11 जुलाई 2006 को मुंबई में हुए सिलसिलेवार ट्रेन विस्फोटों में मुंबई के सावंत परिवार ने अपने 24 वर्ष के जवान बेटे को खो दिया। उनका महत्वकांक्षी पुत्र अमरेश सावंत एक कंपनी में नौकरी करता था। अमरेश हर रोज लोअर परेल से आकर शाम पांच बजकर पचपन मिनट की लोकल ट्रेन पकड़कर अंधेरी आता था। 11 जुलाई 2006 की शाम को अमरेश ने पांच मिनट पहले की लोकल ट्रेन पकड़ी थी। यह सफर उसकी जिन्दगी का आखिरी सफर बनकर रह गया। ट्रेन में वह जिस फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट में बड़े इत्मीनान से बैठा था, उसी में आतंकियों ने बम रखा था, ये बम दादर से दस मिनट की दूरी पर खार रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूर पटरी पर जब ट्रेन चल रही थी, तब ब्लास्ट हुआ था। इस जोरदार धमाके से एक पल में कई जिंदगियां मौत का निवाला बन अपने घर-परिवार से सदा-सदा के लिए दूर बहुत दूर चली गईं थी। इस कातिल हादसे ने अमरेश के परिवार को जो जख्म दिए वो अभी तक भर ही नहीं पाये। 44 वर्षीय हरीश पवार को वो खून ही खून से सना दिन जब भी याद आता है तो कंपकपी छूटने लगती है। 11 जुलाई 2006 के उस दिन हरीश जब विरार जाने के लिए लोकल ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सवार थे तभी धमाका हुआ और खून से लथपथ होकर वहीं गिर पड़े थे। लेकिन उनका मस्तिष्क तेजी से दौड़ रहा था। डरी-डरी हतप्रभ आंखें भी खुली थीं। डिब्बे के अंदर शव पड़े थे। फर्श और दीवारों पर खून छिटका था। दर्द से तड़पते लोगों की चीखें सीना चीर रही थीं। भयंकर बारूदी विस्फोट से किसी के शरीर से अलग होकर डिब्बे में उड़कर आया सिर उनकी धड़कनों को बेकाबू किए जा रहा था। उन धमाकों में चिराग चौहान मरते-मरते बच तो गए लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए अपनी टांगों से चलने में लाचार हो गये और उन्हें व्हीलचेयर को अपना उम्र भर का साथी बनाना पड़ा। चिराग चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं। इस बम कांड ने उनके कई सपनों की हत्या कर अरमानों को रौंद कर रख दिया। महेंद्र पिताले को ब्लास्ट में अपना एक हाथ गंवाना पड़ा। दहिसर निवासी एक शख्स जो अब 74 वर्ष के हो चुके हैं, ब्लास्ट के धमाके ने उनके कान के पर्दे पूरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिए। अब भी वे सुनने से लाचार हैं।
पराग सावंत उस दिन बहुत खुश था। प्रमोशन की खुशी में मन ही मन दोस्तों के साथ जश्न मनाने की सोच रहा था। ट्रेन की खिड़कियों से आते हवा के मस्त-मस्त झोंके उसके सपनों में नये-नये रंग भर रहे थे। उसने मां और पत्नी को कहीं बाहर चलने के लिए तैयार रहने को कह दिया था। आज बहुत दिन बाद परिवार के साथ किसी अच्छे होटल में एक साथ बैठकर मनपसंद खाना खाने के आनंद की कल्पना में डूबा पराग सोच रहा था कि उसे तो घर जाने की जल्दी है लेकिन यह ट्रेन बहुत धीमी क्यों चल रही है? दरअसल, ट्रेन तो हमेशा की तरह अपनी निर्धारित गति से चल रही थी लेकिन पराग पर उमंगों-तरंगों से भरी शीघ्रता सवार थी। लेकिन तभी ट्रेन में जोरदार धमाका हुआ। खून से लथपथ मृतकों और घायलों के बीच दर्द से कराहते पराग की सांसों की डोर अभी टूटी नहीं थी। मां, पत्नी राह देखती रहीं लेकिन पराग घर नहीं पहुंचा। उसे पता ही नहीं चला कि कब उसे हिंदूजा अस्पताल पहुंचा दिया गया। कोमा की गिरफ्त में जा चुका 35 वर्ष का युवा पराग अब जिन्दा होकर भी जिन्दा नहीं था। उसकी मां, पत्नी और मासूम बिटिया उसके होश में आने के इंतजार में दिन-रात उसके बिस्तर के इर्द-गिर्द बैठे रहते। उसने दो साल बाद हल्की सी आंख खोली और मां को पुकारते हुए बड़े धीमे से मुस्कुराया। मां को लगा बेटा होश में आ गया है। गमगीन पत्नी के चेहरे पर भी रौनक आयी। लेकिन उसके बाद पराग ने एक शब्द भी नहीं कहा। हर बार की तरह मां ने बहू को दिलासा दिया कि चिंता मत करो। मेरे ईश्वर मेरे दुलारे को शीघ्र ठीक कर देंगे। उन्होंने मुझसे वादा किया है कि तुम्हारा बेटा फिर से हंसने-खेलने और चलने-फिरने लगेगा। पराग का मस्तिष्क अनेकों चोटों का शिकार हुआ था। डॉक्टर सर्जरी पर सर्जरी करते रहे। पूरे नौ साल तक पराग बिस्तर पर पड़ा-पड़ा सांस लेता रहा। मां हर सुबह बेटे से मिलने आती रहीं। पत्नी भी एक दिन नहीं चूकी। नन्हीं बिटिया पापा की गोद में जाने के लिए तरसती रही। जब भी उसकी मम्मी अस्पताल जाने लगती तो पापा की जान से प्यारी बिटिया साथ चलने की जिद पकड़ लेती। पराग ने कभी-कभार बीच-बीच में पानी, हां, नहीं जैसे शब्द बोलकर आस बंधाये रखी। लेकिन मौत अब और मोहलत देने को तैयार नहीं थी। उसने भी तो पूरे नौ साल तक इंतजार कर उसके भले-चंगे होने की राह देखी थी।
मुंबई के उपनगर वसई में रहने वाले यशवंत भालेराव ने इस विस्फोट में अपने 23 वर्षीय बेटे को खो दिया। मुंबई के ही रमेश विट्ठल की 27 साल की बेटी ब्लास्ट में मारी गई। मात्र 11 मिनट में मुंबई की लोकल ट्रेनों में सात ब्लास्ट कर 189 बेकसूरों की जान लेने और आठ सौ से ज्यादा लोगों को घायल करने वाले इन बम धमाकों में प्रेशर कूकर का इस्तेमाल किया गया था। जिन-जिन कोच में ब्लास्ट हुआ, उनके परखच्चे उड़ गये थे, तो ऐसे में जिन्दा इंसानों के जिस्म के क्या हाल हुए होंगे इसकी कल्पना कर आज भी दिल घबराने लगता है। मायानगरी मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेनों में 11 जुलाई 2006 के दिन भी हमेशा की तरह काफी भीड़भाड़ थी। इनमें ज्यादातर ऑफिस से घर जाने वाले यात्री थे जिनका कोई न कोई अपना बेसब्री से इंतजार कर रहा था। यात्रियों के चेहरों पर भी दिन भर की थकावट के बावजूद घर लौटने की सुकून भरी चाह थी। लेकिन बम धमाकों ने क्या से क्या कर दिया। सभी को वर्षों से इंसाफ का इंतजार था। परंतु 19 साल बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने सीरियल बम धमाकों के सभी आरोपियों की सजा यह कहते हुए रद्द कर दी कि अभियोजन पक्ष उन सबके अपराध को उचित संदेह से परे साबित करने में बुरी तरह से नाकाम रहा है। गौरतलब है कि पहले भी कई ऐसे आतंकी मामलों में इसी तरह से आरोपियों को बरी कर पीड़ितों को अथाह ठेस पहुंचायी जाती रही है। 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हमले के मामले में, जिसमें 33 लोग मारे गये थे। छह लोगों को सज़ा सुनाई गई थी। उनमें से तीन को सजाए-मौत सुनाई गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में इन सबको इस आधार पर बरी कर दिया था कि अभियोजन पक्ष ने कमजोर और बनावटी सबूतों का सहारा लिया था। 2005 में दिवाली से पहले दिल्ली में सीरियल बम धमाकों में 67 लोग मारे गए थे। इस मामले में तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था और उन पर एक दशक से ज्यादा समय तक मुकदमा चला। लेकिन आखिरकार उनमें से दो को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और तीसरे को दिल्ली की एक अदालत ने 2017 में सजा सुनाई थी, परंतु पुलिस जांच में कई गंभीर खामियां बताई थी। महाराष्ट्र के संवेदनशील शहर मालेगांव में 2006 में हुए विस्फोट मामले में भी पुख्ता सबूत नहीं मिलने से साध्वी प्रज्ञासिंह सहित सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया है। 17 साल बाद आये इस फैसले से भी कहीं खुशी तो कहीं गम है। सवाल अभी जिन्दा है कि, मृतकों का हत्यारा कौन? इस सवाल का जवाब शायद ही मिले। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुंबई बम धमाकों के फैसले से कई प्रश्न अनुत्तरित हैं। ये फैसले हमारी दंड विधान व्यवस्था की खामियों को कहीं न कहीं उजागर करते हैं। मुंबई धमाकों के फैसले को सुनते ही सभी पीड़ितों के मुंह से यही शब्द निकले, यह फैसला तो घावों पर नमक छिड़कने वाला है। हजारों परिवारों को हुई अपूरणीय क्षति और जिन्दगी भर के लिए मिले जानलेवा जख्मों के लिए किसी को सज़ा न मिलना न्याय के ही कत्ल होने जाने जैसा है...।