Thursday, February 10, 2011

उत्सव और उत्सव

उत्सव शर्मा को कई लोग सनकी कहते हैं। पागल और बेवकूफ कहने वालों की भी कमी नहीं है...। वह अनपढ नहीं है। पढा-लिखा है। पर उसकी हरकतें उसे जेल की सैर करा चुकी हैं। अपनी करनी पर अफसोस जताना भी उसे कतई गवारा नहीं है। वह कहता है अगर हालात ऐसे ही रहे तो वह नहीं बदलेगा। उसका आक्रोश कानून की अनदेखी कर किसी भी हद तक जा सकता है। देश की व्यवस्था के प्रति उसके मन में जो रोष भरा पडा है उसी का ही नतीजा है कि उसने गाजियाबाद अदालत परिसर में डॉ. राजेश तलवार पर अचानक हमला कर लोगों को चौंकने और सोचने पर विवश कर दिया। इससे पहले उत्सव हरियाणा के पूर्व डीजीपी राठौर पर भी हमला कर चुका है। जवानी के जोश से लबालब उत्सव का मानना है कि डॉ. तलवार और राठौर दोनों मुजरिम हैं। हत्यारे हैं। डॉ. तलवार के हाथ अपनी बेटी आरुषि के खून से रंगे हैं तो राठौर ने रुचिका को मौत को गले लगाने के लिए विवश किया। हमारे देश का कानून दोनों का कुछ भी नहीं बिगाड पाया। अपने रुतबे, रसूख और दौलत के दम पर कई अपराधी बडी आसानी से बच निकलते हैं। जिनके पास यह सब कुछ नहीं होता वे बडी आसानी से सजा के हकदार हो जाते हैं। कानून की इस कमजोरी से खफा होकर अपनी खीज, झुंझलाहट और गुस्से का इजहार करने वाले युवक उत्सव शर्मा के बारे में तो लोगों ने जान लिया पर न जाने और भी कितने उत्सव हैं जो व्यवस्था से नाखुश हैं। वे अभी तक खामोश हैं। कानून को हाथ में लेना उन्हें नहीं सुहाता। पर जब बर्दाश्त करने की ताकत ही खत्म हो जाए तो एक अच्छे भले इंसान को उत्सव शर्मा बनने में कितनी देरी लगती है? एक अकेले उत्सव को सनकी, पागल और सिरफिरा कह कर जेल में डाला जा सकता है पर जब असंख्य उत्सवों का सडकों पर उतर आने का खतरा मंडरा रहा हो तो...? यह खतरा अब ज्यादा दूर नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली हो या देश के अन्य शहर-कस्बे हर कहीं नारियों पर होने वाले अत्याचारों में इजाफा होता चला जा रहा है। हत्या, व्याभिचार और बलात्कार तो रोज हो रहे हैं पर नाम मात्र की खबरें राष्ट्रीय मुद्दा बन पाती हैं। दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में बच्चियों और युवतियों के साथ चौबीस घंटे ऐसा बहुत कुछ घटता रहता है जो किसी भी संवेदनशील इंसान के खून में उबाल ला सकता है। खादी में नेता और खाकी में पुलिस वाले इतने अपराध कर चुके हैं कि आम लोग इन पर विश्वास करने में कतराने लगे हैं। आम आदमी यह भी मानने लगा है कि वर्तमान राजनीति और राजनेता छल, कपट और फरेब के पर्यायवाची बनकर रह गये हैं। इनके रहते देश का भला होने वाला नहीं है। हालात सुधरेंगे नहीं और बिगडेंगे। जिन्हें देश की चिं‍ता है वे पूरी तरह से बदलाव के इच्छुक हैं। उन्हें आज फिर एक जयप्रकाश नारायण का इंतजार है जो सत्ता का कतई भूखा न हो।इन सत्ता के चटोरों और लुटेरों ने तो देश को कहीं का नहीं रखा। जहां देखो वहां भ्रष्टाचार, अनाचार और व्याभिचार...। समाज में खुलेआम विचरण कर रहे दरिंदों से हर कोई परेशान है। अखबार भी शर्मिंदगी महसूस करने लगे हैं। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जब बलात्कार की खबरें न आती हों। ऐसे युवकों की संख्या में लगातार इजाफा होता चला जा रहा है जिनके लिए मौजमस्ती ही जीवन का एकमात्र मकसद है। इनकी वहशी हरकतें बताती हैं कि इनके लिए दूसरों की मां-बहनें महज भोग विलास की वस्तु हैं। स्कूल, कॉलेजों और घरों में ही बच्चियों की अस्मत लुटने लगी है। नौकरी करने वाली युवतियों और महिलाओं का तो भगवान ही मालिक है। पिछले दिनों कानपुर में एक दस वर्षीय बच्ची पर स्कूल में ही बलात्कार हो गया। स्कूल प्रशासन अंधा और बहरा बना रहा। बच्ची की अस्पताल में मौत हो गयी। ऐसी कितनी ही मौतें रोज होती हैं पर किसी को कोई फर्क नहीं पडता। फर्क पडे भी क्यों... यहां तो मंत्री से संत्री तक लगभग सभी एक ही रंग में रंगे हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती का राज है। उनके राज में अराजक तत्वों की तो छोडि‍ए विधायक तक बलात्कार करने से नहीं चूक रहे हैं। विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी को जनता ने जनप्रतिनिधि का ताज पहनाया पर वह तो अबलाओं की आबरू पर ही हाथ डालने लगा। जब पकडा गया तो मर्दानगी धरी की धरी रह गयी। कहने लगा कि मैं तो नामर्द हूं...। ऐसे हैं जनता के यह सेवक। झूठे, मक्कार और ढोंगी। ऐसे में कैसे और क्यों इन पर भरोसा किया जाए? इन्हीं की देखा-देखी पुलिस भी अपना ईमान-धर्म बेच चुकी है और व्याभिचारियों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गयी है।उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश की राजधानी दिल्ली के भी बडे बुरे हाल हैं। शीला दीक्षित के हाथ में दिल्ली की सत्ता है पर महिलाएं यहां भी खून के आंसू रोने को विवश हैं। शीला दीक्षित तो बलात्कार के लिए कहीं न कहीं महिलाओं को भी दोषी मानती हैं। तभी तो वे यह कहने में भी संकोच नहीं करतीं कि महिलाओं को समय देखकर घर से बाहर निकलना चाहिए। जिस देश और प्रदेश के शासक ही लुंज-पुंज हों वहां बलात्कारी, भ्रष्टाचारी और तमाम किस्म के अनाचारियों के पनपने पर आश्चर्य करने की कोई गुंजाइश ही कहां बचती है। इस देश का आम आदमी बेवकूफ कतई नहीं है। उसका राजनीतिज्ञों पर से भरोसा उठ चुका है। सत्ताधीशों की दगाबाजी और कमीनगी के चलते उसका गुस्सा संभाले नहीं संभल पा रहा है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जमाने से शुरू हुआ भ्रष्टाचार सारी हदें पार कर चुका है। दिनों-दिन लूट खसोट के आंकडे बढते ही चले जा रहे हैं। किसी भी माई के लाल में दम नहीं दिखता जो भ्रष्टाचारियों और अनाचारियों का गला दबोच सके। कहीं कोई राजनीति का सपेरा कॉमनवेल्थ की आड में अरबों की डकैती करता है तो कोई टू जी स्पेक्ट्रम में अपने हाथ काले कर देश के माथे पर कलंक लगाता है। देश की राजनीति इतनी ओछी और गंदी हो गयी है कि सच्चे और अच्छे लोग राजनीति में आने से डरते हैं। इस घोर अविश्वास के दौर में अब तो और भी बहुतेरे उत्सवों के सडक पर उतरने के संकेत दिखायी देने लगे हैं...।

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