Thursday, February 3, 2011

बौद्ध धर्मगुरु करमापा का मायाजाल

इस भारतवर्ष में साधु-संन्यासी का चोला धारण कर छलने वालों के मायावी संसार का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने में यह कलम खुद को असहाय पा रही है। लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने का यह खेल पता नहीं कब और कहां जाकर थमेगा! अभी तक तो यह देश अपनी ही धरती के ढोंगियों के दंश झेलता आ रहा था पर अब करमापा की करतूत ने देशवासियों की आंखें खोल कर रख दी हैं। हमें हर किसी पर विश्वास कर लेने की घातक प्रवृत्ति से मुक्ति पानी होगी। अन्यथा बहुत बडा अनर्थ हो सकता है। हम बाहरी मुखौटे धारियों के हाथों बुरी तरह से छले जा सकते हैं।बौद्ध धर्मगुरु करमापा के मठ और कार्यालय से करोडों रुपये की बरामदगी हुई। इस अपार दौलत का उनके पास कोई हिसाब-किताब नहीं मिला। जिस तरह से देशी साधु-संत धर्म के प्रचार का दावा करते हैं वैसे ही करमापा का दायित्व होता है भगवान बुद्ध के आदर्शों का अनुसरण कर उनके विचारों को फैलाना। भगवान बुद्ध मानवता के पुजारी थे। करमापा माया के पुजारी निकले। उनके मठ में मिली छह करोड की विदेशी मुद्रा ने और भी कई सवाल खडे कर दिये। चेहरे पर नकाब ओढकर आनेवाले शरणार्थियों से देश ने अनेकों बार धोखा खाया है। अपनी शरण में आने वालों के प्रति सहानुभूति दर्शाना और उनकी सहायता करना भारतीयों की परंपरा और आदत में शुमार रहा है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जमाने में तिब्बतियों को धर्मशाला शहर में बसाया गया था। वर्षों से शरणार्थी के रूप में रह रहे इन तिब्बतियों के मन में आज भी तिब्बत बसा है और हिं‍दुस्तान का दाना-पानी खाने-पचाने के बाद भी अपने तिब्बत प्रेम की अलख जगाते रहते हैं। शायद ही ऐसा कोई तिब्बती होगा जिसके मन में भारत के प्रति अटूट लगाव की भावना होगी। कांगडा और धर्मशाला जहां तिब्बती वर्षों से डेरा जमाये हैं वहां के मूल निवासियों को इनका व्यवहार कभी रास नहीं आया। अनेकों सजग हिमाचलियों का कहना है कि तिब्बती हर दर्जे के अहसान फरामोश हैं। दलाईलामा के ये चेले जिस तरह से भारत में ऐश-ओ-आराम भरी जिंदगी जी रहे हैं उससे तो इन्हें भारतवर्ष और यहां के निवासियों का शुक्रगुजार होना चाहिए था पर सच्चाई इससे एकदम उलट है। न जाने कितने तिब्बती ऐसे हैं जिनके क्रियाकलाप बेहद संदिग्ध हैं। यही वजह है कि यह लोग स्थानीय लोगों से दूरी बनाये रखते हैं। नजदीकी बनायेंगे तो पकड में आ जाएंगे। पर इनके धर्मगुरु तो पकड में आ गये हैं। शाही जिं‍दगी जीने वाले करमापा भगवान बुद्ध के आदर्शों का किस तरह पालन करते हैं उसका खुलासा भी उनके धन प्रेम ने कर दिया है।करमापा का अतीत विवादों भरा रहा है। वे २००५ में चीन से भागकर भारत आये थे। तब इन पर चीन का एजेंट होने की सुगबुगहाटें भी उभरी थीं, जिन्हें तथाकथित शांतिदूतों ने अनसुना कर दिया गया था। दुनिया जानती है कि भारत के हुक्मरान शुरू से ही बडे उदारवादी रहे हैं। देशवासी भले ही भूखे मर रहे हों पर मेहमाननवाजी का दस्तूर हर हाल में निभाया जाता है। वर्षों पूर्व आये तिब्बती शरणार्थियों की तरह करमापा को भी सिर आंखों पर बैठाया गया। करमापा तब किशोर उम्र के थे। उनको भारत की जमीन पर अठखेलियां करते हुए छह साल हो चुके हैं। इस दौरान उन्होंने करोडों का साम्राज्य भी खडा कर लिया। है न हैरानी की बात...। जब करमापा ने भारत की धरती पर कदम रखा था तभी सरकार को सतर्क हो जाना चाहिए था। गुप्तचर एजेंसियों को काम पर लगा दिया जाना चाहिए था। पर करमापा तो मेहमान थे। मेहमान को कुछ भी कर गुजरने और किसी से भी मिलने-मिलाने की छूट दे दी गयी और उसी का नतीजा आज हमारे सामने है। खाली हाथ आया धर्मगुरु आज अरबों-खरबों में खेल रहा है और अतिथि शिष्टाचार की जंजीर से बंधे सरकारी हाथ दिखाने के तौर पर जिस तरह से धीरे-धीरे खुल रहे हैं उससे यह उम्मीद तो नहीं बंधती कि करमापा के मायाजाल का पूरी तरह से खुलासा हो पायेगा। करमापा के संदिग्ध मायाजाल ने यह संदेश तो दे ही दिया है कि अतिथि को देवता मानने का जमाना लद चुका है। वैसे यह भी हकीकत है कि अब तो साधु-संतों और भगवाधारियों को ईश्वर का दूत मानने में भी संकोच होने लगा है। पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह से कुछ धर्मगुरुओं का शैतानी चेहरा सामने आया है उससे जन आस्था भी बुरी तरह से आहत हुई है। साधु और शैतान में फर्क तलाश कर पाना टेढी खीर हो गया है। अपने ही देश की माटी के कई तथाकथित संन्यासियों से धोखा खाने और उनसे मोहभंग हो जाने के बाद देशवासी तो काफी हद तक सतर्क हो चुके हैं, पर इस देश को चलाने वालों के जागने का इंतजार है। चीन हिं‍दुस्तान का कैसा पडौसी है यह लिखने और बताने की जरूरत नहीं है। अगर करमापा चीन का भेजा हुआ कोई गुप्तचर है तो उससे भारत माता के प्रति वफादारी की उम्मीद करना बेवकूफी ही होगी। तो फिर ऐसों को देश में शरण देने और उनकी मेहमाननवाजी का एक ही मतलब है... देश के साथ धोखाधडी।

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