Thursday, July 28, 2011

धोखेबाजों की गिरफ्त में छटपटाता देश

राष्ट्रमंडल खेलों में अरबों-खरबों के वारे-न्यारे करने के आरोपी सुरेश कलमाडी के बारे में एक अजब-गजब जानकारी आयी है कि उन्हें भूल जाने की बीमारी है। वैसे अभी तक नेताओं को लपेटे में लेने वाली कई तरह की बीमारियों के बारे में सुना और जाना जाता था पर स्मृतिलोप नामक यह नयी बीमारी अचंभित कर देने वाली है। यह बीमारी इंसान को भुलक्कड बना देती है। कलमाडी के परिजनों का कहना है कि यह उनकी पुरानी बीमारी है।अभी तक तो हम यही सुनते आये थे कि नेताओं की स्मरण शक्ति लाजवाब होती है पर यहां तो उल्टा हो गया! खिलाडि‍यों के खिलाडी के घरवालों का यह भी कहना है कि कलमाडी कई बार तो कल का खाया-पिया भी याद नहीं रख पाते। इस अजूबी खबर को जिसने भी सुना वह हैरान होने के बजाय भ्रष्ट नेताओं की कौम को कोसता नजर आया। खुद को बचाने के लिए ये लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। अपने यहां वैसे भी ऐसे-ऐसे महंगे वकीलों की अच्छी-खासी तादाद है जो अपने मुवक्किल को पाक-साफ दर्शाने के लिए तरह-तरह की तरकीबें खोजते रहते हैं। तय है कि जेठमालानी टाइप के किसी वकील ने अपना दिमाग लडाया है और भ्रष्टाचारी की याददाश्त खो जाने की खूबसूरत कहानी गढ कर पेश कर दी है। पर अब देशवासी ऐसी कहानियों पर कतई यकीन नहीं करते। कानून की आंख में धूल झोंकने के लिए गढी गयी इस कहानी ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि इस मुल्क के नेता आम जनता को बेवकूफ बनाने के लिए नये-नये बहाने और तरीके तलाशने में कोई कसर नहीं छोडते। यह लोग अक्सर कामयाब भी हो जाते हैं। दरअसल इनका कोई ईमानधर्म ही नहीं है। अब टू जी स्पैक्ट्रम घोटाले में जेल की हवा खा रहे पूर्व दूरसंचार मंत्री की याददाश्त वापिस लौट आयी है। वे चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि मैंने जो कुछ भी किया उसकी पूरी जानकारी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम को थी। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग कर डाली है। यह बात दीगर है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा से इस्तीफा लेने में उनका पसीना छूट गया। कांग्रेस के एक नेता मणिशंकर अय्यर की निगाह में कांग्रेस पार्टी एक सर्कस है। परंतु सजग देशवासियों को हर राजनीतिक पार्टी के रंग-ढंग सर्कस जैसे नजर आते हैं। इस सर्कस में जोकर भी हैं और लुटेरे भी जिन्होंने देश का तमाशा बनाकर रख दिया है। इनके बेशर्म तमाशों से उकता कर अदालत को हंटर उठाने को विवश होना पड रहा है। क्या यह सरकार के लिए शर्म की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट को उसे बार-बार फटकार लगानी पडती है और उसके बाद ही वह जागती है। २२ अगस्त २००८ के दिन कैश फॉर वोट कांड का मामला सामने आया था। इस संगीन मामले को दबाने के भरसक प्रयास किये गये। सरकार ने तो आंखें ही मूंद ली थीं। पर कोर्ट की लताड के बाद हलचल शुरू हो पायी। सत्ता के दलाल अमर सिं‍ह कटघरे में हैं। अमर सिं‍ह ही खरीद फरोख्त और लेन-देन की असली कडी थे। पाठक मित्रों को याद होगा कि अमेरिका से एटमी करार के मुद्दे पर वाम मोर्चा के साठ सांसदों ने मनमोहन सरकार से जब समर्थन वापस ले लिया था तब सरकार की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी थी। यदि उस संकट के समय समाजवादी पार्टी और कुछ अन्य छोटे दल समर्थन नहीं देते तो सरकार धराशायी हो जाती। तब भाजपा के तीन सांसदो ने लोकसभा में विश्वास मत से ठीक पहले एक करोड रुपयों की नोटों की गड्डियां लहराते हुए धमाका किया था कि उन्हें गैरहाजिर रहने के लिए यह नोट दिये गये हैं। यह एक तरह से लोकतंत्र की हत्या का मामला था। हत्यारों में अमर सिं‍ह के साथ-साथ सोनिया गांधी के खासमखास अहमद पटेल ने भी सुर्खियां बटोरी थीं। पर धीरे-धीरे शोर थम गया और राजनीति के दलाल दूसरे कामों में लग गये। इस तरह के और भी कई मामले हैं जिन्हें नेताओं ने मीडिया को खुश करते हुए आसानी से दबाकर रख दिया है। कैश फार वोट के मामले में यदि मीडिया का एक वर्ग अपना जमीर नहीं बेचता तो इसका तभी पर्दाफाश हो जाता। पर जहां चोर-चोर मौसेरे भाइयों का वर्चस्व हो वहां सच्चाई के सामने आने की उम्मीद रखना खुद को धोखा देने से ज्यादा और कुछ नहीं है। ऐसे में अगर यह कहा जाए कि हमारा मुल्क धोखेबाजों की गिरफ्त में छटपटा रहा है तो गलत नहीं होगा।

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