Thursday, July 31, 2025

असमंजस में इंसाफ

 11 जुलाई 2006 को मुंबई में हुए सिलसिलेवार ट्रेन विस्फोटों में मुंबई के सावंत परिवार ने अपने 24 वर्ष के जवान बेटे को खो दिया। उनका महत्वकांक्षी पुत्र अमरेश सावंत एक कंपनी में नौकरी करता था। अमरेश हर रोज लोअर परेल से आकर शाम पांच बजकर पचपन मिनट की लोकल ट्रेन पकड़कर अंधेरी आता था। 11 जुलाई 2006 की शाम को अमरेश ने पांच मिनट पहले की लोकल ट्रेन पकड़ी थी। यह सफर उसकी जिन्दगी का आखिरी सफर बनकर रह गया। ट्रेन में वह जिस फर्स्ट क्लास कंपार्टमेंट में बड़े इत्मीनान से बैठा था, उसी में आतंकियों ने बम रखा था, ये बम दादर से दस मिनट की दूरी पर खार रेलवे स्टेशन से थोड़ी दूर पटरी पर जब ट्रेन चल रही थी, तब ब्लास्ट हुआ था। इस जोरदार धमाके से एक पल में कई जिंदगियां मौत का निवाला बन अपने घर-परिवार से सदा-सदा के लिए दूर बहुत दूर चली गईं थी। इस कातिल हादसे ने अमरेश के परिवार को जो जख्म दिए वो अभी तक भर ही नहीं पाये। 44 वर्षीय हरीश पवार को वो खून ही खून से सना दिन जब भी याद आता है तो कंपकपी छूटने लगती है। 11 जुलाई 2006 के उस दिन हरीश जब विरार जाने के लिए लोकल ट्रेन के प्रथम श्रेणी के डिब्बे में सवार थे तभी धमाका हुआ और खून से लथपथ होकर वहीं गिर पड़े थे। लेकिन उनका मस्तिष्क तेजी से दौड़ रहा था। डरी-डरी हतप्रभ आंखें भी खुली थीं। डिब्बे के अंदर शव पड़े थे। फर्श और दीवारों पर खून छिटका था। दर्द से तड़पते लोगों की चीखें सीना चीर रही थीं। भयंकर बारूदी विस्फोट से किसी के शरीर से अलग होकर डिब्बे में उड़कर आया सिर उनकी धड़कनों को बेकाबू किए जा रहा था। उन धमाकों में चिराग चौहान मरते-मरते बच तो गए लेकिन हमेशा-हमेशा के लिए अपनी टांगों से चलने में लाचार हो गये और उन्हें व्हीलचेयर को अपना उम्र भर का साथी बनाना पड़ा। चिराग चार्टर्ड अकाउंटेंट हैं। इस बम कांड ने उनके कई सपनों की हत्या कर अरमानों को रौंद कर रख दिया। महेंद्र पिताले को ब्लास्ट में अपना एक हाथ गंवाना पड़ा। दहिसर निवासी एक शख्स जो अब 74 वर्ष के हो चुके हैं, ब्लास्ट के धमाके ने उनके कान के पर्दे पूरी तरह से क्षतिग्रस्त कर दिए। अब भी वे सुनने से लाचार हैं। 

पराग सावंत उस दिन बहुत खुश था। प्रमोशन की खुशी में मन ही मन दोस्तों के साथ जश्न मनाने की सोच रहा था। ट्रेन की खिड़कियों से आते हवा के मस्त-मस्त झोंके उसके सपनों में नये-नये रंग भर रहे थे। उसने मां और पत्नी को कहीं बाहर चलने के लिए तैयार रहने को कह दिया था। आज बहुत दिन बाद परिवार के साथ किसी अच्छे होटल में एक साथ बैठकर मनपसंद खाना खाने के आनंद की कल्पना में डूबा पराग सोच रहा था कि उसे तो घर जाने की जल्दी है लेकिन यह ट्रेन बहुत धीमी क्यों चल रही है? दरअसल, ट्रेन तो हमेशा की तरह अपनी निर्धारित गति से चल रही थी लेकिन पराग पर उमंगों-तरंगों से भरी शीघ्रता सवार थी। लेकिन तभी ट्रेन में जोरदार धमाका हुआ। खून से लथपथ मृतकों और घायलों के बीच दर्द से कराहते पराग की सांसों की डोर अभी टूटी नहीं थी। मां, पत्नी राह देखती रहीं लेकिन पराग घर नहीं पहुंचा। उसे पता ही नहीं चला कि कब उसे हिंदूजा अस्पताल पहुंचा दिया गया। कोमा की गिरफ्त में जा चुका 35 वर्ष का युवा पराग अब जिन्दा होकर भी जिन्दा नहीं था। उसकी मां, पत्नी और मासूम बिटिया उसके होश में आने के इंतजार में दिन-रात उसके बिस्तर के इर्द-गिर्द बैठे रहते। उसने दो साल बाद हल्की सी आंख खोली और मां को पुकारते हुए बड़े धीमे से मुस्कुराया। मां को लगा बेटा होश में आ गया है। गमगीन पत्नी के चेहरे पर भी रौनक आयी। लेकिन उसके बाद पराग ने एक शब्द भी नहीं कहा। हर बार की तरह मां ने बहू को दिलासा दिया कि चिंता मत करो। मेरे ईश्वर मेरे दुलारे को शीघ्र ठीक कर देंगे। उन्होंने मुझसे वादा किया है कि तुम्हारा बेटा फिर से हंसने-खेलने और चलने-फिरने लगेगा। पराग का मस्तिष्क अनेकों चोटों का शिकार हुआ था। डॉक्टर सर्जरी पर सर्जरी करते रहे। पूरे नौ साल तक पराग बिस्तर पर पड़ा-पड़ा सांस लेता रहा। मां हर सुबह बेटे से मिलने आती रहीं। पत्नी भी एक दिन नहीं चूकी। नन्हीं बिटिया पापा की गोद में जाने के लिए तरसती रही। जब भी उसकी मम्मी अस्पताल जाने लगती तो पापा की जान से प्यारी बिटिया साथ चलने की जिद पकड़ लेती। पराग ने कभी-कभार बीच-बीच में पानी, हां, नहीं जैसे शब्द बोलकर आस बंधाये रखी। लेकिन मौत अब और मोहलत देने को तैयार नहीं थी। उसने भी तो पूरे नौ साल तक इंतजार कर उसके भले-चंगे होने की राह देखी थी। 

मुंबई के उपनगर वसई में रहने वाले यशवंत भालेराव ने इस विस्फोट में अपने 23 वर्षीय बेटे को खो दिया। मुंबई के ही रमेश विट्ठल की 27 साल की बेटी ब्लास्ट में मारी गई। मात्र 11 मिनट में मुंबई की लोकल ट्रेनों में सात ब्लास्ट कर 189 बेकसूरों की जान लेने और आठ सौ से ज्यादा लोगों को घायल करने वाले इन बम धमाकों में प्रेशर कूकर का इस्तेमाल किया गया था। जिन-जिन कोच में ब्लास्ट हुआ, उनके परखच्चे उड़ गये थे, तो ऐसे में जिन्दा इंसानों के जिस्म के क्या हाल हुए होंगे इसकी कल्पना कर आज भी दिल घबराने लगता है। मायानगरी मुंबई की लाइफलाइन कही जाने वाली लोकल ट्रेनों में 11 जुलाई 2006 के दिन भी हमेशा की तरह काफी भीड़भाड़ थी। इनमें ज्यादातर ऑफिस से घर जाने वाले यात्री थे जिनका कोई न कोई अपना बेसब्री से इंतजार कर रहा था। यात्रियों के चेहरों पर भी दिन भर की थकावट के बावजूद घर लौटने की सुकून भरी चाह थी। लेकिन बम धमाकों ने क्या से क्या कर दिया। सभी को वर्षों से इंसाफ का इंतजार था। परंतु 19 साल बाद बॉम्बे हाईकोर्ट ने सीरियल बम धमाकों के सभी आरोपियों की सजा यह कहते हुए रद्द कर दी कि अभियोजन पक्ष उन सबके अपराध को उचित संदेह से परे साबित करने में बुरी तरह से नाकाम रहा है। गौरतलब है कि पहले भी कई ऐसे आतंकी मामलों में इसी तरह से आरोपियों को बरी कर पीड़ितों को अथाह ठेस पहुंचायी जाती रही है। 2002 में अक्षरधाम मंदिर पर हमले के मामले में, जिसमें 33 लोग मारे गये थे। छह लोगों को सज़ा सुनाई गई थी। उनमें से तीन को सजाए-मौत सुनाई गई थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने 2014 में इन सबको इस आधार पर बरी कर दिया था कि अभियोजन पक्ष ने कमजोर और बनावटी सबूतों का सहारा लिया था। 2005 में दिवाली से पहले दिल्ली में सीरियल बम धमाकों में 67 लोग मारे गए थे। इस मामले में तीन लोगों को गिरफ्तार किया गया था और उन पर एक दशक से ज्यादा समय तक मुकदमा चला। लेकिन आखिरकार उनमें से दो को सभी आरोपों से बरी कर दिया गया और तीसरे को दिल्ली की एक अदालत ने 2017 में सजा सुनाई थी, परंतु पुलिस जांच में कई गंभीर खामियां बताई थी। महाराष्ट्र के संवेदनशील शहर मालेगांव में 2006 में हुए विस्फोट मामले में भी पुख्ता सबूत नहीं मिलने से साध्वी प्रज्ञासिंह सहित सभी आरोपियों को बरी कर दिया गया है। 17 साल बाद आये इस फैसले से भी कहीं खुशी तो कहीं गम है। सवाल अभी जिन्दा है कि, मृतकों का हत्यारा कौन? इस सवाल का जवाब शायद ही मिले। बिल्कुल वैसे ही जैसे मुंबई बम धमाकों के फैसले से कई प्रश्न अनुत्तरित हैं। ये फैसले हमारी दंड विधान व्यवस्था की खामियों को कहीं न कहीं उजागर करते हैं। मुंबई धमाकों के फैसले को सुनते ही सभी पीड़ितों के मुंह से यही शब्द निकले, यह फैसला तो घावों पर नमक छिड़कने वाला है। हजारों परिवारों को हुई अपूरणीय क्षति और जिन्दगी भर के लिए मिले जानलेवा जख्मों के लिए किसी को सज़ा न मिलना न्याय के ही कत्ल होने जाने जैसा है...।

Thursday, July 24, 2025

परवरिश

चित्र : 1 इंसान तो इंसान है। देशी हो या विदेशी। उसे जहां प्यार मिलता है वहीं का हो जाता है। जैसी परवरिश मिलती है उसी में ढल जाता है। बच्चों पर यह हकीकत काफी ज्यादा लागू होती है जैसा देखते हैं वैसा ही करते हैं। जिस तरह से मां-बाप अपने बच्चों के लिए सब कुछ न्योछावर करने को तत्पर रहते हैं। वैसे ही संस्कारित, संवेदनशील संतानें भी अपने जन्मदाताओं के प्रति समर्पित होने में आगा-पीछा नहीं देखतीं। लापरवाह माता-पिता का अंधापन कभी-कभी उनके बच्चों के वर्तमान और भविष्य का किस तरह से सत्यानाश कर देता है उसका सटीक प्रमाण है ये खबर : शराब पीकर नशे में टुन्न रहने वाली उस औरत ने बेटे को जन्म तो दिया, लेकिन उसकी परवरिश से कन्नी काट ली। उस लापरवाह मां ने मेहनत-मजदूरी से धन कमाकर बच्चे की देखरेख करने की बजाय उसे लावारिस हालत में उसी गंदी बदबूदार झोपड़पट्टी में छोड़ दिया, जहां पर कीचड़ में मुंह मारते सुअरों और कुत्तों का जमावड़ा लगा रहता था। शहर के गली कूचों में दिन-भर भटक-भटक कर वह निर्दयी, स्वार्थी मां भीख मांगती और अंधेरा घिरते ही शराब गटककर बेसुध हो फुटपाथ पर ही सो जाती। मां की देखरेख और ममता से वंचित मासूम बच्चे ने कुत्तों के बीच रहते-रहते जानवरों को ही अपना सबकुछ मान लिया। कुत्ते जो खाते, वही वह खाता और रात को उन्हीं के साथ सो जाता। संगत का असर पड़ना ही था। वह भी कुत्तों की तरह लड़ने-झगड़ने और भौंकने लगा। आसपास के मोहल्लों में रहने वाले लोगों ने अपने बच्चों को उसके निकट जाने पर यह सोचकर पाबंदी लगा दी कि वे भी कहीं भौंकने न लगें और पागल कुत्तों की तरह काटने पर उतारू न हो जाएं। बच्चे के कुत्ते की तरह व्यवहार करने की खबर जब प्रशासन तक पहुंची तो पुलिस और अधिकारियों का दल नशेड़ी महिला की झोपड़ी में पहुंचा। झोपड़ी में बच्चा कुत्तों के झुंड के साथ खेल रहा था। वह उन्हें देखकर जोर-जोर से भौंकने लगा। अधिकारी असली कुत्तों के भौंकने और बच्चे के भौंकने में फर्क तलाशते रहे, लेकिन काफी माथापच्ची के बाद भी तय नहीं कर पाये कि दोनों में क्या फर्क है। बच्चों की सुरक्षा से जुड़ी एक महिला कार्यकर्ता को देखकर जब बच्चा भौंकते हुए उसे काटने को दौड़ा तो उसका शरीर कांपने लगा। वह वहां से ऐसे भागी जैसे बच्चा उसकी जान ही ले लेगा। कुछ दूर जाने के पश्चात उसने खुद को भयमुक्त कर पानी पिया और यह निर्णय भी लिया कि वह इस बच्चे को नई जिन्दगी देगी। मां के साथ-साथ समाज ने इसके साथ जो अन्याय किया है उसका दंड वह किसी और को नहीं खुद को ही देगी।

चित्र 2 : दो हजार पच्चीस की 9 जुलाई की दोपहर कर्नाटक के दक्षिणी तट पर स्थित रामतीर्थ पहाड़ियों में पुलिस जब नियमित गश्त पर निकली थी तब उसने जंगल की एक गुफा में हलचल और इंसानी आवाज़े सुनीं। गुफा के बाहर कपड़े भी लटके नज़र आए। सतर्क पुलिस वालों का माथा ठनका तो उन्होंने गुफा के भीतर झांका। वहां का नजारा देखकर तो वे स्तब्ध के स्तब्ध रह गये। पैरों तले की जमीन गायब होती सी लगी। गुफा के भीतर एक विदेशी महिला अपने दो मासूम बच्चों के साथ बड़े आराम से हंसती-खेलती बैठी थी। महिला को तुरंत बाहर आने को कहा गया। महिला बिना किसी ना नुकुर के झुकते-झुकते-झुकाते बड़ी सावधानी से बच्चों के साथ गुफा से बाहर निकल आई। पुलिस को पता चला कि नीना कुटिना नाम की यह चालीस वर्षीय रूसी महिला बिना पासपोर्ट और विजा के पिछले आठ वर्षों से भारत में अवैध रूप में बड़ी बेफिक्री के साथ रह रही थी। नीना और उसकी बेटियों को बेंगलुरु में आश्रयगृह में लाया गया तो वह खुद को बहुत असहज महसूस करने लगी। जंगल से निकलने के बाद उसने तुरंत अपना फोन रिचार्ज कर सबसे पहले अपने करीबी रिश्तेदार को रशियन भाषा में एक मेल किया। उसमें उसने लिखा कि हमारी गुफा वाली शांतिपूर्ण जिन्दगी खत्म हो गई है। हमारा गुफा वाला आनंददायक ठिकाना उजड़ गया है। सालों से खुले आसमान के नीचे हम प्रकृति के साथ जीते आ रहे थे, लेकिन अब पता नहीं क्या होगा? जंगल से बाहर निकलने के लिए भी नीना बहुत मुश्किल से मानी। पुलिस ने उसे जंगल के खूखांर जानवरों, जीव, जंतुओं और ज़हरीले सांपों का भय भी दिखाया। नीना ने बड़ी बेबाकी से यह कहकर उनका मुंह बंद कर दिया, उसे कभी भी जंगल के जानवरों से डर नहीं लगा। उसे न कभी सांप ने काटा और न ही किसी जानवर ने उस पर या बच्चों पर हमला किया। उसे तो बस इंसानों से डर लगता है। इसलिए वह शहर छोड़ जंगल में रहने चली आई। जितने भी दिन यहां कटे, बहुत मज़े से कटे। जब मन करता सोती और जागती। झरने के नीचे नहाने का आनंद लेती। यहीं की लकड़ियों से खाना बनाती। बच्चों को खिलाती और खुद भी मज़े से खाती थी। 

उसका जंगल में मंगल चल ही रहा था कि पुलिस की उस पर नज़र पड़ गई। वर्ना कौन जाने कब तक वह गुफावासी बनी रहती। शहर के भीड़-भाड़ वाले वातावरण में स्थित आश्रयस्थल तो उसे जेल से भी बदतर लग रहा था। यहां से उसे न जंगल जैसा खुला-खुला आसमान दिख रहा था और न ही दूर-दूर तक मन को लुभाती हरियाली और ताजी-ताजी हवा के सुकून का अता-पता था। उसे गुफा की उबड़-खाबड़ जमीन पर जो नींद आती थी वो भी यहां नदारद थी। पुलिस जब उसे और उसकी छह और चार साल की बेटियों को चेकअप के लिए हॉस्पिटल लेकर गई तो तीनों को पूरी तरह से ठीक-ठाक पाया गया। नीना ने यह भी बताया कि उन्हें जंगल में कभी भी बीमारी ने नहीं घेरा। यहां तक कि उन्हें कभी सर्दी और जुकाम भी नहीं हुआ। जहांं वह रह रही थीं वहां से गांव ज्यादा दूर नहीं था। गुफा की खिड़की से समुद्र का नजारा भी साफ-साफ दिखता था। लोग भी वहां से यदाकदा गुजरते दिखायी देते थे। 

गुफा में ही बगैर किसी डॉक्टर या नर्स की मदद से एक बेटी को जन्म देने वाली नीना का पति इजरायली कारोबारी है। कई देशों का भ्रमण कर चुकी यह रूसी महिला 2017 में पर्यटक वीजा पर भारत में आने के बाद सबसे पहले गोवा में रही। उसने यह खुलासा कर भी पुलिस को चौंका दिया कि मैं रूस से 15 साल से बाहर हूं। मैंने अपना ज्यादातर समय कोस्टा रिका, मलेशिया,  बाली नेपाल और यूक्रेन में गुजारा है। मेरी बड़ी बेटी का जन्म भी यूक्रेन में हुआ। गोवा में रूसी भाषा की ट्यूटर के तौर पर काम कर चुकी नीना कभी भी स्थायी रूप से गोकर्ण की गुफा में नहीं रही। उसका जब-जब मन करता वह यहां रहने चली आती। भारत में इतने ज्यादा समय तक रहने की उसने वजह बतायी कि यहां की प्रकृति अत्यंत सुहावनी है। तन और मन सेहतमंद और शांत रहता है। लोग भी अपने काम से काम रखते हैं। अब तो वह और उसके बच्चे यहां रहने के अभ्यस्त हो गये हैं। कहीं दूसरी जगह हमारा मन भी नहीं लगेगा। जंगल में रहने के दौरान वॉटरफॉल में नहाने, मिट्टी के बर्तन बनाने और पेंटिंग करने तथा मिट्टी के चूल्हे पर रोटियां बनाने का मनचाहा सुख और कहीं मिल भी नहीं सकता। नीना जिस गुफा में रहती मिली उसके अंदर खाने-पीने का अच्छा-खासा सामान मिला। उसने यह भी बताया कि वह आर्ट और म्यूजिक वीडियो बनाकर पैसा कमाती थी। उसके पिता और भाई भी पर्याप्त पैसे भेज देते थे। पति भी जब मिलने के लिए आते थे तो थोड़ी बहुत सहायता कर देते थे। हालांकि उनसे ज्यादा नहीं बनती है।

चित्र 3 : बाप और बेटे का रिश्ता भी बड़ा खट्टा-मीठा होता है। बेटे पिता को भले ही देरी से समझें, उससे दूरियां बनाये रखें लेकिन पिता की उन्हीं में जान अटकी रहती है। उनके अच्छे भविष्य के लिए अपनी जीवनभर की कमायी को दांव पर लगाने से नहीं हिचकते। कुछ पिता तो अपनी औलाद के भले के लिए अपराध करने से भी नहीं चूकते। राजस्थान में बीते दिनों एक ट्रेनी थानेदार और उसके पिता को गिरफ्तार किया गया। आदित्य को सब इंस्पेक्टर बनने का मौका उसकी मेहनत और काबिलियत से नहीं, पेपर माफिया की बदौलत मिला था। इसमें उसके पिता बुद्धि सागर की प्रमुख भूमिका सामने आयी। किसी भी हालत में अपने बेटे को खाकी वर्दी में देखने का सपना संजोये बुद्धि सागर ने जब देखा कि बेटा अपनी योग्यता के दम पर झंडा नहीं गाड़ सकता तो उसने नकल माफिया से संपर्क पर 10 लाख रुपये में परीक्षा का पेपर खरीदा। आदित्य ने नकल के दम पर एसआई परीक्षा में न केवल सफलता हासिल की बल्कि प्रदेश भर में 19वीं रेंक हासिल कर सभी को चौंका दिया। लेकिन गलत राह अपनाने की जानबूझकर की गई गलती ने बाप-बेटे दोनों को जेल भी पहुंचा दिया।

Thursday, July 17, 2025

शिकारी

 यह षडयंत्र, घटनाएं, वारदातें और दुर्घटनाएं इंसानी बेवकूफी और फितरत का परिणाम नहीं तो क्या हैं?...

अनुराधा की 2014 में शादी हुई थी। वैवाहिक जीवन के दस साल बीतने के बाद भी मां नहीं बन पाई थी। इस दौरान सास-ससुर और देवरानी की तानेबाजी शिखर पर पहुंच गयी। मां बनना उसके बस में तो नहीं था। सभी के ताने-उलाहने सुनने के सिवा उसके पास और कोई चारा भी नहीं था। उसके साथ-साथ पति की भी डॉक्टरी जांच करवाने पर दोनों शारीरिक तौर पर दुरुस्त पाये गए। अनुराधा की सास को किसी ने ओझा के पास ले जाने का पुरजोर सुझाव दिया तो वह बिना देरी किये तांत्रिक के यहां जा पहुंची। तांत्रिक ने एक लाख रुपये में अनुराधा को मां बनाने का ठेका लेने के पश्चात झाड़-फूंक प्रारंभ कर दी।

झाड़-फूंक के दौरान धन के लालची तांत्रिक ने अनुराधा को बार-बार बाल पकड़ कर घसीटा और टॉयलट का पानी भी जबरदस्ती पिलाया। अनुराधा ने जब टॉयलेट का पानी पीने में असमर्थता जतायी तो ओझा और सास ने उसे खूब फटकारा। न चाहते हुए बच्चे की चाह में अनुराधा ने बदबूदार पानी किसी तरह से घूंट-घूंट कर पिया। तांत्रिक ने अनुराधा और उसकी सास को तीन-चार दिन बाद फिर से बाकी के पैसों के साथ आने का निर्देश दिया। दरअसल उसे एडवांस में मात्र बीस हजार रुपए ही दिए गए थे। चार दिन के पश्चात बाकी के पूरे पैसों के साथ सास-बहू ने बच्चा होने के यकीन के साथ तांत्रिक के यहां दस्तक दी। पूरे रुपये हाथ में लेते ही वह गद्गद् हो गया। इस बार वह पहले से ज्यादा जोश में था। उसने अपनी पत्नी शबनम और दो सहयोगियों के साथ मिलकर अनुराधा को बाल पकड़कर जोर से घसीटते हुए गले और मुंह को दबाने में पूरी ताकत लगा दी तथा चीच-चीखकर कहना शुरू कर दिया कि इसके ऊपर जबर्दस्त भूत-प्रेत की छाया है। इसका यही एकमात्र उपाय है। भूत-प्रेत के भागने के बाद इसे मां बनने से कोई नहीं रोक सकता। तांत्रिक भूत को भगाने के लिए और...और आक्रामक होता चला गया। असहनीय पीड़ा से उपजी अनुराधा की चीत्कार बेअसर रही। वह कब बेहोश हुई किसी ने ध्यान ही नहीं दिया। अस्पताल ले जाने पर डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। 

बिहार के पूर्णिया के रानीगंज पंचायत टोले में डायन होने के शक में एक ही परिवार की तीन महिलाओं और दो पुरुषों को पेट्रोल छिड़ककर जिन्दा जला दिया गया। इसके पश्चात सभी शवों को गांव वालों सहयोग से घर से दो किमी दूर तालाब में फेंक दिया गया। कुछ दिन पूर्व टीले के ही रहने वाले एक शख्स के बच्चे की मौत हो गई थी। बच्चे की मौत के बाद उस शख्स के भांजे की भी तबीयत बिगड़ गई। वहीं वर्षों से रह रहे बाबूलाल उरांव के परिवार पर दबाव बनाया गया कि किसी भी हालत में उनके भांजे को ठीक करो। उस शख्स तथा टोले के अन्य लोगों को शक था कि बाबूलाल उरांव के परिवार ने खासतौर पर उनकी पत्नी सीता देवी ने जादू-टोना कर उसके बच्चे की जान ली है तथा भांजे की तबीयत भी बिगाड़ दी है। बच्चे की मौत के बाद गांव में पंचायत बैठी। इसमें लगभग तीन सौ लोग शामिल हुए। पंचायत ने जो तालिबानी फैसला सुनाया उसी का यह असर हुआ कि देखते ही देखते सैकड़ों की संख्या में आदमी-औरत और बच्चों ने धारदार हथियार और लाठी-डंडों के साथ बाबूलाल उरांव के घर पर हमला कर दिया। इस हिंसक घटना के एकमात्र चश्मदीद बाबूलाल के बेटे ने किसी तरह से वहां से भाग कर अपनी जान बचाई। उसने बताया कि रात करीब 10 बजे गांव के कई लोग हथियारों के साथ घर पर आए। उन्होंने सबसे पहले मेरे पिता को पकड़कर बुरी तरह से पीटा। फिर मेरी भाभी, भाई, मां और दादी के साथ जानवरों की तरह मारपीट की। रात करीब 1 बजे मेरे पिता, मां, भाई, भाभी और दादी को बांधकर पेट्रोल छिड़का और आग लगा दी। मैंने अपनी आंखों के सामने सभी को जिन्दा जलते देखा। वहां पर मौजूद एक महिला ने मुझसे कहा कि, तुम यहां से तुरंत भागो, नहीं तो तुम्हें भी जिंदा जला देंगे। इसके बाद मैं वहां से भाग गया। पूर्णिया शहर से महज 12 किमी की दूरी पर स्थित इस टोले में उरांव जनजाति के करीब 60 परिवार रहते हैं। मजदूरी और खेती करके किसी तरह से गुजारा करने वाले ये लोग लगभग अनपढ़ हैं। यह लोग बीमार पड़ने पर सबसे पहले ओझा के पास ही जाते है। जब ओझा से केस बिगड़ जाता हैं तब मरीज को अस्पताल ले जाते हैं। बाबूलाल भी ओझागिरी यानी झाड़-फूंक करता था। लेकिन बच्चे की मौत हो गई तो उसे तथा उसके सारे परिवार को डायन घोषित कर यह दिल दहला लेने वाला हश्र कर दिया गया।

इस हत्याकांड ने इस हकीकत पर मुहर लगा दी है कि भारत में आज भी जादू-टोना, तंत्र-मंत्र, अंधश्रद्धा और तांत्रिकों-ओझाओं का अस्तित्व बरकरार है। महिलाओं को जिंदा जलाने, मल खिलाने, बाल काटने और कपड़े उतार कर नग्न घुमाने जैसी भयावह और अमानवीय घटनाओं की खबरें सिर्फ अनपढ़ों की बेवकूफी की देन नहीं हैं। खुद को पढ़े-लिखे बुद्धिजीवी दर्शाने वाले कई लोग धूर्त बाबाओं के चक्कर में किस तरह से फंस जाते हैं, या उन्हें फंसाया जाता है, इसकी गवाह है अखबारों तथा न्यूज चैनलों पर छायी यह बहुचर्चित खबर ‘‘एक चतुर चालाक व्यक्ति जिसकी अथाह धन कमाने की तमन्ना थी, लेकिन धनवान बनने को उसे कोई रास्ता सूझ नहीं रहा था। काफी माथापच्ची करने के पश्चात एक दिन उसके मन में विचार आया कि क्यों न दूसरे करोड़पति बाबाओं, ओझाओं और फ्रॉड  ज्योतिषियों की तरह वह भी लोगों को बेवकूफ बनाए और हो सकता है उसकी भी किस्मत चमक जाए। वर्ष 2010 में इस भिखमंगे ने टोना-टोटका के कुछ दांव-पेंच और हुनर सीखे। उसके बाद वह साइकिल पर घूम-घूमकर नकली नग, अंगूठी, टोने-टोटके से संबंधित सामान को बेचने के साथ-साथ झाड़-फूंक करने लगा। वह अपनी-अपनी परेशानियों से त्रस्त लोगों के पास जाता और उन्हें खुशहाल, बेफिक्र स्वस्थ और मालामाल होने के लिए ताबीज के साथ-साथ मूंगा, मोती, माणिक्य, पुखराज पन्ना,  नीलम गोमेद आदि धारण करने की सलाह देता। अपने भाग्योदय के लिए भटकते लोगों को फांसने के लिए शुरू हुई उसकी यात्रा सफलता के साथ आगे बढ़ती रही। इस दौरान उसने अपने प्रचार के लिए भाड़े के कुछ लोगों को भी काम पर लगा दिया। यह भाड़े के टट्टू शहर और गांव-गांव जाकर प्रचारित करने लगे कि यह बंदा तो बहुत पहुंचा हुआ पीर है। इसके रूहानी इलाज ने कई लोगों को भला-चंगा किया है। इसके द्वारा दिये गए विभिन्न रत्नों को धारण करने के बाद अनेकों बेरोजगारों को नौकरी, बीमारों को सेहत, मनचाही शादी और व्यापार में तरक्की और उद्योग-धंधे में अत्याधिक फायदा हुआ है। उसके चमत्कारों की गूंज दूर-दूर तक फैलती चली गई। दूर-दराज से लोग उसकी शरण में आने लगे। देखते ही देखते उसने सर्वसुविधायुक्त आलीशान कोठी तान ली। उसकी कंटीले तारों से घिरी आलीशान कोठी में कब अवैध गतिविधियां चलने लगीं। इसका पता तो तब चला जब हाल ही में उसे युवतियों को बहला-फुसलाकर उनके धर्मांतरण करने के आरोप में हथकड़ियां पहनाकर जेल में डाला गया। छांगुर बाबा के नाम से सुर्खियां बटोरने वाले इस कपटी, शैतान का असली नाम जलालुद्दीन शाह है। इसने कई युवतियों की अस्मत लूटी है। एक लड़की ने बताया है कि यह कपटी बाबा भारत को इस्लामिक देश बनाने की बात करता था। अनेकों लोगों का धर्मान्तरण कर चुका यह बदमाश सीधी बात करने की बजाय इंटरनेट कॉल के जरिए संपर्क बनाते हुए असंख्य लोगों को बेवकूफ बनाता रहा और लोग बिना सोचे-समझे बनते भी रहे...।

Thursday, July 10, 2025

क्यों नहीं लेते सबक?

सेहतमंद, आकर्षक, खूबसूरत, धनवान, इज्जतदार, खुश और विख्यात होना और दिखना कौन नहीं चाहता? सीधा और सरल उत्तर है, सभी के सभी स्त्री-पुरुष, इन जरूरतों, आकर्षणों और उपलब्धियों से मालामाल होना चाहते हैं। इसके लिए अपने-अपने स्तर पर संघर्ष, प्रयास और जद्दोजहद भी जारी रहती है। इन सभी नियामतों में अच्छे स्वास्थ्य से बढ़कर और कुछ नहीं। यदि आप स्वस्थ हैं तो सारी दुनिया की खुशियां आज नहीं तो कल आपकी झोली में समा सकती हैं, लेकिन इन दिनों कई लोगों ने प्रकृति के खिलाफ चलते हुए खूबसूरत और कम उम्र का दिखने-दिखाने की जानलेवा सनक पाल ली है। वे भूल गये हैं कि कुदरत के अपने नियम-कायदे हैं। उनका अनुसरण करने वालों को हमने काफी लम्बी उम्र तक खुश और खुशहाल देखा है। इन दिनों अच्छे-भले युवाओं को हार्ट अटैक के चलते बड़ी तेजी से मौत के हवाले होते देखा जा रहा है। डॉक्टरों का भी यही कहना है कि स्वस्थ जीवन शैली को नहीं अपनाने की वजह से कम उम्र के स्त्री-पुरुषों में हार्ट अटैक के खतरे लगातार बढ़ रहे हैं। शराब, बीयर, धूम्रपान, आरामपरस्ती, आलस्य, रात-रात भर जागना, बहुत ज्यादा प्रोसेस्ड फूड खाना और न्यूनतम कसरत और वॉक तक न करना युवाओं को रोगी बना रहे हैं। कोविड के बाद घर से काम करने परिपाटी ने भी लोगों का दशा और दिशा पर कहीं न कहीं विपरीत प्रभाव डाला है। प्रतिस्पर्धा, ईर्ष्या, जल्दबाजी डिप्रेशन और तनाव भी कई युवाओं के जीवन का हिस्सा बन गया है। आम और खास दोनों इन स्वनिर्मित रोगों के शिकार हैं। यही बीमारियां सेहत के साथ-साथ वजन और लुक यानी आकर्षक दिखने की चाहत के साथ भी खिलवाड़ करते हुए खुदकुशी के मार्ग दिखा और सुझा रही हैं। यह भी जाना-माना सच है कि अच्छी सेहत ही सुंदरता, खूबसूरती और आकर्षण की जननी है। तरह-तरह के टॉनिक, इंजेक्शन और दवाइयां अंतत: छलावा ही साबित होती हैं। देश और विदेशों में इनकी अधिकता और अति से अभी तक कितनी मौतें हो चुकी हैं, इसका सटीक आंकड़ा तो उपलब्ध नहीं, लेकिन फिर भी अपने-अपने काल में हुईं कुछ मौतों और आत्महत्याओं को याद रख उनसे सबक तो लिया ही जा सकता है...। 

बहुतों को लोकप्रिय टीवी सीरियल बालिका वधु की खूबसूरत नायिका प्रत्युषा बनर्जी का वो दिलकश मासूम चेहरा अभी भी याद होगा। लाखों प्रशंसकों की चहेती प्रत्युषा ने मात्र 24 साल की आयु में इसलिए मौत का दामन थाम लिया, क्योंकि अनियमित रहन-सहन की वजह से मोटापा धीरे-धीरे उसे अपने आगोश में लेने लगा था। अत्याधिक शराब पीने के कारण उसकी खूबसूरती भी उससे पल्ला झाड़ने लगी थी। वह दिन-रात इसी चिंता में डूबी रहती थी कि घटती लोकप्रियता के कारण जल्द ही उसे टीवी शो में काम मिलना बंद हो जाएगा। उसके प्रेमी ने भी उससे दूरियां बनानी प्रारंभ कर दी थीं। इसी चिंता और तनाव में रहते-रहते एक दिन वह फंदे पर झूल गई। 

कोलकाता की विख्यात मॉडल रिया घोष को जब मोटी होने का डर सताने लगा तो उसने दुबली-पतली और आकर्षक बने रहने के लिए धड़धड़ एस्टेरॉयड और स्लिमिंग ड्रग लेनी शुरू कर दीं। इससे शरीर में सुधार तो नहीं आया। दबे पांव मौत जरूर आ गई। चुस्त और फुर्तीली सोनाली फोगाट का राजनीति, सोशल मीडिया और फिल्मों में कभी अच्छा-खासा नाम था। उसकी भी जब उम्र बढ़ने लगी तो वह युवा और ग्लैमरस दिखने के चक्कर में ऐसा अंधाधुंध नशा करने लगी। शराब, सेक्स और बॉडी ट्रोनिंग ड्रग के नशीले गर्त में वह ऐसी फंसी कि बाहर निकल ही नहीं पायी। गोवा के एक रिसोर्ट में हार्ट अटैक की वजह से चल बसी सोनाली ने ‘बिगबॉस’ में भी अपने जलवे दिखाये थे। 

बॉलीवुड अभिनेत्री, विश्व सुंदरी का खिताब जीत चुकी सुष्मिता सेन को जब लगा कि उसके प्रशंसकों में तेजी से कमी आने लगी है तो उसने अपनी बढ़ती उम्र को छिपाने और खुद को खूबसूरत दिखाने के लिए जिम में अत्याधिक पसीना बहाना प्रारंभ कर दिया। फिटनेस की चाह में वह यह भी भूल गई कि शरीर की भी अपनी तय शुदा मर्यादा होती है। उस पर जरूरत से ज्यादा कसरती दबाव डालना खतरे से खाली नहीं। हुआ भी यही। एक दिन जिम में घंटों कसरत करते-करते उसे जबर्दस्त हार्ट अटैक आया। यह तो उसकी किस्मत अच्छी थी कि, अस्पताल में डॉक्टरों ने उसे बचा लिया। अपने जानदार नृत्य, गीत-संगीत की बदौलत संपूर्ण विश्व में छा जाने वाला माइकल जैक्सन कभी भी बूढ़ा नहीं होना चाहता था। इस अमेरिकी पॉप गायक ने अपने यहां कई डॉक्टर नियुक्त कर रखे थे, जो चौबीस घंटे उसकी देखरेख में लगे रहते थे। उन्हीं डॉक्टरों ने ही उसकी त्वचा को चमकदार, गोरा बनाने तथा आकर्षक जवान दर्शाने के लिए उसे पचासों दवाओं का गुलाम बना दिया था। किंग ऑफ पॉप कहलाने वाले माइकल ने खूबसूरत दिखने के लिए ठोड़ी का प्रत्यारोपण भी करवाया था। मौत को मात देने के लिए वह ऑक्सीजन के चैम्बर में सोता था। लेकिन फिर भी अनिद्रा का शिकार था। वह प्रतिदिन जो खाना खाता था उसे भी दस डॉक्टर पहले चेक और टेस्ट करते थे। बीमारी और मौत से भयभीत रहने वाला जैक्सन बहुत ही बेचैन और उतावला किस्म का इंसान था। वह मात्र 50 साल की उम्र में चल बसा। अत्याधिक नशीले ड्रग और बार-बार शरीर की प्लास्टिक सर्जरी से अपने शरीर का सत्यानाश करवा चुके माइकल की 150 साल तक जीवित रहने की इच्छा धरी की धरी रह गई। डॉक्टरों की फौज भी हाथ मलती रह गई। लेकिन हां, उसके मुर्दा जिस्म को सोने के ताबूत में दफना कर डंका जरूर बजवाया गया कि वह कितना धनवान था। अभी कुछ दिन पूर्व खूबसूरत चमकती-दमकती लोकप्रिय फिल्मी नारी शेफाली जरीवाला की मात्र 42 साल की उम्र में हुई मौत ने उसके लाखों प्रशंसकों को स्तब्ध और झकझोर कर रख दिया। मशहूर साँन्ग ‘कांटा लगा’ कि वजह से कांटा गर्ल के नाम से मशहूर हुई शेफाली की भी उम्र के बढ़ने के साथ-साथ नींद उड़ने लगी  थी। वह हर पल सोचती रहती कि भविष्य में जब उसकी खूबसूरती दगा देने लगेगी तो क्या होगा? अपने आलीशान वर्तमान पर संतुष्ट रहने की बजाय वह और युवा दिखने के लिए किस्म-किस्म की नशीली दवाएं और ड्रग लेने लगी। खाली पेट ड्रग लेना और तरोताजा दिखने के लिए जिम में बेतहाशा पसीना बहाना उसके लिए घातक साबित हुआ। कार्डियक अरेस्ट से एकाएक हुई उसकी मौत की खबर को सुनकर उसके प्रशंसक समझ ही नहीं पाये कि यह क्या हो गया! वे एक-दूसरे से पूछते रहे कि पहले से ही बेइंतहा खूबसूरत शेफाली जरीवाला और कितनी खूबसूरत होना चाहती थी?

Thursday, July 3, 2025

संत-असंत की माया

हम सबके देश भारत और भारतवासियों की यह खुशकिस्मती है कि हमें समय-समय पर प्रेरणा के दीप जलाकर अंधेरों को दूर करने वाले सच्चे साधु-संतों, उपदेशकों, कथावाचकों का आशीर्वाद और सुखद सानिध्य मिलता रहा है। इस काल में भी कुछ ऐसे महामानव हैं, जिनकी मधुर प्रभावी वाणी नतमस्तक होने को विवश कर देती है। देवी नंदन ठाकुर, पंडित प्रेमानंद जी महाराज, पंडित प्रदीप मिश्रा, अनिरुद्धाचार्य और महिला कथावाचक जया किशोरी, देवी चित्रलेखा,  पलक किशोरी आदि के कथा वाचन को जितना भी सुनें...जी नहीं भरता। आज के इस दौर में जब यह कहने वाले ढेरों हैं कि कथावाचकों तथा प्रवचनकारों का जमाना लद गया है। आज किसके पास फुर्सत है जो इनके रटे-रटाये प्रवचनों को सुनने के लिए अपना कीमती समय खराब करे। लेकिन फिर भी प्रभावी वाचकों के यूट्यूब और सोशल मीडिया पर लाखों-करोड़ोंफॉलोअर्स प्रशसंक हैं। यहां से इनकी झोली में लाखों रुपये बरसते हैं। इनके कथावाचन को रूबरू सुनने के लिए भी आयोजक लाखों रुपए सहर्ष देने को तैयार रहते हैं। यह उपलब्धि असंख्य जागरुक भक्तों, प्रशंसकों और श्रोताओं की बदौलत ही संभव है। यह सच अपनी जगह है कि पिछले कुछ वर्षों से कुछ प्रवचनकारों, बाबाओं के संदिग्ध आचरण के कारण लाखों लोगों ने संत समाज से ही दूरी बना ली है। उन्हें सभी संत-महात्मा एक जैसे लगते हैं। इसलिए वे उनके निकट जाना भी पसंद नहीं करते। लेकिन यह अधूरा सच है। अपने देश में ऐसे संतों की कमी नहीं जो वास्तव में निष्कंलक हैं।

बीते सप्ताह उत्तरप्रदेश के इटावा से जुड़े दांदरपुर गांव में एक कथावाचक मुकुट मणि यादव और उनके सहायक के साथ बदसलूकी की गई। सोशल मीडिया पर वायरल वीडियो को भी लाखों लोगों ने देखा। जिसमें गांव के ब्राह्मणों ने उनकी जाति पूछी तो उन्होंने कहा कि पहले तो उनकी कोई जाति नहीं है। वे 14 साल से भागवत कर रहे हैं। उनको सुनने के लिए लाखों की भीड़ उमड़ती है। लेकिन ग्रामीण उनकी जाति के बारे में जानने के लिए अड़े रहे। वे यह बताने से कतराते रहे कि वे यादव जाति से हैं। उन्होंने वहां पर उपस्थित साधुओं को भी समझाने का बहुतेरा प्रयास किया। गांव के कुछ युवा उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थे। उन्हें बार-बार मुकुट मणि यादव पर गुस्सा आ रहा था। उसके पश्चात गुस्साये युवक उन्हें खींचकर गांव के बाहर ले गए। वहां पर उनसे मारपीट कर उनका मुंडन कर दिया। उनके साथी की भी चोटी काटी गई। इस अमानवीय, अपमानजनक घटना का भी वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल होने के बाद पक्ष और विपक्ष के बीच शाब्दिक युद्ध चल पड़ा।

लगभग हर विद्वान, बुद्धिजीवी का यही मानना है कि भागवत कथा करने का अधिकार सभी को है। किसी को रोका नहीं जा सकता। हमारी सनातन परंपरा में ऐसे तमाम गैर ब्राह्मण हैं, जिनकी गणना ऋषि के रूप में की गई है। इसमें चाहे महर्षि वाल्मीकि हों, वेद व्यास हों या रविदास हों। सनातन परंपरा में सभी को सम्मान और आदर प्राप्त है। सच तो यह है कि, जो शास्त्रों को जानते हैं, भक्तिभाव, सत्यनिष्ठ, ज्ञानवान और जानकार है, उन्हें कथा कहने का अधिकार है। किसी भी विद्वान और ज्ञानी को अपना धर्म और जाति छिपाने की कोई जरूरत नहीं। किसी को उसकी जाति के कारण अपमानित करने का भी कोई अधिकार नहीं है। मुकुट मणि यादव और उसके साथी पर जाति छुपाने और दो आधार कार्ड रखने के आरोप हैं। उन्होंने ऐसा क्यों किया, क्यों करना पड़ा, यह भी चिंतन और खोज का विषय है। हालांकि, मुकुट मणि बार-बार कहते रहे कि मुकुट मणि अग्निहोत्री नाम का जो आधार कार्ड वीडियो पर वायरल हुआ उससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। यह तो उनके खिलाफ उन अपराधियों की साजिश है, जिन्होंने उन्हें अपमान कर सिर के बाल काटे, नाक रगड़वाई, पैर छूने को विवश कर मूत्र छिड़कने का आतंकी कृत्य किया। अपने देश में ऐसे मामलों में राजनीति न हो, नेताओं की बिरादरी चुप रहे, ऐसा तो हो ही नहीं सकता। नेताओं को तो ऐसे अवसरोेंं का बेसब्री से इंतजार रहता है। ऐसे समय में स्वार्थी नेता आग में घी डालने की अपनी शर्मनाक आदत से बाज नहीं आते। 

यदि कथावाचक की कथा में कोई खोट था, या कोई भारी कमी थी तो एक बार उसका विरोध समझ में आता और इतना शोर-शराबा भी नहीं होता। लेकिन उनके गैर ब्राह्मण होने के कारण उन्हें अपमानित करना यकीनन अक्षम्य है। हां, खुद की जाति छुपाने की उनकी कोशिश कहीं न कहीं संशय खड़ा करती है और उनका आतंरिक बौनापन भी उजागर करती है। विद्वान तो डंके की चोट पर अपनी बात कहने के लिए जाने जाते हैं। झूठ और छल-कपट तो धूर्तों के बनावटी सुरक्षा कवच हैं। जिनके तहस-नहस होने में अंतत: देरी नहीं लगती। एक सच यह भी कि कुछ चतुर चालाक और अति होशियार लोगों ने राजनीति और समाज सेवा की तर्ज पर प्रवचन और कथावाचन को भी धंधा बना लिया है। उन्हें वे लाखों रुपये प्रलोभित करते हैं, जो स्थापित कथावाचकों को उनकी साख की बदौलत बड़ी आसानी से मिलते हैं। लेकिन उनके द्वारा किये जाने परोपकारी, जनहितकारी कार्य किसी को दिखायी नहीं देते। जिस तरह से कई लुच्चे-लफंगे नेता, जाति-धर्म के नाम पर चुनाव जीत कर विधायक, सांसद और मंत्री बन जाते हैं, वैसे ही कुछ कपटी बाबा भीड़ की आंखों में धूल झोंक कर माया बटोर रहे हैं। काठ की हांडी बार-बार नहीं चढ़ती। सच की राह पर चलने के उपदेश देनेवाले झूठे, मक्कार प्रवचनियों की जब पोल खुलती है, जैसे-जैसे उनका घिनौना और शर्मनाक सच बाहर आता है, तो उनका हश्र भी कलंकित आसाराम, राम रहीम आदि-आदि जैसों जैसा हो ही जाता है।

 संतई के क्षेत्र में नाम और दाम कमाने को आतुर शैतानों को यही लगता है कि वे उन जेल यात्रियों से बहुत ज्यादा चालाक और चौकन्ने हैं, जो अपने कर्मों की सजा भुगत रहे हैं। कोई लाख कोशिशें करता रहे लेकिन उनका तो बाल भी बांका नहीं हो सकता। बनावटी और नकली बाबाओं को अपना परचम लहराने के लिए यदि असली-नकली भक्तों-अंधभक्तों का साथ न मिले तो उनका एक कदम भी आगे बढ़ पाना असंभव है। लेकिन एक-दूसरे की देखा-देखी भेड़चाल चलने वालों ने दुष्टों का हौसला बढ़ाने और देश का बेड़ा गर्क करने में कोई कसर नहीं छोड़ने की जैसे कसम ही खा रखी है।