Thursday, May 27, 2010
इनकी दादागिरी और बेशर्मी तो देखो
बडी मुश्किल है। अपने देश में हल्ला-गुल्ला तो बहुत होता है पर हल नहीं निकल पाता। दरअसल हल निकलने ही नहीं दिया जाता। मुद्दे को लटकाये रखने के पीछे कइयों का स्वार्थ और भलाई छिपी होती है। दूसरों को बेनकाब करने वाले अपने चेहरे के मुखौटे को किसी भी हालत में उतरने नहीं देना चाहते। पिछले साल देश में संपन्न हुए लोकसभा चुनावों में मीडिया के बिकाऊ हो जाने के तौरतरीकों को लेकर जमकर शोर शराबा हुआ। देश के नामी-गिरामी दैनिक अखबारों पर खबरें बेचने के आरोप लगाये गये। दैनिक भास्कर, हरिभूमि, अमर उजाला, दैनिक जागरण जैसे अखबारों के बारे में यह खबरें आयीं कि ये अखबार खबरों का धंधा करते हैं। चुनावी खबरों को धन लेकर छापते हैं। जो प्रत्याशी धन नहीं देता उसकी छवि को मटियामेट करने में भी देरी नहीं लगाते। भारतीय जनता पार्टी की तेज तर्रार नेत्री सुषमा स्वराज, बहुजन पार्टी के हरिमोहन धवन, समाजवादी पार्टी के मोहन सिंह जैसे कई नाम थे जो अखबारों के इस गोरखधंधे के शिकारों में शामिल थे। भाजपा के ही लालजी टंडन ने तो दैनिक जागरण का नाम लेते हुए स्पष्ट किया था कि इस अखबार के मालिकों ने उनसे लाखों रुपये की मांग की है। सुषमा स्वराज ने अखबार का नाम तो नहीं लिया था पर यह जरूर बताया कि उनके पक्ष में न्यूज छापने के लिए एक करोड रुपये एक अखबार वाले ने मांगे थे। हरियाणा के पूर्व मुख्यमंत्री ओम प्रकाश चोटाला भी धन लेकर खबर छापने वाले अखबार मालिकों से तंग आकर प्रेस परिषद को अपना दुखडा सुनाने से नहीं चूके थे। देश के कुछ संपादकों और पत्रकारों ने पेड न्यूज के खिलाफ जबरदस्त अभियान भी चलाया। स्वर्गीय प्रभाष जोशी जैसे निर्भीक कलमवीरों की बुलंद आवाज ने अपना असर दिखाया और देश की प्रेस परिषद ने दूध का दूध और पानी का पानी करने की कोशिश भी की और कदम भी बढाये पर अंतत: वही हुआ जो अभी तक होता आया है...।प्रेस परिषद ने सचाई की तह में जाकर जो रिपोर्ट तैयार की उसे मीडिया के धनपशुओं ने सामने आने ही नहीं दिया। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ मीडिया के धनबलियों को यह बात रास नहीं आयी कि वे बेपर्दा हों। पढे-लिखे संपादकों और पत्रकारों को अपने इशारों पर नचाने वाले धनासेठ अखबार मालिक अपने पक्ष में रिपोर्ट चाहते थे। बबूल का पेड बोने के बाद आम की चाह अखबारी जगत के उस चेहरे को उजागर कर गयी जिसने बेहद मायावी भ्रमजाल बुन रखा है। इस मायावी भ्रमजाल को बुनने में अकेले मीडिया के महारथियों के हाथ ही नहीं रंगे हुए हैं। दरअसल लोकतंत्र में कोई भी अकेला अपने बलबूते पर मनमाने तरीके से किसी की खाल नहीं नोच सकता। यह देश राजनेताओं के हिसाब से चलता चला आ रहा है। नेता देने वाले हैं और अखबार वाले लेने वाले। कोई भी लेन-देन आपसी रजामंदी पर टिका होता है। लेन-देन में जब गडबडी और वादा खिलाफी होती हे तो बात बिगड ही जाया करती है। लोकसभा के चुनाव हों या विधानसभाओं के पिछले कुछ वर्षों से निरंतर अखबारों और नेताओं का गठजोड खबरों में छाया रहा है। आंध्रप्रदेश में लोकसत्ता पार्टी के एक प्रत्याशी ने प्रेस परिषद के समक्ष अपना रोना रोते हुए कहा कि तेलगू अखबार इनाडु ने उनके पक्ष में खबर छापने के लिए एक लाख रुपये की मांग की थी पर उन्होंने पचास हजार में सौदा पटाकर अपना काम निकलवाया। यह महाशय रिश्वत देने का संगीन अपराध कर यकीनन सस्ते में छूट गये।महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश और बिहार में तो लोकसभा का चुनाव लडने वालों को करोडों से हाथ धोना प‹डा। फिर भी कइयो के हिस्से में पराजय आयी। जो जीत गये उन्होंने मीडिया का भी अहसान माना। वैसे भी लोकसभा चुनाव वही दिग्गज लडते हैं जिनमें करोडों रुपये फूंकने का दम होता है। उन्हें यह भी पता होता है कि मतदाताओं को रिझाने के लिए दारु, साडी, कंबल, दरी-चादर के साथ अखबार वालों की भी सेवा करनी प‹डती है। चूंकि वर्तमान में देश के अधिकांश अखबार ऐसे बडे-बडे उद्योगपतियों और पूंजीपतियों के द्वारा चलाये जा रहे हैं जिन्हें जितना मिले कम है। इनके लिए हर चुनाव ईद और दिवाली होता है। बैठे-बिठाये करोडों के वारे न्यारे हो जाते हैं। तय है कि यह सारा खेल उनकी बदौलत होता हे जिन्हें हम और आप नेता और राजनेता कहते हैं। इनमें से बहुतेरे तो पुराने खिलाडी होते हैं। जिन्हें कोई भी चुनाव जीतने में महारत हासिल होती है। इनके पास गुंडे बदमाशों की भीड के साथ-साथ पत्रकारों की वो जमात भी होती है जिसका यह दावा होता है कि वह जिसके पक्ष में कलम चलायेगी वह चुनाव जीत ही जायेगा। देश के कई अखबार ऐसे हैं जिन पर पार्टी और नेता विशेष का ठप्पा लगा हुआ है। पाठक भी जानते समझते हैं कि अमुक अखबार किस नेता और पूंजीपति के हाथों बिका हुआ हैं। इसलिए जो बुद्धिजीवी पाठकों को बेवकूफ समझते हैं वे कृपया अपनी भूल को सुधार लें। देश की तीस से अधिक पत्रिकाओं के प्रकाशक, मालिक और संपादक श्री परेश नाथ जो कि भारतीय भाषाई समाचार पत्र संघटन के अध्यक्ष भी हैं जब यह कहते हैं कि पेड न्यूज का मामला पाठकों पर छोड देना चाहिए तो गलत नहीं कहते। पाठक अंधा नहीं है। वह सब कुछ देख-समझ रहा है। उसे भी अपना फैसला लेना आता है। कुछ कलमबाज इस भ्रम में हैं या जानबूझ कर भ्रम पैदा कर रहे हैं कि सजग पाठकों को खबरों और विज्ञापनों में फर्क करना नहीं आता। पाठकों को उल्लू समझने वाले तथाकथित विद्धान जो इन दिनों उचक-उचक कर बयानबाजी कर रहे हैं और पेड न्यूज को पत्रकारिता का कैंसर बता रहे हैं उनसे कोई यह भी तो पूछे कि श्रीमानजी अभी तक आप कहां थे? इस महामारी ने तो सन २००४ में ही अपनी जबरदस्त जडे फैला दी थीं। उससे पहले भी धनासेठों के अखबारों में राजनेताओं, उद्योगपतियों और माफियाओं की आरती गाकर उन्हें खुश किया जाता था। यह काम मुफ्त में तो नहीं होता था। वैसे यह काम आज भी होता है। सवाल यह है कि बडे-बडे अखबारों में जो तथाकथित बुद्धिजीवी संपादक लाखों की तनख्वाह लेकर कम करते आये हैं उनकी बुद्धि कहां घास चरती रहती है? आज तक यह सुनने में नहीं आया है कि किसी संपादक ने पेड न्यूज के विरोध में आवाज बुलंद की हो और अपनी नौकरी पर लात मारी हो। लाखों रुपये की तनख्वाह पर ऐश करने वालों को होश तब आता है जब वे नौकरी से हाथ धो बैठते हैं। देश के अधिकांश सुजान और महान पत्रकारों की भी यही हालत है। यह चिल्लाते तब हैं जब इन पर आती है। वर्ना रजाई ओढकर घी पीते रहते हैं। जिस दिन इस देश में दस-बीस प्रभाष जोशी पैदा हो जाएंगे उस दिन मीडिया का चेहरा अपने आप बदल जायेगा। पर क्या आपको ऐसा लगता है कि ऐसा हो पायेगा?
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sampadak naam ki prajaati ab dalal ho gai hai. isiliye malamal ho gai hai. ab patrakaaritaa nahi rahi. yah vyavasaay hai. aur dhandhe mey sab chalataa hai. yah naye daur ka cheharaa hai. dukhad hai,lekin sachchai yahi hai
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