नवरात्रि का पर्व निकट था। शहर के कलाकार देवी की मूर्तियां बनाने में तल्लीन थे। अत्यंत परिश्रम और भक्तिभाव से मूर्तिकार को देवी मां की मूर्ति गढ़ते देख मेरा वहां कुछ पल ठहरने को मन हो आया। इस कुशल और अनुभवी मूर्तिकार का शहर ही नहीं प्रदेश में भी बड़ा नाम है। अपनी कला में बेजोड़ मूर्तिकार का मानना है कि उसके लिए सबसे पवित्र-अनमोल और सुखद पल वो होते हैं, जब वह मां दुर्गा की आंखों में रंग भरता है। रात-दिन के अथक परिश्रम से बनायी और सजायी गई मिट्टी की प्रतिमाएं नास्तिकों में भी श्रद्धा और आस्था के भाव जगा देती हैं। बच्चे, किशोर, युवा और बुजुर्ग नवरात्रि के जगमगाते पंडालों की ओर बरबस खिंचे चले आते हैं और नतमस्तक हो जाते हैं। मूर्ति कला के प्रति जी-जान से समर्पित सिद्धहस्त कलाकार का बस चले तो वह मिट्टी में ही सांस फूंक दे, जान डाल दे, बिल्कुल वैसे ही जैसे ममत्व से परिपूर्ण कई माताएं विपरीत हालातों में भी अपनी संतानों के जीवन को खुशनुमा बनाने और उन्हें शीर्ष तक पहुंचाने के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करते हुए खुद जीना भूल जाती हैं। इसके साथ ही यह संदेश भी देती चली जाती हैं, जिद ही इंसान की जीत का महामंत्र है। दिल्ली के रानीखेड़ा में जन्मी आयुषी वसंत विहार की एसडीएम यानी सब डिविजनल मजिस्ट्रेट हैं। प्रशासन, कानून व्यवस्था और राजस्व में संबंधित दायित्वों को अच्छी तरह से संभाल रही हैं। सभी लोग उनकी कार्यशैली से अति संतुष्ट और प्रभावित हैं। गौरतलब है कि आईएएस अधिकारी भारत की प्रशासनिक व्यवस्था की रीढ़ माने जाते हैं। देश और समाज में उनकी उल्लेखनीय भूमिका होती है। कहने को तो देश में असंख्य आईएएस अधिकारी हैं, लेकिन यहां कलमकार आयुषी की कहानी इसलिए पेश कर रहा है, क्योंकि वह देख नहीं सकती। जब वह मात्र एक साल की थी, तब उसके माता-पिता को पता चला था कि उनकी मासूम लाडली बिटिया पूरी तरह से दृष्टिहीन यानी अंधी है। उसके लिए सूरज की रोशनी और अंधेरा एक समान है। लाल, हरे, नीले, काले, पीले, सफेद, जामुनी, कत्थे आदि सभी रंगों के उसके लिए एक से मायने हैं। दिल को आहत करने वाले इस कटु सच को जान-समझकर पहले तो माता-पिता काफी देर तक चुपचाप एक दूसरे को अश्रुपूरित आंखों से देखते रहे। दोनों को निराशा की आंधी ने बहुत चिंतित और परेशान किया। तरह-तरह के विचार मन-मस्तिष्क में आते-जाते रहे। ऐसे में हमारी इकलौती बिटिया के भविष्य का क्या होगा? बेटे तो जैसे-तैसे अंधेरे से लड़ लेते हैं, लेकिन बेटी की जीवन नैया कैसे पार होगी?
आयुषी की मां आशारानी सीनियर नर्सिंग ऑफिसर थीं। उन्होंने सुख-दु:ख के हर चेहरे को करीब से देखा था। कई किताबें पढ़ी थीं। साधु-संतों के प्रवचन सुने थे। उन्होंने किसी तरह से खुद को संभाला। पति को भी इस विपरीत परिस्थिति का हिम्मत के साथ सामना करने के लिए प्रेरित किया। रिश्तेदारों तथा आसपास के लोगों की तरह-तरह की भयावह शंकाओं से परिपूर्ण बोलती को बंद करने के लिए डंके की चोट पर कहा कि हमारी बिटिया की आंखों में रोशनी नहीं है तो क्या हुआ? हम उसे ज्ञान का ऐसा उजाला देंगे कि सभी देखते रह जाएंगे। ममतामयी मां ने बेटी की भविष्य की राह में उजाला ही उजाला लाने के लिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेकर अपनी पूरी ताकत झोंकते हुए अच्छे से अच्छे स्कूल, कॉलेज से शिक्षित-दीक्षित किया कि लोग वाकई देखते ही रह गए। आयुषी ने भी मेहनत में कोई कसर बाकी नहीं रखी। अटूट लगन, अथाह जुनून की बदौलत उसने 2021 में यूपीएससी में ऑल इंडिया में 48 रैंक हासिल कर दिखा दिया कि पौधे को यदि जागरूक माली, बेहतर खाद पानी, हवा मिले तो उसे दुनिया की कोई भी ताकत उसे मजबूत छायादार पेड़ बनने से नहीं रोक सकती। आईएएस बनने से पहले आयुषी ने दस साल तक प्राइमरी स्कूल में शिक्षिका के तौर पर काम किया। उसी दौरान ठान लिया कि चाहे कितनी भी मेहनत क्यों न करनी पड़े, लेकिन आईएएस बनकर दिखाना है। आयुषी के सपने को साकार करने वाली मां वर्षों तक बड़ी मुश्किल से आधी-अधूरी नींद ले पाईं। आयुषी बताती हैं कि मां पहले तो बोल-बोल कर, फिर रिकॉर्डर के जरिए यूपीएससी के कोर्स सुनाती थीं। वर्ष 2016, 17, 18 तक इन तीनों साल प्रिलिम्स निकाला, लेकिन मैंस क्लियर नहीं कर पा रही थी। लेकिन फिर भी हिम्मत नहीं हारी। हर कमी या गलती से सबक लिया। उस मिस्टेक को रिपीट नहीं होने दिया। किताबे डाउनलोड कीं। यूट्यूब पर वीडियो सुने। कुछ इस तरह यूपीएससी की तैयारी की। अपनी दिव्यांगता के लिए टेक्नोलॉजी का सहारा लिया। 2021 में यूपीएससी रिजल्ट में ऑल इंडिया रैंक 48 थी। 2022 में यूपीएससी ट्रेनिंग करने के बाद एजीएमयूटी कैडर के तहत पहली पोस्टिंग बतौर ट्रेनी गोवा में असिस्टेंट कलेक्टर हुईं।
आयुषी की मां की हार्दिक ख्वाहिश थी कि उनकी बेटी देश-दुनिया के विख्यात शो ‘कौन बनेगा करोड़पति’ में प्रतिभागी बने। साहसी और जुनूनी बेटी ने मां के इस सपने को भी पूरा कर दिखाया है। आयुषी कवयित्री भी हैं। अपने अनुभवों और अहसासों को शब्दों में पिरोना उन्हें बहुत अच्छा लगता है। वह अभी तक 50 से अधिक कविताएं लिख चुकी हैं। अनेकों किताबें पढ़ चुकी इस अनूठी, प्रेरक प्रशासनिक अधिकारी को मूवी भी साउंड सुनकर विजुलाइज करके देखना बहुत सुकून देता है।
यदि नारी ठान ले तो उसके लिए कोई भी काम मुश्किल नहीं है। परिवार की रोजी-रोटी की गाड़ी चलाने के लिए हमारे इर्द-गिर्द कई महिलाएं पुरुषों की तरह खून-पसीना बहाती देखी जा सकती हैं। उन्हीं में शामिल हैं लक्ष्मी अगदारी, जो कोयला खदान में बड़ी सावधानी से जमीन से सौ मीटर नीचे जाकर बारूद लगाती हैं। यहीं से कोयला मिलता है। यहां पहुंचने और विस्फोटक लगाने में तीन घंटे से ज्यादा लगते हैं। विस्फोट के बाद कोयला टूटता है और उसे निकालने का काम शुरू होता है, खदान में हर पल घना अंधेरा छाया रहता है। दम घोटू घने अंधकार में एक बारगी पुरुष भी घबरा जाते हैं। पहले लक्ष्मी के पति कोयला खदान में काम करते थे। अचानक उनके चल बसने के बाद लक्ष्मी ने सफाईकर्मी या चपरासी का आसान काम करने की बजाय कोयला खदानों में विस्फोटक लगाने (ओपन माइन ब्लास्टिंग) के जोखिम वाले काम को चुना। उन्हें कुछ पुरुषों ने चेताया और समझाया भी कि महिलाओं के लिए यह काम कतई आसान नहीं, लेकिन लक्ष्मी ने इस खतरनाक कार्य को इसलिए प्राथमिकता दी कि दूसरी औरतें भी कोयला खदानों में काम करने के लिए आगे आएं। इसे करने में उन्हें किंचित भी भय न लगे।
पुलिस वालों के प्रति अधिकांश लोग अच्छी राय नहीं रखते। उनकी परछाई से भी दूर रहने में भलाई समझते हैं। यह भी सच है क कुछ खाकी वर्दीधारियों ने पुलिस महकमे की आन-बान और शान को निरंतर बचाये और बनाए रखा है। यह बहुत अच्छी बात है कि अब महिलाएं भी पुलिस विभाग में बड़े दमखम के साथ अपनी चमक बिखेरते हुए, ईमानदारी, दृढ़ता और संवदेनशीलता के साथ अपने कर्तव्य को निभा रही हैं और खाकी वर्दी की गरिमा बढ़ा रही हैं। उन्हीं में से एक नाम है दिल्ली पुलिस की कांस्टेबल सोनिका यादव का, जिन्होंने अपने दृढ़ आत्मबल का सार्थक प्रदर्शन कर उन लोगों को अपना मुंह बंद रखने को विवश कर दिया, जो नारी को अभी भी कमजोर मानते हैं। खेलकूद में हमेशा आगे रहीं सोनिका को उसके माता-पिता ने बचपन में ही हर चुनौती का भयमुक्त होकर सामना करने का पाठ पढ़ा दिया था। बेटी ने भी उन्हें कभी निराश नहीं किया। नारी के प्रति समाज में व्याप्त पूर्वाग्रहों और सदियों से चली आ रही परंपराओं और धारणाओं को तोड़ते हुए नारी के भीतर छिपी ताकत का प्रतिनिधित्व करती सोनिका ने गर्भवती होने के बावजूद वेटलिफ्टिंग प्रतियोगिता में भाग लेकर न केवल पदक जीता, बल्कि यह संदेश भी दिया कि गर्भवती महिलाएं सिर्फ विश्राम और देखभाल के लिए नहीं होती हैं। सोनिका जब मां बनने वाली थीं, तभी उनसे कुछ लोगों ने बड़ी गंभीरता और सहानुभूति से कहा कि अब खेल से दूरी बना लो। घर में पूरी तरह से आराम करो, लेकिन सोनिका ने डॉक्टरों की निगरानी में राष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिता के लिए प्रशिक्षण जारी रखा। बहादुर सोनिका ने दूसरे देश की महिलाओं के बारे में खूब पढ़ा, जाना और ठाना था कि वे प्रेग्नेंसी के दौरान भी अपनी विभिन्न गतिविधियों को सतत जारी रखती हैं। यहां तक कि कड़ी से कड़ी कसरत और खेलने-कूदने से भी नहीं घबरातीं। यदि वे ऐसा कर सकती हैं तो वह क्यों नहीं? भारतीय नारियां न तो विदेशी नारियों से कहीं कम हैं और न ही कमजोर। प्रतियोगिता के दिन गर्भवती सोनिका को मंच पर उतरते देख लोग स्तब्ध रह गए थे। कहीं कोई चिंता और भय नहीं। सिर्फ और सिर्फ आत्मविश्वास से उनका चेहरा दमक रहा था। जैसे ही 145 किलोग्राम के वजन को बड़ी आसानी से उठाया तो पूरा हॉल प्रशंसा, शाबाशी और आदर से परिपूर्ण तालियों से गूंज उठा...।

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