Thursday, March 24, 2011
यह फर्ज हमें निभाना है...
यकीनन ऐसे लोगों की तादाद बहुत ज्यादा है जो यह मानते हैं कि शरीफ आदमी को पुलिस वालों से दूरी ही बना कर रखनी चाहिए। पर क्या वाकई यह धारणा उचित है? इस धारणा के वशीभूत होकर कहीं हम समाज और देश का नुकसान तो नहीं कर रहे?महाराष्ट्र के प्रगतिशील कहे जाने वाले शहर नागपुर में बीते दिनों एक इंजिनियरिंग छात्रा की दिन दहाडे हत्या कर दी गयी। मोनिका किरनापुरे नामक यह छात्रा सुबह साढे दस बजे कॉलेज के समीप पहुंची ही थी कि धारदार हथियार से वार कर उसे सडक पर ढेर कर दिया गया। अज्ञात हत्यारे अपना काम कर भाग खडे हुए। मोनिका की जिस जगह पर निर्मम हत्या की गयी वहां अच्छी खासी चहल-पहल थी। लोग आ-जा रहे थे। हथियार से घायल हुई मोनिका काफी देर तक सडक पर बिलखती और तडपती रही। लोग आते-जाते रहे। आखिरकार मोनिका ने अपने प्राण त्याग दिये। दूसरे दिन अखबारों में खबर छपी। एक और हत्या में इजाफा हुआ। पुलिस वाले हत्यारों को पकडने के अभियान में जुट गये। पर जब दस दिन बीतने के बाद भी पुलिस के हाथ कोई सुराग नहीं लगा तो पुलिस पर निष्क्रियता के आरोप लगने लगे। महाराष्ट्र सरकार ने हत्यारों की जानकारी देने की ऐवज में एक लाख रुपया का ईनाम देने की घोषणा कर दी। मोनिका के माता-पिता शहर के विभिन्न नेताओं से मिले। विधायकों और मंत्रियों के दरवाजे पर पहुंच कर बेटी के हत्यारे को तुरंत पकडने की गुहार लगायी। सभी तरफ से आश्वासन मिले। बेचारे मां-बाप एवं परिवार के अन्य सदस्य उस जगह पर भी पहुंचे जहां पर उनकी दुलारी बिटिया की नृशंस हत्या कर दी गयी थी। उनका यहां पर पहुंचने का एक मकसद यह भी था कि हो सकता है किसी को उन पर दया आ जाए, उसकी सोयी हुई आत्मा जाग जाए, और वह हत्यारों का नाम-पता या और कोई खोज खबर उजागर कर दे। घटनास्थल पर पूरा परिवार फूट-फूट कर रोया। फूल अर्पित कर पूजा-अर्चना की गयी। अथाह दु:ख में डूबे मोनिका के परिजनों को विलाप करते देख पत्थर से पत्थर इंसान का दिल पसीज गया। आसपास भी‹ड बढती चली गयी। लोग दिलासा भी देते रहे कि हत्यारे जल्द पकडे जाएंगे। लोगों की सांत्वना ने मोनिका के परिजनों पर कोई असर नहीं डाला। मोनिका की मां को तडपते और सिर पटक-पटक कर रोते देख आसपास रहने वाला कोई शख्स पानी का गिलास ले आया। आंसुओं के समुंदर में डूबी मां ने पानी पीने से इंकार करते हुए अपनी भडास निकाल ही दी-'तब तुम लोग कहां थे जब मेरी बेटी यहीं पर खून से तर-बतर कराह रही थी... पानी... पानी चिल्ला रही थी पर तुम में से कोई भी उसे पानी देने के लिए नहीं आया। सब तमाशा देखते रहे!'अपनी बेटी को खो चुकी मां हत्या स्थल के निकट रहने वाले नागरिकों से खुल कर सामने आने और बेखौफ सच बताने की फरियाद करती रही। उसने यह भी कहा कि आज मेरी बेटी की हत्या हुई है और अगर आप लोग इसी तरह से चुप्पी ओढे रहे तो कल किसी और की बेटी को भी निशाना बनाया जा सकता है। नागपुर के पुलिस कमिश्नर ने भी प्रत्यक्षदर्शियों को अपनी चुप्पी तोडने की अपील की। अपराधियों के आतंक के भय से हर कोई सहमा हुआ था। अधिकांश नागरिक यह धारणा बना चुके हैं कि अराजक तत्व अक्सर पुलिस पर भारी पड जाते हैं। उनके खिलाफ गवाही देना मौत को निमंत्रण देना है। कई पुलिस वालों की गुंडे-बदमाशों से यारी भी कोई नयी बात नहीं है। मोनिका की हत्या के तेरह दिन बाद अंतत: पुलिस विभाग को जनता से यह अनुरोध करना पडा कि ई-मेल एसएमएस से हत्यारे का सुराग दें। हत्यारे को पकडने के लिए और भी कई नये तरीके अपनाये गये। जनता का मनोबल बढाया गया पर यह पंक्तियां लिखे जाने तक हत्यारों का कोई अता-पता नहीं चल पाया था। लोगों के मन में यकीनन यह बात घर कर चुकी है कि वक्त पडने पर पुलिस उन्हें सुरक्षा प्रदान नहीं कर सकती। हत्यारों, बलात्कारियों और तमाम अपराधियों के सामने पुलिस बौनी है। यह दुर्दशा केवल नागपुर भर की नहीं है। दिल्ली, मुंबई, सूरत, अहमदाबाद, बैंगलूरू आदि...आदि तमाम महानगर इस गंभीर समस्या की गिरफ्त में हैं। सरे बाजार हत्या और बलात्कार हो जाते हैं और कोई माई का लाल सामने आकर गवाही देने की हिम्मत नहीं दिखाता। न जाने कितनी मोनिकाएं हत्यारों के हाथों खत्म कर दी जाती है और कोई सुराग नहीं मिल पाता। दरअसल हर नागरिक इस भ्रम में रहता है कि वह तो सुरक्षित है। उसके परिवार की बहू-बेटी के साथ तो ऐसा कुछ भी नहीं होगा और जब हो जाता है तो उसके पैरों तले की जमीन खिसक जाती है।नगरों-महानगरों में रहने वाले नागरिक मशीनी जीवन जीते-जीते खुद भी मशीन बनकर रह गये हैं। वे हद दर्जे के संवेदनहीन और स्वार्थी होते चले जा रहे हैं। उन्हें तो बस अपनी चमडी और दमडी की चिंता रहती है। तभी तो भरे बाजार हत्याएं हो जाती हैं। बलात्कार हो जाते हैं। लोग आंखें मींचे आगे बढ जाते हैं। लोग पुलिस की चक्करबाजी से बचना चाहते हैं। दरअसल कई भुक्तभोगी निराशा और हताशा के शिकार हो चुके हैं। जिन्होंने कभी सामने आने की हिम्मत दिखायी और डटे रहे उनके अनुभव और परिणाम भी ज्यादा अच्छे नहीं रहे। उन्हें तरह-तरह की तकलीफें झेलनी पडीं। कानून भी उनका रक्षा कवच नहीं बन पाया। तय है कि यह जो हालात हैं उन्हें किसी भी सूरत में अच्छा नहीं कहा जा सकता। पर हम और आप यह क्यों भूल गये हैं कि चुप्पी, खामोशी और तटस्थता अपराधियों के हौसले बढाती है। माना कि सच की लडाई लडने में कई तकलीफें झेलनी पडी हों पुलिस और अदालत की भागदौड में पसीना बहाया गया हो पर इसका अर्थ यह तो नहीं हम गुंडे-बदमाशों को मनमानी करने की छूट दे दें और अपनी मां-बहनों की हत्याएं करने और इज्जत लूटने के लिए खुला छोड दें? पुलिसवाले भी इंसान हैं। सभी बुरे नहीं हैं, कुछ अच्छे भी तो हैं। हमें उनकी निष्ठा पर संदेह जताने का कोई अधिकार नहीं है। जो लोग देश और समाज के शत्रु हैं उनकी असली जगह जेल है। उन्हें जेल पहुंचाने का फर्ज हम सबको हर हाल में निभाना है...।
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