Thursday, May 20, 2010

उनके दिन कब बदलेंगे?

यह कहावत तो आपने भी सुनी होगी कि बारह साल में घूरे के दिन भी बदल जाते हैं...। पर हि‍ंदुस्तान के गरीब और दबे कुचले आम आदमी के दिन जस के तस क्यों हैं? ६२ साल गुजर गये। १९४७ मे देश आजाद हुआ था पर उसके बाद क्या हुआ? किन की किस्मत बदली और कौन कहीं के न रहे... इसका लेखाजोखा किसी के पास नहीं है। जिन पर लेखाजोखा रखने की जिम्मेदारी है वे अपनी किस्मत बदल कर राज कर रहे हैं। रास रचा रहे हैं। देश की तस्वीर बदलने का दावा करने वाले संघर्ष का रास्ता त्याग कर बाजारू संस्कृति का अंग बन चुके हैं। शोषण और अत्याचार खत्म होने के बजाय और विकराल रूप धारण करते चले जा रहे हैं। रहबरों के चरित्र का गिरता स्तर बुद्धिजीवियों को परेशान किये हुए है। हिन्दी के सजग कवि अदम गोंडवी की यह पंक्तिया देश की वर्तमान तस्वीर पेश करने के लिए पर्याप्त हैं : ङ्कसौ में से सत्तर आदमी जब देश में नाशाद है, दिल पर हाथ रख के कहिए देश ये आजाद है? महात्मा गांधी ने कहा था कि असली भारत ग्रामों में बसता है। आज आप देश के गांवों-कस्बों का चेहरा-मोहरा प‹ढने की कोशिश तो कीजिए। लोगों की चेहरे पर छायी निराशा खुद-ब-खुद आजादी का असली सच बयां कर देती है और यह सवाल सिर तानकर ख‹डा हो जाता है कि देश के हुक्मरान क्या कर रहे हैं? आजादी के बासठ साल गुजर जाने के बाद भी गांवों में गरीबी बदहाली, भुखमरी, बेरोजगारी, शोषण, अत्याचार अंगद की पांव की तरह क्यों डटे हुए हैं!यह भी सच है कि अगर कुछ ही हाथों में सत्ता और ताकत सिमट कर नहीं रह गयी होती तो देश के हालात इतने भयावह नहीं होने पाते। नक्सलियों, उग्रवादियों, आतंकियों और तरह-तरह के आपराधियों के दुष्चक्रों से लहूलुहान होते भारत की शक्ल कुछऐसी होती कि सारी दुनिया उसके समक्ष झुकती और फख्र करती। सत्ता और धन के लोभियों ने सबकुछ उलट-पुलट करके रख दिया है। हाल ही में विश्व बैंक की रिपोर्ट आयी है जो यह बताती है कि हिदुस्तान में करोडों लोग ऐसे हैं जिनकी दैनिक आमदनी पचास रुपये से भी कम है। सोचिए कि वे कैसी जीते, खाते और रहते होंगे?देश की एक प्रतिष्ठित संस्था की सर्वे रिपोर्ट ने यह भी खुलासा किया है कि देश की सत्तर प्रतिशत दौलत नेताओं, पूंजीपतियों और भ्रष्ट नौकरशाहों की तिजोरियों में कैद होकर रह गयी है। एक तरफ करो‹डो देशवासियों को भरपेट भोजन के लाले पडे हुए हैं दूसरी ओर यह लोग हैं जो जी भरकर गुलछर्रे उडा रहे हैं और अपनी अय्याशियों पर पानी की तरह पैसा बहा रहे हैं। देश में आपको ऐसे विधायक और सांसद कम ही देखने को मिलेंगे जो करोडपति न हों। इन करोडपतियों में अरबपति और खरबपति बनने की होड लगी हुई है। कहने को तो यह लोग जनप्रतिनिधि हैं पर जनता की चि‍ंताओं और तकलीफों से इनका कितना लेना-देना है इसे जानने के लिए यह हकीकत भी जान लीजिए। देश के सांसदो का प्रतिनिधित्व करने वाली संसदीय समिति ने सांसदो का वेतन बढाने की सिफारिश की है। तय है कि इस सिफारिश का मान रखा जाएगा और सांसदों को सोलह हजार के बजाय अस्सी हजार रुपये मिलने शुरू हो जाएंगे। समिति का कहना है कि विदेशों की तुलना में भारत वर्ष के सांसदो को कम वेतन मिलता है। यह अन्याय अब खत्म होना ही चाहिए। है न हैरानी की बात कि देश के करोडो संकटग्रस्त आमजनों की चि‍ंता करना भूलकर उन सांसदो की चि‍ंता की जा रही है जो पहले से ही करोडों में खेल रहे हैं। यह भी कोई लुकी छिपी सच्चाई नहीं है कि १६ हजार रुपये वेतन पाने वाले सांसदो को लाखों रुपये की वो सारी सुविधाएं मुफ्त में मिल जाती हें जो दूसरों को अपने खून पसीने की कमायी खर्च करने के बाद ही कहीं मिल पाती हैं। अपना वेतन बढवाने के लिए दूसरे देशों का हवाला देने वाले सांसदों से कोई यह तो पूछे कि जनाब दूसरे देश के सांसद अपने देश के लोगों के लिए जितना करते हैं उसका आधा भी कभी करके दिखाया है आपने? यह चमत्कार तो सिर्फ और सिर्फ भारत में ही होता आया है कि जनप्रतिनिधि देखते ही देखते मालदार हो जाते हैं और जनता वहीं की वहीं मुंह ताकते रह जाती है...। देश के कई सांसद ऐसे हैं जिन्होंने उद्योगपतियों की दलाली करने के साथ-साथ अपना और अपने चेले चपाटों का घर भरने के सिवाय और कोई काम नहीं किया। सांसदो को अपने क्षेत्र के विकास के लिए हर वर्ष दो करोड रुपये मिलते हैं। इन दो करोड रुपयों का इस्तेमाल किस तरह से और किसके फायदे के लिए होता है यह सबको खबर है। ऐसे बिरले ही सांसद होंगे जो इस राशि का उपयोग करने में ईमानदारी बरतते होंगे। खबरें तो यह भी खुलासा करती हैं कि जनता के विकास के लिए मिलने वाले इस धन का हद तक दुरुपयोग किया जाता है। सांसद महोदय अपने समर्थकों को ठेके दिलवाते हैं और खुद भी मलाई खाते हैं। फिर भी इनका पेट नहीं भरता। इन्हें अपने संसदीय क्षेत्र की बदहाली नजर नहीं आती। न ही इनकी उन हजारों बदकिस्मत वोटरों पर निगाह पडती है जो दो वक्त की रोटी का भी जुगाड नहीं कर पाते। हमारा मानना है कि सांसदों का वेतन तभी बढना चाहिए जब देश के आम आदमी के हालात दुरुस्त हो जाएं। आखिर यह जिम्मेदारी किसकी है? लोकसभा चुनाव के दौरान करोडों रुपये फूंक देने वाले करोडपति सांसद यह क्यों भूल गये हैं कि आज वे जिस संसद भवन की शोभा बढाते हुए माननीय सांसद कहला रहे हैं, और मान-सम्मान पा रहे हैं उसके पीछे सिर्फ और सिर्फ उन वोटरों का हाथ है जो आज भी खाली के खाली हैं...। आखिर उनके दिन कब बदलेंगे?

1 comment:

  1. jab tak janataa nahi jagegi, halaat nahi badalenge.chintan achchha hai, chintaa bhi zataj hai, lekin hamaare rahnumao se nipatanaa mushkil hai/ koshish jari rahe. likhate rahe.

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