़ने वाले अधिकांश नेताओं की असली फितरत से रघु खूब वाकिफ है। उसने कई नेताओं को अपने रिक्शे पर बैठाकर यहां-वहां घुमाया है। उसने फटेहाल नेताओं को विधायक, सांसद बनने के बाद करोड़ों में खेलते देखा है। उसे यह जानकर हैरानी होती है कि प्रदेश के कुछ नेता हजारों करोड़ की संपत्ति के मालिक हैं। यह सारी धन-दौलत उन्होंने विधायक, सांसद और मंत्री बनने के बाद जुटायी है। शहर के कुछ नेता भी उनका अच्छी तरह से अनुसरण कर रहे हैं। किसी अनपढ़ विधायक को मेडिकल और इंजीनियरिंग कॉलेज चलाते देख अब उसे कोई हैरानी नहीं होती। हां, पहले जरूर होती थी। शहर में कुछ नेता ऐसे भी हैं, जिन्होंने चुनाव जीतने के बाद धड़ाधड़ सरकारी जमीनें अपने नाम करायीं और स्कूल, कॉलेज और शराब के कारखाने तान दिए। करोड़ों की जमीने कौड़ी के मोल हथियाने वाले नेताओं में कुछ तो ऐसे हैं, जिनके विभिन्न शहरों में पचासों स्कूल कॉलेज हैं। इन कॉलेजों में गरीब आदमी के बच्चों को प्रवेश ही नहीं मिलता। खुद रघु इसका भुग्तभोगी है। उसके बेटे को योग्य होने के बावजूद मंत्री जी के मेडिकल कॉलेज में दाखिला इसलिए नहीं मिला था, क्योंकि उसकी पचास लाख रुपए डोनेशन देने की औकात नहीं थी। रघु ने मंत्री महोदय की उन दिनों की याद भी दिलायी थी जब वे फटेहाल उसके रिक्शे की सवारी किया करते थे! आज कई कारों और कोठियों के मालिक बन चुके नेताजी बस मुस्कराते रह गए थे। अपने इकलौते बेटे को डॉक्टर बनाने का रघु का सपना धरा का धरा रह गया। कुछ महीने पहले ओडिशा के बालासोर लोकसभा क्षेत्र से सांसद बने प्रताप चंद्र सारंगी शहर में आये हुए थे। रघु ने ही उन्हें शहर घुमाया था। उनका लिबास और व्यवहार देखने के बाद रघु सोचता रह गया था कि कोई सांसद इतना सहज और सरल भी हो सकता है। उसे यह जानकर हैरत हुई थी कि सारंगी ने चुनाव में एक पैसा भी खर्च नहीं किया और करोड़पति को मात दे दी। सारंगी दो बार विधायक भी रह चुके हैं। अपना एक साप्ताहिक अखबार निकालते है, जिसमें आम आदमी की समस्याओं को निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ उठाया जाता है। गांव और शहर की गलियों में पैदल घूमते हैं। चुनाव लड़ने से पहले जिस मिट्टी और बांस के कच्चे घर में रहते थे। वह आज भी जस का तस है। उनके घर के दरवाजे चौबीसों घण्टे सभी के लिए खुले रहते है। उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों में कई स्कूल और अस्पताल बनवाये हैं, जहां मुफ्त शिक्षा और इलाज की सुविधा उपलब्ध है। लोकसभा चुनाव जीतकर जब सारंगी संसद भवन पहुंचे थे तब हर कोई इन्हे देखने और मिलने को आतुर था। उनकी ईमानदारी और सादगी को देखते हुए पहली बार सांसद बनने पर भी उन्हें मंत्रिमंडल में जगह दी गई। जब उन्होंने मंत्रीपद की शपथ ली तब तालियां थमने का नाम नहीं ले रही थीं। रघु कहता है कि शहर के अधिकांश नेताओं ने भले ही कितनी-कितनी काली माया बटोर ली हो, लेकिन सारंगी जैसा मान-सम्मान उनके नसीब में नहीं। बेइमानों का लोग भले ही ऊपर-ऊपर से सजदा करते हैं, लेकिन पीठ पीछे भद्दी-भद्दी गालियों से नवाजते हैं। रघु वर्षों से सपना देखता आ रहा है कि, उसके शहर में भी सारंगी जैसा कोई शख्स विधायक और सांसद बने जो हर आम आदमी के सुख-दु:ख का सच्चा साथी हो...।
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