कुछ लोग ऐसे होते है जिनका जीवन किसी ऐसी किताब से कम नहीं होता जिसे पढ़ने का हर किसी का मन होता है।
‘‘मेरा जन्म 1991 में आंध्रप्रदेश के सीतारामपुरम गांव में हुआ। माता-पिता को तब आघात लगा, जब उन्हें पता चला कि उनका बच्चा तो अंधा है। रिश्तेदारों, अड़ोसी, पड़ोसियों ने भी उन्हें घोर बदकिस्मत करार दे डाला। सभी ने उन्हें सलाह दी कि ऐसे बच्चे का होना न होना एक बराबर है। वैसे भी लड़के तो मां-बाप की सेवा और उनका नाम रोशन करने के लिए जन्मते हैं। मां-बाप के सपने अपनी अच्छी औलाद की बदौलत ही साकार होते हैं। यह अंधा तो उनके लिए फंदा है। ऐसे फंदों से मुक्ति पाना ही अक्लमंदी है। जैसे दूसरे समझदार मां-बाप करते हैं, तुम भी इसका गला घोंट दो। चुपचाप कहीं दफना दो। यह नहीं कर सकते तो अनाथालय में ले जाकर छोड़ दो। वही इसे खिलाएंगे, पिलायेंगे और जो उनकी मर्जी होगी, करेंगे। अनाथालय की शरण में पल-बढ़कर भीख मांगना तो सीख ही लेगा। तुम लोगों का तो इसे पालते-पालते ही दम निकल जायेगा। घर के बर्तन तक बिक जायेंगे और हाथ में कटोरा पकड़कर भीख मांगने की नौबत आ जाएगी।’’
कई दिन तक तो मां हर किसी के सुझावों को मजबूरन सुनती रहीं। लेकिन जब उनके चुभने वाले बोल वचनों की अति हो गई वह उन पर बिफर पड़ीं। उन्हें आसपास फटकने तक से मना कर दिया। मां के अंतिम फैसले के तौर पर कहे गये इन शब्दों ने तो सभी की जुबानें बंद कर दीं, ‘‘तुम लोग कान खोलकर सुन लो, जब तक मैं जिन्दा हूं, अपने बच्चे पर आंच नहीं आने दूंगी। खुद को बेचकर भी इसकी इतनी अच्छी तरह से परवरिश करूंगी कि दुनिया भी हतप्रभ देखती रह जाएगी। मैं चार साल का हुआ तो मां ने गांव के स्कूल में दाखिला करवा तो दिया, लेकिन घर से अकेले बाहर निकलना मेरे लिए आसान नहीं था। कभी पिता स्कूल छोड़ने जाते तो कभी मां छोड़ आतीं और लेने भी पहुंच जातीं। स्कूल में मेरे साथ पढ़ने वाले बच्चे मुझ से दूरी बनाये रखते। जब मैं तीसरी कक्षा में पहुंचा तो प्रिंसिपल ने मेरे लिए फरमान जारी कर दिया कि हमें ऐसे बच्चे की जरूरत नहीं, जिसके लिए हमें जरूरत से ज्यादा दिमाग खपाना और अपना कीमती समय बरबाद करना पड़े। मां के जुनून ने मुझे हैदराबाद के ब्लाइंड स्कूल में पहुंचा दिया, लेकिन वहां भी मुझे कुछ भी सुझायी नहीं देता था। चौबीस घंटे बस घबराया-घबराया रहता। एक रात मैंने स्कूल से भागने की कोशिश की तो वार्डन की मुझ पर निगाह पड़ गई। उन्होंने मेरे इरादे को भांप लिया था। गुस्से में उन्होंने मुझे अपने पास खींचा और पांच-सात तमाचे जड़ते हुए कहा कि कहां-कहां भागोगे? ऐसे भागने से तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। अपना नहीं तो उस मां का ख्याल करो, जिसने कई सपने पाल रखे हैं। ईश्वर ने तुम्हें किसी चमत्कार के लिए इस धरती पर भेजा है। डरो नहीं, बस लड़ो...लड़ते ही रहो। वार्डन के चांटों और शब्दों का ही असर था कि उस दिन मुझे लगा कि मैं तो देख सकता हूं। मुझे हर चुनौती का डटकर सामना करते हुए खुशी-खुशी जीना है। मेरे अंदर साहस की रोशनी की तरंगें दौड़ने लगीं। मैं दसवीं तक टॉपर रहा, लेकिन मेरे मनोबल को तोड़ने वाली ताकतें तब भी मेरे पीछे पड़ी रहीं।
दसवीं के बाद आईआईटी की कोचिंग के लिए एक कोचिंग सेंटर गया तो वहां के संचालक ने तीखे थप्पड़-सा शब्द-बाण मारा कि तुम जैसे पौधे कभी पेड़ नहीं बन सकते, क्योंकि उनमें तेज बारिश और आंधियों को सहने की ताकत नहीं होती। हमेशा-हमेशा के लिए फौरन धराशायी हो जाते हैं और साथियों के तेजी से दौड़ते कदमों से रौंद दिये जाते हैं। साइंस में एडमिशन पाने के लिए अंतत: मुझे कोर्ट की शरण लेनी पड़ी। मां के हाथ और साथ के दम पर वो लड़ाई भी मैंने डट कर लड़ी और जीत हासिल की। आंध्रप्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड में साइंस लेकर 92 प्रतिशत नंबर के साथ पास होने वाला मैं पहला नेत्रहीन छात्र बना। उसके बाद तो बड़ी आसानी से अमेरिका के एमआईटी में प्रवेश मिल गया और यहां भी तब तक किसी दृष्टिहीन छात्र को प्रवेश नहीं मिला था। अमेरिका से पढ़ाई कर लौटा तो तकदीर मेरे स्वागत के लिए सभी दरवाजे खोले खड़ी थी। मैं हौसले से लबालब था। मां खुशी से फूली नहीं समा रही थी। मैंने अपने दम पर हैदराबाद में कंज्यूमर फूड पैकेजिंग कंपनी शुरू की।
23 की उम्र में बोलैंट कंपनी का सीईओ बना। आज जब छत्तीस साल का होने जा रहा हूं। मेरी कंपनी 600 करोड़ के आंकड़े को छू चुकी है, जहां चार सौ कर्मचारी काम करते हैं, जिनमें 70 प्रतिशत दिव्यांग हैं। जिन्दगी ने मुझे एक ही पाठ पढ़ाया है कि ऊपर वाला भी तभी साथ देता है, जब हम हिम्मत और योजना के साथ चलते रहते हैं। चाहे कितनी भी मुश्किल भरी राहें हों, जुनूनी संघर्ष की बदौलत अंतत: आसान हो ही जाती हैं और मंजिल खुद-ब-खुद गले लगाती है। अब मेरे कदम सतत ऊंचाइयों की ओर बढ़ रहे हैं। आने वाले वक्त में मेरी तिजोरी में हो सकता है पांच-दस हजार करोड़ रुपये हों, लेकिन वो धन मेरी मां और उनकी कुर्बानी से बढ़कर तो नहीं हो सकता। मेरी सबसे बड़ी दौलत तो मेरी मां हैं, जिन्होंने मुझे यहां तक पहुंचाया है।’’ यह आत्मकथन है श्रीकांत बोला का जो जन्म से दृष्टि बाधित हैं। अपनी हिम्मत के दम पर सफलताओं का परचम लहराते हुए लोगों को अचंभित करते रहे हैं। वर्तमान में देश के प्रतिष्ठित उद्योगपतियों में शुमार श्रीकांत बोला की संघर्ष भरी यात्रा पर एक चर्चित फिल्म भी बन चुकी है। ‘श्रीकांत’ नाम की 2024 में रिलीज हुई इस फिल्म ने करोड़ों दर्शकों को प्रभावित किया है।
एक सवाल कि एक रुपये में क्या होता है, क्या मिलता है? हलकी सी चाकलेट और संतरे के स्वाद वाली गोली जरूर मिल जाती है, जिसे आज के बच्चे भी पसंद नहीं करते। भिखारी भी एक रुपये के सिक्के को लेने से कतराते हैं। कागज़ के नोट तो वैसे भी आजकल कम नज़र आते हैं, जो हैं भी, वो शादी, ब्याह या किसी अन्य शुभ कार्य में दस को ग्यारह, सौ को एक सौ एक और पांच सौ को पांच सौ एक के शुभ आंकड़े बनाने... दर्शाने के काम आते हैं। महंगाई भी कितनी बढ़ा दी गई है। कुछ भी सस्ता नहीं मिलता। अनाज, दूध, सब्जियां, दवाएं सब महंगी होती चली जा रही हैं। पीने के पानी तक की कीमत चुकानी पड़ रही है। गरीब आदमी यदि किसी गंभीर बीमारी का शिकार हो जाए तो उसका बचना मुश्किल है। डॉक्टरी के पेशे की इंसानियत भी जाती रही है, लेकिन फिर भी सच्चे इंसानों के अंदर का इंसान जिन्दा है इसे साबित कर दिखाया है ओडिशा के संबलपुर जिले के युवा डॉक्टर शंकर रामचंदानी ने। उन्होंने गरीबों और वंचितों के इलाज के लिए ‘एक रुपया’ क्लिनिक खोला है। किराये के मकान में खोले गये इस अस्पताल में मरीजों की भीड़ लगी रहती है। गरीबों से एक रुपया फीस भी इसलिए लेते हैं, ताकि उन्हें यह न लगे कि वे मुफ्त में इलाज करा रहे हैं। वे लंबे समय से चाह रहे थे कि ऐसे चिकित्सालय की स्थापना करें, जहां गरीब और बेसहारा लोग आसानी से पहुंचकर मुफ्त में इलाज करवा सकें। उनका मानना है बड़े-बड़े अस्पतालों में बड़े निवेश की आवश्यकता होती है, इसलिए वहां पर इलाज भी महंगा हो जाता है। इसलिए उन्होंने आलीशान अस्पताल खोलने की बजाय साधारण अस्पताल खोला है, जहां पर उनकी कोशिश है कि जिनकी जेबें खाली हैं वे भी गर्व के साथ बीमारी से छुटकारा पा सकें। चालीस वर्षीय डॉक्टर की पत्नी भी डॉक्टर हैं। दोनों विभिन्न अस्पतालों में कई वर्षों तक कार्यरत रहे हैं। दोनों अधिकांश डॉक्टरों की धनलोलुपता से वाकिफ है।
महाराष्ट्र के प्रगतिशील नगर पुणे में एक डॉक्टर हैं जिन्होंने बेटियों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। गणेश राख है इनका नाम। तेरह साल में 2500 बेटियों की नि:शुल्क डिलीवरी कराने का कीर्तिमान रच चुके डॉ.गणेश बताते हैं कि 29 दिसंबर 2011 को उनके अस्पताल में एक गरीब दिहाड़ी श्रमिक अपनी पत्नी की डिलीवरी के लिये आया था। उसने बड़े दुखी और बुझे स्वर में बताया था कि उसे पहले दो बेटियां हैं, दोनों ही सीजेरियन से हुई हैं लेकिन अब वह खर्च वहन नहीं कर सकेगा। लेकिन अगर लड़का हुआ तो वह अपना घर गिरवी रखकर भी अस्पताल का खुशी-खुशी बिल चुकाएगा। मुझे यह बात बहुत खटक गई। मैंने उससे कहा कि यदि तुम्हारे यहां बेटी पैदा हुई तो मैं फीस नहीं लूंगा। संयोग से इस बार भी उसके यहां बेटी जन्मी तो वह बहुत निराश हो गया। फिर भी उसने पूछा कि आपकी फीस कितनी हुई? जब मैंने कहा शून्य तो उसकी आंखें भीग गईं। उसके चेहरे पर उभरे राहत के भाव को देखकर मुझे बहुत अच्छा लगा। उसी पल से मैंने ठान लिया कि मेरे अस्पताल में जब भी लड़की पैदा होगी तो परिजनों से कोई फीस नहीं ली जाएगी। यह भी निर्णय किया गया कि जैसे लड़के के जन्मने पर उनके परिजन जश्न मनाते हैं, स्वागत करते हैं, वैसे ही हम लड़की के आगमन पर केक और मिठाइयां बांटकर जश्न मनाएंगे। डॉ.गणेश राख की इस पहल की सभी तारीफ कर रहे हैं। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन और उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने भी जमकर उनकी सराहना की है। डॉक्टर साहब का सपना है, शीघ्र ही सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल खोलें जहां पर महिलाओं की सभी प्रकार की बीमारियों का इलाज एकदम मुफ्त में कर सकें।

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