Thursday, November 25, 2010

यह जो जिं‍दगी की किताब है...

घोर नाउम्मीदी के दौर में भी जब कोई आशा के दीप जलाता है तो उसे बार-बार नमन करने को मन चाहता है। किसी कवि की कविता का सार है कि अभी इस दुनिया में बहुत कुछ बाकी है। पूरी तरह से निराशा का दामन थामने की कतई जरूरत नहीं है। सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। अभी हाल ही शहर में आयोजित एक पुरस्कार वितरण समारोह में एक ऐसे शख्स से साक्षात्कार हुआ जिनका नाम जिम्मी राणा है। जिम्मी राणा 'दिनशॉ' के मालिक हैं। करोडों की दौलत उनके कदम चूमती है। दिनशॉ दूध, दही और आईस्क्रीम के साथ वर्षों पुरानी साख और पहचान जुडी हुई है। सनराईज पीस मिशन के द्वारा जिम्मी राणा को जब पुरस्कार देने की घोषणा की गयी तो बहुतेरे लोगों की तरह मेरे मन में भी यही विचार आया कि उन्हें व्यापार धंधे की उपलब्धियों के कारण सनराईस पीस अवार्ड से नवाजा जा रहा है। वैसे भी आजकल मालदार उद्योगपतियों को मंचों पर बैठाकर सम्मानित करने का फैशन-सा चल प‹डा है। पर जब मैंने जिम्मी राणा को पुरस्कृत करने की असली वजह जानी तो मैं स्तब्ध रह गया।जिम्मी राणा इंसानियत के धर्म को निभाते हुए उन लोगों के जख्मों पर मलहम लगाते हैं जिनके पास अपना कोई आसरा नहीं है। न जाने कितने ऐसे अभागे मरीज होते हैं जिनकी बीमारी लाइलाज हो जाती है और घर-परिवार और रिश्तेदार भी मुंह मोड लेते हैं। उनके लिए जिम्मी राणा मसीहा हैं। जानलेवा रोग से आहत और अपनों से ठुकराये जरूरतमंदों के लिए उन्होंने स्नेहांचल होस्पाईस की स्थापना की है। यह एक पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट है। हजारों फीट क्षेत्रफल में फैले स्नेहांचल में कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों का बडी आत्मीयता के साथ इलाज किया जाता है। कई मरीज ऐसे भी होते हैं जिन के परिवारों की आर्थिक स्थिति इस काबिल नहीं होती कि उनका समुचित इलाज करवा सकें। उनके लिए स्नेहांचल के द्वार हमेशा खुले रहते हैं। ऐसे भी अनेकों रोगी होते हैं जिनका इलाज करने में बडे-बडे अस्पताल असमर्थता जताते हुए घर का रास्ता दिखा देते हैं तो उन्हें भी यहां पनाह दी जाती है। स्नेहांचल में गंभीर मरीजों का इलाज ही नहीं किया जाता बल्कि उनके सोये हुए आत्मबल और आशा को भी जगाया जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों में जो निराशा और हताशा घर कर जाती है उससे मुक्ति दिलाने के लिए भावनात्मक सुरक्षा, आत्मीयता और स्नेह की इतनी वर्षा की जाती है कि रोगी को चिरनिद्रा में सोने और जीवन को खोने का कोई मलाल नहीं होता। यानि स्नेहांचल में हंसते-खेलते हुए मृत्यु की गोद में समाने का पाठ भी पढाया जाता है। मानव सेवा के इस अद्वितिय कार्य के लिए जिम्मी राणा अपना सब कुछ समर्पित कर चुके हैं। उन्हें दुखियारों को स्नेह से सराबोर करने में अभूतपूर्व सुकून मिलता है। ऐसे महामानव को आप भी जरूर सलाम करना चाहेंगे...।जब जिम्मी राणा की बात चली है तो मुझे नारायण कृष्णन की याद आ रही है। २९ वर्षीय नारायण उन सैकडों लोगों को नियमित भरपेट खाना खिलाते हैं जो लाचार हैं, असहाय हैं और काम करने में असमर्थ हैं। विक्षिप्तों की अवहेलना और भूख भी उनसे देखी नहीं जाती। नारायण बेंगलुरू के निवासी हैं। एक फाइव स्टार होटल में हजारों रुपये के पगार वाली नौकरी करने वाले इस नौजवान को स्विटजरलैंड के एक आलीशन होटल में काम करने का न्योता मिला था। तय है कि उन्हें तनख्वाह के रूप में लाखों रुपये मिलने जा रहे थे। उन्होंने देश छोड विदेश जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। बेंगलुरू से दिल्ली जा कर स्विटजरलैंड की फ्लाइट पकडने के बजाय उन्होंने एक दूसरी ही राह पकड ली जो प्रारंभ में तो उनके पिता को कतई रास नहीं आयी। पिता ने पुत्र को लेकर कई सपने सजा रखे थे जो एक ही झटके में धरे के धरे रह गये। हुआ यूं कि कुछ दिन पहले नारायण शहर में घूमने निकले थे। उन्होंने रास्ते में कुछ विक्षिप्त लोगों को कचरे के ढेर में से खाना ढूंढकर खाते हुए देखा तो उनका दिल भर आया। इतनी गरीबी और ऐसी विवशता कि इंसान को अपने पेट की आग को ठंडा करने के लिए गदंगी का सहारा लेना पडे! ये भी इंसान हैं और वो भी इंसान हैं जो लजीज खाने का हलका-सा स्वाद लेकर जूठन फेंक देते हैं। यह हमारी ही दुनिया है जहां पर करोडों लोग भूखे सोते हैं। दो वक्त की रोटी मिलना हर किसी के नसीब में नहीं है। पर यह कैसा नसीब है, कैसी दुनिया है और कैसे-कैसे लोग हैं! नारायण ने उसी दिन, उसी वक्त तय कर लिया कि वे कहीं नहीं जाएंगे। भुखमरी के शिकार लोगों के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे। उन्होंने होटल की लगी-लगायी नौकरी को भी लात मार दी और फिर उस जनसेवी अभियान में लग गये जो भूख से बिलबिलाते निरीह लोगों को देखने के बाद उनके दिल में जागा था। उन्होंने रेस्तरां से ढेरों खाना खरीदकर विक्षिप्तों और असहाय लोगों को खिलाना शुरू कर दिया। कोई और होता तो पांच सात दिन में उसके हौसले ठंडे पड जाते। पर नारायण तो किसी और ही मिट्टी के बने हैं।लोग उन्हें सनकी कहने लगे। पिता को भी यह पुत्र इतना खटकने लगा कि उनके मन में भी नफरत ने जगह ले ली। नारायण तो ठान चुके थे। उन्होंने किसी की कोई परवाह नहीं की। बैंक बैलेंस भी जीरो हो गया पर अपने तयशुदा लक्ष्य से कतई नहीं डगमगाये। धीरे-धीरे जब दोस्तों और करीबियों को उनके अभियान की खबर लगी तो वे भी उनके साथ जुडने लगे। हर रोज होटलों से भोजन खरीद कर जरूरतमंदों को उपलब्ध कराना आसान नहीं था। कहते हैं न कि 'जहां चाह होती है वहां राह भी निकल ही आती है।' नारायण के पिता भले ही बेटे के अन्नदाता होने से खफा रहे हों पर मां ने कभी भी बेटे के प्रति नाराजगी नहीं दिखायी। उन्होंने तो बेटे को खाना बनाने के लिए वो पुश्तैनी मकान भी सहर्ष सौंप दिया जो वर्षों से खाली पडा था। होटलों के बजाय अब इसी मकान में खाना बनने लगा। नारायण के हौसले और बुलंद होते चले गये। वे शुरू में तो अकेले ही चले थे पर आज उनका साथ देने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। उन्होंने दोस्तों की मदद से 'अक्षय' नामक संस्था की स्थापना कर ली है। इस संस्था के क्रियाकलापों से जो भी सज्जन वाकिफ होते हैं वे सहायता का हाथ बढा ही देते हैं। पुत्र की जब चारों तरफ तारीफें होने लगीं तो पिता की नाराजगी भी जाती रही। अब तो पिता भी बेटे के साथ भोजन के पैकेट थामकर सुबह-शाम भिखारियों की तलाश में निकल पडते हैं। अब नारायण की ख्याति सात समंदर पार भी जा पहुंची है तभी तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय संस्था सीएनएन ने समाज सेवा के लिए पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है। नारायण कृष्णन पहले भारतीय हैं जिन्हें इस अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जा रहा है...। यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मान उन जुनूनी समाज सेवकों को मिलता है जो बिना किसी दिखावे और प्रचार-प्रसार के सच्चे मन से दुखियारों की सेवा में लगे रहते हैं। हर आदमी का जीवन एक किताब होता है। इस दुनिया में हजारों करोड लोग रहते हैं। अपनी-अपनी जिं‍दगी की किताब हर कोई लिखता है पर हर किसी की किताब पढने लायक नहीं होती। जिम्मी राणा और नारायण कृष्णन जैसे मानवता के पुजारियों की किताब की बात ही कुछ और होती है। इसलिए इस किताब को सभी बार-बार पढना चाहते हैं। इस लाजवाब किताब के पन्ने खुद-ब-खुद खुलते चले जाते हैं। जबकि दीगर किताबों को लोग हाथ लगाना तो दूर देखना तक पसंद नहीं करते...।

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