Thursday, November 18, 2010
कुछ तो शर्म करो...
''आज से बीस साल पहले नितिन गडकरी लूना पर चलते थे और आज उनके पास अरबों-खरबों की संपत्ति है। आखिर यह अपार दौलत कहां से आयी?''यह सवाल उठाया है कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने। जवाब देना है उस नितिन गडकरी को जो वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और संघ के दुलारे हैं। वैसे यह बात सबको पता है कि ऐसे सवालों के जवाब कभी भी सामने नहीं आ पाते। तेरी भी चुप मेरी भी चुप की परंपरा को निभाने में विश्वास रखने वाले भारतीय नेताओं की तंद्रा तब भंग होती है जब कोई उन्हें उकसाता और उचकाता है। अगर गडकरी ने कामनवेल्थ खेलों की तैयारियों में हुई धांधलियों में राहुल गांधी के सचिव कनिष्क सिंह का नाम न लपेटा होता तो दिग्गी राजा इतना मारक तीर कतई न छोडते।वैसे यह तथ्य भी काबिले गौर है कि नितिन गडकरी भाजपा के पहले अध्यक्ष हैं जिनपर सीधे तौर पर तरह-तरह के आरोप लगते चले आ रहे हैं। भाजपा और संघ में अंदर ही अंदर चिंता घर करती चली जा रही है कि इस 'विवादवीर' अध्यक्ष की किस तरह से रक्षा की जाए। अभी तक उन जैसा कोई दूसरा अध्यक्ष नहीं हुआ जिस पर इस तरह के तीखे सवाल दागने के साथ-साथ बेहद संगीन आरोप लगाये गये हों। दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे विचारवान नेताओं के खून पसीने से जिस भाजपा पार्टी की नींव पुख्ता की गयी उसी पार्टी के अध्यक्ष का इस तरह के सवालों से घिरना पार्टी के अच्छे भविष्य के संकेत नहीं दे रहा है।वैसे भाजपा की साख की तो उसी दिन काफी हद तक मिट्टी पलीत हो गयी थी जब कुछ वर्ष पहले तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण एक लाख रुपये की गड्डी लेते हुए धरे गये थे। बंगारू लक्ष्मण आज कहां हैं इसका पता लगाने के लिए मुनादी करानी पडेगी। अब रही बात दिग्गी राजा के द्वारा दागे गये सवाल की तो इसका उत्तर सर्वविदित है। सत्ता में आते ही नेताओं की तिजोरियां अपने आप ही लबालब हो जाती हैं और कुछ ही वर्षों में वे इतने मालदार हो जाते हैं कि धन-दौलत के मामले में बडे-बडे उद्योगपति भी उनके सामने बौने नजर आते हैं। दिग्गी राजा स्वयं दस वर्ष तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और गडकरी भी महाराष्ट्र के सार्वजनिक बांधकाम मंत्री के पद पर शोभायमान होने का भरपूर अवसर पा चुके हैं। हाल ही में देश के विख्यात उद्योगपति रतन टाटा ने डंके की चोट पर कहा है कि कुछ वर्ष पूर्व उनका टाटा समूह देश में सिंगापुर एयरलाइंस के साथ एक हवाई सेवा शुरू करने की तैयारी को अमलीजामा इसलिए नहीं पहना पाया क्योंकि उन्होंने तत्कालीन उड्डयन मंत्री द्वारा मांगी गयी १५ करोड की रिश्वत देने से इंकार कर दिया था। रतन टाटा ने देश पर राज करने वाले लोकतंत्र के प्रहरियों की वो शर्मनाम सच्चाई बयां की है जिससे आज देश फिर से एक बार शर्मिंदा हुआ है। कॉमनवेल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला, स्पेक्ट्रम घोटाला, घोटाले पर घोटाला और बेचारा हिंदुस्तान...। हर तरफ से निचोडे जा रहे हिंदुस्तान में किसी एक को आप दोष नहीं दे सकते। ऐसा करेंगे तो कटघरे में खडे कर दिये जाएंगे। जिस पार्टी ने भी सत्ता सुख भोगा उसने जी भरकर मलायी खायी। वर्षों से यह दस्तूर चला आ रहा है। इस महारोग से कौन सी पार्टी और राजनेता अछूते हैं पहले देशवासियों के समक्ष उसका खुलासा किया जाए तो बात बनेगी। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के तमाशों से लोग तंग आ चुके हैं। स्वर्गीय राजीव गांधी तो ६४ करोड के बोफोर्स घोटाले में लपेटे गये थे पर आज तो ऐसे 'राजा' भी हैं जिन पर एक लाख छिहतर हजार करोड के घापे का आरोप लगा है पर फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। बोफोर्स घोटाला लगभग इक्कीस वर्ष पूर्व गूंजा था। इस धमाकेदार गूंज ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सत्ता से बेदखल तो किया ही था साथ ही उनकी छवि पर भी ऐसे गहरे दाग लगाये थे कि जो अभी तक नहीं धुल पाये हैं। इन इक्कीस सालों में भ्रष्टाचारी दानवों के हौसले इतने अधिक बढ गये हैं कि सौ-दो सौ करोड इनके लिए कोई मायने नहीं रखते। हजार-पांच हजार करोड से बात बढते-बढते पौने दो हजार करोड तक आ पहुंची है। कहां वो ६४ करोड और कहां यह एक लाख ७६ हजार करोड!... कोई नहीं जानता कि भ्रष्टाचार के ये आकाश छूते आंकडे कहां पर जाकर थमेंगे, क्योंकि देने वालों के हौसले और लेने वालों की भूख बढती ही चली जा रही है। इस देश में सभी रतन टाटा नहीं हैं जो रिश्वत देने से इंकार कर दें। जिसमें रिश्वत देने का दम होता है उसे 'अंबानी' बनने में देरी नहीं लगती। धीरुभाई अंबानी ने अगर नौकरशाहों और सत्ताधीशों की तिजोरियां न भरी होतीं तो उनका अरबों-खरबों का साम्राज्य कहीं नजर नहीं आता। देश में ऐसे उद्योगपतियों, खनिज माफियाओं, भूमाफियाओं, शिक्षा माफियाओं और अराजक तत्वों की भरमार है जो सत्ता के गलियारों में रिश्वत की मालाएं हाथ में थामे घूमते रहते हैं और येन-केन-प्रकारेण अपना काम करवा कर ही दम लेते हैं। राजनेताओं के साथ-साथ दलालों और नौकरशाहों के भी यहां मजे ही मजे हैं। देश के एक चिंतक जिन्होंने मंत्रियों और संत्रियों के चाल-चरित्र और परंपरागत व्यवहार का गहन अध्यन किया है, का स्पष्ट आकलन है कि घुटे हुए नौकरशाह ही अक्सर मंत्रियों को भ्रष्टाचार के मार्ग सुझाते हैं और भ्रष्टाचार के अरबों-खरबों के इस लूट के खेल में अंतत: दमदार मंत्रियों के हिस्से में पच्चीस से तीस प्रतिशत काला धन आता है और बाकी मलाई अफसर मिल बांटकर हजम कर जाते हैं। यह आकलन सही भी लगता है क्योंकि अपने देश में चपरासी, बाबू और अफसर बिना मुट्टी गर्म किये कोई भी फाइल आगे नहीं बढने देते। ऐसे में यह भी सोचने और समझने का मुद्दा है कि जब इस देश में भ्रष्टाचारी नेताओं की तिजोरियों में हजारों करोड भरे पडे हैं तो भ्रष्ट अफसरों के यहां कितना खजाना होगा...। ऐसे तंत्र-मंत्र और स्वतंत्र खेल में दिग्विजय सिंह का प्रश्न कोई पहेली तो नहीं है फिर पता नहीं क्यों वे पहेलियां बुझाने का नाटक कर रहे हैं और देशवासियों को भरमा रहे हैं!
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