Wednesday, November 3, 2010

कौन सुलगाएगा बुझी हुई बाती?

राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, सत्ता के दलालों और चम्मचों के जमावडे के गठजोड ने देश को निगल जाने की ठान ली है। भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार, घोटालों पर घोटाले करते चले जाने में अब इन्हें कतई शर्म नहीं आती। हद दर्जे की निर्लज्जता इनकी नस-नस में समा गयी है। कफनचोरों को भी मात देने लगे हैं यह। आज यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि इस देश में कुछ ही ऐसे नेता होंगे, जिनका लक्ष्य वास्तव में देश सेवा है। ऐसे नीयतखोरों की भीड बढती ही चली जा रही है, जो देश के हित के लिए राजनीति में नहीं आये हैं। अपने घर-परिवार और अपने चहेतों के लिए राजनीति के डंके बजाना ही इनके जीवन का मूलमंत्र है। इसलिए इन्हें हमेशा देश को लूटने-खसोटने के मौकों की तलाश रहती है। देश में ईमानदारों का इतना अकाल पड जायेगा और भ्रष्टाचारियों की इतनी अधिक तादाद बढ जायेगी इसकी तो किसी ने भी कल्पना नहीं की थी। ऊपर से नीचे तक सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे साबित हो रहे हैं। देश में जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब समाजवादी जार्ज फर्नाडीस देश के रक्षा मंत्री थे। उन्होंने तब करोडों के ताबूत घोटाले को अंजाम देकर भारत माता का सर शर्म से झुकाया था। तब एकबारगी यह भी लगा था कि देश में इस किस्म के कफन चोर अपवाद स्वरूप होंगे। पर बीते सप्ताह महाराष्ट्र में जैसे ही कारगिल के शहीदों के परिजनों को मकान उपलब्ध कराने के लिए बनायी गयी आदर्श हाऊसिं‍ग सोसायटी का घोटाला सामने आया तो यकीन हो गया कि देश में ऐसे बहुतेरे कफन चोर हैं जिनका कोई ईमान-धर्म नहीं है। यह कितनी शर्म की बात है कि शहीदों के परिवार वालों को फ्लैट उपलब्ध कराने के लिए बहुमूल्य रक्षा भूमि ली गयी और फ्लैटों की आपस में बंदरबांट कर ली राजनेताओं, नौकरशाहों और सेवा निवृत्त सैन्य अधिकारियों ने। इन ठग और लूटेरों में जब प्रदेश के मुखिया अशोक चव्हाण का नाम उजागर हुआ तो हडकंप मच गया। इस तरह के दिखावटी हडकंप अक्सर मचते रहते हैं। यह कोई नयी बात नहीं है। जब से देश आजाद हुआ है तभी से इस किस्म की लूटमार चलती चली आ रही है। जो पकड में आ जाता है वही चोर कहलाता है। चोर-चोर का शोर मचाने वाले कितने पाक-साफ हैं इसकी खबर भी देशवासियों को है। पर बेचारे आखिर करें तो क्या करें! उनके हाथ में कुछ भी तो नहीं है।वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब यह सारा देश कुछ भ्रष्टतम उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों का बंधक बन कर रह जायेगा। हो सकता है कि कुछ पाठकों को मेरी यह सोच अविश्वसनीय लगे और उनका मन आहत हो पर यही कडवा सच है। अगर वक्त रहते हम सब देशवासी नहीं जागे तो यह कडवा सच एक ऐसे विष में तब्दील हो जायेगा कि खुली हवा में सांस लेना दूभर हो जायेगा। सोचिए, चिं‍तन कीजिए कि देश का ऐसा कौन-सा प्रदेश है जहां राम राज्य चल रहा हो। राम के नाम पर सत्ता हथियाने वाली भारतीय जनता पार्टी की मध्यप्रदेश में सरकार है। यह सरकार उद्योगपतियों को सरकारी जमीन कौडिं‍यों के दाम ऐसे बांट रही है कि हाथ में आया मौका कहीं चूक न जाए। छत्तीसगढ में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। भाजपा का ऐसा कोई नेता नहीं बचा जिसने बहती गंगा में हाथ न धोए हों। छापे पर छापे पड रहे हैं। कल के छुटभैयों के यहां करोडों का काला धन बरामद हो रहा है।जो लोग सत्ता के करीब हैं, सत्ता के दलाल हैं इस लोकतंत्र में वही खुशनसीब हैं। देश और प्रदेशों की बेशकीमती सरकारी जमीन, मूल्यवान वनोपज, खनिज पदार्थ और राष्ट्र की तमाम धन दौलत इनकी खानदानी जागीर बन चुकी है। सत्ता पर काबिज राजनेताओं के चम्मचे, चेले-चपाटे जिस तरह से सरकारी ठेके हथिया रहे हैं और धांधलियां कर रहे हैं उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि इन्हें 'आका' का मूक समर्थन हासिल है। जितना दम है लूट लो। हाथ आये मौके का पूरा फायदा उठा लो। इनसे कोई यह कहने की हिम्मत भी नहीं करता कि कुछ तो शर्म करो। इतनी नीचता मत दिखाओ। जनता के जिस वोट से सिं‍हासन पर पहुंचे हो उसका भी तो कुछ ख्याल करो। अगर सत्ताधीशों ने आम जनता की चिं‍ता की होती तो आज देश के इतने बदतर हालात कतई न होते। एक तरफ आकाश को छूने को आतुर अट्टालिकाओं की कतार है जहां रोशनी ही रोशनी है और इन्हीं आलीशान अट्टालिकाओं के मध्य में ऐसी झुग्गी-झोपडिं‍यों की भरमार है जहां पर इंसान जानवरों से भी बदतर जीवन जीते हैं। अंधेरा इतना कि सूरज की किरणें तक नहीं पहुंच पातीं। ऐसा लगता है कि रोशनी का कहीं रास्ते में ही अपहरण कर लिया गया है। त्योहारों के देश में त्योहारों का इतना बाजारीकरण करके रख दिया गया है कि जिनकी जेबें भरी हैं उनके लिए रोज दिवाली है और धनहीनों के लिए दीपावली हो या फिर कोई भी त्योहार अपनी बदहाली और गरीबी पर मातम मनाने के अवसर के अलावा और कुछ नहीं। यह हालात बने नहीं बनाये गये हैं उन शातिर और शैतान सोच के सफेदपोश चेहरों के द्वारा जो पूरा समुंदर खुद ही पी जाना चाहते हैं। देश में रच-बस चुकी असमानता की खाई को भरने और हर दहलीज तक उजियारा पहुंचाने की बातें तो बहुतेरे करते हैं पर उस परिवर्तन का कहीं अता-पता नहीं दिखता जिसकी आज देश के करोडों लोगों को बेहद जरूरत है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को देश की वर्तमान हालत को देखकर बहुत पीडा और चिं‍ता (?) होती है और वे आह्वान करते हैं:
'आओ फिर से दीया जलाएं
भरी दोपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोडें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दीया जलाएं।'
अटल जी की कविता की उपरोक्त पंक्तियां पढ कर यह आभास तो होता है कि वे देश के हालात को बदलना चाहते हैं। पर...। देश की जनता ने तो उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान करवा कर बहुत कुछ कर गुजरने का पूरा अवसर मुहैया करवाया था पर वे ही थे जो कुछ नहीं कर पाये! आखिर किस से बुझी बाती सुलगाने, दीया जलाने और अंधियारा भगाने की उम्मीद की जाए?

1 comment:

  1. sundar vichaar.. miljulkar deep jalanaa hai. bharat nayaa banaanaa hai..

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