Thursday, July 14, 2011

हादसे, दुर्घटनाएं और साजिशें

जिस तरह से यह देश राम भरोसे चल रहा है वैसे ही हाल भारतीय रेल के हैं। दौडते-दौडते कब-कोई ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। बीते रविवार को दो रेल हादसे हो गये। हावडा से दिल्ली आ रही कालका मेल उत्तरप्रदेश के फतेहपुर में मलवां स्टेशन के निकट दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। दूसरी तरफ असम में गुवाहटी-पुरी एक्सप्रेस के छह कोच और इंजन पटरी से उतर गये। इस हादसे में लगभग १०० लोग घायल हुए। कालका मेल के पटरी से उतरने के कारण अस्सी से अधिक यात्रियों को जान गंवानी पडी और तीन सौ से ज्यादा यात्री घायल हुए। देश के हुक्मरानों के लिए ऐसी दर्दनाक दुर्घटनाएं कोई मायने नहीं रखतीं। उनके लिए यह आम बात है। हर दुर्घटना के बाद वे अपना फर्ज निभा देते हैं। मृतकों के परिवारों को कुछ लाख रुपये और घायलों को पच्चीस-पचास हजार पकडाकर चैन की नींद सो जाते हैं। भारतीय रेल की बदौलत सरकार के खजाने में अपार धन बरसता है पर यह धन पता नहीं कहां चला जाता है? अगर इस धन का सदुपयोग किया जा रहा होता तो रेल यात्रियों को बुनियादी सुविधाओं के लिए न तरसना पडता। सुविधाओं की जगह यातनाएं और मौत बांटने वाले रेलवे के कर्ताधर्ता आखिर हादसों से सबक क्यों नहीं लेते? लोगों की बेशकीमती जान चली जाती है और यह चंद सिक्के फेंककर ऐसे चलते बनते हैं जैसे किसी भिखारी को दान दे रहे हों! यह शर्मनाक सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है। देश में जहां-तहां रेल दुर्घटनाएं होती रहती हैं। शोर मचता है। रेल मंत्रालय की तरफ से दुर्घटना के पीछे के कारणों की जांच कराये जाने की घोषणा होती है। पर जांच कभी नहीं होती। घोषणावीर जानते हैं कि जांच करवायेंगे तो खुद ही नंगे नजर आयेंगे। यही हैं जो देशवासियों को सपने दिखाते हैं कि शीघ्र ही भारत वर्ष में भी चीन और जापान की तरह ढाई से तीन सौ किलो मीटर की रफ्तार से दौडने वाली रेलगाडि‍यां नजर आयेंगी। इनसे कोई यह तो कहे कि सपनों के सौदागरों पहले सौ किलोमीटर की रफ्तार को तो संभालो फिर बाद में चीन और जापान के सपने दिखाना।नये रेलमंत्री गद्दी संभालते ही देशवासियों को यह बताना नहीं भूले कि रेल दुर्घटनाएं तो अमेरिका और यूरोप में भी होती रहती हैं। यानी ऐसे में अगर भारत में हो रही हैं तो कौन-सा तूफान टूट पडा है। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी के पिट्ठू दिनेश त्रिवेदी रेलमंत्री के रूप में क्या गुल खिलायेंगे उसका अंदाजा उनके उपरोक्त बयान से सहज ही लगाया जा सकता है। वैसे भी रेलमंत्री का पद अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने और माल कमाने का सहज ठिकाना है। जो भी नेता रेलमंत्री बनता है उसे देश की चिं‍ता कम और अपने प्रदेश की चिं‍ता ज्यादा रहती है। लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और ममता बनर्जी जैसों का रेलमंत्री के रूप में किया गया कामकाज इसका गवाह है। होना तो यह चाहिए था कि देश की इस सबसे बडी यातायात सेवा पर देशवासी नाज करते। पर रेलवे को तो राजनीतिक हितों के हवाले कर दिया गया है। जो भी आता है अपने हिसाब से इसका दोहन कर चलता बनता है। किसी भी रेल मंत्री ने आंखें खोलकर हकीकत से रूबरू होने की कोशिश नहीं की। रेलवे की आधी से अधिक पटरियां इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उन्हें कबाडखाने के हवाले कर दिया जाना चाहिए। अनेकों पुल भी ऐसे हैं जिनके समीप पहुंचते ही रेल के ड्राइवरों का संभावित खतरे के भय के मारे पसीना छूटने लगता है। यह जर्जर पुल कभी भी धोखा दे सकते हैं। देश भर में ऐसे रेल फाटकों की संख्या लगभग बीस हजार के आसपास होगी जहां पर चौकीदारों की नियुक्ति नहीं की गयी है। ऐसे अंधे स्थानों पर अंधाधुंध दुर्घटनाएं होती रहती हैं और रेल मंत्रालय धन की कमी का रोना रोता रहता है और रेल मंत्री मौज मनाते रहते हैं। दरअसल मंत्रियों और नौकरशाहों की जमात इतने संवेदनहीन हो चुकी है कि उन पर बडी से बडी दुर्घटना कोई असर नहीं डालती। हर बार जब रेलवे का बजट बनता है तो नयी-नयी गाडि‍यां चलाने की घोषणा करने में कोई भी रेलमंत्री पीछे नहीं रहता, लेकिन वर्षों से सिर ताने खडी मूलभूत समस्याओं की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। पटरियों पर होने वाली टक्कर को रोकने के लिए टक्कर रोधी उपकरण लगाने की पहल करना किसी भी रेलमंत्री ने जरूरी नही समझा।मंत्रीजी को तो दुर्घटनाओं में मर-खप जाने वालों के परिवारों को मुआवजा राशि थमा कर शांत कर देने का चलन फायदे का सौदा नजर आता है। यात्रियों को बुलेट ट्रेन मुहैय्या कराने के सपने दिखाने वालों की पोल कालका मेल हादसे ने पूरी तरह से खोल कर रख दी हैं। रेलवे विभाग के पास दुर्घटनाग्रस्त हुई ट्रेन के डिब्बों में फंसे यात्रियों तक पहुंचने, डिब्बों की दिवारों को काटकर फंसे हुए यात्रियों को बाहर लाने के लिए पर्याप्त संख्या में गैस कटर तक नहीं थे। यही वजह थी कि कई यात्री जिन्हें बचाया जा सकता है देखते ही देखते मौत के चंगुल में जा फंसे। अगर गैस कटर होते तो मौत के आकडे को कम किया जा सकता था। गैस कटर कोई ऐसी कीमती चीज नहीं है कि जिन्हें भारतीय रेलवे खरीदने की औकात न रखता हो। यही हाल अन्य सहायता सुविधाओं का भी है। दुर्घटना घट जाती है तो रेलवे की सहायता ट्रेनों का अता-पता नहीं रहता। कालका मेल की दुर्घटना के शिकारों को जिन सरकारी अस्पतालों में भर्ती कराया गया वहां पर बुनियादी सुविधाएं ही नदारद थीं। कुछ घायल तो अस्पताल में ही चोरों के शिकार हो गये। सरकार ने जो सहायता राशि दी थी उसे ही उडा लिया गया। कई घायलों को सरकारी अस्पतालों को छोड प्रायवेट अस्पतालों की शरण लेनी पडी। अस्पताल में राहुल गांधी के पहुंचने की खबर सुनकर बिस्तरों पर धुली हुई चादरें बिछायी गयीं। एक घायल पर तो पंखा जा गिरा। सरकारी अस्पतालों के लिए यह रोजमर्रा का खेल है। जब सरकार ही नकारा हो तो सुधार की अपेक्षा रखना बेवकूफी से ज्यादा और कुछ नहीं है। कमजोर और निकम्मी सरकारें ही हादसों को निमंत्रण देती हैं और इन्हीं के कारण पडोसी देश पाकिस्तान के पाले-पोसे आतंकवादी बेखोफ बम बारुद बिछाकर निर्दोष भारतवासियों का खून बहाने से नहीं हिचकिचाते।

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