Thursday, May 6, 2010

खबर पर बवाल!

महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर को संतरा नगरी भी कहा जाता है। यहां के संतरे बहुत दूर-दूर तक अपनी मिठास पहुंचाते हैं। पिछले कुछ वर्षों में शहर ने पत्रकारिता के मामले में कुछ ऐसी तरक्की की है कि इस शहर को अखबारों का शहर भी कहा जाने लगा है। अखबारों के इसी शहर में हाल ही में एक खबर को लेकर हंगामा बरपा हो गया। वैसे हंगामें अक्सर कई चेहरों की नैय्या भी पार लगा दिया करते हैं। हंगामे करने वालों का अपना मकसद भी होता है। हंगामें के पीछे की राजनीति को समझ पाना भी आसान नहीं होता...। बीते सप्ताह शहर में नये-नये जन्मे दैनिक १८५७ को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के बारे में एक सनसनी खेज खबर छापने की सजा के तौर पर ‘आग‘ की तपिश झेलने को विवश होना पडा। कांग्रेस ओर राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं का आक्रोश संभाले नहीं संभल पा रहा था। किसी ने इस अखबार के संपादक को भ्रष्ट बुद्धि का बताया तो किसी ने इस अखबार को फौरन बंद करवाने तक की मांग कर डाली। शिवसेना से कांग्रेस में आये एक बापू भक्त का गुस्सा तो आसमान को छूने को बेताब था। उन्होंने अपनी तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए यहां तक कह डाला कि ऐसे पत्रकार-संपादक को देश से ही खदेड दिया जाना चाहिए। उनके अखबार का रजिस्ट्रेशन रद्द कर उन्हें फौरन तडीपार कर दिया जाए। अगर मेरा बस चले तो मैं दैनिक १८५७ के कार्यालय में जाकर इस संपादक का काम ही तमाम कर दूं। न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी। शहर के नेताओं के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र के कुछ विद्वानों को भी इस खबर ने ठेस पहुंचायी। उनका निष्कर्ष था कि अपने अखबार का सर्कुलेशन बढाने के लिए एक घटिया रास्ता अपनाया गया है। महात्मा गांधी अि‍हंसा के पुजारी थे। पूरा विश्व उन्हें महामानव के रूप में जानता-पहचानता और मानता है पर यह बात एक अखबार के संपादक की समझ में नहीं आयी! उन्होंने अपने स्तर से गिरते हुए एक ऐसी हरकत कर डाली जिसकी जितनी ि‍नंदा‍ की जाए कम है...।भरे चौराहे पर दैनिक १८५७ की प्रतियां जलाने के बाद कांग्रेस और राष्ट्रवादी पार्टी के नेताओं और कुछ बुद्धिजीवियों को कितनी तसल्ली और शांति मिली ये तो वे ही जानें। परंतु यह तो स्पष्ट हो ही गया है कि जिस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का ढि‍ढोरा पीटा जाता है वहीं पर कलम के मुकाबले तलवारे तनने में भी देरी नहीं लगती। हां यह सौ फीसदी सच है कि दैनिक १८५७ में महात्मा गांधी को लेकर जो हंगामा बरपाने वाली खबर छपी वह कोई खोजी और मौलिक खबर नहीं थी। भडास४मीडिया.कॉम में यह खबर पहले ही आ चुकी थी। जिसका शीर्षक था ‘गांधी की सेक्स लाइफ'। १८५७ में जब यह खबर छपी तो इसका शीर्षक था ‘महिलाओं के साथ नग्न स्नान करते थे गांधीजी' पर सामग्री वही की वही थी। लगता है नया शीर्षक ही हंगामा बरपाने का काम कर गया...। मशहूर ब्रिटिश इतिहासकार जैड ऐडम्स ने पंद्रह साल के अध्यन्न और शोध के बाद ‘गांधी नैक्ड ऐंबिशन' नामक किताब लिखी है। उसी किताब में मोहनचंद करमचंद गांधी के महात्मा बनने के सफर का वर्णन किया गया है। दरअसल किताब में नया कुछ भी नहीं है। महात्मा गांधी के जीवन में आयी विभिन्न महिलाओं से उनके रिश्तों का जिक्र कुछ इस ढंग से किया गया है कि किसी भी सच्चे गांधीवादी को पीडा हो सकती है। किताब में विदेशी लेखक ने यह दावा किया है सेक्स के जरिये गांधी स्वयं को आध्यात्मिक रूप से शुद्ध और परिष्कृत करने की कोशिशों में ऐसा कुछ कर गुजरे कि विवादास्पद हो गये। महात्मा गांधी के कृतित्व और चरित्र पर हंसराज रहबर ने भी ‘गांधी बेनकाब' जैसी किताब लिख कर वो सच सामने लाने का साहस किया था जिसे राजनीति के खिलाडि‍यों ने हमेशा दबाये रखने की चालें चलीं। क्या यह सच नहीं है कि हम लोग जिसे संत और देवता मान लेते हैं उसकी बुराई सुनना भी कतई पसंद नहीं करते? अहि‍सा के प्रणेता राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को अपना आदर्श मानने वालों की संख्या जहां करोडों में है वहीं उनको अस्वीकारने वाले भी हैं जिनके लिए बापू ‘आदर्श' नहीं हैं। यह तो अपनी-अपनी सोच है। मन की भावना है। यह दुनिया ऐसे ही चलती आयी है। पत्रकारिता का अपना धर्म होता है। खबर को सामने लाना और सच से साक्षात्कार कराना उसका पहला कर्तव्य भी है और दायित्व भी। सच कई बार कडवा भी होता है। दैनिक १८५७ के संपादक श्री एस.एन.विनोद ने महात्मा गांधी के सेक्स जीवन के बारे में छप चुकी खबर को अपने अखबार में फिर से छापकर ऐसा कोई संगीन अपराध नहीं किया है कि उन्हें तडीपार कर दिया जाए। मुंबई, दिल्ली, हैदराबाद, रायपुर के नेताओं और बुद्धिजीवियों ने भी यह खबर जरूर पडी होगी। पर वहां कोई हंगामा नहीं हुआ। नागपुर शहर ने इस मामले से यकीनन बाजी मार ली है...! यहां पर यह बताना भी जरूरी है कि विनोद जी कोई नये नवेले पत्रकार नहीं हैं कि जिनका हंगामा खडा करने का मकसद रहा हो। उन्होंने एक तरह से अपना पत्रकारीय दायित्व निभाया है और लोगों को जगाया है। किसी विदेशी को हमारे देश की विभूति पर छींटाकसी करने का अधिकार क्यों कैसे मिल जाता है...। विदेशी लेखक द्वारा बापू पर लिखी गयी किताब पर प्रतिबंध लगाने की उनकी मंशा पर शंका व्यक्त करना जायज नहीं है। वे वर्षों तक देश के सम्मानित दैनिक समाचार पत्रों और पत्रिकाओं का संपादन कर चुके हैं। हाल ही में उन्होंने खुद का अखबार प्रारंभ किया है। पत्रकारिता के क्षेत्र में उन्हें अपना आदर्श मानने वालों की भी अच्छी-खासी संख्या है। ऐसे तपे हुए पत्रकार को कटघरे में खडा करने से पहले जिस सचेतना की जरूरत थी उसका नदारद रहना यकीनन एक जुझारु और लडाकू कलम के सिपाही को पीडा पहुंचाता रहेगा।

1 comment:

  1. bahut sahi likha. vinod ji ne kuchh galat nahi kiya. aklhbaar kaa kaam hai jankaari dena. ek kitaab aayi to vinod ji ne usake baare mey bataayaa ki usame gandhi ke baare mey ye sab likh hai. vinod ji ne to nahi likha. abhivyakti kaa adhikar bhi kyaa ye 'sainik'' le lenge. had hai dadageeree ki. apne patrakarita ki asmitaa ko bachane ki koshish ki, is hetu badhai.

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